शिक्षाशास्त्र

माध्यमिक शिक्षा की समस्याएँ | माध्यमिक शिक्षा की समस्याओं का समाधान

माध्यमिक शिक्षा की समस्याएँ | माध्यमिक शिक्षा की समस्याओं का समाधान

Table of Contents

माध्यमिक शिक्षा की समस्यायें

(Problems of Secondary Education)

माध्यमिक शिक्षा की अनेक समस्यायें हमारे देश में विद्यमान हैं जो शिक्षा प्रगति में बाधा पहुंचा रही हैं। इनमें से प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित हैं-

(1) अनुपयुक्त पाठ्यक्रम-

माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम विद्यार्थियों की क्षमता, रुचि, आवश्यकता तथा जिज्ञासा के अनुरूप नहीं है । सभी छात्रों को निश्चित पाठ्यक्रम का अध्ययन करना पड़ता है। पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम के कारण छात्रों की व्यक्तिगत रुचियों, आवश्यकताओं तथा भावनाओं का उचित विकास नहीं हो पाता है। माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम जीवन से सम्बन्धित नहीं है, फलस्वरूप शिक्षोपरान्त छात्र सामाजिक जीवन से सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहते हैं।

(2) दोषयुक्त शिक्षण पद्धति-

माध्यमिक शिक्षा की शिक्षण पद्धति दोषयुक्त है। शिक्षकों को इतना अल्प वेतन दिया जाता है, जिससे उनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती है। अतः वे अपने व्यवसाय में रुचि नहीं लेते हैं बल्कि ट्यूशन या अन्य साधनों का सहारा लेते हैं। अनाकर्षक वेतन के कारण योग्य व्यक्ति शिक्षक बनना नहीं चाहते हैं। अधिकाँश विद्यालय के शिक्षकों में योग्यता तथा कार्यक्षमता का अभाव है। अतः शिक्षण कार्य का सही निर्देशन वे नहीं कर पाते हैं। व्यक्तिगत विद्यालय धनाभाव से पीड़ित रहते हैं। न तो उनके पास उपर्युक्त विद्यालय-भवन ही होता है और न उपयुक्त फर्नीचर ही एवं अधिकांश अध्यापकों में अनुभव व प्रशिक्षण की कमी है । ऐसे विद्यालय शिक्षण सामग्री का भी प्रबन्ध नहीं कर पाते हैं। इन सबका बालक के शिक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(3) वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधा-

माध्यमिक शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या है कि अभी तक वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं की जा सकी है। परतन्त्र भारत में जो शिक्षा के उद्देश्य थे आज भी माध्यमिक शिक्षा के वहीं उद्देश्य बने हुए हैं। जैसे : किसी उच्च शिक्षा के विद्यालय में प्रवेश पाना अथवा नौकरी प्राप्त करना, प्रत्येक छात्र इन वाँछित उद्देश्यों की प्राप्ति में लगा रहता है तथा पुस्तकों का अध्ययन करके अपने समय और सुख दोनों नष्ट करता है। बेचारे अभिभावक छात्र पर अधिक धन व्यय करके स्वयं विपन्नताओं का सामना करते हैं किन्तु जब छात्रों को वाँछित उद्देश्यों की प्राप्ति में सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है तो उन्हें घोर निराशा होती है।

(4) व्यक्तिगत स्कूलों की अवांछनीयता-

स्वतन्त्र भारत में शिक्षा प्रसार के कारण माध्यमिक विद्यालयों की वृद्धि में बाढ़ सी आ गयी। अधिकतर विद्यालय व्यक्तिगत प्रबन्ध द्वारा चलाये जा रहे हैं जिनमें घोर भ्रष्टाचार व्याप्त है। प्रबन्ध सरकारी सहायता का दुरुपयोग खुलकर कर रहे हैं। विद्यालय में धर्म, जाति या राजनैतिक दलबन्दी को प्रोत्साहन मिल रहा है। ऐसे स्कूलों का शैक्षिक स्तर बिल्कुल निम्न कोटि का होता है तथा ऐसे विद्यालय द्वारा राष्ट्र और समाज का भारी नुकसान हो रहा है।

(5) सामुदायिक जीवन का अभाव-

हमारे देश के विद्यालयों में संगठित सामुदायिक जीवन का नितांत अभाव रहता है। हमारे स्कूलों में शारीरिक व्यायाम,खेल-कूद, सरस्वती यात्रायें, वाद-विवाद तथा अन्य मनोरंजन से सम्बन्धित क्रियाओं की धनाभाव के कारण समुचित आयोजन सफलतापूर्वक नहीं हो पाता है, जिससे छात्र एक दूसरे के सम्पर्क में नहीं आ पाते हैं। विद्यालय सामुदायिक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा भी नहीं प्रदा करते हैं। जिससे कुशल एवं कर्तव्य की अनुभूति करने वाले नागरिकों का अभाव होता जाता है।

