माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार | पाठ्यक्रम में सुधार | मूल्यांकन प्रणाली में सुधार | परीक्षा प्रणाली में दोष | परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए सुझाव
(a) सैकेण्डरी शिक्षा में पाठ्यक्रम के सन्दर्भ सुधार के लिए सुझाव
पाठ्यक्रम लेटिन भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है मार्ग या रास्ता जो व्यक्ति अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपनाता है। इस प्रकार पाठ्यक्रम निर्देशात्मक एवं शिक्षाप्रद कार्यक्रम है जिसके द्वारा विद्यार्थी अपने लक्ष्य, आदर्श एवं जीवन की आकांक्षाएं प्राप्त कर सकते हैं।
पिछले कुछ वर्षों से पाठ्यक्रम अनुभवों की सम्पूर्णता को शामिल कर रहा है जो एक विद्यार्थी स्कूल मे कक्षा में, पुस्तकालय में, प्रयोगशाला में, कार्यशाला में, खेल के मैदान में और अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के बीच होने वाले बहुत से अनियोजित सम्पर्को के दौरान होने वाली बहु-आयामी गतिविधियों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। इस प्रकार स्कूल शिक्षा का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम बन जाता है जो विद्यार्थियों के जीवन को सभी बिन्दुओं पर स्पर्श करता है एवं एक सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। करिने एवं कुक अनुसार (Kearney and Cook) यह न्यूनाधिक योजनाबद्ध एवं नियन्त्रित स्थिति का मिश्रण है जिसके अधीन विद्यार्थी अपने विभिन्न तरीकों से व्यवहार करना सीखता है। इसमें व्यवहार के नए तरीके प्राप्त किए जा सकते हैं, वर्तमान व्यवहार को संशोधित किया जा सकता है, बनाए रखा जा सकता है अथवा हटाया जा सकता है और वांछित व्यवहार मजबूत एवं व्यावहारिक बन सकता है।
पाठ्यक्रम का सम्पर्क वास्तविक जीवन की समस्याओं से होना चाहिए जिनका बच्चों के लिए अर्थ हो और जो सुलझानी उनके लिए महत्त्वपूर्ण हों। यह बच्चों की शारीरिक, भावनात्मक एवं बौद्धिक जरूरतों से सम्बन्धित होना चाहिए और इसे बच्चे का सम्पूर्ण विकास करना चाहिए।
पाठ्यक्रम बनाते समय श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित बातों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए-
(1) पाठ्यक्रम बच्चों पर केन्द्रित होना चाहिए।
(2) इसे स्वीकार्य सिद्धान्तों एवं मूल्यों के ढांचे के अन्तर्गत लचक लाने का प्रावधान करना चाहिए।
(3) यह तर्कपूर्ण दृष्टिकोण को विकसित करने के योग्य होना चाहिए।
(4) इसे बच्चों के लिए सम्पूर्ण अनुभव प्रदान करने चाहिएँ ।
(5) इसे सामाजिक रूप से लाभदायक एवं उत्पादक कार्यों का प्रावधान करना चाहिए।
(6) यह लोगों के जीवन की जरूरतों एवं ऊँची इच्छाओं से सम्बन्धित होना चाहिए।
(7) भाषाओं के अध्ययन के लिए इसे पर्याप्त प्रावधान करना चाहिए।
(8) इसे चरित्र निर्माण एवं मानवीय मूल्यों के लिए अवसर प्रदान करने चाहिएँ।
(9) यह सामाजिक न्याय, प्रजातान्त्रिक मूल्यों एवं तर्कपूर्ण एकीकरण को विकसित करने में समर्थ होना चाहिए।
(10) सम्पूर्ण कार्यक्रम में निरन्तरता के लिए इसे अवसर प्रदान करना चाहिए।
(11) इसे कलात्मक अनुभवों एवं कथनों के लिए प्रबन्ध करना चाहिए ।
(12) इसे एकरूपता एवं विविधता दोनों के लिए अवसर प्रदान करने चाहिएँ।
(13) इसे शारीरिक विकास के लिए प्रबन्ध करना चाहिए।
(14) यह भली-भाँति एकीकृत होना चाहिए।
(15) इसे सीखने के लिए जीने की अपेक्षा जीने के लिए सीखने पर बल देना चाहिए।
साथ ही बच्चे की ओर भी उचित ध्यान दिया जाना चाहिए। बच्चा शिक्षा के दूसरे चरण सैकण्डरी शिक्षा में प्रवेश कर रहा है, वह युवावस्था के संकटपूर्ण दौर में से गुजर रहा है। इसको नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए और इस प्रकार पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय विशेष रूप से इस उम्र के विद्यार्थियों के लिए कुछ निश्चित तत्त्वों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
