शिक्षाशास्त्र

अपव्यय तथा अवरोधन में अन्तर | प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय के कारण | प्राथमिक शिक्षा में अवरोधन के कारण

अपव्यय तथा अवरोधन में अन्तर | प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय के कारण | प्राथमिक शिक्षा में अवरोधन के कारण

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प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय एवं अवरोध की समस्या

(Problems of Wastage and Stagnation in Primary Education)

प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में संविधान की 45वीं धारा में कहा गया है। कि “राज्य संविधान लागू होने के 10 वर्ष के अन्दर 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का उत्तरदायित्व लेगा।” संविधान की धारा से स्पष्ट है कि भारत में प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य सार्वभौमिक चाहिए, अर्थात् भारत राष्ट्र का प्रत्येक बालक शिक्षा प्राप्त करे। इस सार्वभौमिकता में तीन समस्यायें निहित हैं-

(1) शिक्षा के बीच में छोड़ने की सार्वभौमिकता (Break of Universal education)-

शिक्षा की यह समस्या सुविधाओं और प्रवेश की सार्वभौमिकता का अभाव, समस्याओं से जुड़ी हुयी है । बालक विद्यालय में जाता है, कुछ वर्ष विद्यालय में रहता है, फिर अनेक कारणों से विद्यालय छोड़ देता है । यह परिपाटी राष्ट्र के विकास में अपव्यय को प्रधानता देती है।

(2) सुविधाओं की सार्वभौमिकता का अभाव (Lack of Universal facilities)-

भारत में बहुत कम बच्चे ऐसे हैं जिनको घर से एक मील के भीतर विद्यालय प्राप्त होते हैं। अधिकांश बच्चों को घर से दूर चलकर विद्यालय जाना पड़ता है।

(3) प्रवेश की सार्वभौमिकता का अभाव (Lack of Universal Entrance)-

इस समस्या के अन्तर्गत बहुत से बालक ऐसे होते हैं जिनका विद्यालय में प्रवेश 6 वर्ष की अवस्था में होता है किन्तु कहीं पहली कक्षा की प्रवेश की आयु के समय बालक 10-11 वर्ष की आयु के होते हैं।

विद्यालय छोड़ने की प्रक्रिया में दो समस्यायें सामने आती हैं—(I) अपव्यय व (II) अवरोधन

(1) प्रथमिक शिक्षा में अपव्यय

(Wastage in Primary Education)

सन् 1921 के बाद प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय की समस्या उग्र रूप धारण करने लगी है। हटांग रिपोर्ट में भी कहा गया है कि “प्राथमिक शिक्षा उस समय तक प्रभावहीन रहेगी जब तक प्रत्येक बालक कम से कम चार वर्ष विद्यालय में रहकर साक्षरता प्राप्त नहीं कर लेता है।”

प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय के कारण

(Causes of Wastase in Primary Education)

प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय के निम्नलिखित कारण हैं-

(1) बालक श्रमिक के रूप में (Labour-like child)-

ग्रामों में रहने वाले बालक अपने माँ-बाप क सम्पत्ति का स्वरूप होते हैं, वे अपने बच्चों को खेतों पर मजदूरी के लिए ले जाते हैं, ऐसे माता-पिता के लिए मजदूरी से प्राप्त धन शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।

(2) विद्यालय में उचित स्थानाभाव (Lack of right place in school)

वह विद्यालय जहाँ काम चलाऊ कमरे नहीं होते, वहाँ पर भी अपव्यय ज्यादा पाया जाता है।

(3) एक अध्यापक वाले विद्यालय (Single teacher school)-

अपव्यय को बढ़ाने में एक अध्यापकीय विद्यालय विशेष योग देते रहते हैं। भारतीय शिक्षा सर्वेक्षण समिति की रिपोर्ट के अनुसार, इन विद्यालयों में अध्यापक की संख्या बढ़ाने में विशेष योग प्रदान किया है। एक अध्यापक के लिए एक साथ पाँच कक्षाओं को सम्भालना कठिन होता है। यदि अध्यापक छुट्टी पर चला जाय तो विद्यालय ही बन्द हो जाता है। इससे बालक विद्यालय में आने से कतराते हैं और पढ़ना छोड़ देते हैं।

(4) लड़कियों में अपव्यय अधिक (More wastage among girls) –

भारत में आज भी लड़कियों की शिक्षा को अच्छा नहीं माना जाता। उनके अपव्यय का प्रतिशत 12.9 है। कुल मिलाकर 57% बालक अपव्यय के अन्तर्गत आते हैं, फिर भी अपव्यय को रोकने के लिए कोई योजना नहीं बनाई गयी है।

