शिक्षाशास्त्र

प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता | सार्वभौमिकता की समस्या | सार्वभौमिकता की समस्या के कारण | सार्वभौमिकता की समस्या का समाधान

प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता | सार्वभौमिकता की समस्या | सार्वभौमिकता की समस्या के कारण | सार्वभौमिकता की समस्या का समाधान

प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता

(Universalization of Primary Education)

शिक्षित एवं जागरूक नागरिक ही प्रजातंत्र के सुख का अनुभव कर सकते हैं। अतः लोकतंत्रात्मक प्रगति की पुकार है कि कम से कम प्राथमिक शिक्षा प्रत्येक बच्चे की पहुँच के अन्तर्गत हो।

भारतीय संविधान की धारा 45 (Article 45 of Indian Constitution) में 6-14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का आदर्श स्थापित किया गया है। यह आदर्श तभी प्राप्त हो सकता है जब शिक्षा सार्वभौमिक हो अर्थात् एक निश्चित आयु वर्ग के सभी बच्चों-चाहे वे किसी जाति, धर्म रंग या वर्ग के हों, के लिए शिक्षा की व्यवस्था सुलभ हो । अतः 14 वर्ष तक के समस्त बच्चों के लिए शिक्षा का सफल आयोजन करना ही प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की सार्वभौमिकता है जिसे संविधान के लागू होने के दस वर्षों में ही प्राप्त करना था।

प्राथमिक स्तर पर सार्वभौमिकता का इतिहास अपने अन्दर विकास, प्रयत्न एवं समस्याएं संजोये हुए हैं। प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की सार्वभौमिकता के इतिहास के झरोखे में हम इसकी प्रगति, सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयत्न एवं समस्याओं का अध्ययन कर सकते हैं। पिछले 35 वर्षों में सार्वभौमिकता के लक्ष्य प्राप्ति हेतु पंचवर्षीय योजनाओं में इसका आयोजन व आयोगों द्वारा मूल्यांकन एवं सुझावों पर दृष्टिपात करने से सार्वभौमिकता का संही चित्र खींचा जा सकता है। आज यह सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है । कम से कम प्राथमिक अवस्था में शिक्षा निःशुल्क एवं अनिवार्य होनी चाहिए।

वर्तमान में अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा के सार्वभौमिकरण का अर्थ कुछ व्यापक रूप में लिया जाता है। हमारे देश के संविधान की धारा 45 में यह निर्देश है कि राज्य इस संविधान के लागू होने के समय से 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेगा। यहाँ 14 वर्ष की आयु तक बच्चों की शिक्षा से तात्पर्य महात्मा गाँधी द्वारा प्रस्तावित 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों की कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा से है। परन्तु अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक यथा आयु वर्ग के शत-प्रतिशत बच्चे उसमें प्रवेश नहीं लेते और शत प्रतिशत बच्चों के प्रवेश लेने का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक शत-प्रतिशत बच्चे उसमें रुके नहीं रहते अर्थात् पंढ़ाई बीच में छोड़कर नहीं जाते और शत-प्रतिशत रुके रहने का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक शत प्रतिशत बच्चे इस शिक्षा को पूरी नहीं करते, इसमें उत्तीर्ण नहीं होते। इस दृष्टि से भारत में अनिवार्य व निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण का अर्थ है–

(1) शत-प्रतिशत नामांकन (Cent Percent Enrolment or Universal Enrolment)- 6-1 आयु वर्ग के शत प्रतिशत बच्चों का कक्षा 1 से कक्षा 8 तक में नामांकन कराना।

(2) शत-प्रतिशत सुविधा (Cent Percent Opportunity or Universal Access)- 6-14 आयु वर्ग के शत प्रतिशत बच्चों को कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा सुविधा सुलभ करना ।

(3) शत-प्रतिशत सफलता (Cent Percent Success or Universal Achievement)-  इन शत प्रतिशत बच्चों को कक्षा 8 उत्तीर्ण कराना।

