शिक्षाशास्त्र

इतिहास-शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली पद्धतियाँ | Methods used in teaching history in Hindi

इतिहास-शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली पद्धतियाँ | Methods used in teaching history in Hindi

इतिहास-शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली पद्धतियाँ

उपयुंक्य बातों को ध्यान में रखकर इतिहास शिक्षण की पद्धतियों का चयन करना चाहिए । इतिहास शिक्षण की कोई एक विशेष पद्धति नहीं है बल्कि इसका शिक्षण विभिन्न पद्धतियों के प्रयोग से किया जाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इतिहास एक व्यापक विषय है जिसमें विभिन्न विवादास्पद प्रकरणों की व्याख्या की जाती है। इस कारण इनको समझने एवं हल करने के हेतु विभिन्न पद्धतियों का उपयोग करना पड़ता है। इतिहास शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं:-

(1) कहानी-पद्धति (Story telling Method)

(2) जीवन-गाथा पद्धति (Biographical Method)

(3) स्रोत-पद्धति (Source Method)

(4) पाठ्य-पुस्तक पद्धति (Text-book Method)

(5) प्रयोगशाला पद्धति (Laboratory Method)

(6) समस्या तथा योजना पद्धति (Problem and Project Method)

(1) कहानी पद्धति-

कहानी-पद्धति इतिहास शिक्षण के लिए प्रारम्भिक स्तर पर सर्वोत्तम विधि है। एफ० बार० वार्टस (F. R. Worts) के अनुसार, “कहानी 13 वर्ष की व्यवस्था तक के बालकों को इतिहास पढ़ाने का मुख्य साधन होना चाहिए।” (Story or narration should be the chief mode of sound historical teaching up to the age of 13 plus.) प्लेटो ने भी इस विधि को छोटे बालकों के लिए लाभप्रद एवं उपयुक्त बतलाया था। बालक स्वभावतः कहानी प्रिय होते हैं। रॉस (Ross) के शब्दों में, “Let pupils learn history as human race learned it.” इस पद्धति की सफलता, शिक्षक तथा उसके प्रस्तुत करने के ढंग पर निर्भर है। इस पद्धति का सबसे प्रमुख गुण यह है कि इनके द्वारा बालकों में इतिहास के लिए रूचि उत्पन्न की जा सकती है। इसके अतिरिक्त इसके प्रयोग से बालकों की कल्पना शक्ति का विकास किया जा सकता है। इसके द्वारा छात्रों की जिज्ञासा को तृप्त करके अनुशामित किया जाता है। जारबिस (Jarvis) महोदय का विचार है कि इसके द्वारा बालकों में नैतिक गुणों का विकास किया जा सकता है। यह उनको अपने गुप्त भावों को व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती है।

बालकों को ऐतिहासिक कहानियाँ सुनाते समय निम्न बातों का अवश्य ध्यान रखा जाय :-

1 – सबसे प्रमुख बात जो ध्यान में रखने की है, वह यह कि कहानी कभी भी पुस्तक में से न पढ़ी जाय वरन् स्वयं सुनाई जाय ।

2 – जिस ऐतिहासिक तथ्य से कहानी सम्बन्धित है, उसका अध्यापक को पूर्ण ज्ञान होना चाहिए ।

3 – जिस ऐतिहासिक कहानी को कक्षा में सुनाना है, वह काल-क्रम के अनुसार हो ।

4 – कहानी छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिए ।

5 – कहानी सुनाने से पूर्व अध्यापक को उसका अभ्यास कर लेना चाहिए । कहानी में जाने वाली घटनाओं का अध्ययन भली प्रकार किया जाय। कहानी का मध्य में भूल जाना कहानी को नीरस बना देना है।

6 – कहानी सुनाते समय अध्यापक को तन्मय हो जाना चाहिए। कहानी जितनी तल्लीनता के साथ सुनाई जायेगी, उतनी ही बालकों के हृदय को स्पर्श करेगी ।

7- अध्यापक जिस कहानी को सुना रहा हो, उसे उसमें पूर्ण रुचि लेनी चाहिए। यदि वह रूचि नहीं लेगा तो वह उसका प्रस्तुतो करण ठीक नहीं कर पायेगा।

8 – कहानी के मध्य में यथास्थान एवं आवश्यकतानुसार सहायक सामग्री  का प्रयोग भी किया जाय।