(5) सामाजिक व आर्थिक रचना (Social and Economic structure)-

भारत की सामाजिक व आर्थिक रचना इस प्रकार की है कि वे अपने बच्चों को साधारण शिक्षा दिलवाने में विश्वास करते हैं। गांव में आज भी यह विचारधारा बनी हुई है। बालक को उतना ही पढ़ाना चाहिए जिससे उसको लिखना-पढ़ना आ जाये।

(6) साधनहीन विद्यालय (Helpless institution)-

कई विद्यालयों में शिक्षा के साधन नहीं होते, अध्यापक इन साधनों के अभाव में शिक्षा ही नहीं दे सकता। परिणामतः बालक इधर-उधर काम में लगे रहते हैं और सन्तोषजनक परिणाम न प्राप्त होने पर विद्यालय छोड़ देते हैं।

(II) प्राथमिक शिक्षा में अवरोधन

(Stagnation in Primary Education)

हटांग रिपोर्ट में कहा गया है कि अवरोधन से हमारा तात्पर्य बालक को एक ही कक्षा में एक वर्ष से अधिक रखने से है। आर० बी० परुलकर का कथन है कि“विद्यालयों की स्थापना इसलिए होती है कि वहाँ बालक शिक्षा प्राप्त कर सकें, इसलिए नहीं कि उनको अनुत्तीर्ण किया जाय।”

अनुत्तीर्ण होने वाले बालकों में आत्महीनता का विकास होता है और जब उससे कम आयु के बालक उसकी कक्षा में आने लगते हैं तब तो उससे असामान्यता की वृद्धि हो जाती है। प्रतिवर्ष प्राथमिक कक्षाओं में 30% से 50% तक अवरोधन होता है।

हटांग समिति भारत में प्राथमिक शिक्षा के विकास के प्रति बहुत सचेत रही है। समिति ने सन् 1917-27 के दस वर्षों में हुई शैक्षिक प्रगति पर सन्तोष प्रकट किया। उसने कहा प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में जो हमारी राय में साक्षरता और मताधिकार सिखाने का प्रमुख साधन है, बहुत अधिक अपव्यय है। जहाँ तक हमें विदित है प्राथमिक स्कूलों की संख्या में जितनी वृद्धि हुई है, साक्षरता उसी अनुपात में बढ़ी है।

अपव्यय तथा अवरोधन- प्राथमिक स्तर की वे समस्यायें हैं जिनकी ओर 50 वर्ष पूर्व हटांग समिति ने संकेत किया। सार्वभौमिक निःशुल्क शिक्षा की संवैधानिक घोषणा के बावजूद भी यह समस्या आज भी देश में विद्यमान है।

प्राथमिक शिक्षा में अवरोधन के कारण

(Causes of Stagnation in Primary Education)

प्राथमिक शिक्षा में अवरोधन के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं-

(1) आर्थिक अभाव (Lack of Money)-

अवरोधन का प्रमुख कारण आर्थिक अभाव है। स्थानीय प्रशासन शिक्षा पर अधिक व्यय नहीं कर सकता। राज्य सरकारों से अनुदान प्राप्त करने के लिए उन्हें राज्य सरकारों की दया पर जीवित रहना पड़ता है। इसीलिए विद्यालयों में अध्यापकों को वेतन के अतिरिक्त उचित शिक्षण सामग्री भी उपलब्ध नहीं हो पाती है।

(2) सामाजिक व धार्मिक समस्यायें (Social and Religious Problems)-

अवरोधन में हमारी सामाजिक व धार्मिक समस्यायें भी महत्वपूर्ण योग देती हैं। विद्यालयों में अनुसूचित जातियाँ, जनजातियाँ, अल्पसंख्यक, भाषायी समूह के आधार पर जिसका आधिक्य होता है उनके द्वारा बाकी की उपेक्षा की जाती है और यह उपेक्षा अवरोधन उत्पन्न करती है।

