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कुटज का मूल्यांकन | निबंध कला की दृष्टि से कुटज का मूल्यांकन | कलापक्ष की दृष्टि से ‘कुटज’ का मूल्यांकन

कुटज का मूल्यांकन | निबंध कला की दृष्टि से कुटज का मूल्यांकन | कलापक्ष की दृष्टि से ‘कुटज’ का मूल्यांकन

कुटज का मूल्यांकन

समीक्षात्मक सारांश- विवेच्य निबन्ध में विद्वान लेखक ने कुटज वृक्ष के सम्बन्ध में गवेषणापूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। कुटज वृक्षों का मुख्य जन्म स्थान शिवालिक की पहाड़ियाँ हैं। इन पहाड़ियों को शिवालिक इस कारण कहा जाता है कि शिव की अलकों (जटाओं) की भांति यह पहाड़ियाँ फैली हुई हैं। इन पहाड़ियों पर हरियाली तो नाम मात्र की नहीं है परन्तु कुटज वृक्ष अवश्य बेहया से दिखाई पड़ते हैं। रसहीन, झाड़-झंखाड़ वाले प्रदेश में यह ठिगने वृक्ष न केवल हरे-भरे दिखाई पड़ते हैं, वरन् मस्तमौला बने मुस्कुराते भी हैं।

आगे लेखक ने अत्यन्त मनोरंजक शब्दों में इनके आकार-प्रकार का वर्णन करते हुए लिखा है कि इस वृक्ष को लोग दीर्घकाल से जानते हैं। छोटे आकार के इन पेड़ों के पत्ते चौड़े होते हैं तथा ये सदैव पुष्पों से आच्छादित रहते हैं। कंकरीले-पथरीले वातावरण में इन वृक्षों का इस प्रकार शोभा बिखेरना आश्चर्यजनक होने के साथ-साथ मन मुग्धकारी भी है।

कुटज का संस्कृत तत्सम शब्द ‘कुटज’ अर्थात् पर्वत पर जन्मा है। इसके अन्य नाम सुस्मिता, गिरिकाता, वनप्रभा, शुभ्रीकरीटी, सदोद्वता, विजितातया, अलकवंतया आदि है। इन नामों के अतिरिक्त अकुतोभय, गिरिगौरव कूटोल्लास, अपराजत, धरती धकेल, पहाड़ छोड़ , पाताल भेद आदि आदि नाम लेखक द्वारा प्रदत्त प्रतीत होते हैं।

कविवर कालिदास ने ‘मेघदूत’ नामक अपने काव्य में यक्ष के द्वारा ताजे लिखे कुटज के फूलों के अर्घ्य से मेघों का स्वागत कराया है-

स सत्य गैः कुटज कुसुमैः कल्पिताकाय तस्मै।

प्रीतः प्रीति प्रमुख वकन स्वागत व्याज हार।।

संस्कृत साहित्य में ‘कुटज’ शब्द प्राचीन काल से प्रचलित चला आ रहा है तथा अब भी, अपने स्वाभाविक स्वरूप को ग्रहण किये हुए है। इसकी मादक शोभा अकथनीय है। यमराज से लोहा लेता हुआ यह वृक्ष सदैव हरा-भरा रहता है। कुटज का उपदेश है-

भित्वा पाषाण पिठरं छित्वा प्राभञ्जनी व्यथाम्।

पीत्वा पातालपानीयं कुटजश्चुम्बते नभः।।

कुटज स्वाभिमानी वृक्ष है। वह किसी से कुछ माँगता नहीं और यदि कोई उसके समीप आ जाय तो भय से व्याकुल नहीं होता है। उसके जीवन की उपमा भीष्म पितामह से दी जा सकती है- चाहे सुख हो या दुःख , प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाय उसे शान के साथ, हृदय से बिलकुल अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो, हार मत मानो।

कुटज के वृक्ष का गुणगान करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ऐसे लोगों के प्रति करारे व्यंग्यों से प्रहार भी किया है जो निरन्तर अपने स्वार्थ तथा कल्याण के लिए दूसरे लोगों की चाटुकारी में व्यस्त रहते हैं।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की निबंध- शैली

