शिक्षाशास्त्र

माध्यमिक शिक्षा का अर्थ | भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास

माध्यमिक शिक्षा का अर्थ | भारत में माध्यमिक शिक्षा का विकास

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माध्यमिक शिक्षा का अर्थ

(The Meaning of Secondary Education)

औपचारिक शिक्षा की अवधि को मुख्यतः दो स्तरों में बाँटा जा सकता है-स्कूल स्तर की शिक्षा तथा उच्च स्तर की शिक्षा । स्कूल स्तर की शिक्षा को भी तीन भागों में बाँटा जा सकता है- पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा। स्कूल शिक्षा के ये तीन भाग बच्चों के विकास की तीन अवस्थाओं-शिशुकाल, बाल्यावस्था तथा किशोर अवस्था के अनुकूल हैं । माध्यमिक शिक्षा को हम किशोरों की शिक्षा भी कह सकते हैं। वे स्कूल जो किशोरावस्था तक के बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करते हैं उन्हें माध्यमिक स्कूल कहा जाता है। 1960 के बंगाल माध्यमिक शिक्षा अधिनियम के अनुसार “माध्यमिक शिक्षा से अभिप्राय उन बच्चों की शिक्षा से है जो प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं और उनमें साधारण तकनीकी, औद्योगिक, कृषि सम्बन्धी और व्यापारिक शिक्षा सम्मिलित हैं।”

माध्यमिक शिक्षा किसी विशेष प्रकार की शिक्षा नहीं है। यह तो स्कूल शिक्षा का एक ‘स्तर’ है। पूर्व प्राथमिक तथा प्राथमिक अथवा माध्यमिक में विभाजन रेखा ऐच्छिक तथा परिवर्तनशील है। हमारे देश में स्कूल शिक्षा के प्रति निश्चित नीति के अभाव के कारण विभिन्न राज्यों में माध्यमिक शिक्षा की अवधि एक समान नहीं है। कई राज्यों में प्रारम्भिक तथा माध्यमिक शिक्षा के बीच मिडिल स्टेज भी है। यदि हम प्राथमिक शिक्षा के बाद को शिक्षा को माध्यमिक शिक्षा मान लें तो हम मिडिल स्टेज (Middle Stage) को भी माध्यमिक शिक्षा में सम्मिलित कर सकते हैं। पर यदि मिडिल स्टेज को उच्चतर प्रारम्भिक शिक्षा कहा जाये तो माध्यमिक शिक्षा मिडिल स्टेज के बाद आरम्भ होती है। भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66) के अनुसार माध्यमिक शिक्षा सात या आठ वर्ष की शिक्षा के बाद आरम्भ होनी चाहिए। पंजाब, हिमाचल तथा हरियाणा में पाँच वर्ष की आरम्भिक शिक्षा के बाद माध्यमिक शिक्षा शुरू होती है। माध्यमिक शिक्षा हाई स्कूलों में पाँच वर्ष की तथा हायर सेकेंडरी स्कूलों में छ: वर्ष की होती है।

भारत में माध्यमिक शिक्षा के वर्तमान ढाँचे की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

(Historical Background of Modern Secondary Education in India)

स्वतन्त्रता पूर्व माध्यमिक शिक्षा का विकास

(Pre-Independence Development of Secondary Education)

हमारे देश में माध्यमिक शिक्षा के वर्तमान ढाँचे का आरम्भ ‘लार्ड मैकाले’ के मिनिट्स (Minutes) तथा सरकार के 1835 के प्रस्ताव से होता है जिसके फलस्वरूप अंग्रेजी भाषा पर आधारित अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना हुई। इन स्कूलों की शिक्षा सरकारी नौकरी प्राप्त करने में सहायक होती थी और इन स्कूलों में शिक्षित व्यक्तियों को सरकारी कार्य के लिए प्राथमिकता दी जाती थी।