सकारात्मक युवा विकास (Positive Youth Development) का उचित ध्यान रखना चाहिए। यह युवा वर्ग को सकारात्मक सामाजिक व्यवहार जैसा कि आत्म-अनुशासन, जिम्मेवारी, अच्छा सुनियोजन एवं दूसरों के साथ रहने आदि विकसित करने में सहायता करेगा। दूसरा, यह युवा बच्चों को अपने परिवारों, स्कूलों. सकारात्मक रईसों एवं समुदायों के साथ सुदृढ़ प्रतिज्ञाएं जिनमें स्वस्थ एवं नशा मुक्त जीवन जीने की प्रतिज्ञ भी शामिल हो, को विकसित करने में सहायता करेगा।
(b) सैकेण्डरी शिक्षा में मूल्यांकन के सन्दर्भ सुधार के लिए सुझाव
(Suggestions for Improving Evaluation at Secodnary Education)
मूल्यांकन का अर्थ है शुद्धिकरण परीक्षा, मूल्यों का अनुमान यह देखने के लिए कि क्या उद्देश्य प्राप्त किए गए हैं अथवा नहीं। बच्चों के लिए यह उद्देश्य तैयार कौन करता है ? उत्तर है अध्यापक । विद्यार्थियों का मूल्यांकन शुरू करने से पहले विद्यार्थियों के लिए बनाए गए उद्देश्यों के मूल्य अनुमान की आवश्यकता है। क्या ये उद्देश्य प्रबल शासन से प्रतिबन्धित हैं अथवा यह बच्चे के सम्पूर्ण विकास पर केन्द्रित हैं ? सम्पूर्ण विकास में शारीरिक विकास,जानने योग्य विकास, सामाजिक-भावनात्मक, आध्यात्मिक एवं भाषा विकास आदि शामिल हैं।
परीक्षा प्रणाली में दोष
(Defects in Examination System)
वी. वी. जॉहन के शब्दों में, “हमारी परीक्षाओं की श्रेष्ठता में केवल तीन क्षमताएं हैं-विद्यार्थी की स्मरण शक्ति, उसका प्रकटीकरण और कई बार उसका फैसला। तीन गुण विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं में बदलते हुए स्तरों में महत्त्वपूर्ण हैं । माध्यमिक विद्यालय स्तर पर आज की अधिकतर परीक्षाओं में जो हम देखते हैं वह विद्यार्थी की स्मरण शक्ति एवं प्रकटीकरण की शक्ति है न कि उसका फैसला। वास्तव में यदि विद्यार्थी अपने विचार निर्माण की कोई क्षमता प्रकट करता है, अधिकतर परीक्षक इसे ढिठाई मान लेंगे।”
इस प्रकार, वर्तमान शिक्षा प्रणाली को व्यक्ति की क्षमताओं की सच्ची परीक्षा नहीं स्वीकारा जा सकता है और माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास होना चाहिए न केवल निर्धारित परीक्षा पास करना। लेकिन यह भी सच है कि परीक्षा की प्रणाली जिसका लक्ष्य विद्यार्थियों के सम्बन्धित गुणों के आधार पर विद्यार्थियों का वर्गीकरण करना है, विद्यार्थियों की प्रगति में सहायक नहीं हो सकती। इसलिये मूल्यांकन प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता है। वास्तव में, विद्यार्थियों की समर्थताएं एवं कुशलता का निर्णय उनके पूरे साल के कार्य एवं चरित्र द्वारा होना चाहिए। इसके लिए विद्यार्थी के काम का लेखा-जोखा रखा जाना चाहिए।
एक अच्छी मूल्यांकन योजना वह है जो व्यवहार के इच्छित परिवर्तन का वैध प्रमाण सुरक्षित कर सकती है। परिवर्तन के पूर्ण प्रमाण प्राप्त करने के लिए हम जितनी सम्भव हो उतनी योजनाओं का प्रयोग कर सकते हैं। उनमें से कुछ सामान्य योजनाएं निम्नलिखित हैं-
(i) मौखिक परीक्षा, (ii) लिखित परीक्षा, (ii) निरीक्षण, (iv) क्रियात्मक परीक्षा, (v) प्रश्नावलियां, (vi) विद्यार्थी उत्पादन, (vii) साक्षात्कार, (vii) रिकार्ड, (ix) पूरक- सूचियां ।
मूल्यांकन शैक्षणिक प्रक्रिया के सम्पूर्ण रूप से सुधार के लिए होता है । यह उद्देश्यों की प्रभावपूर्णता एवं सीखने के अनुभवों का निर्णय करता है और विद्यार्थियों तथा अध्यापकों दोनों के लिए मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।
मूल्यांकन विद्यार्थियों के व्यक्तित्व, उनकी रुचियों, रुझानों, उपलब्धियों, बुद्धिमत्ता और उनके शारीरिक भावनात्मक, सामाजिक एवं नैतिक विकास का निर्धारण करने में सहायता करता है।
सैकण्डरी शिक्षा में परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए सुझाव
(Suggestions for Improving the System of Examination in Secodnary Education)
विभिन्न आयोगों एवं कमेटियों द्वारा समय-समय पर परीक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए बहुत से सुझाव दिए गए हैं। उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं-