9 – ऐतिहासिक कहानी सुनाने में अध्यापक को अधिक से अधिक कल्पना जाग्रत करने का प्रयास करना चाहिए। उसे शब्दों द्वारा कहानी की घटनाओं का सजीव चित्रण करना चाहिए ।

कहानी का चुनाव – कहानी का चुनाव करते समय अध्यापक को इस बात का ध्यान रखना है कि सर्वप्रथम कहानी बालकों के मानसिक स्तर के अनुकूल हो, दूसरी कहानी की भाषा सरल हो। कहानी वह उत्तम मानी जायेगी जिसमें कथोपकथन की मात्रा अधिक होगी। कक्षा 6 के लिए ऐतिहासिक कहानियों की सूची अग्रलिखित है-

1मनुष्य की प्रारम्भिक दशा। 2- सिन्धु घाटी की कहानी। 3- रामायण की कहानी। 4- महाभारत की कहानी। 5- भगवान् बुद्ध का जीवन। 6- चन्द्रगुप्त मौर्य। 7- सिकन्दर ओर पुरु का युद्ध। 8- अशोक और कलिंग का युद्ध। 9चंद्रगुप्त विक्रमादित्य। 10 हर्ष का जीवन। 11 कालिदास का जीवन। 12- मुहम्मद साहब का जीवन ।

(2) जीवन-गाथा पद्धति –

वस्तुतः यह इतिहास के पाठ्यक्रम को निर्धारित करने का सिद्धान्त है, परन्तु कुछ विद्वान् इसको शिक्षण विधि के रूप में ग्रहण करते हैं। उनका विचार है कि महापुरुषों की जीवन-गाथाओं के रूप में इतिहास को क्रमिक रूप से पढ़ाया जाय। इसके समर्थकों का कहना है कि “The great men represent their times……………the history of what man has accomplished in this world is at bottom the history of the great man who have worked here.” ये महापुरुष ही आन्दोलनों के प्रवतंक होते हैं। इस विधि की उपयोगिता अधिकतर प्राइमरी तथा कुछ सीमा तक जूनियर स्तर की कक्षाओं में है। इस पद्धति के द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों को सजीव एवं रोचक बनाया जा सकता है। यह ऐतिहासिक तथ्यों को स्थूलात्मक रूप में प्रस्तुत करने में सहायक है, परन्तु यह विधि अप्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों पर आधारित है। इसके द्वारा उच्च तथा निम्न का भेद उत्पन्न किया जाता है। व्यक्ति अपने समय का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता। इसके द्वारा समय-ज्ञान का विकास ठीक प्रकार से नहीं किया जा सकता ।

प्रो० भाटिया का कहना है कि इस पद्धति का पूर्ण रूप से बहिष्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा इतिहास को छोटे बच्चों के लिए स्थूलात्मक बनाया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि “We should not forget that the adolescent as well as young children shows a keen interest in the lives and works of the chief historical figures. The hero worshipping tendency cannot be overlooked.”

(3) स्रोत पद्धति –

अतीत के इतिहास का पता लगाना एक जटिल प्रश्न है। वर्तमान समय में निवास करने वाला मनुष्य व्यक्तिगत रूप से इस बात का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त कर सकता है कि शताब्दियों पूर्व किस देश में क्या हुआ ? इतिहास एक वैज्ञानिक विषय है अतः इतिहासकार निरर्थक तथा काल्पनिक कहानियों के आधार पर अपनी ऐतिहासिक बातों का निर्माण नहीं कर सकता है। वह चाहे किसी काल का इतिहास लिखे, उसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि वह उस समय की वास्तविकता का वर्णन करे। अतः इतिहासकार का आधार तथ्य है। इतिहास स्पष्ट प्रमाणों तथा वास्तविक आधारों पर आश्रित होता है। अतः इतिहासकार वास्तविक बातों के आधार पर ही इतिहास लिखते हैं। कोई भी लेखक किसी भी प्रकार से स्वयं अतीत काल में नहीं जा सकता। अतः उस समय जो व्यक्ति उपस्थित थे, उन्होंने जो घटनायें देखीं और उन्हें लिखकर रखा अथवा उनके पत्र व्यवहार पर इतिहासकार को रहना पड़ता है। इन प्रमाणों तथा आधारों को चाहे वे लिखित है अथवा अलिखित, हम तथ्य कहते हैं। ये तथ्य हमारे इतिहास के लिए स्रोत है।

प्रो० भाटिया तथा भाटिया ने सूत्र-पद्धति के विषय में लिखा है कि-

“Source method helps the pupils of high classes to construct a super structure of historical facts with the help of materials called sources which include the written records, old chronocles, diarics, firmans, charters, letters, contemporary documents old inscriptions, coins, statutes, ruing, battlefields, pottery, tools, clothes, arms and armour, roads and bridges, monuments, building etc.

