शिक्षाशास्त्र

सर्वशिक्षा अभियान | सर्वशिक्षा अभियान के मुख्य उद्देश्य | सर्वशिक्षा अभियान की उपलब्धियाँ

सर्वशिक्षा अभियान | सर्वशिक्षा अभियान के मुख्य उद्देश्य | सर्वशिक्षा अभियान की उपलब्धियाँ

सर्वशिक्षा अभियान

(Sarva Shiksha Movement: SSA)

देश के 6 से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को वर्ष 2010 तक आठवीं कक्षा तक की सन्तोषजनक निःशुल्क और गुणवत्ता परक प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने के अहम् उद्देश्य को लेकर वर्ष 2000-01 में सर्वशिक्षा अभियान की घोषणा की गई थी, जिसे वर्ष 2001-02 में संचालित कर दिया गया था। इस अभियान हेतु 9,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजट प्रतिवर्ष आवंटित किए जाने की व्यवस्था रखी गई है। योजना के अन्तर्गत 6 से 11 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को वर्ष 2007 तक पाँच वर्ष की तथा 11 से 14 वर्ष तक के बच्चों को 8 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने हेतु केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से पूरा प्रयास किया जाएगा। केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित सर्व शिक्षा अभियान कार्यक्रम के तहत अध्यापकों के कुल 59,703 नए पद स्वीकृत किए गए हैं। इस अभियान पर किए गए व्यय को केन्द्र व राज्य सरकारों ने 85 : 15 के अनुपात में नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के दौरान वहन किया था। दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) मे यह अनुपात 75:25 तथा उसके पश्चात यह 50:50 होगा। इस योजना के समुचित रूप से क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सर्वशिक्षा अभियान मिशन’ स्थापित किया गया है। उल्लेखनीय है कि सभी को शिक्षा (Education for All-EFA) उपलब्ध कराने के लिए यूनेस्को ने सन् 2015 तक की सीमा निर्धारित की है, किन्तु भारत ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत वर्ष 2010 तक ही इस उद्देश्य को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाया है। वर्ष 2006-07 के बजट में इस कार्यक्रम के लिए 10,041 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। शिक्षा गारण्टी योजना (EGS) तथा वैकल्पिक एवं अनूठी शिक्षा (AIE) स्कूल नहीं जा रहे बच्चों को बुनियादी शिक्षा कार्यक्रम के तहत् लाने का सर्वशिक्ष अभियान का एक महत्वपूर्ण घटक है। इस योजना में स्कूली शिक्षा से अभी तक छूट गए प्रत्येक बच्चे के लिए अलग से योजना बनाने का प्रावधान है।

सर्वशिक्षा अभियान के मुख्य कार्यक्रम

सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत मुख्यतः निम्नलिखित कार्यक्रमों का आयोजन किया गया-

(1) ऐसी बस्तियों में स्कूल स्थापित करना जहाँ कोई स्कूली सुविधाएँ नहीं हैं।

(2) अतिरिक्त कक्षाएँ खोलना।

(3) शौचालय बनाना।

(4) पेयजल की व्यवस्था करना।

(5) अनुरक्षण अनुदान देना।

(6) स्कूलों के बुनियादी ढाँचे को दृढ़ करना।

(7) शिक्षकों की कमी को दूर करना ।

(8) अध्यापन-अधिगम सामग्री जुटाना।

(9) कमजोर वर्गों की लड़कियों पर विशेष ध्यान देना।

(10) निःशुल्क शिक्षा सहित अनेक प्रोत्साहन योजनाएँ चलाना।

विभिन्न राज्यों तथा निकायों की भागीदारी

सर्वशिक्षा अभियान कार्यक्रम के अन्तर्गत सहायता नौवीं योजना के दौरान केन्द्र और राज्य सरकार के बीच 85 : 15 की भागीदारी के आधार पर थी, दसवीं योजना के दौरान यह 75 : 25 के आधार पर है और इसके बाद 50 : 50 के आधार पर होगी।

