इतिहास शिक्षण में प्रस्तुतीकरण | प्रस्तुतीकरण के सामान्य सिद्धान्त | विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर इतिहास का प्रस्तुतीकरण | Presentation in History Teaching in Hindi | General Principles of Presentation in Hindi | Presentation of History at Different Educational Levels in Hindi
इतिहास शिक्षण में प्रस्तुतीकरण (प्रस्तावना)
किसी विषय-वस्तु पर अधिकार कर लेना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना कि उसे दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करना । शिक्षण के लिए तीन बातों पर विचारना आवश्यक हो जाता है। प्रथम तो बालक को जानना अर्थात् उसकी क्या रुचियाँ है ? क्या शक्तियों है ? अर्थात् उसके स्वभाव को जानना अत्यन्त आवश्यक है। दूसरे, विषय- सामग्री किस प्रकार की होनी चाहिए ? कौन-सी सामग्री किस स्तर के बालक के लिए उपयुक्त होगी ? तीसरे, इस सामग्री को बालकों के समक्ष किस प्रकार प्रस्तुत किया जाय ? वे बालक किस स्तर के हैं, आदि बातों को जानकर ही शिक्षक अपनी विषय- वस्तु को प्रस्तुत करने में सफल हो सकता है। इतिहास की पाठ्य-वस्तु को विभिन्न स्तरों पर प्रस्तुत करने के लिए कुछ ऐसे सामान्य सिद्धान्त हैं जिनको ध्यान में रखना आवश्यक है। वे इस प्रकार हैं-
प्रस्तुतीकरण के सामान्य सिद्धान्त
शिक्षाशास्त्रियों ने परीक्षणों के आधार पर प्रस्तुतीकरण के निम्त सामान्य सिद्धान्तों पर बल दिया है-
(1) प्रारम्भिक स्तरों पर विषय-वस्तु के उन तथ्यों को प्रस्तुत किया जाय जो कि निश्चित तथा बोधगम्य हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इन स्तरों पर मूर्त तथ्यों को प्रस्तुत किया जाये। प्रस्तुत करते समय ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर, ‘सरल से कठिन की ओर’ आदि शिक्षण-सूत्रों का उपयोग करना चाहिए।
(2) सामान्य विचारधाराओं तथा नियमों का प्रस्तुतीकरण उच्च कक्षाओं में होना चाहिए; क्योंकि इस स्तर के बालकों की बुद्धि विकसित हो जाती है।
(3) तथ्यों को काल-क्रम के अनुसार प्रस्तुत किया जाय।
(4) प्रत्येक स्तर पर धीरे-धीरे समय-ज्ञान विकसित करने के लिए प्रयत्न किया जाय।
(5) तथ्यों का स्थानीयकरण किया जाना चाहिए। इसके लिए शिक्षक को मानचित्रों का प्रयोग करना चाहिए।
(6) परावर्तन विधि का प्रयोग सभी स्तरों पर आवश्यक है। वर्तमान का सम्बन्ध भूतकाल से स्थापित किया जाय ।
(7) तथ्यों को पृथक-पृथक् रूप से प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए वरन् उनमें सम्बद्धता स्थापित की जाय । तथ्यों को कार्य-कारण सम्बन्ध के साथ छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाय ।
(8) जो भी तथ्य प्रस्तुत किये जाएँ, वे पूर्ण एवं व्यवस्थित हों। बालकों को अधिक सूचनाओं से लादना आवश्यक नहीं है ।
(9) अतीत को वास्तविक बनाने के लिए शिक्षक को सभी स्तरों पर सहायक सामग्री का प्रयोग करना चाहिये, परन्तु इन उपकरणों का चयन उसी समय करना चाहिये जबकि वह अपने पाठ को प्रस्तुत करने जा रहा है वरन् उनका चयन पहले ही किया जाना चाहिये ।
अन्त में हम कह सकते हैं कि इतिहास के सभी अंगों पर प्रकाश डाला जाना चाहिये। ऐसा न हो कि एक अंग पर अधिक बल दे दिया जाय और दूसरे को अछूता छोड़ दिया जाय।
विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर इतिहास का प्रस्तुतीकरण
प्रस्तुतीकरण के उपर्युक्त सामान्य सिद्धान्तों को देखने के उपरान्त प्रश्न यह उठता है कि विभिन्न स्तरों पर पाठ्य-वस्तु को किस प्रकार प्रस्तुत किया जाय? आगे हम विभिन्न स्तरों पर इतिहास के प्रतिपादन करने की मुख्य बातों की संक्षेप में विवेचना कर रहे हैं :-
(अ) प्रारम्भिक स्तर पर इतिहास का प्रस्तुतीकरण –
- इस स्तर का बालक कहानी सुनना तथा कहना पसन्द करता है । इस स्तर पर जो भी विषय-वस्तु प्रतिपादित की जाय, वह कहानियों के रूप में हो।
- शिक्षक कहानी-पद्धति से इस स्तर की विषय-वस्तु को प्रस्तुत करे।
- इस स्तर की विषय-वस्तु, विश्व इतिहास, राष्ट्रीय इतिहास तथा स्थानीय इतिहास आदि से कहानियों के रूप में ली जा सकती है।
