हिन्दी

क्रोध सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | रामचन्द्र शुक्ल – क्रोध

क्रोध सन्दर्भः प्रसंग- व्याख्या | रामचन्द्र शुक्ल – क्रोध

क्रोध

  1. क्रोध की उग्र चेष्टाओं का लक्ष्य हानि या पीड़ा पहुंचाने के पहले आलम्बन में भय का संचार करना चाहता है। जिस पर क्रोध प्रकट किया जाता है, वह यदि डर जाता है और नम होकर पश्चात्ताप करता है तो क्षमा का अवसर सामने आता है। क्रोध का गर्जन, तर्जन क्रोधपात्र के लिए भावी दुष्परिणाम की सूचना है, जिसमें कभी-कभी उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है और दुष्परिणाम की नौबत नहीं आती। एक की उग्र आकृति देख दूसरा किसी अनिष्ट व्यापार से विरल हो जाता है या नम्र होकर पूर्वकृत दुर्व्यवहार के लिए क्षमा चाहता है।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबन्धकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘क्रोध’ नामक निबन्य से उद्धृत है। इस गोश में निबन्धकार ने क्रोध के समाजोपयोगी स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है, कि क्रोध का आलम्बन अपने को सुधार कर भविष्य में दुष्टता नहीं करता।

व्याख्या- क्रोध का उद्देश्य, अपने विरोधी और हानि पहुंचाने वाले के हृदय में भय संचार करना होता है जिससे वह भविष्य में विरोध करने या हानि पहुँचाने की चेष्टा न करे। भयभीत करने के अतिरिक्त उसका नाश करना अथवा कैसे कोई हानि पहुँचाने का लक्ष्य इसमें नहीं होता। अपने को विरोधी नम्र बताकर भविष्य में उसे दुष्टता करने से रोकने के लिए ऐसा क्रोध समाजोपयोगी होता है। इस प्रकार क्रोध का आश्रय, जो अपने क्रोध को प्रकट करता है इसमें क्रोध के पात्र के प्रति भविष्य के लिए एक चेतावनी होती है कि यदि क्रोध का पात्र अपनी दुष्टता नहीं त्यागेगा तो भविष्य में क्रोध के आश्रय के द्वारा पीड़ित किया जाएगा अथवा दण्डित किया जाएगा। इसका परिणाम यह होता है कि भविष्य में दुष्ट, कोई दुष्टता नहीं करता और पीड़ित होने के भय से अपने को सुधार लेता है। इस प्रकार क्रोध अपना उपयोगी रूप प्रकट करता है।

अनेक बार क्रोध, किसी अंहकारी का अहंकार नष्ट करने के उद्देश्य से भी किया जाता है और अनेक बार यह सफल सिद्ध होता है। बहुत से अंहकारी अपमानित होने के भय से अहंकार त्याग चुके हैं।

इस प्रकार उक्त गद्यांश में क्रोध की समाजोपयोगी, अवधारणा का स्पष्टीकरण किया गया है।

विशेष- निबन्ध की भाषा-शैली शुक्ल जी की शैली और भाषा के अनुरूप ही परिष्कृत और सुलझी हुई है।