सर्वशिक्षा अभियान की उपलब्धियाँ

सर्वशिक्षा अभियान की उपलब्धियों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) अनुपात- स्कूल दाखिला अनुपात (जीईआर) जो 1950-51 में 31.1 था,2003-2004 में बढ़कर 85 प्रतिशत हो गया

(2) स्कूल न जा सकने वाले बच्चे-2001 में 3.2 करोड़ से घटकर अक्टूबर 2005 में 95 लाख हो गए।

(3) स्कूलों की संख्या- 2001 के बाद से 1,77,677 नए स्कूल खोले गए। 94 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के पास एक किलोमीटर की दूरी के अन्दर एक स्कूल है।

(4) लिंग असमानता-प्रारम्भिक स्तर पर जीईआर में लिंग असमानता जो 2001-2002 में 17.1 प्रतिशत थी, कम होकर 2003-2004 में 6.5 प्रतिशतांक हो गई।

(5) अतिरिक्त अध्यापक- 4.92 लाख अतिरिक्त अध्यापक नियुक्त किए गए।

(6) प्राथमिक स्तर पर बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों की दर–प्राथमिक स्तर पर बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों की दर-7.7 प्रतिशत तक कम हो गई, 2001-2002 में 39.03 प्रतिशत से 2003-2004 में 31.36 प्रतिशत हो गई। लड़कियों के मामले में बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर इसी अवधि के दौरान 11 प्रतिशतांक तक कम हो गई।

(7) स्कूली इमारतें-92,697 स्कूली इमारतें पूरी की गई।

(8) निःशुल्क पाठ्यकपुस्तकें- कक्षा 1 से VIII तक पढ़ने वाली सभी लड़कियों और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लगभग 6 करोड़ बच्चों को निःशुल्क पाठ्यपुस्तकें वितरित की जाती हैं।

भारत में ‘सभी के लिए शिक्षा’ अभियान : मिथक या वास्तविकता

भारत सरकार द्वारा शिक्षा के नाम पर पर्याप्त धन खर्च करने के बावजूद देश के बच्चों को उस अनुपात में शिक्षित नहीं कर पा रही है, जितना उसके एजेन्डे में है। कारण स्पष्ट है कि सरकार की यह सोच उसकी भ्रामक मान्यताओं (मिथकों) पर टिकी हुई है। इनमें से प्रमुख मिथक निम्नांकित हैं-

(1) पहला मिथक शिक्षा के मौलिक अधिकार का दावा करने वाले 93वें संविधान संशोधन के क्रियान्वयन की माँग को लेकर है। शिक्षा किस रीति से दी जाए? इसकी जिम्मेदारी राज्य व केन्द्र दोनों सरकारों की है, क्योंकि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1993 में दिए गए उन्नीकृष्णन फैसले के फलस्वरूप 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा देने की जिम्मेदारी राज्य कानून ही करता है। यानि केन्द्र की समतामूलक, गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा की जगह राज्य ने गरीब बच्चों को घटिया दर्जे की शिक्षा, वैकल्पिक पाठशाला, शिक्षा गारन्टी योजना,पैरा टीचर आदि देने का फैसला कर लिया है जिसके वैधानीकरण हेतु संविधान संशोधन करवाकर नया प्रावधान जोड़ा गया है।