विविध शैलियों के धनी द्विवेदी जी- द्विवेदी जी हिन्दी के शीर्षस्थ निबन्धकार हैं। विविध विषयों पर लिखे गये इनके निबन्धों में हमें इनकी शैली के बहुरूपत्व के दर्शन होते हैं। गम्भीर विचारात्मक निबन्धों में इनकी शैली विशद् पांडित्यपूर्ण तथा तत्सम शब्द बहुला है। समीक्षात्मक अथवा विवेचनात्मक निबन्धों में विषय का सुन्दर विवेचन करते हुए वे प्रायः पाठकों के मनोरंजनार्थ बीच-बीच में हास्य के साधन भी जुटाते चलते हैं।

हिन्दी निबन्धों में व्यवहृत शैलियाँ- साधारणतः हिन्दी निबन्ध साहित्य में दो प्रमुख प्रकार की शैलियां व्यवहृत हुई हैं- व्यास शैली तथा धारा शैली। इन दो शैलियों की विपरीतात्मकता के कारण दो अन्य शैलियाँ समास एंव तरंग नाम से प्रचलित हुई। आजकल अंलकार, विक्षेप आदि अन्य शैलियाँ भी सुनी जाती हैं। सरल निबन्धों को सरल शैली में लिखा निबन्ध भी कह दिया जाता है। सब मिलाकर हिन्दी में जिन शैलियाँ के दर्शन होते हैं उनकी संख्या सात है। इन सबके नाम इस प्रकार हैं- (1) व्यास शैली, (2) समास शैली, (3) धारा शैली, (4) तरंग शैली, (5) अलंकृत शैली (6) विक्षेप शैली और (7) सरल शैली। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबन्धों में प्रायः उक्त शैलियों के उदाहरण मिलते हैं।

व्यक्ति-व्यंजक निबन्ध और उसकी शैली- इधर हिन्दी-व्यक्ति-व्यंजन निबन्धों की भी पर्याप्त चर्चा होने लगी है जिनके सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मत है कि ये मूलतः अंग्रेजी के पर्सनल-एसेज से प्रेरित हैं। डॉ. विद्यानिवास शुक्ल का मत है कि हिन्दी के व्यक्ति-व्यंजक निबन्धों की अपनी कुछ मौलिक परम्पराएँ हैं जो हिन्दी की प्रकृति के स्वतन्त्र विकास का प्रमाण देती हैं।

हिन्दी के व्यक्ति-व्यंजक निबन्धों का मूल उत्स तथा शैली- व्यक्ति -व्यंजक निबन्धों का उत्स वैदिक एंव पौराणिक काल में मिलता है। विविध प्रकार की स्तुतियाँ तथा आख्यान जिनमें मानव देवताओं के निकटस्थ आने के लिये ‘मैं’ ‘तुम’ सम्बन्ध में आबद्ध दिखायी पड़ता है अथवा जहाँ ‘मैं’ अनुभव प्रमाता के रूप में कथाकार और कथानायक दोनों बन जाता है। इस प्रकार की स्थिति व्यक्ति – व्यंजकता का आधार तैयार कर देती है। ‘तमसो माँ ज्योतिर्गमय’, ‘असतो मा सद्गमय’ आदि वेद वाक्यों में व्यक्ति-व्यंजकता के भाव निर्मित हैं। आचार्य शंकर ने भी अपनी विविध स्तुतियों में देवताओं के प्रति इसी प्रकार से अपनी भावनाएं व्यक्त की हैं-

मत्समः पातकी नास्ति पापध्नी त्वत्समा नहि।

एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥

हर बात में अंग्रेजी की दुहाई देने तथा जय-जयकार करने वालों को जानना चाहिए कि भारत का संस्कृत साहित्य इतना समृद्ध तथा व्यापक है जिसमें हमें नवीन-से-नवीन सामग्री भी प्राप्त हो सकती है।