(6) दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली-

माध्यमिक शिक्षा की परीक्षा-प्रणाली दोषपूर्ण है। परीक्षा से पूर्व विद्यार्थी विषयों की यथावत रटाई करते हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों की ही तैयारी करते हैं जो परीक्षा के दृष्टिकोण से आवश्यक होता है। वर्ष भर विद्यार्थी ने शिक्षक के प्रश्नों के उत्तर किस प्रकार दिए हैं? विद्यालय में उपस्थिति क्या रही है? किस प्रकार कक्षा में अध्ययन किया है तथा विभिन्न समस्याओं का समाधान किस प्रकार करता रहा है? इन सब बातों का विद्यार्थी की परीक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। तोते की तरह रटी सामग्री उत्तर पुस्तिकाओं में उड़ेल आते हैं और परीक्षा में सफल हो जाते हैं। इस परीक्षा प्रणाली के कारण छात्र विषय का गहन रूप में अध्ययन करने और समझने का प्रयत्न नहीं करता । फलस्वरूप उत्तीर्ण होने पर भी उसे विषय का ज्ञान नहीं हो पाता है।

(7) अनुशासनहीनता की समस्या-

माध्यमिक स्तर पर छात्रों में अनुशासन-हीनता का व्यापक प्रसार हुआ है । अनुशासन-हीनता का दोषारोपण सिर्फ छात्रों पर किया जाता है,जबकि वास्तविकता यह है कि अनुशासनहीनता के लिए सिर्फ छात्र ही नहीं वरन् समूची शिक्षा पद्धति, परीक्षा प्रणाली, उद्देश्यहीन शिक्षा प्रबन्धों द्वारा धन का दुरुपयोग आदि अनेक बातें उत्तरदायी हैं। अनुशासनहीनता का प्रभाव हमारे समाज को कलंकित कर रहा है।

(8) संगठन में एकरूपता का अभाव-

माध्यमिक शिक्षा के संगठन में एकरूपता का नितांत अभाव है। भिन्न-भिन्न राज्यों में माध्यमिक शिक्षा संगठन व अवधि भिन्न-भिन्न है। निम्न माध्यमिक शिक्षा पूरी कर लेने पर ही उच्चतर माध्यमिक शिक्षा प्रारम्भ की जानी चाहिए। अधिकाशतः राज्यों में मिडिल तथा हाई स्कूल की कक्षायें एक साथ लगती हैं। आर्थिक कठिनाइयों के कारण अभी एक साथ सभी हाई स्कूलों को उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में परिणित नहीं किया जा सकता है । इस प्रकार हाईस्कूल की शिक्षा अधिकतर राज्यों मे दो वर्ष की है जबकि इसे तीन वर्ष की होनी चाहिए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि माध्यमिक शिक्षा के संगठन में एकरूपता नहीं है।

(9) अपव्यय एवं अनुरोध-

माध्यमिक स्तर की शिक्षा तक विद्यार्थी फेल हो जाते हैं। एक ही कक्षा में कई वर्ष लगा देते हैं तथा लगभग 42% बिना माध्यमिक शिक्षा पूरी किए ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। इस प्रकार माध्यमिक शिक्षा में अपव्यय एवं अनुरोध से देश को महान क्षति हो रही है।

(10) माध्यमिक विद्यालय का कुप्रबन्ध-

हमारे देश में तीन प्रकार के माध्यमिक विद्यालय शिक्षण का कार्य कर रहे हैं-

(क) राजकीय विद्यालय- इन राजकीय विद्यालयों की स्थिति संतोषजनक कही जा सकती है, क्योंकि इनको सीधे राज्य सरकार चलाती है। इन विद्यालयों को आवश्यक उपकरण तथा साज-सज्जा का सामान आवश्यक रूप से राज्य सरकारें उपलब्ध कराती रहती हैं। इन विद्यालयों में धनाभाव भी सरकार के कारण नहीं हो पाता है। परन्तु ऐसे विद्यालय बहुत कम संख्या में हैं।

(ख) स्थानीय संस्थाओं द्वारा संचालित विद्यालय-कुछ विद्यालयों को स्थानीय संस्थायें जैसे – नगर पालिका या जिला बोर्ड चलाते हैं ! इन संस्थाओं द्वारा चलने वाले विद्यालयों की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है।