(1) स्कूल रिकार्डो को सम्भाल कर रखना-
विद्यार्थी की सम्पूर्ण प्रगति का पता लगाने के लिए, हर विद्यार्थी द्वारा समय-समय पर किए जाने वाले काम एवं विभिन्न क्षेत्रों में उसकी उपलब्धि को दिखाने वाले स्कूल रिकाडों की एक उचित प्रणाली बनाकर रखी जानी चाहिए।
(2) ग्रेडिंग प्रणाली-
बाह्य एवं आन्तरिक परीक्षाओं में मूल्यांकन एवं विद्यार्थियों के काम के वर्गीकरण के लिए तथा स्कूल रिकार्ड बनाए रखने के लिए अंकीय नम्बरों के स्थान पर प्रतीकारात्मक प्रणाली अपनायी जानी चाहिए। पाँच बिन्दुओं वाले पैमाने का प्रयोग किया जाना चाहिए जिसमें ‘A’ श्रेष्ठ के लिए, ‘B’ अच्छे के लिए ‘C’ ठीक एवं औसत के लिए, ‘D’ कमजोर के लिए एवं ‘E’ बहुत कमजोर के लिए होता है। इस प्रणाली में विद्यार्थियों का समूहीकरण एक विस्तृत विभाजन में है जो प्रतिशत दर्जे द्वारा दिखाए जाने वाले अन्तरों की अपेक्षा आसानी से देखे जा सकते हैं।
(3) प्रयोगात्मक स्कूलों की स्थापना-
स्कूल शिक्षा के राज्य बोर्ड द्वारा एक कमेटी बिठाई जानी चाहिए जो ऐसे स्कूलों के चुनाव के लिए सावधानीपूर्वक बनाया गया न्याय का स्तर विकसित करेगी। स्कूलों को अपना पाठ्यक्रम, अपनी पाठ्य-पुस्तकें बनाने एवं बिना बाहरी प्रतिबन्धों के शैक्षणिक गतिविधियों को करवाने की आज्ञा होनी चाहिए। इससे भी अधिक स्कूलों की सिफारिशों पर स्कूलों के राज्य बोर्ड द्वारा सफल विद्यार्थियों को प्रमाण पत्र दिए जाने चाहिएं।
(4) विषय-वस्तुगत तत्व को न्यूनतम करना-
विषय-वस्तु का तत्व जो वर्तमान समय में शुद्ध रूप से निबन्धात्मक परीक्षा में रोका नहीं जा सकता, को जहाँ तक सम्भव हो न्यूनतम किया जाना चाहिए। यह केवल उपलब्धि के वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को लाकर ही सम्भव हो सकता है।
(5) आन्तरिक जाँच के तरीके-
आन्तरिक जाँच के तरीके वर्णन करने वाले एवं मात्रात्मक होने चाहिएं। स्तरीय उपलब्धि परीक्षा के प्रयोग की जोरदार सिफारिश की जाती है। आन्तरिक जाँच को सुधारने के लिए अन्य प्रकार के मूल्यांकन औजार जैसा कि रूचि खोजक, रुझान परीक्षाएं एवं गति निर्धारण मापक हैं। ये विशेषज्ञों द्वारा तैयार किए जाने चाहिएं एवं सैकेण्डरी स्कूलों में उपलब्ध करवाएं जाने चाहिएं। इसके साथ ही, अध्यापकों को उनको प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
बाह्य एवं आन्तरिक दोनों जाँचों के परिणामों को इकट्ठा नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि दोनों मूल्यांकनों के उद्देश्य एवं तकनीकें अलग-अलग हैं।
(6) बाह्य परीक्षाओं में सुधार-
पेपर सेट करने वालों की तकनीकी योग्यता बढ़ाकर, प्रश्नों की प्रकृति में सुधार लाकर एवं अंकों के वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग करके बाह्य परीक्षाओं को सुधारा जाना चाहिए।
(7) मूल्यांकन मशीनरी-
केन्द्रीय एवं राज्य दोनों स्तरों पर मूल्यांकन कार्यक्रमों की देख-रेख के लिए निपुण मूल्यांकन मशीनरी होनी चाहिए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विद्यार्थियों की वृद्धि एवं विकास मूल्यांकन की निरन्तर प्रक्रिया द्वारा प्रभावपूर्ण ढंग से जांच एवं प्रशंसा की जा सकती है।
(8) अन्तिम मूल्यांकन का आधार-
यह पूरी तरह बाह्य परीक्षाओं के परिणमों पर निर्भर होना चाहिये। इसके लिये आन्तरिक सूचियों एवं विद्यार्थियों के स्कूल रिकार्डो को पूरा श्रेय मिलना चाहिये।
लगभग दो शताब्दियों पहले शिक्षा केवल सूचनात्मक थी। यह एक ऐसे घड़े के समान मानी जाती थी जिसमें अध्यापक अनुभव पर आधारित तथ्यों के लाभ’ डालता था। बुद्धि व्यक्तित्व के अन्य चरणों तक विकसित की जाती थी। बच्चे को शान्त एवं ग्रहणकर्ता बनकर रहना पड़ता था एवं अध्यापक तानाशाह। अधिकारात्मक अनुशासन बच्चे की सभी शुरुआतों को कुचल देता था। पाठ्यक्रम किताबी एवं कठोर होता था एवं परिणामस्वरूप बच्चे को इसके अनुसार समायोजित होना पड़ता था।
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