(3) राज्यों की दोषपूर्ण नीति (Defective Policy of States) –

लार्ड मैकाले ने अवरोधन के सन्दर्भ में जिस छनने की नीति का प्रतिपादन किया था वह आज भी उसी प्रकार चली आ रही है। मैकाले ने वर्ग-विशेष की शिक्षा की व्यवस्था की बात कही थी और आज भी शिक्षा परोक्ष रूप में वर्ग विशेष की शिक्षा की व्यवस्था की बात कही थी और आज भी शिक्षा परोक्ष रूप में वर्ग विशेष के लिए ही है। राज्य जन-शिक्षा के लिए जबानी जमा खर्च में बहुत आगे बढ़ा हुआ है और यह आज के सन्दर्भ में आदर्शवादी नीति को चलाना चाहता है लेकिन उसके यथार्थ को स्मरण करने का प्रयत्न नहीं करता । आर्थिक अभाव की बात कही जाती है, लेकिन शिक्षा को विनियोग के रूप में स्वीकार नहीं करता, जबकि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडप स्मिथ का कथन है कि-शिक्षा पर व्यय किया जाने वाला धन आने वाली पीढ़ी से ब्याज सहित लौट आता है। साथ ही अवरोधन को रोकने के लिए भी किसी योजना का निर्माण करने का कष्ट भी शिक्षा विभागों ने नहीं किया है।

(4) शैक्षिक तथा आर्थिक कारण (Education and Economic Causes)-

इन कारणों के अन्तर्गत शिक्षण के स्तर का नीचा होना, अनुचित पाठ्यक्रम और जनता की निर्धनता आते हैं। ये दोनों कारण शिक्षा के स्तर को गिराने में बहुत सहायक रहे हैं।

(5) अकुशल प्रशासन (Faulty Administration)-

प्राथमिक शिक्षा का भार स्थानीय संस्थाओं को सौंपकर राज्य सरकार चैन की नींद सोती है। स्थानीय प्रशासन के पास न तो अधिक धन ही होता है और न आय के स्रोत । इसलिए उनमें शिक्षा के विकास के प्रति कोई उत्साह नहीं रहता। यदि शिक्षा को अनिवार्य रूप से लागू करने के लिए स्थानीय प्रशासन अभिभावकों को नोटिस देते हैं तो वे चुनाव जीत नहीं सकते। साथ ही स्थानीय प्रशासन में अकुशल उपस्थित अधिकारियों के कारण भी अवरोधन को बल मिलता है। अवरोधन का एक और भी कारण है कि विद्यालयों की स्थापना अनियोजित रूप से की जाती है। ये विद्यालय किसी-किसी क्षेत्र में इतने अधिक हैं कि उनकी औसत उपस्थिति 100 के लगभग होती है। उपस्थित अधिकारी पर भार भी अधिक होता है और उन्हें 100 विद्यालय प्रतिवर्ष देखने होते हैं।

(6) भौतिक असुविधायें (Physical Non-facility) –

अवरोधन का प्रतिशत अधिक होने का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों, पहाड़ी तथा वन-प्रदेशों की शिक्षा की दृष्टि से उपेक्षा की जाती है।

प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय तथा अवरोधन को रोकने के सुझाव या उपाय

(Suggestions or Remedies for Preventing Wastage and Stagnation in Primary Education)

प्राथमिक शिक्षा अपव्यय तथा अवरोधन को रोकने के लिये निम्न सुझाव या उपाय सुझाये जा सकते हैं-

(1) स्कूल के अवकाश का समंजन समुदाय की आर्थिक आवश्यकताओं के अनुसार हो (Adjusting school vacations to meet the economic needs of the community) –

प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिकता के कारण निचले सामाजिक-आर्थिक ग्रुप के बच्चे स्कूल आने लगे हैं। ऐसे बच्चों की बहुत बड़ी संख्या ऐसी है जो या तो स्कूल छोड़ जाते हैं या एक ही कक्षा में काफी वर्ष लगाते हैं। इस समस्या का एक कारण यह है कि जब ऐसे बच्चों को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा ऐक्ट के अधीन स्कूल लाया जाता है तो उनके माता-पिता की आर्थिक अवस्था को ध्यान में रखते हुए गर्मियों के अवकाश का समंजन नहीं किया जाता। ऐसे बच्चों के अपव्यय तथा गतिहीनता को न्यूनतम करने के लिए यह आवश्यक है कि स्कूल के घण्टों तथा अवकाश का समंजन इस प्रकार किया जाए कि वे अपने अभिभावकों की सहायता भी कर सकें और स्कूल में पढ़ भी सकें । कृषि समुदायों में स्कूल का समय तीन घण्टे का होना चाहिए और अवकाश मुख्य फसलों के बोने और काटने के समय के साथ मेल खाए। इसी प्रकार दूसरे समुदायों के लिए भी उचित नमूना सोचा जा सकता है