(4) शत-प्रतिशत रुकना (Cent Percent Retention or Universal Retention)- इन शत प्रतिशत बच्चों को विद्यालयों में रोके रखना, उन्हें बीच में विद्यालय छोड़कर न जाने देना।

सार्वभौमिकता की समस्या का स्वरूप

(Features of Universalization of Primary Education’s Problems)

सार्वभौमिकता की समस्या के स्वरूप को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) देश के 6-14 आयुवर्ग के शत-प्रतिशत बच्चों को कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा सर्वसुलभ कराना, परन्तु हमारी सरकार यह कार्य अभी तक पूरा नहीं कर सकी है। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में यह अपने में एक समस्या है। केन्द्रीय सरकार के दावे के अनुसार 2001 के अन्त तक ग्रामीण क्षेत्रों के 6-11 आयुवर्ग के 94% बच्चों को निम्न प्राथमिक शिक्षा के और 11-14 आयुवर्ग के 84% बच्चों को उच्च प्राथमिक शिक्षा के अवसर सुलभ करा दिए गए थे और उसी के आँकड़े यह बताते हैं कि 2001 में लगभग 2 लाख गाँवों और दूर- दराज की बस्तियों के बच्चों को यह किमी. की दूरी के अंदर प्राथमिक विद्यालय और 3 किमी. की दूरी के अन्दर उच्च प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध नहीं थे और लगभग 2 करोड़ बच्चे प्राथमिक शिक्षा के अधिकार से वंचित थे। दूसरी तरफ 2001 में हमारे देश की जनसंख्या 1 अरब की सीमा को पार कर गई और वर्तमान में यह बहुत तीव्रगति से बढ़ रही है इसलिए भविष्य में बहुत बड़ी संख्या में प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्कूल खोलने की आवश्यकता होगी।

(2) देश के 6-14 आयुवर्ग के शत-प्रतिशत बच्चों का कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की कक्षाओं में नामांकन कराना, उन्हें प्रवेश देना। इन सन्दर्भ में हमारे देश की स्थिति बड़ी विचित्र है, कहीं बच्चे प्रवेश लेना चाहते हैं तो विद्यालय उपलब्ध नहीं हैं और जहाँ विद्यालय हैं वहाँ शत-प्रतिशत बच्चे उनमें प्रवेश नहीं लेते या ऐसा कह सकते हैं कि उनके माता-पिता उन्हें प्रवेश नहीं दिलाते और यह आज अपने में एक समस्या है, विशेषकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुसलमान जाति के बच्चों के नामांकन की और बालिकाओं के नामांकन की। सरकार के आँकड़े बताते हैं कि 2001 में जिन क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध थे उन क्षेत्रों में भी केवल 95% बच्चों ने प्राथमिक शिक्षा में नामांकन कराया था। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों का नामांकन प्रतिशत केवल 65 था। और जहाँ तक बालिकाओं के नामांकन का प्रश्न है उनका प्रतिशत तो और भी कम था, लड़के-लड्कियों के नामांकन का अनुपात 3 : 2 था जबकि देश में लड़के-लड़कियों को संख्या लगभग बराबर है। अतः ये आँकड़े भी सही नहीं लगते। जब अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों का नामांकन प्रतिशत 65% था और लड़के-लड़कियों का नामांकन अनुपात 3 : 2 था तो कुल नामांकन 95% कैसे हो गया। वैसे भी सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2002 में 6-14 आयु वर्ग के 2 करोड़ बच्चे ऐसे थे जिन्होंने प्राथमिक स्कूलों में नामांकन नहीं कराया था।

(3) 6-14 आयु वर्ग के शत-प्रतिशत बच्चों को कक्षा 1 से कक्षा 8 तक में रोके रखना, उन्हें पढ़ाई बीच में छोड़कर न जाने देना। मानव संसाधन मन्त्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 1997-98 में प्राथमिक स्त के कक्षा 1 से कक्षा 8 तक बीच में पढ़ाई छोड़कर चले जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 54.14 था। सन् 2006 में भी यह लगभग 45% था। 2004 में बीच में स्कूल छोड़कर जाने वालों की संख्या लगभग 5 करोड़ थी। इसका अर्थ है कि कक्षा 1 में प्रवेश लेने वाले बच्चों में से भी कक्षा 8 तक पहुँचने वालों की संख्या लगभग आधी रह जाती है। इसे शिक्षाशास्त्र की भाषा में अपव्यय (Wastage) कहा जाता है।