(1) वुड का डिस्पैच, 1854 (Wood’s Despatch, 1854)-

इस घोषणा-पत्र यह सिफारिश की कि सार्वजनिक शिक्षा के विभाग (Department of Public Instruction) तथा विश्वविद्यालय(Universities) स्थापित किये जाएँ। 1857 में कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास-तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना के फलस्वरूप इनका माध्यमिक स्कूलों पर प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस प्रकार माध्यमिक शिक्षा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने की एक सीढ़ी बन गयी।

1854 से 1882 के बीच में मातृभाषा की शिक्षा का माध्यम के रूप में पूरी तरह से उल्लंघन किया गया। माध्यमिक स्कूलों के अध्यापकों के प्रशिक्षण हेतु कोई भी कार्यक्रम नहीं अपनाया गया। व्यावसायिक तथा तकनीकी पाठ्यक्रमों के अभाव के कारण पाठ्यक्रम अत्यधिक शैक्षिक तथा जीवन से दूर हो गया। मैट्रिक की परीक्षा का न केवल माध्यमिक शिक्षा पर अपितु प्राथमिक शिक्षा पर भी प्रभुत्व हो गया।

(2) हण्टर आयोग, 1882 (Hunter Commission, 1882)-

हण्टर आयोग ने सुझाव दिया कि हाई स्कूलों में किसी भी श्रेणी में दो प्रकार के पाठ्यक्रम होने चाहिए, जिनमें से एक का सम्बन्ध तो विद्यालय की प्रवेश परीक्षा से होगा और दूसरा व्यावहारिक होगा जिसका उद्देश्य नवयुवकों को वाणिज्य असाहित्यिक अथव व्यावसायिक जीवन के लिए तैयार करना होगा। परन्तु सरकार ने इसका उल्लंघन किया क्योंकि शिक्षित वर् साहित्यिक अध्ययन को व्यावहारिक शिक्षा की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण समझता था। यदि इन सिफारिशों को उस समय कार्यरूप दे दिया जाता तो आज माध्यमिक शिक्षा का ढाँचा भिन्न होता।

1882 से 1902 तक के समय में निजी संस्थाओं के प्रयास तथा अनुदान (grant-in-aid) प्रणाली के कारण माध्यमिक शिक्षा में विशेष रूप से विस्तार हुआ परन्तु शिक्षा का स्तर निम्न रहा।

(3) विश्वविद्यालय आयोग, 1902 (University Commission, 1902)-

इस आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप माध्यमिक शिक्षा अधिकतर विश्वविद्यालयों के नियन्त्रण में आ गई। फलस्वरूप कुछ राज्यों में माध्यमिक शिक्षा के बोर्ड स्थापित किये गए।

(4) 1904-1913 के समय में भारतीय शिक्षा सम्बन्धी नीति पर प्रस्ताव-

इन प्रस्तावों का मुख्य उद्देश्य औद्योगिक तथा व्यापारिक शिक्षा का प्रबन्ध करना था तथा शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी के प्रयोग को कम करना था। परन्तु इन प्रस्तावों के होने पर भी माध्यमिक शिक्षा पुराने ढंग से चलती रही।

(5) सैडलर आयोग, 1919 (Sadler Commission, 1919)-

इस आयोग ने परीक्षा आधारित शिक्षा के ढाँचे के दोषों को दर्शाया तथा साहित्यिक विषयों में लचीलेपन के अभाव की ओर संकेत किया। इस आयोग ने अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व, अध्यापकों में कार्यकुशलता की हीनता और उनकी शोचनीय कार्य की परिस्थितियों की ओर भी ध्यान आकर्षित किया। इस आयोग ने विचार प्रकट किया कि विश्वविद्यालय की शिक्षा में सुधार के लिए माध्यमिक शिक्षा का सुधार अत्यन्त आवश्यक है । इसने सिफारिश की कि विश्वविद्याल की शिक्षा तथा माध्यमिक शिक्षा को विभाजित करने वाली रेखा माध्यमिक परीक्षा (Intermediate Examination) होनी चाहिए। परिणामस्वरूप अनेक स्थानों पर इण्टरमीडिएट कॉलेज स्थापित हो गए। देश के कुछ भागों में विशेषकर उत्तर प्रदेश में आज भी इण्टरमीडिएट कॉलेज मिलते हैं।