(2) अभिभावकों की वित्तीय कठिनाइयों को दूर करना (Solving, the Financial Difficulties of Parents)

अभिभावकों की आर्थिक कठिनाइयों को हल करने के कुछ उपाय निम्न हैं-

(1) निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा (Free Primary Education)- देश के सभी भागों में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए।

(ii) दोपहर का भोजन, वर्दी तथा उपस्थितियों की छात्रवृत्ति (Mid-day Meals, Uniforms and Altendance Scholarships)- दोपहर के निःशुल्क भोजन का प्रतिबन्ध किया जाना चाहिए और निर्धन माता-पिता के बच्चों को वर्दियाँ दी जायें। उपस्थिति की छात्रवृत्तियाँ भी दी जायें।

(iii) अभिभावकों की वित्तीय सहायता (Financial Assistance to Parents)- स्कूलों में अधिकता बच्चों के पास पुस्तकें और लिखने का सामान नहीं होता। इस बात में सन्देह नहीं कि पढ़ने तथा लिखने के सामान का अभाव बच्चे की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जिसके कारण अपव्यय तथा अवरोधन प्रकट होते हैं। इन बच्चों के अभिभावक अपने आर्थिक पिछड़ेपन के कारण उन्हें पुस्तकें तथा अन्य सामग्री लेकर नहीं दे सकते। ऐसी अवस्था में जरूरतमंद बच्चों को 25% से 100% तक सहायता दी जानी चाहिए। इस सहायता के लिए परिवार की प्रति व्यक्ति आय के आधार पर नियम बनाया जाये।

(3) स्कूल की दूरी कम करना (Reducing the school distance)-

उचित स्थानों पर और अधिक प्राथमिक स्कूल खोले जाएं जो कि बच्चों के घरों से बहुत कम दूरी पर

(4) आंशिक समय की शिक्षा चालू करना (Introducing part-time instructions)-

 चूंकि कुछ माता-पिता अपने बच्चों की सहायता परिवार की आय को पूरा करने में लेते हैं, तो ऐसे बच्चों के लिए आंशिक समय के स्कूल जारी करने का शुभ विचार होगा। इस प्रकार की कक्षाओं का समय तथा अवधि स्थानी परिस्थितियों को देखकर निश्चित करनी चाहिए।

(5) स्कूल के वातावरण सुधार (Improving school environment)-

स्कूल के वातावरण को सुधारने के लिए-

(i) उचित तथा मनमोहक स्कूल भवन का प्रबन्ध किया जाए।

(ii) आवश्यक साज-सामान तथा शैक्षिक सहायताओं का प्रबन्ध किया जाए।

(iii) पहली कक्षा के इंचार्ज केवल प्रशिक्षित अध्यापक हों।

(iv) अध्यापक विद्यार्थियों का अनुपात इस प्रकार का रखा जाए कि पहली कक्षा के प्रत्येक बच्चे की ओर अध्यापक व्यक्तिगत ध्यान दे सके।

(6) सामाजिक बुराइयों को दूर करना (Removal of social evils)-

शिक्षा के विकास के रास्ते में जो मुख्य बुराइयाँ बाधा डालती हैं वे हैं-बाल-विवाह, स्त्री शिक्षा के प्रति उदासीनता और सह-शिक्षा के लिए संकीर्ण विचार । इन बुराइयों के विरुद्ध लोक-मत पैदा किया जाए। अधिक से अधिक स्त्रियों को शिक्षा के व्यवसाय में भर्ती किया जाना चाहिए।

(7) शिक्षा की खेल-कूद तकनीकें (Play-way techniques of teaching)-

बच्चों को निम्न स्तर की शिक्षा की प्राप्ति का कारण उनकी अनियमित हाजिरी होती है और इसके कारण अपव्यय तथा अवरोधन होता है। बच्चों को स्कूल में आकर्षित करने के लिए यह आवश्यक है कि पढ़ने की खेल-कूद विधियाँ चालू की जायें। अध्यापकों द्वारा इन तकनीकों में नवीनीकरण किया जाये और शैक्षिक उद्देश्यों के लिए आवश्यक साज-सामान जुटाया जाये।