सर्व शिक्षा अभियान में स्कूल के समानान्तर घटिया दर्जे वाली शैक्षिक धाराओं को आधार बनाया गया है। N.C.E.R.T. ने 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को पत्राचार के जरिए शिक्षा देने का प्रस्ताव दिया है, यानि शिक्षक की जगह डाकिया ही सबको शिक्षित कर दे। वर्तमान में भारत में 6-14 वय वर्ग के 4 करोड़ 20 लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं, इनमें से अधिकांश बालिकाएँ हैं। स्कूली शिक्षा से वंचित इन बच्चों को सस्ती एवं घटिया दर्जे की शिक्षा से निपटा देने की सोच को विश्व बैंक का पूरा समर्थन प्राप्त है। चूंकि यह विचार अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.E.) द्वारा निर्देशित संरचना समायोजन कार्यक्रम के अनुसार है, इसलिए भारत सरकार को निर्देशित किया गया है कि शिक्षा एवं सामाजिक कल्याण सेवाओं पर न्यूनतम खर्च किया जाए, इस कमी को पूरी करने के लिए विश्व बैंक द्वारा सरकार को कर्ज व अनुदान देने का प्रावधान किया गया है। सर्वविदित है कि भारतीय संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, कोठारी आयोग द्वारा अनुशंसित समतामूलक गुणवत्ता देने वाली समान स्कूल प्रणाली का समर्थन करती है न कि अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि में विश्व बैंक द्वारा प्रायोजित अलग-अलग गुणवत्ता वाली समानान्तर धाराओं की शिक्षा का।

(2) दूसरा मिथक शिक्षा के वित्तीय प्रावधान को लेकर है। सभी बच्चों को शिक्षित करने के लिए प्रतिवर्ष 9800 करोड़ की अतिरिक्त राशि का इन्तजाम करने का वायदा किया गया है, लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा तपस मजूमदार समिति की में 1999 प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार देश के आधे बच्चे जो स्कूल से बाहर हैं, उन्हें गुणवत्तापूर्वक स्कूली शिक्षा की सुविधा देने के लिए अगले दस वर्षों तक 14 हजार करोड़ प्रतिवर्ष की दर से अतिरिक्त राशि उपलब्ध करानी होगी। यह रकम भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का मात्र 78% है यानि 100 रु. में केवल 78 पैसे।

इसकी तुलना में 93वें संविधान संशोधन में जिस राशि का प्रावधान किया गया है वह भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 0.35% है अर्थात् आधे से कम, लेकिन हद तो तब हुई जब 2002-2003 सत्र में प्रारम्भिक शिक्षा के मद के अतिरिक्त आवंटन का सवाल आया तो मात्र 728 करोड़ रु. की अतिरिक्त राशि प्रदान की गई जो सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 0.04% था।

वास्तविकता तो यह है कि शिक्षा का जो भी बजट आता है उसका बहुत बड़ा हिस्सा, सर्वशिक्षा अभियान’ के प्रचार-प्रसार में खर्च किया जाता है। सरकार द्वारा चलाया गया ‘सबके लिए शिक्षा अभियान के दिए गए लोक लुभावन नारों से शिक्षा कथा पर कितना फर्क पड़ा, गाँव में जाने से स्पष्ट हो जाता है। विश्व बैंक अनुदान से चल रहा अभियान दीवार लेखन, होर्डिंग के जरिए मतदाता सूची की सहायता लेकर दस्तावेजों तक सीमित रह जाता है।

सन 1997-98 में केंद्र व राजू ने कुल मिलाकर 20782 करोड़ रुपए खर्च किए, जिसमें कुल अंतर्राष्ट्रीय सहायता 600 करोड़ रु० मिली यानि कुल खर्च का 2.9% लेकिन हमारी सरकार और उसके पक्षधर गैर सरकारी संगठन 3 रुपए पाने के लिए हाय-तौबा करते हुए दिखाई देते हैं।