(ग) व्यक्तिगत स्कूल- व्यक्ति त स्कूलों की दशा असंतोषजनक है क्योंकि ये विद्यालय न होकर व्यावसायिक संस्थाओं का रूप लेते जा रहे हैं। अधिकतर विद्यालयों के पास न तो उचित भवन है न पर्याप्त उपकरण और न साज सज्जा का सामान । इन व्यक्तिगत स्कूलों के प्रबन्धक विद्यालय-कोष का दुरुपयोग करते हैं।

माध्यमिक शिक्षा की समस्याओं का समाधान

Solutions of the Problems of Secondary Education

(1) रुचिपूर्ण एवं विभिन्न पाठ्यक्रम का निर्धारण-

माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को छात्र के अनुसार संगठित किया जाये। उसमें विभिन्न विषयों को सम्मिलित किया जाये। विभिन्न व्यवसायों, उद्योगों एवं कला-कौशल, कृषि तथा बागवानी आदि का समावेश पाठ्यक्रम में किया जाये। पाठ्यक्रम छात्रों की अभिवृत्तियों, मनोवृत्तियों, आकांक्षाओं तथा क्षमताओं के अनुकूल हो । माध्यमिक शिक्षा आयोग ने निम्नलिखित सुझाव इसके सम्बन्ध में प्रस्तुत किए हैं—

(क) पाठ्यक्रम में विभिन्नता हो तथा वह पर्याप्त लचीला हो ताकि उसे छात्रों की आवश्यकताओं, क्षमताओं तथा रुचियों के अनुकूल किया जा सके।

(ख) छात्रों में विभिन्न योग्यताओं, क्षमताओं का विकास हो सके। इसके लिए उपयुक्त विषय पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जायें।

(ग) पाठ्यक्रम का सम्बन्ध सामाजिक जीवन से हो।

(घ) छात्रों को कार्य करने तथा समय का सदुपयोग करने की शिक्षा प्राप्त हो सके।

(ड.) एक-दूसरे से सम्बन्ध रखने वाले विषयों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना चाहिए।

(2) प्रावैगिक विधियों का प्रयोग-

यद्यपि माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शिक्षण की प्रावैगिक विधियों के अधिकाधिक प्रयोग की सिफारिश की है परन्तु इनका प्रयोग न के बराबर ही किया जा रहा है। विद्यालयों का शैक्षणिक स्तर गिरता जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षकों को नवीन शिक्षण विधियों का ज्ञान करवाया जाय तथा उनके प्रयोग पर बल दिया जाय । इसके लिए कुछ विषय विशेष प्रकार के प्रशिक्षण-विद्यालयों की स्थापना की जाय, जहाँ पर इन नवीन शिक्षण विधियों का ज्ञान कराया जाय । विभिन्न विद्यालयों के शिक्षकों को समय-समय पर प्रशिक्षण के लिए भेजने की व्यवस्था की जाय जहाँ पर अध्यापक इन नवीन शिक्षण विधियों का ज्ञान प्राप्त कर सकें । शिक्षण स्तर अध्यापकों को उचित वेतन, आवास तथा चिकित्सा जैसी सुविधायें प्रदान करके उठाया जा सकता है।

(3) वाँछित उद्देश्यों की प्राप्ति-

माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाय । उद्देश्य निश्चित करते समय इस बात को ध्यान में रखा जाय कि माध्यमिक शिक्षा उच्च शिक्षा की पूरक नहीं है वरन् वह स्वतन्त्र है। उसे स्वयं एक इकाई माना जाय। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के लिए निम्न उद्देश्य निश्चित किये हैं-

(क) लोकतन्त्रात्मक नागरिकता का विकास ।

(ख) व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि ।

(ग) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास।

(घ) नेतृत्व का विकास।

(4) व्यक्तिगत स्कूलों की समाप्ति-

जो व्यक्तिगत स्कूल समूची माध्यमिक शिक्षा को दूषित बनाने का प्रयास कर रहे हैं ऐसे विद्यालयों को समाप्त कर देना चाहिए तथा सम्पूर्ण माध्यमिक शिक्षा को सरकार स्वयं संचालित और संगठित करें अथवा शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दें।

(5) परीक्षा प्रणाली में सुधार-

प्रचलित परीक्षा प्रणाली को या तो सुधारा जाय या पूर्णरूपेण परिवर्त्तित कर दिया जाय । प्रचलित परीक्षा प्रणाली से छात्रों का सही मूल्याँकन नहीं हो पाता है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने परीक्षा प्रणाली में निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

(क) वाह्य परीक्षाओं की संख्या में कमी की जाय।

(ख) आन्तरिक परीक्षाओं की संख्या बढ़ाई जाय। आन्तरिक परीक्षा में मूल्याँकन के समय नियतकालीन परीक्षा तथा विद्यालय-अभिलेखों को महत्व प्रदान किया जाय।