(6) हटांग कमेटी, 1929 (Hartog Committee, 1929)-

इस कमेटी ने सुझाव दिया कि आठवीं श्रेणी के पश्चात् अधिकतर विद्यार्थियों को औद्योगिक तथा व्यापारिक दिशाओं में भेजना चाहिए जिससे कि उन्हें विशेष रूप से औद्योगिक अथवा तकनीकी स्कूलों के लिए तैयार किया जा सके।

(7) सप्रू कमेटी,1934 (Sapru Committee, 1934)–

इस कमेटी ने यह सुझाव दिया कि माध्यमिक स्तर पर विभिन्न पाठ्यक्रम आयोजित किए जाएं जो स्वयं में पूर्ण हों एवं छात्रों की व्यावसायिक आवश्यकता की पूर्ति करते हों । विश्वविद्यालय की ओर ले जाने वाले पाठ्यक्रम समानान्तर हों एवं दूसरी प्रकार के पाठ्यक्रम में तकनीकी वाणिज्य तथा व्यावसायिक विषय हों।

(8) भारतीय विश्वविद्यालय सम्मेलन, 1934 (Conference of Indian Universities, 1934)-

इस सम्मेलन ने सुझाव दिया कि बेकारी की समस्या का समाधान करने हेतु तथा कॉलेजों में भीड़ कम करने के लिए अधिक संख्या में विद्यार्थियों को औद्योगिक क्षेत्रों के लिए तैयार किया जाए।

(9) एबट-वुड रिपोर्ट, 1937 (Abbot-Wood Report, 1937) –

एबट वुड ने सुझाव दिया कि सामान्य शिक्षा संस्थाओं के साथ-साथ क्रमानुसार व्यावसायिक शिक्षा संस्थाएँ भी स्थापित की जाएँ। फलस्वरूप देश  में पालिटेक्निक (Polytechnics) का जन्म हुआ। राज्यों में औद्योगिक, व्यापारिक तथा कृषि सम्बन्धी स्कूलों का भी आरम्भ किया गया।

(10) सारजेण्ट रिपोर्ट, 1944 (Sargent Report, 1944)-

सन् 1944 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् ने युद्धोत्तर-कालीन शैक्षिक परिस्थितियों की जाँच करने के लिए भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार सर जॉन सारजेण्ट (Sir John Sargent) की अध्यक्षता में एक सर्वेक्षण का गठन किया। इनकी रिपोर्ट में माध्यमिक शिक्षा के बारे में निम्नलिखित सुझाव दिए गए-(a)किसी प्रकार से भी माध्यमिक शिक्षा को विश्वविद्यालय में प्रवेश की एक सीट ही नहीं समझना चाहिए, अपितु इसे एक स्वतन्त्र तथा अपने आप में पूर्ण स्तर समझना चाहिए। कुछ होनहार बुद्धिमान विद्यार्थियों को ही उच्च शिक्षा मिलनी चाहिए। बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थियों को औद्योगिक तथा व्यावसायिक शिक्षा की ओर अग्रसर होना चाहिए जिससे कि वे विभिन्न व्यवसायों को अपना सकें । इन विद्यार्थियों में से किसी निश्चित प्रतिशत में कुछ को उच्च व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।

(b) हाई स्कूल दो प्रकार के होने चाहिए–(i) एकेडेमिक (Academic), (ii) तकनीकी (Technical) | एकेडेमिक स्कूलों में तो कलाओं तथा विज्ञानों (Arts and Sciences) की शिक्षा देनी चाहिए। परन्तु तकनीकी स्कूलों में व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। आठवीं श्रेणी तक की शिक्षा सब विद्यार्थियों के लिए एक जैसी होनी चाहिए।