(3) सर्वशिक्षा अभियान की पहली समय सीमा 2003 थी, जिसके भीतर देश के हर बच्चे को स्कूल में खडा होना था, लेकिन 6 से 8 करोड़ बच्चे स्कूल के बाहर खड़े हैं, ऐसे में स्थिति सोचनीय प्रतीत होती है। योजना आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 40% बच्चे प्राइमरी स्तर पर ही स्कूल छोड़ देते हैं। वर्ष 1990-91 में विद्यालय छोड़ने वालों की संख्या 42.6% थी जो 10 वर्ष के बाद 2000-01 में मात्र 2% गिरकर 40.3% हो गई। रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में 6-14 आयु वर्ग के 19.2 करोड़ बच्चे है, परन्तु उनमें से 81.58% अर्थात् 15.66 करोड़ बच्चों का नामांकन स्कूलों में हो पाया है। स्कूल में नामांकित बच्चों के लगभग 22. 57% अर्थात् 3.53 करोड़ बच्चे स्कूल जाते ही नहीं।

शिक्षा के प्रचार-प्रसार की झूठी तस्वीर प्रस्तुत कर कुछ समाजसेवी संस्थाएँ उत्कृष्ट कार्य हेतु राष्ट्रपति से पदक व प्रशस्ति पत्र तक प्राप्त कर लेती हैं, शासन-प्रशासन को इस वास्तविकता का आभास ही नहीं कि वितरण के लिए आयी शिक्षा सामग्री तथा अनुदान राशि मिलते ही रद्दी के भाव बेच दी जाती है। अधिकारियों एवं कर्मचारियों के छोटे घर बहुमंजिली इमारत में तब्दील हो जाते हैं, घर में साइकिल की जगह लक्जरी गाड़ियाँ खड़ी हो जाती हैं। मतलब अनुदान मिलते ही सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति बदल जाती है।

वास्तविकता यह है कि भारतीय परिदृश्य इतना ज्यादा उलझाव भरा है कि इसे सकल राष्ट्रीय आँकड़ों द्वारा नहीं समझा जा सकता है, एक तरफ केरल की साक्षरता दर 90% से भी अधिक है तथा यहाँ प्राथमिक स्तर पर नामांकन अनुपात 103% है, जिसका अर्थ यह हुआ कि प्राथमिक स्तर पर प्रत्येक बच्चा स्कूल जाता है। ऐसे सभी स्कूलों में कम-से-कम पाँच अध्यापक और पाँच कक्षा कक्ष हैं, तो दूसरी तरफ बिहार में दो बच्चों में से एक बच्चा ही स्कूल जाता है। सन् 2003 के अन्त में प्रस्तुत सातवें अखिल भारतीय शिक्षा सर्वेक्षण के आँकड़े दर्शाते हैं कि स्कूल न जाने वाले बच्चों के 69% बच्चे सात राज्यों के हैं, ये सात राज्य आन्ध्र प्रदेश बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा झारखण्ड थे।

बिहार में नामांकन दर में लैंगिक अन्तर 42% था, उत्तर प्रदेश में 31% था इसकी तुलना में केरल में नामांकन अन्तर मात्र 3% और पंजाब में 5% का लैंगिक अन्तर था।

(4) 20% स्कूल अकेले एक शिक्षक चला रहा हैं। करीब 1,500 स्कूल शिक्षक विहीन हैं। 72% स्कूलों में पुस्तकालय नहीं हैं। 42% स्कूल शौचालय विहीन है। सर्वशिक्षा अभियान के आँकड़ों के अनुसार है66,147 प्राथमिक विद्यालय खोले गए तथा 33,777 अतिरिक्त कक्षा कक्ष बनवाए गए। 3.10 लाख अतिरिक्त शिक्षक नियुक्त किए गए। प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले 6.5 करोड़ बालक/बालिकाओं को निःशुल्क पाठ्य पुस्तकें प्रदान की गईं। विद्यालय न जाने वाले बच्चों की संख्या 2004-2005 के आरम्भ में 2.3 करोड़ से घटकर 81 लाख हो गई है। अभियान ने सभी राज्यों में पर्याप्त रुचि और प्रतिबद्धता का सृजन किया है तथा प्राथमिक शिक्षा को विकास कार्यसूची का केन्द्रीय तत्व बनाने में सहायता प्रदान की है। इस अभियान ने देश के भीतर शिक्षा के बारे में अभूतपूर्व जागरूकता उत्पन्न की है और मिशन एक अत्यन्त गहन स्कूल-समुदाय सम्बन्ध गवाह रहा है। अभियान से स्कूली सुविधाओं की सुलभता में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है, दूरस्थ इलाकों पर स्कूल खोलने में मदद मिली है। अभियान ने बच्चों को स्कूल में दाखिल किए जाने के लिए कार्यनीतियाँ तैयार करने में राज्यों की सहायता की है साथ ही स्कूलों की स्टॉफ व्यवस्था पर ध्यान केन्द्रित करने में मद की है। प० बंगाल जैसे कुछेक अपवादों को छोड़कर छात्र-अध्यापक अनुपात प्रति अध्यापक 40 के स्तर पर पहुँचने के करीब है।