(4) 6-14 आयुवर्ग के सभी बच्चों को समय के अन्दर प्राथमिक शिक्षा कराना तथा उन्हें कक्षा  उत्तीर्ण कराना। परन्तु सन् 2006 में भी वास्तविक स्थिति यह है कि लगभग 40% बच्चे समय के अन्दर पाठ्यक्रम पूरा नहीं करते, वे प्राथमिक शिक्षा के 8 वर्ष के पाठ्यक्रम को 8 वर्ष से अधिक की अवधि में पूरा करते हैं। इसे शिक्षाशास्त्र की भाषा में अवरोधन (Stagnation) कहते हैं।

सार्वभौमिकता की समस्या के कारण

(Causes of Universalization of Primary Education’s Problems)

इस समस्या के चार पहलू हैं-

(I) प्रथम पहलू- 6-14 आयुवर्ग के शत-प्रतिशत बच्चों को कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा सुलभ कराना । परन्तु यह कार्य हम आज तक भी नहीं कर सके हैं। इसके मुख्य कारण निम्न प्रकार हैं-

(1) संसाधनों की कमी- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में शिक्षा पर 6% व्यय करने की घोषणा की गई थी परन्तु सन् 2006 में लगभग 4% ही व्यय किया गया है।

(2) जो भी संसाधन हैं उनका भी सही ढंग से प्रयोग नहीं किया जाता- प्राथमिक शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन के लिए जो योजना बजट होता है उसकी आधे से अधिक धनराशि का बन्दर बाँट हो जाता है। चारों तरफ भ्रष्टाचार का साम्राज्य है

(3) जन सहयोग की कमी है- जन सहयोग के नाम पर जन शोषण करने वाली संस्थाएँ अधिक हैं। ये प्रायः वहीं विद्यालय खोलती हैं जहाँ इन्हें आर्थिक लाभ होता है। निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने वाली संस्थाएँ नगण्य हैं।

(५) भौगोलिक परिस्थिति- हमारे देश की भौगोलिक परिस्थिति भी इसमें बाधक है, दूर-दराज के पहाड़ी, रेगिस्तानी और जंगली क्षेत्रों की छोटी-छोटी बस्तियों में स्कूल स्थापित करना और चलाना, दोनो बड़े कठिन कार्य हैं।

(5) जनसंख्या वृद्धि-देश की तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए आज जितने अधिक विद्यालय खोले जाते हैं कल उनसे अधिक की माँग बढ़ जाती है।

(II) दूसरा पहलू- 6-14 आयुवर्ग के शत-प्रतिशत बच्चों का विद्यालयों में नामांकन अर्थात् प्रवेश। आज भी स्थिति यह है कि जहाँ स्कूल उपलब्ध हैं वहाँ भी लगभग 10% बच्चे विद्यालयों की कक्षा 1 में प्रवेश नहीं लेते। इसके मुख्य कारण हैं-

(1) अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी अधिनियम न होना।

(2) विद्यालयों में शिक्षकों की कमी और जो नियुक्त हैं उनकी भी अनुपस्थिति और उनका छात्रों के नामांकन के प्रति प्रयलशील न होना।

(3) अशिक्षा एवं पिछड़ापन- हमारे देश में ऐसे परिवारों की कमी नहीं है जो शिक्षा का महत्त्व नहीं समझते, कुछ तो ऐसे हैं जो बच्चियों को पढ़ाना आवश्यक नहीं मानते।

(4) विद्यालयों का साधन सम्पन्न न होना, उनका आकर्षक न होना।

(5) निर्धनता, निर्धन परिवार के बच्चों का गृह कार्य, खेत-खलिहान व मजदूरी कार्य में व्यस्त रहना।