स्रोत पद्धति का प्रयोग किस स्तर पर किया जाय ?

इस पद्धति के प्रयोग के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का कहना है कि स्रोतों का उपयोग उच्च कक्षाओं में होना चाहिए; क्योंकि जूनियर स्तर के बालकों का मानसिक स्तर इतना विकसित नहीं हो पाता कि वे इनको समझ सकें तथा इनका उपयोग कर सके; परन्तु दूसरे विद्वानों का मत है कि इनका प्रयोग प्रारम्भिक स्तर से किया जाना चाहिए। इस मत के प्रमुख समर्थक डा० कीटिंग हैं। इस मत के समर्थकों ने स्रोतों के प्रयोग के लिए इस प्रकार बताया है-

(i) प्रारम्भिक स्तर पर कुछ सूत्रों का प्रयोग वातावरण तथा वास्तविकता स्थापित करने के लिए किया जा सकता है।

(ii) जूनियर स्तर पर अभिलेखों पर अभ्यास प्रश्न दिये जायें। इससे उनकी स्रोतों को पढ़ाने की रुचि बढ़ेगी तथा आवश्यक तथ्यों का चयन करना सीख जायेंगे। इसके अतिरिक्त उनकी निर्णय-शक्ति का विकास होगा ।

(iii) हाईस्कूल स्तर पर उनको स्रोत पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। इसके अतिरिक्त उनसे उनका प्रयोग कराया जाय।

स्रोतों का वर्गीकरण

हेनरी जॉनसन ने स्रोतों को दो भागों में विभक्त किया है। वे इस प्रकार हैं:

(i) परम्पराएँ (Traditions)

(ii) अवशेष (Remains)

(i) परम्पराएँ- परम्पराओं को मोखिक, हस्तलिखित एवं छपी हुई तथा चित्रात्मक रूप में विभक्त किया गया है। परम्पराएँ चेतनशील स्मारक चिह्न है।

(ii) अवशेष— ये अचेतनशील स्मारक चिह्न है। इनके अन्तर्गत कलात्मक प्रदर्शन सामग्री, सांस्कृतिक स्पर्श-सक्षण आदि आते हैं।

स्रोतों को एक-दूसरे ढंग से विभाजित किया गया है। इनके अनुसार स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया है वे निम्नलिखित हैं-

1— मौलिक स्रोत (Primary Sources )

2- सहायक स्रोत (Secondary Sources )

(1) मौलिक स्रोत- इनके अन्तर्गत प्रत्यक्ष अवशेष सामग्री आती है जैसे- स्मारक, सिक्के, यन्त्र, आज्ञा-पत्र आदेश, फरमान आदि ।

(2) सहायक स्त्रोत- इनके अन्तर्गत पुस्तकें, जीवन चरित्र, यात्म-कथाएँ इत्यादि आते हैं।

इतिहास-शिक्षण में स्रोतों का प्रयोग- इतिहास का शिक्षक किसी प्रकरण का शिक्षण करते हुए स्रोतों का प्रयोग अधोलिखित स्तरों पर कर सकता है—

(1) इतिहास-शिक्षक पाठ के प्रारम्भ में छात्रों की जिज्ञासा के जाग्रत करने के लिए स्रोतों का प्रयोग कर सकता है।

(2) शिक्षक पाठ का विकास करते समय छात्रों के ज्ञान को स्पष्ट एवं समुद्र करने के लिए इनका प्रयोग कर सकता है।

(3) शिक्षक अपने पाठ को समाप्त करने के उपरान्त भी इनका प्रयोग कर सकता है। ऐसा वह छात्रों से मौलिक या सहायक स्रोतों के आधार पर किसी प्रश्न का उत्तर लिखवाने के लिए कर सकता है ।