(ग) निबन्धात्मक परीक्षायें समाप्त की जाये।

(घ) परीक्षाओं का मूल्याँकन अंकों में न किया जाय बल्कि प्रतीकात्मक हो।

(ङ) विद्यालय अभिलेखों में छात्रों द्वारा प्राप्त सफलताओं को सही-सही अंकित किया जाये।

(च) माध्यमिक विद्यालय के अपूर्ण पाठ्यक्रम समाप्ति के अवसर पर ही एक सार्वजनिक परीक्षा ली जाये।

(6) माध्यमिक विद्यालयों के संगठन में एकरूपता लायी जाये-

माध्यमिक शिक्षा संगठन की बहुरूपता को समाप्त करके एकरूपता लाया जाना चाहिये जैसा माध्यमिक शिक्षा आयोग का सुझाव है। सम्पूर्ण देश में निम्न दो प्रकार के विद्यालय माध्यमिक शिक्षा के लिए संगठित किये जाये-

(अ) जूनियर माध्यमिक- शिक्षा की अवधि 3 वर्ष हो।

(ब) उच्चतर माध्यमिक- शिक्षा की अवधि 4 वर्ष हो।

(7) स्कूलों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाये–

माध्यमिक विद्यालयों को सामुदायिक जीवन के केन्द्र के रूप में विकसित किया जाय। इसके लिए वाद-विवाद,खेल-कूद, सरस्वती यात्राओं, देशाटन तथा अन्य मनोरंजनात्मक कार्यों का आयोजन विद्यालयों में किया जा सकता है। विद्यालय में छात्र की सामुदायिक जीवन की भावना को बल मिलता है। सामुदायिक जीवन की शिक्षा छात्र को सफल एवं योग्यतम सामाजिक जीवन यापन करने में सहायता प्रदान करती है जिसमें छात्र आज के गतिवान वातावरण समायोजित कर सकने के योग्य बन जाता है।

(8) माध्यमिक विद्यालयों का सरकारी प्रबन्ध-

जो विद्यालय व्यक्तिगत संस्थाओं द्वारा चलाये जाते हैं। उन विद्यालयों के प्रबन्ध की स्थिति अच्छी नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह व्यक्तिगत विद्यालयों का सारा प्रबन्ध कानून बनाकर स्वयं अपने हाथ में ले तभी इन व्यक्तिगत संस्थाओं द्वारा संचालित विद्यालयों का कुप्रबन्ध समाप्त हो सकता है। वरना ये इसी प्रकार सार्वजनिक जीवन की नींव खोदते रहेंगे तथा भ्रष्टाचार व शोषण का बोलबाला कायम रहेगा। सरकार माध्यमिक शिक्षा में होने वाली क्षति को स्वयं अपने हाथ में प्रबन्ध लेकर रोक सकती है।

(9) अपव्यय एवं अवरोधन का निराकरण-

माध्यमिक शिक्षा की इस समस्या (अपव्यय एवं अवरोधन) को निम्न प्रकार से रोक कर समाप्त किया जा सकता है—(क) रोचक एवं नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग, (ख) परीक्षा प्रणाली में सुधार, (ग) हस्तशिल्प की शिक्षा, (घ) पाठ्यक्रम को उपयोगी बनाकर, (ङ) योग्य एवं प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति करके, (च) विद्यालय के वातावरण में परिवर्तन करके, (छ) आवश्यक उपकरणों की व्यवस्था करके, (ज) सामाजिक कुप्रथायें दूर करके।

(10) अनुशासनहीनता के कारणों का निराकरण किया जाये-

छात्रों में व्याप्त अनुशासनहीनता समूचे देश को हानि पहुँचा रही है। आज की शिक्षा पद्धति और शिक्षा प्रणाली बहुत अंशों तक अनुशासनहीनता को बढ़ावा दे रही है। साथ ही साथ भद्दे चल-चित्र, राजनैतिक दलबन्दी, फिल्मी गाने, आर्थिक कठिनाइयाँ, निम्न सामाजिक मूल्य छात्र यूनियनें प्रमुख हैं। साम्प्रदायिकता तथा जातीयता से अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है। छात्रों में स्व:अनुशासन की भावना उत्पन्न की जा सकती है। ऐसा अध्यापक अपने श्रेष्ठ चरित्र तथा अध्यापन-शीलता के द्वारा कर सकते हैं । अध्यापक का प्रेम,सहयोग और छात्रों की कठिनाइयों के प्रति सहानुभूति स्व:अनुशासन को दृढ़ करने में सहायक हैं।

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Pankaja Singh

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