लेकिन जब सातवें अखिल भारतीय शिक्षा सर्वे के आँकड़े सामने रखते हैं तो ज्ञात होता है कि विश्वभर में जितने अशिक्षित लोग हैं, लगभग उसके आधे भारत में हैं। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा पाने वाले ज्यादातर दलित, आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यक होते हैं, लड़कियाँ विद्यालय नहीं जाती, जाती भी हैं तो ज्यादा दिन वहाँ नहीं टिकतीं।

(5) सन् 2004 में राष्ट्रीय शिक्षा नियोजन एवं प्रशासन संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार लड़कियों के लिए अलग शौचालयों की आज भी व्यवस्था नहीं है। बिहार और छत्तीसगढ़ में कुल 3 से 5% शालाओं में यह सुविधा है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के 12 से 16% विद्यालयों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय थे।

(6) ‘सबके लिए शिक्षा अभियान’ से स्कूल में भर्ती बच्चों की संख्या में भले ही बढ़ोत्तरी हुई हो, लेकि ज्यादातर बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़कर चले जाते हैं, वे प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते। 43.89% स्कूली बच्चे 5वीं तक तथा 55% बच्चे 8वीं तक पढ़ाई करके स्कूल छोड़ देते हैं। भारत में 18-23 वय वर्ग के केवल 6-7% ही उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं, जबकि सिंगापुर में यह 34% व अमरीका में 50% हैं।

(7) सर्वेक्षण करने वालों की भी अपनी सीमाएँ होती हैं। इसलिए वास्तविक स्थिति और बदतर ही होगी। यदि केवल लड़कियों की संख्या पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि जैसे-जैसे कक्षा में क्रमिक वृद्धि होती है, वैसे-वैसे इनकी संख्या में बेतहाशा कमी परिलक्षित होती है, दूसरी तरफ सामाजिक/आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण बाल मजदूरी में लिप्त तथ्यों के विश्लेषण से कहा जा सकता है कि यदि सरकारी दस्तावेज में अंकित सबके लिए शिक्षा अभियान को मिथक से हटकर वास्तविकता के पटल पर उतारा गया तो 2007 तक साक्षरता दर 75% लाने की घोषणा कोरी कल्पना ही साबित होगी, क्योंकि सर्वशिक्षा अभियान के तहत् जो पैरा टीचर्स रखे गए हैं, उनका मानदेय भी सन्तोषजनक नहीं है, वे काम के बदले बेगार अधिक करते हैं। विद्यालय निर्माण एवं अतिरिक्त कक्षा कक्षों के निर्माण कार्य करवाने की जिम्मेदारी अध्यापक को देने से अध्यापक शिक्षक कम ठेकेदार ज्यादा दिखाई देते हैं।