(III) तीसरा पहलू- शत-प्रतिशत बच्चों को स्कूल में रोके रखना, उन्हें बीच में पढ़ाई छोड़कर न जाने देना और स्थिति यह है कि आज भी लगभग 45% बच्चे प्रवेश लेने के बाद प्राथमिक शिक्षा पूरी किए बिना ही स्कूल छोड़ देते हैं। इस समस्या के मुख्य कारण हैं-

(1) अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी अधिनियम न होना।

(2) विस्तृत एवं बोझिल पाठ्यक्रम और पुस्तकीय ज्ञान पर बल।

(3) विद्यालयों में भवन, फर्नीचर, शिक्षण सामग्री एवं शिक्षकों की कमी होना और शिक्षकों का ईमानदारी एवं कर्त्तव्यनिष्ठा के साथ कार्य न करना।

(4) प्रशासन तन्त्र की ढिलाई।

(5) समाज के एक बड़े भाग का निर्धन, अशिक्षित एवं पिछड़ा होना।

(IV) चौथा पहलू- शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा समय के अन्दर पूरी कराना तथा उन्हें परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराना। आज भी कहीं-कहीं स्थिति ऐसी भी है कि लगभग 40% बच्चे अपना पाठ्यक्रम समय के अन्दर पूरा नहीं कर पाते । इसके मुख्य कारण हैं-

(1) विद्यालयों में भवन, फर्नीचर, शिक्षण सामग्री और शिक्षकों की कमी एवं शिक्षकों की लापरवाही।

(2) अधिकतर छात्रों के अभिभावकों का अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति सचेत न होना ।

(3) प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या का बोझिल होना।

(4) परीक्षा एवं मूल्यांकन प्रणाली का दोषयुक्त होना।

(5) अधिकतर बच्चों का अपनी शिक्षा के प्रति समर्पित न होना।

सार्वभौमिकता की समस्या का समाधान

भारत में प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के चार पहलू हैं-शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा सुलभ कराना, शत-प्रतिशत बच्चों का प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन कराना, शत-प्रतिशत बच्चों को विद्यालयों में रोके रखना और शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण कराना और ये चारों अपने में समस्याएं हैं। सर्वप्रथम हम 6-14 आयु वर्ग के शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा सुलभ कराने की समस्या को लेते हैं

(1) शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा सुलभ कराना- हमारे संविधान में संविधान लागू होने के समय (26 जनवरी, 1950) से 10 वर्ष के अन्दर प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण करने का निर्देश है। हमने तभी से प्राथमिक शिक्षा को सर्वप्रथम कराने के लिए ठोस कदम उठाने शुरु किए। इनमें 1 किमी. की दूरी के अन्दर निम्न प्राथमिक स्कूल और 2-3 किमी. की दूरी के अन्दर उच्च प्राथमिक स्कूल उपलब्ध कराना और जो बच्चे इस औपचारिक शिक्षा का लाभ नहीं उठा पा रहे उनके लिए अनौपचारिक शिक्षा (Non-forma Education) की व्यवस्था करना मुख्य है। इस क्षेत्र में 1994 में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (DPEP)की शुरुआत की गई और 2001 में सर्वशिक्षा अभियान (SSB) शुरू किया गया परंतु लक्ष्य की प्राप्ति अभी तक नहीं हो सकी है। इस समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है कि निम्नलिखित कदम और उठाए जाएं-

(1) केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकारें शिक्षा के सामान्य बजट और योजना बजट, दोनों में वृद्धि करें और उनका 50% भाग प्राथमिक शिक्षा पर व्यय करें । जहाँ और जिस प्रकार के प्राथमिक स्कूलों की आवश्यकता है, स्थापित करें और उन्हें साधन सम्पन्न करें। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुसलमान जाति के क्षेत्रों में विशेष रूप से स्कूल खोले जाएँ और साथ ही विकलांग एवं मन्दबुद्धि बच्चों के लिए स्कूलों की संख्या में वृद्धि की जाए, प्रत्येक जिला मुख्यालय पर इनके लिए एक स्कूल होना आवश्यक है ।