शिक्षक स्रोतों का प्रयोग बघोलिखित अभिप्रायों की पूर्ति के लिए कर सकता है।

(i) कक्षा में ऐतिहासिक वातावरण उत्पन्न करने के लिए ।

(ii) मौखिक पाठ की पूर्ति के हेतु।

(iii) ऐतिहासिक आलोचनाओं की परीक्षा हेतु ।

छात्रों के द्वारा सूत्रों का प्रयोग निम्नलिखित रूप से कराया जाना चाहिए-

(i) शिक्षक छात्रों को अभिलेखों पर अभ्यास प्रश्न दे। इसके लिए वह अभिलेख के उद्धरण बच्चों के समक्ष प्रस्तुत करे।

(ii) इस कथन पर प्रश्न करे।

(iii) प्रश्नों द्वारा विश्लेषण कराकर उनको अपना निर्णय बनाने के लिए। समर्थ बनाये ।

उदाहरणार्थ-

“उसने किसी से बिना सलाह किये अथवा बिना योजना के गुण-दोषों की विवेचना किये ही दिल्ली का, जो 170 अथवा 180 वर्ष से समृद्ध होती आ रही थी और जो बगदाद तथा काहिरा से प्रतिस्पर्धा करती थी, नाश कर दिया। नगर, उसकी सराएँ, किनारे के बाग तथा गाँव जो चार-पांच कोस की परिधि में फैले हुए ये वे सब नष्ट अथवा ऊजड़ हो गये। एक बिल्ली अथवा कुत्ता भी न बचा। लोगों ने अपने  परिवारों सहित नगर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया, उनके हृदय टूट गये, उनमें से अनेक मार्ग में ही नष्ट हो गये और जो देवगिरि (दौलताबाद) पहुंच गये, वे भी अपने निर्वासन को न सह सकने के कारण घुल-घुलकर मर गये। काफिरों की भूमि देवगिरि के चारों ओर मुसलमानों की कब फैल गई। सुलतान ने मार्ग में तथा वहाँ पहुंचने पर लोगों की बहुत सहायता की; किन्तु सुकोमल होने के कारण वे निर्वासन को न सह सके। वे उन काफिरों के देश में जाकर पड़ गये और उन असंख्य लोगों में से बहुत कम अपनी जन्म भूमि को पुनः लौटने के लिए बच सके।”

इस कथन पर अधोलिखित प्रश्न शिक्षक द्वारा छात्रों से पूछे जायेंगे जिससे इस उद्धरण का विश्लेषण हो जाय-

प्रश्न

  1. यह कथन किस काल से सम्बन्धित है ?
  2. किस सुलतान ने राजधानी परिवर्तित की थी ?
  3. मुहम्मद तुगलक ने किस जगह को ऊजड़ बना दिया ?
  4. उसने दिल्ली के स्थान पर किस शहर को राजधानी बनाया ?
  5. देवगिरि किन लोगों का देश था ?
  6. लोगों के हृदय क्यों टूट गये थे ?
  7. मुहम्मद तुगलक ने मार्ग में लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया ?
  8. दिल्ली से जाने वालों का हृदय देवगिरि में क्यों नहीं लगा ?
  9. देवगिरि किन लोगों की कब्रों से घिर गया था ?
  10. देवगिरि से कितने लोग पुनः दिल्ली आ सके ?
  11. इस कथन के आधार पर आप इस योजना के बारे में क्या निष्कर्ष निकालते हो ?

स्रोत-पद्धति के लाभ

  1. इनके प्रयोग से छात्र इतिहास की घटनाओं के सत्य-ज्ञान से अवगत हो जाते हैं।
  2. इनके प्रयोग से अतीत को वास्तविक बनाया जाता है।
  3. इनके प्रयोग से छात्रों की मानसिक शक्तियों को विकसित किया जाता है।
  4. प्रो० भाटिया के अनुसार, “Sources will be useful for illus- trating and supplementing oral lessons, for introducing different sides and different points of view, to train children to evaluate historical evidence and historical criticism.”