(8) दाखिले की नीति में परिवर्तन (Changing the admission policy) –

अध्ययनों से पता चलता है कि सबसे अधिक अपव्यय तथा गतिहीनता प्राथमिक स्तर पर पहली कक्षा में होती है। इसका एक कारण पहली कक्षा में सारा वर्ष दाखिला जारी रखने की दोषपूर्ण दाखिला प्रणाली है। वे बच्चे जो वर्ष के अन्त में दाखिल किए जाते हैं और पूर्ण शैक्षणिक वर्षभर पढ़ाई नहीं करते, वे अवरोधन के आँकड़ों में वृद्धि का कारण बनते हैं। प्राथमिक स्तर पर असफलता बच्चों तथा उनके अभिभावकों को हतोत्साहित करती है। इसका परिणाम यह होता है कि या तो बच्चे स्वयं स्कूल छोड़ देते हैं या उनके माता-पिता उन्हें स्कूल से हटा लेते हैं। इस समस्या का हल यही है कि दाखिले शैक्षणिक वर्ष के पहले दो महीनों तक सीमित रखा जाए।

(9) परीक्षा प्रणाली में सुधार (Reforms in examination system)-

मूल्यांकन की प्रणाली का आधार इस नियम के अनुसार हो कि शिक्षा ज्ञान प्राप्ति के लिए दी जाती है न कि परीक्षा में सफलता के लिए। विद्यार्थियों का मूल्यांकन करते समय बच्चे के वर्षभर के कार्य को महत्व दिया जाए न कि वार्षिक परीक्षा के कार्य को । उसके वास्तविक ज्ञान की परीक्षा लेकर उसे उत्तीर्ण किया जाये।

(10) अभिभावकों को शिक्षित करना (Educating the parents)-

चूंकि बहुत से अभिभावकों को शिक्षा के महत्व का ज्ञान नहीं होता, इसलिए हमें इस मामले में सार्वजनिक मत को शिक्षित करने की कोशिश करनी चाहिए। इस मनोरथ के लिए शैक्षिक संस्थाएं स्थापित की जाएं जो अभिभावकों में रुचि पैदा करें। सरकार इस दिशा में कोशिश कर रही है।

(11) श्रेणीहीन इकाई (Ungraded unit)-

प्राथमिक स्तर पर और विशेष तौर पर पहली तथा तीसरी कक्षा में अपव्यय तथा अवरोधन को कम करने के लिए श्रेणीहीन इकाई एक महत्त्वपूर्ण उपचारक साधन है। आरंभ में इस बात का सुझाव दिया जाता है कि प्राथमिक स्तर की पहली दो कक्षाओं को मिलाकर श्रेणीहीन इकाई बनाई जाये । श्रेणीहीन इकाई की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता परीक्षा को समाप्त करना है, परन्तु इस धारणा के पीछे यह विचार है कि बच्चे की चाल के अनुसार उसे प्रगति करने की आज्ञा दी जाए।

(12) पाठ्यक्रम में सुधार (Improvement in the curriculum)-

पाठ्यक्रम में सुधार करके अपव्यय तथा अवरोधन को रोका जाए। पाठ्यक्रम शिशु-केन्द्रित, समुदाय केन्द्रित, क्रियाकलाप-केन्द्रित, अनुभव केन्द्रित तथा जीवन-केन्द्रित होने चाहिए। पाठ्यक्रम में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार कोई व्यावसायिक प्रशिक्षण या शिल्प कला शामिल की जाए। पाठ्यक्रम को मनमोहक, रोचक तथा मनोरथ-पूर्ण बनाया जाए। विज्ञान तथा गणित के विषयों को रोचक बनाकर अवरोधन को दूर किया जाए। इन विषयों की शिक्षा विधियों को आकर्षक बनाया जाए। विषयों की संख्या भी कम की जाए।

(13) स्कूल जाने वाले बच्चों की जनगणना (Census of school going children)-

यह कहा जाता है कि विद्यार्थियों की आयु में विषमता है। इस विषमता के प्रभाव को कम करने के लिए यह सुझाव दिया जाता है कि स्कूल जाने वाले बच्चों की जनगणना शैक्षणिक वर्ष के आरम्भ में अध्यापकों द्वारा की जाए। अध्यापकों को चाहिए कि वे जनगणना के परिणामों को सम्बन्धित अभिभावकों के सामने रखें और उन्हें बताएं कि उनके बच्चे न्यूनतम निश्चित आयु के हो गये हैं और उन्हें बच्चों को स्कूल में भर्ती करवाना चाहिए। वास्तव में इस दिशा में कई राज्यों में काम हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि सारे देश में एक जैसा नियम बनाया जाए।

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Pankaja Singh

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