हिन्दी के व्यक्ति-व्यंजक निबन्धों में ‘कुटज’ शीर्षक निबन्ध- आधुनिक निबन्धावली के नाम से संकलित पुस्तक के प्रायः सभी निबन्ध व्यक्ति-व्यंजक हैं। इन सबके विषय में डॉ. विद्यानिवास मिश्र का मत है कि साहित्य की विधा के रूप से हिन्दी के व्यक्ति व्यंजक निबन्ध संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश क कथा विशेष रूप से ‘आख्यायिका’ का ही उत्तराधिकारी है और वह इसीलिए प्रकृति एवं मानव जीवन में एक बिम्बानुबिम्ब-भाव देखने का अभ्यासी है। यह बात पश्चिम के प्रकृतिपरक व्यक्ति-व्यंजक निवन्धों में प्राप्त नहीं है।

आचार्य द्विवेदी के निबन्ध ‘कुटज’ में हमें प्रकृति के साथ गहरा तादात्म्य और प्रकृति में घटित होने वाले परिवर्तनों में मानव-जीवन संवत्सर का आवर्तन दृष्टिगोचर होता है। द्विवेदी जी ने कुटज नामक निबन्ध में ऐसा ही किया है। उन्होंने अत्यन्त प्रौढ़ शैली में उपर्युक्त भावों को व्यक्त करके कुटज के जीवन की अन्य दिशाओं पर भी प्रकाश डाला है।

इस सम्बन्ध में उनकी शैली का निम्नलिखित उदाहरण द्रष्टव्य है- ‘दुरन्त जीवन-शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिन्दगी में प्राण ढाल तो जीवन के उपकरणों में , ठीक है। लेकिन क्यों? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सार संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है।’

कुटज’ “वैचारिक पृष्ठभूमि से सम्बन्धित विचारप्रधान शैली में लिखा गया निबन्ध- द्विवेदी जी का उक्त निबन्ध उनके गम्भीर चिन्तन का परिचायक है। वैसे भी व्यक्ति -व्यंजक निबन्धों में मात्र अध्ययनशीलता से काम नहीं चलता। उसके लिए लेखक का बहुश्रुत तथा चिन्तनशील होना परमावश्यक होता है। इस प्रकार के निबन्धों में तीन विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है-1. अखण्ड विश्व-दृष्टि, 2. मुक्तत्व अथवा बन्धनहीनता। 3. सामान्य में निगूनतम वैशिष्ट्य का अनुसंधान।

‘कुटज’ में उपर्युक्त तीनों विशेषताओं का न केवल पूरा ध्यान रखा गया है वरन् उनकी अभिव्यक्ति भी विचारपूर्ण शैली में की गई है। यहाँ क्रमशः ‘कुटज’ शीर्षक निबन्ध की इन विशेषताओं का विवेचन किया जा रहा है-

  1. अखण्ड विश्व-दृष्टि- ‘कुटज’ शिवालिक पर्वतों में उगने वाला छोटे कद का एक पुष्प वृक्ष है। लेखक ने इस वृक्ष के संदर्भ में साहित्य की जो दीर्घ परम्परा छिपी है, उसका विवेचन इस प्रकार किया है जैसे कुटज का महत्व सार्वकालिक तथा सर्वदेशीय हो। उस वृक्ष के चरित्र-चित्रण में उन्होंने मानवीय सद्गुणों का समावेश दिखाकर उसकी विश्वव्यापी महत्ता प्रतिपादित की है। निम्नलिखित कुछ पंक्तियों से इस कथन की पुष्टि की जा सकती है-

“कुटज’ क्या केवल जी रहा है? वह दूसरों के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता-जीता है और शान से जीता है।

  1. मुक्तत्व अथवा बंधनहीनता- इस निबन्ध का शीर्षक देने के पश्चात् लेखक ने केवल उससे सम्बन्धित विषय का ही विवेचन नहीं किया है वरन् यथावसर उसने अन्य पहलुओं पर भी प्रकाश डाला है। यह पहलू मानव-जीवन तथा उसकी प्रवृत्तियों से सम्बन्धित है। बीच-बीच में लेखक अपने मूल विषय के सम्बन्ध में भी कुछ कहता चलता है। व्यक्ति व्यंजक निबन्ध की यह बंधनहीनता इस निबन्ध से स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उदाहरण इस प्रकार है-

परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं वही दूसरे के मन का छन्दावर्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्या आडम्बर करता है और दूसरों को फंसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त हैं।

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Pankaja Singh

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