स्रोत-पद्धति की सीमायें

  1. ऐसी पुस्तकों का प्रभाव जिनमें इतिहास के स्रोतों का संकलन हो ।
  2. यह विधि जटिल है।
  3. इस विधि के प्रयोग के लिए समय की अधिक आवश्यकता है जबकि शिक्षालय की समयत्तालिका में इतिहास के लिए कम समय प्राप्त होता है।
  4. प्रो० भाटिया के अनुसार, “The original documents are too difficult, too complex, too technical and laborious bep interpreted and grasped.”

छात्राध्यापकों की सुविधा के लिए इस पद्धति के अनुसार शिक्षण करने के लिए एक पाठ की रूपरेखा उदाहरणस्वरूप नीचे दी जा रही है-

प्रकरण- अशोक का धम्म’

इस प्रकरण के शिक्षण द्वारा छात्रों को अधोलिखित बातों का बोध (Understanding) कराया जा सकता है-

  1. युद्धों के कारण लोगों को कष्ट, मृत्यु तथा भुखमरी का सामना करना पड़ता है।
  2. राजा जनता का स्वामी न होकर सेवक होता है।
  3. अच्छे शासन की प्रमुख विशेषता जनहित में निहित है।
  4. सद्गाचरण तथा दूसरों का आदर करना आदि सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक है।
  5. धर्म शुद्ध रूप से वैयक्तिक है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा के अनुसार किसी भी धर्म का अनुसरण करने के लिए स्वतन्त्र है।

विषय-वस्तु एवं अध्यापन-बिन्दु (Contents and Teaching Hints)

  1. कलिंग-युद्ध – अशोक का हृदय परिवर्तन |
  2. शिलालेखों पर अंकित निर्देश ।
  3. अशोक की सामाजिक कल्याण एवं धार्मिक सहिष्णुता की नीति |
  4. आधुनिक समय के लिए उसके धम्म की उपयोगिता ।

शिक्षक अघोलिखित स्रोतों का प्रयोग कर सकता है-

(i) लघु शिलालेख II पर अंकित निर्देशों का प्रयोग जिसमें माता-पिता, गुरुजनों आदि की आज्ञाओं के पालन पर बल दिया गया है।

(ii) शिलालेख XIII पर अंकित निर्देशों का प्रयोग जिनमें सेवकों, दासों, रिश्तेदारों, साथियों तथा मित्रों के साथ उचित व्यवहार पर बल दिया गया है।

(iii) शिलालेख VII का प्रयोग जिसमें हृदय एवं ज्ञान, शुद्धता तथा आत्मसंयम पर बल दिया गया है।

(iv) शिलालेख XIV तथा XV का प्रयोग जिसमें धार्मिक स्वतन्त्रता तथा राजा के जनता के प्रति कर्तव्यों का उल्लेख है।

शिक्षक इन स्रोतों को कम से प्रस्तुत करेगा और साथ-साथ प्रश्नों द्वारा उनका छात्रों से विश्लेषण करायेगा। इसके उपरान्त शिक्षक स्वयं अपनी व्याख्या देगा और प्रयुक्त किए स्रोतों की मुद्रित या टाइप की प्रतियाँ वितरित कर देगा जिससे छात्र इनका बाद में भी प्रयोग कर सकें।

(4) पाठ्य पुस्तक विधि-

पाठ्य पुस्तक शिक्षण प्रक्रिया में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। बहुधा यह कहा जाता है कि भारत में समस्त शिक्षण कार्य इस पद्धति से किया जाता है, परन्तु यह कथन बनिदिष्ट सा प्रतीत होता है, क्योंकि प्रत्येक शिक्षण पद्धति का प्रयोग पाठ्य पुस्तक को आधार बनाकर किया जा सकता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पाठ्य पुस्तक वह साधन है जिसके द्वारा किसी निर्दिष्ट उद्देश्य या तथ्य को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पाठ्य पुस्तक पद्धति एक स्वतन्त्र पद्धति नहीं है, वरन् यह वह प्रक्रिया या माध्यम है जिसके द्वारा ज्ञानाजित किया जा सकता है; परन्तु आधुनिक मनोवैज्ञानिक विचार- द्वारा ने इस पद्धति को निन्दनीय घोषित किया है। वह इसको परम्परागत पद्धति की संज्ञा प्रदान करती है। एडम्स बेस्ले के मतानुसार, “पाठ्य-पुस्तक पद्धति शिक्षण की वह प्रक्रिया है जिसमें पाठ्य पुस्तक पर अधिकार प्राप्त करना हमारा तात्कालिक ध्येय होता है।”