(2) दूर-दराज के पहाड़ी, रेगिस्तानी और जंगली क्षेत्रों के बच्चों के लिए आवासीय आश्रम स्कूल स्थापित किए ही जा रहे हैं, आवश्यकतानुसार उनकी संख्या में वृद्धि की जाए।

(3) प्रान्तीय सरकारें यह देखें कि प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लिए जो भी योजनाएँ प्रस्तावित हों, उन्हें सुचारु रूप से चलाया जाए और व्यय की जाने वाली धनराशि का सही उपयोग हो, आवंटित धनराशि का बंदर बांट ना हो।

(4) जनसंख्या नियन्त्रण- अब परिवार नियोजन सभी व्यक्तियों पर समान रूप से कानूनी तौर पर लागू किया जाए।

(5) हमारी सरकार की अपनी सीमाएँ हैं, वह हर स्थान पर आवश्यक मात्रा में स्कूल स्थापित एवं संचालित नहीं कर सकती अतः इस क्षेत्र में जन सहयोग आवश्यक है। अभावग्रस्त क्षेत्रों में जो भी स्वैच्छिक संस्थाएँ, व्यक्ति विशेष अथवा प्रशिक्षित शिक्षक प्राथमिक स्कूल स्थापित करें, उन्हें मान्यता देने और आर्थिक सहायता देने में उदारता बरती जाए।

(II) शत-प्रतिशत बच्चों का प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन कराना- प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के सन्दर्भ में दूसरी समस्या है 6-14 आयुवर्ग के शत-प्रतिशत बच्चों के नामांकन की। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भी इस बीच सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं जिनमें अभिभावकों में जागरूकता उत्पन्न करना, विद्यालयों की स्थिति में सुधार करना, बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन की व्यवस्था करना, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों को निःशुल्क पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध कराना, उनके खाने के लिए निःशुल्क भोजन और पहनने के लिए निःशुल्क स्कूल ड्रेस उपलब्ध कराना मुख्य हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित उपाय और अधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं-

(1) शिक्षकों की यह जिम्मेदारी निश्चित की जाए कि वे व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा अभिभावकों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करें।

(2) अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी अधिनियम बनाया जाए और उसे कठोरता के साथ लागू किया जाए।

(3) समाज के पिछड़ेपन को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है-शिक्षा का प्रसार। इस क्षेत्र में अनिवार्य निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था की ही जा रही है, इनका और अधिक प्रसार किया जाए।

(4) 1 किमी. की दूरी के अन्दर निम्न प्राथमिक और 2-3 किमी. की दूरी के अन्दर उच्च प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध कराए जाएं। विद्यालयों में बच्चों का प्रवेश कराने पर ही लोगों को नागरिक सुविधाएँ (राशन कार्ड आदि) दी जाएँ।

(5) वर्तमान में केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों को आर्थिक सहायता दी जा रही है। यह सहायता जाति के आधार पर न दी जाकर किसी भी जाति के गरीबी की रेखा से नीचे जीने वाले व्यक्तियों के बच्चों को दी जाए।

(III) शत-प्रतिशत बच्चों को विद्यालयों में रोके रखना- प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के सन्दर्भ में तीसरी समस्या है, शत-प्रतिशत बच्चों को स्कूल में रोके रखना। इसके लिये भी हमारी सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। इस क्षेत्र में निम्नलिखित उपाय और अधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं-

(1) अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा अधिनियम बनाया जाए और उसे कठोरता से लागू किया जाए।

(2) पाठ्यक्रम सीमित किया जाए एवं बस्ते का बोझ कम किया जाए और शिक्षण को रोचक बनाया जाय ।

(3) समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा को गति प्रदान की जाए और उसकी निर्धनता को दूर करने के लिए आर्थिक नीतियों में परिवर्तन किया जाए। अब समय आ गया है जब आर्थिक नीतियाँ निजि स्वार्थ और वोट की राजनीति के आधार पर न बनाकर जनहित की दृष्टि से बनाई जाएँ।