- इस स्तर पर श्यामपट का प्रयोग अधिकांश रूप से किया जाना चाहिए।
- इस स्तर पर पाठ्य-पुस्तक के विषय में मतभेद है; घोष महोदय इसकी आवश्यकता नहीं मानते। प्रो० घाटे का विचार है कि पाठ्य-पुस्तक का प्रयोग करवाया जाना चाहिए। हमें प्रो० घाटे का विचार उपयुक्त प्रतीत होता है क्योंकि पाठ्य-पुस्तक के प्रयोग से छात्र उन सुनी हुई कहानियों की आवृत्ति कर सकेंगे और उसकी सहायता से उन्हें याद करने में सफल हो सकेंगे; परन्तु इस स्तर पर इसका प्रयोग बहुलता के साथ नहीं होना चाहिए। इस स्तर की पुस्तकें छात्रों के अनुकूल लिखी होनी चाहिए।
- इस स्तर पर मानचित्र, मॉडल, वास्तविक वस्तुएँ-सिक्के, मुहरें, यन्त्रों आदि का प्रयोग होना चाहिए।
- कहानियों को काल-कम के अनुसार छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए जिससे उनमें समय-ज्ञान विकसित किया जा सके। समय-ज्ञान को विकसित करने के लिए चित्रात्मक चाटं, पनोरमा चाटं आदि का भी प्रयोग किया जाय।
- इस स्तर पर छात्रों को क्रियाशील बनाये रखना चाहिए। उनसे छोटे- छोटे अभिनय कराये जाएं। इस स्तर पर हस्तकला का भी प्रयोग किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त स्थानीय ऐतिहासिक स्थानों का भ्रमण कराया जाय।
(ब) जूनियर स्तर पर इतिहास का प्रस्तुतीकरण-
- इस स्तर के बालक किशोरावस्था के निकट पहुंचने लगते हैं। उनका मानसिक विकास भी पर्याप्त रूप से हो जाता है। उनका व्यावहारिक ज्ञान भी बढ़ जाता है।
- इस स्तर पर ऐतिहासिक घटनाओं का क्रमिक एवं शृंखलाबद्ध वर्णन किया जाना चाहिए।
- इस स्तर पर घटनाओं को केन्द्रबिन्दु मानकर तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों को परिधि मानकर वर्णन करना चाहिए।
- इस स्तर पर कहानी-पद्धति का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है; परन्तु यह इस स्तर की एकमात्र विधि नहीं होगी। इसके अतिरिक्त स्रोत-पद्धति, कथन-रीति, प्रोजेक्ट-पद्धति आदि का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।
- इस स्तर पर पाठ्य-पुस्तक का प्रयोग पिछले स्तर की अपेक्षा अधिक होगा; परन्तु इस स्तर की पाठ्य-पुस्तक में तिथियों की बहुलता नहीं होगी, वरन् मुख्य तिथियों को दिया जायगा । उदाहरणों का भी प्रयोग होना चाहिए।
- इस स्तर पर मौखिक उदाहरणों का भी प्रयोग किया जा सकता है।
- श्यामपट का प्रयोग भी पर्याप्त रूप से किया जाना चाहिए; जैसे- श्यामपट सारोश, लाक्षणिक उदाहरणों, समय-रेखा, विभिन्न नाम आदि को अंकित करने के लिए।
- मानचित्रों का भी उपयोग होना चाहिए ।
- अभिनय तथा हस्तकला का भी उपयोग होना चाहिए।
- इस स्तर पर लिखित कार्य भी कराया जाय तथा दूसरे विषयों से भी सम्बन्ध स्थापित किया जाय ।
- ऐतिहासिक भ्रमणों को भी स्थान दिया जाय
- समय-ज्ञान को विकसित किया जाय ।
(स) उच्च स्तर स्तर पर इतिहास का प्रस्तुतीकरण –
- इस स्तर पर समस्या-पद्धति, स्रोत पद्धति, प्रयोगशाला-पद्धति आदि का प्रयोग कराया जाय |
- इस स्तर के बालक स्वयं निष्कर्ष बनाना चाहते हैं। उनको सामान्य विचारधाराओं को प्रदान करने में कोई आपत्ति नहीं है ।
- इस स्तर पर बहुपाठ्य-पुस्तकों का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
- श्यामपट का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।
- इस स्तर पर कक्षा-वाद-विवाद को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए ।
- लिखित कार्य भी दिया जाना चाहिए।
- समय-ज्ञान को दृढ़ बनाया जाय और विषयों से समन्वय स्थापित किया जाए।
- सहायक सामग्री का भी प्रयोग करना चाहिए, परन्तु बहुलता के साथ नहीं। इस स्तर पर फिल्मों के द्वारा विभिन्न कलाओं के विकास, मानव- जीवन की दशाओं आदि का ज्ञान दिया जाय ।
- इस स्तर पर बालकों से समय-रेखायें, मॉडल, मानचित्रों आदि का निर्माण कराया जाय। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक एलबम आदि भी बनवाये जायें। इस स्तर पर ऐतिहासिक समुदायों का निर्माण कराया जाय और उसके संरक्षण में ऐतिहासिक भ्रमण, वाद-विवाद आदि कराये जायें ।
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