इस पद्धति में इतिहास की किसी एक पुस्तक को या एक प्रकरण के लिए कई पुस्तकों को पाठ्य-पुस्तक के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। इस पद्धति का उपयोग अधोलिखित रूपों में किया जा सकता है :-

  1. किसी तथ्य या विचार को कंठस्थ करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है।
  2. इसका प्रयोग पाठ को पूर्णतया रटने के स्थान पर रटने के साथ-साथ उसके भावों को ग्रहण करने के लिए किया जा सकता है।
  3. किसी प्रकरण को अध्ययन के हेतु निर्धारण करके उसका सारांश तैयार कराने के लिए किया जा सकता है।

पाठ्य-पुस्तक पद्धति के गुण

  1. स्वाध्ययन की आदत का निर्माण करती है
  2. स्मरण-शक्ति का विकास करती है।
  3. ज्ञानार्जन का मितव्ययी साधन ।
  4. कार्य में व्यवस्था स्थापित करने में सहायता प्रदान करती है ।
  5. किसी प्रश्न या प्रकरण के हेतु कितनी पाठ्य-वस्तु प्राप्त करनी चाहिए इसका निश्चित अनुमान बालकों को प्राप्त होता है।

पाठ्य-पुस्तक पद्धति के दोष

  1. वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने में असमर्थ ।
  2. रटने की प्रवृत्ति तथा छपी हुई बातों का अन्धानुकरण करने की प्रवृत्ति का विकास ।
  3. यह शिक्षण-सूत्रों; जैसे-सरल से कठिन की ओर, मनोवैज्ञानिक से तर्क- सम्मत कम की ओर बादि की अवहेलना करती है ।
  4. कक्षा के वातावरण को नीरस बनाती है।

(5) प्रयोगशाला विधि-

कुछ समय पूर्व प्रयोगशाला को विज्ञान की शिक्षा तक सीमित समझा जाता था; परन्तु वैज्ञानिक प्रवृत्ति ने अब इसको प्रत्येक विषय के लिए आवश्यक बना दिया है। सामाजिक विषयों की शिक्षा के लिए भी प्रयोगशाला का होना आवश्यक है। पाश्चात्य देशों में इनके शिक्षण के लिए प्रयोगशालाओं की स्थापना की ओर ध्यान दिया जाने लगा है, परन्तु अभी उनकी व्यवस्था उचित रूप से नहीं हो पा रही है। इतिहास शिक्षण में इस पद्धति का प्रयोग बहुत लाभदायक एवं आवश्यक है, क्योंकि इसके द्वारा ऐतिहासिक वातावरण निर्मित करने में सहायता मिलती है जो कि विषय को रोचक बनाता है। इस पद्धति के प्रयोग में शिक्षक बालकों को कार्य निर्धारित करता है और उसके पश्चात् वह उससे सम्बन्धित सामग्री की उपलब्धि के स्रोतों आदि के विषय में बता देता है। बालक उसके पश्चात् अपना अपना कार्य वैयक्तिक रूप से करते हैं। यह कार्य दो रूपों में हो सकता है- (1) निरी-क्षित तथा (2) अनिरीक्षित। प्रथम में शिक्षक उनके कार्य का निरीक्षण करता रहता है तथा आवश्यकतानुसार उनको कठिनाइयों का समाधान करके उनका पथ-प्रदर्शन करता है। दूसरे में शिक्षक के द्वारा उनके कार्य का निरीक्षण नहीं किया जाता वरन् समस्त कार्य छात्र ही अपनी योग्यता के द्वारा करते हैं।

प्रो० एच० सी० हिल (H. C. Hill) द्वारा इस पद्धति का स्वरूप इस प्रकार वर्णित किया गया :-

“प्रयोगशाला पद्धति में छात्रों का अधिकांश समय अपनी मेजों पर अध्ययन एवं लिखित कार्य करने में व्यतीत होता है। दो या तीन छात्र किसी संदिग्ध विषय पर चर्चा कर सकते हैं। दूसरे नोट्स की तुलना या किसी कार्य की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं। एक छात्र शब्दकोश को देखने में संलग्न हो सकता है………..दूसरा एटलस का अध्ययन करने में व्यस्त हो सकता है तीसरा छात्र किसी कठिनाई के विषय में शिक्षक से सलाह ले सकता है या अपने नोट्स या रूपरेखाओं के विषय में उससे आलोबना प्राप्त कर सकता है। सामान्यतः कक्षा कक्ष शान्त स्थान है जिसमें छात्र किसी न किसी लाभप्रद क्रिया में संलग्न रहते हैं। “