(c) सभी हाई स्कूलों में शिक्षा का माध्यम विद्यार्थियों की मातृभाषा होनी चाहिए। स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में माध्यमिक शिक्षा का यह संक्षिप्त इतिहास है। 19वीं शताब्दी के मध्य से ही माध्यमिक शिक्षा में सुधार लाने पर अधिक बल दिया गया है। समय-समय पर कई आयोगों तथा कमेटियों ने माध्यमिक शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर विचार किया। परन्तु उनके परामर्श नहीं अपनाये गये। यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगा कि 1947 में माध्यमिक शिक्षा का ढांचा वही था जो कि 1854 में था। स्कूल मैट्रिक परीक्षा के लिए विद्यार्थियों को तैयार करते थे। पाठ्यक्रम पुस्तकों पर आधारित तथा सैद्धान्तिक था। स्कूल का ढाँचा बेलोच था।

स्वतन्त्रता के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा का विकास

(Post-Independence Development of Secondary Education)

15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ ही भारतीय शिक्षा के इतिहास में एक नया युग प्रारम्भ हुआ। माध्यमिक शिक्षा में कई नये विकास कार्य अपनाये गये। विभिन्न आयोग तथा समितियाँ जिन्होंने माध्यमिक शिक्षा में सुधार हेतु परामर्श दिये, निम्नलिखित हैं-

(1) डॉ० ताराचन्द समिति 1948-

1948 में भारत सरकार ने डॉ. ताराचन्द की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की जिसका मुख्य कार्य देश में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के बारे में सुझाव देना था ! इस कमेटी की रिपोर्ट पर केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (Central Advisory Board of Education) ने इलाहाबाद में 1949 में एक मीटिंग में विचार किया। इस बोर्ड (Board) ने निम्नलिखित निर्णय किये-

(i) विद्यार्थी को डिग्री श्रेणियों (Degree Classes) में प्रवेश के योग्य होने के लिए चार वर्ष का उच्च माध्यमिक कोर्स पूरा करना चाहिए।

(ii) उच्च माध्यमिक स्कूलों को बहुउद्देशीय होना चाहिए।

(iii) माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर परीक्षा लेनी चाहिए।

(2) विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग 1948

डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में इस आयोग ने सावधान किया कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में माध्यमिक शिक्षा सबसे कमजोर कड़ी है और इसमें तुरन्त सुधार करने की आवश्यकता है। इसमें आयोग ने यह परामर्श दिया कि विश्वविद्यालय में प्रवेश माध्यमिक स्तर (Intermediate Stage) के पश्चात् होना चाहिए।

(3) माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952-53-

केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड के बार-बार परामर्श पर तथा माध्यमिक शिक्षा के ढाँचे को परिवर्तित करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने सितम्बर 1952 में एक माध्यमिक शिक्षा आयोग की स्थापना की जिसके अध्यक्ष डॉ. ए. एल. मुदालियर (Dr. A.L. Mudaliar) थे। इस आयोग ने जून 1953 में अपनी रिपोर्ट दी। माध्यमिक शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर इस आयोग ने विस्तृत परामर्श दिए। जिसके आधार पर आगामी वर्षों में माध्यमिक शिक्षा पुनर्गठन किया गया।

(4) भारतीय शिक्षा आयोग, 1964-66-

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय शिक्षा के इतिहास में इस आयोग की रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण घटना है। इस आयोग का क्षेत्र बहुत विस्तृत था और शिक्षा के सारे पक्ष तथा स्तरों पर इस आयोग ने विचार किया। इस आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के वर्तमान ढाँचे को पुनगठित करने के लिए। बहुमूल्य परामर्श दिए हैं।