(8) बच्चों को आकर्षित करने के लिए चलाई गई मध्याह्न भोजन योजना किसी भी प्रान्त में ठीक से नहीं चलती, ज्यादातर स्कूलों में तैनात एक या दो अध्यापक जब-तब जनगणना, पल्स पोलियो, बाल गणना, चुनाव ड्यूटी जैसे तमाम गैर शैक्षिक कार्यों को निपटाने के बाद, नून, तेल, लकड़ी, आटा, सब्जी, दलिया में हैउलझे नजर आते हैं, खाना बनाने के लिए एक महिला नियुक्त होती है, वास्तव में यह एक महिला के बस का कार्य नहीं है लिहाजा बच्चे उसमें हाथ बंटाते हैं। दलिया बनने से स्कूल में कुत्तों की चहलकदमी जरूर बढ़ गई है, कुछ छात्र तो केवल कटोरी लेकर स्कूल आते हैं।

‘सबके लिए शिक्षा अभियान’ के आँकड़े चाहे जो कुछ कहते हों विद्यालय तक जाने पर वास्तविकता की बयानी करते हैं अन्धकारमय, बदबूदार कमरे, टपकती छतें, हिलती दीवारें, ऊबड़खाबड़ श्यामपट, टूटा फर्नीचर, फटी टाटें।

तमाम दावों के बावजूद सच यह है कि कभी भी सभी के लिए शिक्षा अभियान देश भर के सभी स्कूलों में सफलतापूर्वक लागू नहीं हो सका है। कारण यह है कि समाज का जो सहयोग मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पा रहा है। विद्यालय और समाज दोनों की भागीदारी से ही शिक्षा अधिक सार्थक और प्रभावशाली बनती है और जब तक समाज का भरपूर सहयोग नहीं मिलेगा तब तक अभियान केवल मिथक ही प्रस्तुत करता रहेगा।

सर्वशिक्षा अभियान को सशक्त तथा प्रभावी बनाने के सुझाव

(1) आँकड़ों का उचित संग्रह, आँकड़ा विश्लेषण और आँकड़ों का प्रयोग प्रगति को मापने के लिए महत्त्वपूर्ण है, अत: इस प्रणाली को मजबूत किया जाए।

(2) सकल नामांकन अनुपात 100 प्रतिशत के स्तर पर पहुँचाने के बाद ध्यान उपस्थित और शिक्षा बीच में छोड़ने वालों पर रोक लगाने की तरफ लगाया जाना चाहिए।

(3) प्रणाली के सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में क्षमता निर्माण की दशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है ताकि सभी की अधिगम उपलब्धियों में सुधार लाया जा सके।

(4) सभी क्रियाकलापों को मिशन के लक्ष्यों के साथ जोड़ना कार्यान्वयन प्रक्रिया की गति और प्रभाविता में तेजी लाने के लिए महत्त्वपूर्ण है । उसे बल दिया जाए।

(5) सिविल कार्य, जिस पर एसएसए निधियों का लगभग एक तिहाई व्यय किया जाता है, को अध्ययन परिवेश के अभिन्न अंग के रूप में लिया जाना चाहिए । इस प्रकार सन्दर्भ विशिष्ट स्कूल भवन डिजाइन पर ध्यान देना काफी महत्त्वपूर्ण है।

(6) बच्चों की शिक्षा में रुचि बनाए रखने के लिए क्लासरूम प्रक्रियाएँ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं अतः इसलिए उन्हें और अधिक गहराई से समझे जाने तथा गुणवत्तात्मक दृष्टि से बेहतर बनाए जाने की दिशा में प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।

(7) प्रशासनिक क्रियाविधियों की समीक्षा आवश्यक है ताकि विभिन्न बाधाओं और क्रियाविधियों का उन्मूलन करके स्कूल में बच्चों का प्रवेश और उन्हें शिक्षा में बनाए रखने का काम सुगम बन सके।

(8) समुदाय की भागेदारी बढ़ाई जाए।

9) अभियान में लगे हुए गैर सरकारी संगठनों की सतत् समीक्षा की जाए और यह आश्वस्त किया जाए कि दिया गया अनुदान ठीक प्रकार से खर्च किया जा रहा है।

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Pankaja Singh

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