इतिहास की प्रयोगशाला में निम्नलिखित सामग्री का होना आवश्यक है :-

  1. प्रायोगिक कार्य के हेतु भेजें,
  2. श्यामपट,
  3. शो-केश,
  4. रेडियो,
  5. मैजिक लेन्टनं या प्रोजेक्टर स्क्रीन आदि,
  6. ऐतिहासिक मानचित्र,
  7. समय-रेखाएँ, रेखाचित्र, समय-प्राफ आदि,
  8. ऐतिहासिक चित्र,
  9. मॉडल, सिक्के आदि ।

प्रयोगशाला पद्धति के गुण

  1. छात्रों को वैयक्तिक विभिन्नताओं के अनुसार कार्य करने का सुअवसर प्रदान करती है।
  2. इसमें बालक सक्रिय होकर स्वयं ज्ञानार्जन करता है।
  3. वैयक्तिक विकास सम्भव ।
  4. इसके प्रयोग से सामूहिक शिक्षण के दोषों का निवारण किया जा सकता है ।
  5. परम्परागत परीक्षा- प्रणाली के दोषों के निवारण में सहायक ।

प्रयोगशाला पद्धति को सीमाएँ

  1. वह बहुत व्ययसाध्य है।
  2. छात्रोपयोगी पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों तथा स्रोत पुस्तकों का अभाव ।

(6) समस्या तथा योजना पद्धति – समस्या पद्धति योजना पद्धति से पर्याप्तस रखती है। इन दोनों पद्धतियों में बालक की क्रियाशीलता एवं रुचियों को महत्ता प्रदान की जाती है। इसके अतिरिक्त ये दोनों ही समस्यात्मक स्थिति की प्रतिक्रिया पर आधारित हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण अन्तर इस बात का है कि योजना- पद्धति में शारीरिक एवं मानसिक क्रिया की प्रधानता है; परन्तु समस्या-पद्धति में मानसिक क्रिया की प्रधानता है। इसमें बालक केवल मानसिक तुष्टि प्राप्त करता है। यह पद्धति केवल उच्च कक्षाओं में व्यवहार्य है; क्योंकि इसमें मानसिक निष्कर्षों पर ही अधिक बल दिया जाता है। समस्या-पद्धति का प्रमुख गुण मानसिक क्रिया एवं आलोचनात्मक चिन्तन है।

प्रो० भाटिया के अनुसार, “Problems are situations which invite solutions and which challenge the mind. They stimulate curiosity and evoke maximum mental activity. Activity co-operation of the pupil is sought……..The Problem Method is conducive to a habit of thin- king and reasoning but the problems should be judiciously chosen.”

इतिहाम-शिक्षण में इस विधि का महत्वपूर्ण स्थान है। इतिहास की विभिन्न समस्याओं को हल के लिए छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। छात्र स्वयं भी समस्या प्रस्तुत कर सकते हैं।

इतिहास-शिक्षण में योजना-पद्धति के उपयोग के सम्बन्ध में मतभेद है । प्रो० बाइनिंग तथा बाइनिंग का मत है कि इतिहास में योजना पद्धति का व्यवहार कठिन है; परन्तु T. W. Sussams का मत है कि इसका प्रयोग किया जा सकता है। इसके द्वारा इतिहास के शिक्षण को समाजीकृत बनाया जा सकता है। इसके प्रयोग से बालकों के सामूहिक प्रयत्नों को किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए काम में लाया जा सकता है। यह पद्धति पूर्ण एवं स्वतन्त्र आत्माभिव्यक्ति के हेतु लाभदायक है। इतिहास-शिक्षण में इसके प्रयोग के लिए पाठ्य-दस्तु को इकाइयों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रत्येक इकाई को छात्रों के सहयोग से पूरा किया जाना चाहिए, परन्तु इतना सत्य है कि इतिहास को बहुत-सी ऐसी सामग्री है जिसके अध्यापन के हेतु इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

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Pankaja Singh

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