(4) विद्यालयों की दशा सुधारने के लिए ब्लैक बोर्ड योजना चलाई ही जा रही है, इसे ईमानदारी के साथ चलाया जाए,पैसे का बन्दर बाँट रोका जाए। साथ ही शिक्षक और शिक्षक संघों के लिए आचार संहिता बनाई जाए और शिक्षकों की जवाबदेही निश्चित की जाए।

(5) सरकारी प्रशासन तन्त्र को चुस्त किया जाए। वर्तमान में प्राथमिक विद्यालयों एवं उनमें कार्यरत शिक्षकों पर नियन्त्रण का उत्तरदायित्व स्थानीय निकायों (Local Bodies) पर है, उन्हें अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत किया जाए। प्राथमिक स्कूलों का निरीक्षण ईमानदारी से हो और कामचोर व्यक्ति दण्डित हों, यह आवश्यक है।

(IV) शत-प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण कराना- प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के सन्दर्भों में चौथी और अन्तिम समस्या है, शत-प्रतिशत बच्चों को समय के अन्दर प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कराने की, उन्हें प्राथमिक शिक्षा में उत्तीर्ण कराने की। इस क्षेत्र में भी सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। कुछ प्रान्तीय सरकारों ने अपने-अपने तरीकों से भी कुछ कदम उठाएँ हैं। एक समय तो एक प्रान्तीय सरकार ने प्राथमिक शिक्षा में कक्षा 4 तक सब बच्चों को उत्तीर्ण करना अनिवार्य कर दिया था, पर उसके परिणाम बड़े घातक सिद्ध हुए। अत: इस समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिएँ-

(1) प्राथमिक विद्यालयों की दशा में और सुधार किया जाए, जहाँ जिस वस्तु अथवा कर्मचारी की कमी है उसकी पूर्ति की जाए और साथ ही शिक्षकों की जवाबदेही निश्चित की जाए। यह भी आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षकों को अन्य कार्यों में न लगाया जाए।

(2) प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या को औसत बच्चों की दृष्टि से बनाया जाए। उच्च प्राथमिक स्तर पर तीन भाषाओं का अनिवार्य रूप से अध्ययन कराना ठीक नहीं है। इस स्तर पर केवल मातृभाषा का अध्ययन ही अनिवार्य होना चाहिए। हाँ, मेधावी छात्रों के लिए किसी एक या दो भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था ऐच्छिक रूप में की जा सकती है और की भी जानी चाहिए। अन्य विषयों से भी अनावश्यक प्रकरणों को निकाल देना चाहिए।

(3) बच्चों को भी शिक्षा का महत्त्व स्पष्ट किया जाए। साथ ही उनकी समस्याओं को समझा जाए, उनके साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया जाए और उन्हें अध्ययन के लिए अभिप्रेरित किया जाए। यह कार्य प्रशिक्षित एवं समर्पित शिक्षक ही कर सकते हैं।

(4) अभिभावकों को अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति जागरूक किया ही जा रहा है और यह कार्य हम जनसंचार के माध्यमों से कर ही रहे हैं। इस कार्य को और अधिक गति प्रदान की जाए।

(5) वैसे तो प्राथमिक स्तर की परीक्षाओं में काफी सुधार हुआ है पर अभी भी वे रटने पर अधिक निर्भर करती हैं। सर्वप्रथम आवश्यक है उन्हें समझ और कौशलों पर आधारित करने की और यदि फिर भी किसी स्तर पर कुछ बच्चे अनुत्तीर्ण होते हैं तो उनकी ग्रीष्मावकाश में अतिरिक्त पढ़ाई कराई जाए और जुलाई में पुनः परीक्षा ली जाए और इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्हें आगे की कक्षा में प्रवेश दिया जाए। प्राथमिक स्तर की अन्तिम परीक्षा (कक्षा 8) में भी यह सुविधा पूरक परीक्षा के रूप में प्रदान की जानी चाहिए।

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Pankaja Singh

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