(5) चौथी योजना में माध्यमिक शिक्षा-

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74) में शिक्षा पर कुल 786 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 140 करोड़ रुपये माध्यमिक शिक्षा पर व्यय किए गए। इस योजना के दौरान कोठारी आयोग (1964-66) की सिफारिशों के आधार पर माध्यमिक शिक्षा का तेजी से विस्तार किया गया और बालिकाओं के लिए अलग से माध्यमिक विद्यालय खोले गए, साथ ही माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या और परीक्षा प्रणाली में सुधार किया गया।

(6) पाँचवी योजना में माध्यमिक शिक्षा-

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) में शिक्षा पर कुल 912 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 156 करोड़ रुपये माध्यमिक शिक्षा के विकास पर व्यय किए गए। इस योजना के दौरान माध्यमिक शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ उसके व्यावसायीकरण के लिए कदम उठाए गए। इस योजना के अन्तिम वर्ष 1979 में केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने खुले विद्यालय (Open School) की स्थापना की और माध्यमिक स्तर पर खुली शिक्षा की शुरूआत की।

(7) छठी योजना में माध्यमिक शिक्षा-

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में शिक्षा पर कुल 2530 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 530 करोड़ रुपये माध्यमिक शिक्षा के विकास पर व्यय किए गए। इस योजना के दौरान माध्यमिक विद्यालयों की दशा में सुधार के लिए विशेष प्रयत्न किए गए, विद्यालयों में विज्ञान किटें पहुँचाई गई।

(8) सातवीं योजना में माध्यमिक शिक्षा-

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में शिक्षा पर कुल 763 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 1832 करोड़ रुपये माध्यमिक शिक्षा के विकास कार्यों में व्यय किए गए। इस योजना के दौरान 1989 में केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने अपने खुले विद्यालय (Open School) क राष्ट्रीय खुला विद्यालय (National Open School) में समुन्नत किया।

(9) आठवीं योजना में माध्यमिक शिक्षा-

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) में शिक्षा पर कुल 19600 करोड़ रुपये व्यय किए गए जिनमें से 3498 करोड़ रुपये माध्यमिक शिक्षा के विकास पर व्यय किए गए। इस योजना के दौरान + 2 पर व्यावसायीकरण के लिए प्रयास शुरू हुए और यह लक्ष्य सामने रखा गया कि 1995 तक 10 प्रतिशत छात्रों को व्यावसायिक धारा में लाया जाएगा। इस योजना के अन्त तक राष्ट्रीय खुले विद्यालय (National Open School) में पंजीकृत छात्रों की संख्या बढ़कर लगभग 4 लाख हो गई।

(10) नवी योजना में माध्यमिक शिक्षा-

नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) में शिक्षा के लिए 20,381.6 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया था जिनमें से 2603.5 करोड़ रुपये माध्यमिक शिक्षा के विकास के लिए निर्धारित किए गए थे, परन्तु व्यय केवल 2322.7 करोड़ ही किए गए। इस योजना के तहत माध्यमिक शिक्षा के विस्तार एवं उन्नयन के लिए अनेक योजनाएँ चलाई गई जिनमें +2 पर व्यावसायीकरण करने हेतु प्रान्तीय सरकारों को विशेष आर्थिक सहायता देना विशेष महत्त्व रखता है। 1998-99 तक 6486 उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में 9.35 लाख अर्थात् 11 प्रतिशत छात्र-छात्राएँ व्यावसायिक धारा में आ चुके थे।

(11) दसवीं योजना में माध्यमिक शिक्षा-

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में शिक्षा की विभिन्न योजनाओं के लिए 42850 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया, जिनमें से 4325 करोड़ रुपये माध्यमिक शिक्षा के प्रसार, उन्नयन एवं व्यावसायीकरण के लिए निर्धारित किए गए। इस योजना का मुख्य लक्ष्य माध्यमिक शिक्षा का प्रसार और 25 प्रतिशत छात्र-छात्राओं को व्यावसायिक वर्ग में लाना है। 140 सरकारी उच्च माध्यमिक विद्यालयों को कम्प्यूटर से जोड़ने की भी योजना है।

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Pankaja Singh

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