  1. क्रोध सब मनोविकारों से फुर्तीला है, इसी से अवसर पड़ने पर वह और मनोविकारों का भी साथ देकर उनकी तुष्टि का साधक होता है। कभी वह दया के साथ कूदता है, कभी घृणा के। एक क्रूर कुमार्गी किसी अनाथ अबला पर अत्याचार कर रहा है। हमारे हृदय में उस अनाथ अबला के प्रति दया उमड़ रही है, पर दया की अपनी शक्ति तो त्याग और कोमल व्यवहार तक होती है। यदि वह स्त्री अर्ध-कष्ट में होती तो उसे कुछ देकर हम अपनी दया के वेग को शान्त कर लेते, पर यहाँ तो उस अबला के दुःख के कारण मूर्तिमान तथा अपने विरुद्ध प्रयत्नों को ज्ञानपूर्वक रोकने की शक्ति रखने वाला है। ऐसी अवस्था मे क्रोध ही उस अत्याचारी के दमन के लिए उत्तेजित करता है। जिसके बिना हमारी दया ही व्यर्थ जाती। क्रोध अपनी इस सहायता के बदले में दया की वाहवाही को नहीं बँटाता है। काम क्रोध करता है, पर नाम दया का ही होता है। लोग यही कहते हैं कि उसने दया करके बचा ‘लिया’ यह कोई नहीं कहता कि क्रोध करके बचा लिया ऐसे अवसरों पर यदि क्रोध दया का साथ न दे तो दया अपनी प्रवृत्ति के अनुसार परिणाम उपस्थित नहीं करती।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबन्धकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘क्रोध’ नामक निबन्ध से उद्धृत है। इसमें क्रोध, मनोविकारों में सबसे अधिक फुर्तीला बताते हुए यह कहा गया है कि कभी- कभी वह अन्य मनोविकारों का सहायक होकर भी सामने आता है।

व्याख्या- निबन्धकार का कथन है कि क्रोध का वेग इतना तीव्र होता है कि वह क्रोध के आश्रय को सोचने-विचारने का अवसर नहीं देता, वह ठीक से यह भी नहीं सोच पाता कि जिसने उसे कष्ट पहुँचाया है वह जानबूझकर इच्छापूर्वक ऐसा है अथवा अनजाने में ही उसे कष्ट पहुँचाया गया है। निबन्धकार ने चाणक्य का उदाहरण देते हुए कहा है कि जिस प्रकार चाणक्य के पैर में कुश चुभ जाने से वह इतना क्रोधिक हो उठा था कि उस कुश को समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा कर डाली थी। क्रोध के आवेश में मनुष्य बड़े-बड़े भीषण कार्य कर डालता है। यदि क्रोध उसे सोचने और विचारने का अवसर देता तो सम्भवतः यह भीषण कार्य न कर पाता।

क्रोध अपनी तीव्रता के कारण कभी-कभी अन्य मनोविकारों का भी सहायक बन जाता है और उनकी तुष्टि का कारण भी बन सकता है। कभी उसे दया के साथ देखा जा सकता है, कभी घृणा के साथ। निबन्धकार ने अपने इस उदाहरण में स्पष्ट किया है कि जैसे कोई दुष्ट व्यक्ति किसी निरीह नारी अथवा दुर्बल व्यक्ति को पीट रहा है। इससे निरीह नारी अथवा दुर्बल व्यक्ति के प्रति मन में दया उत्पन्न हो जाती है और फलस्वरूप दया से प्रभावित हुआ व्यक्ति प्रतिकार स्वरूप क्रोधित होकर दुष्ट को प्रताड़ित कर देता है। दुष्ट को प्रताड़ित करने की भावना उदय होती है। इस प्रकार क्रोध, दया, घृणा, मनोविकारों का सहयोगी बनकर सामने आता है और अपना समाजोपयोगी रूप प्रकट करता है किन्तु ऐसे अवसरों पर श्रेय दया को ही मिलता है कि उसने पीड़ित व्यक्ति पर दया करके ही उसकी रक्षा की। क्रोध में पीड़ित को बचा लिया ऐसा कोई नहीं कहता। इस प्रकार क्रोध दया और घृणा का सहायक बन जाता है।

विशेष- उक्त गद्यांश की सूत्रात्मक शैली है।

क्रोध समाजोपयोगी किस प्रकार होता है।

  1. क्रोध शांति भंग करने वाला मनोविकार है। एक का क्रोध दूसरे में भी क्रोध का संचार करता है। जिसके प्रति क्रोध प्रदर्शन होता है वह तत्काल अपमान का अनुभव करता है और इस दुःख पर उसकी त्यौरी चढ़ जाती है। यह विचार करने वाले बहुत थोड़े निकलते है कि हम पर जो क्रोध प्रकट किया जा रहा है, वह उचित है या अनुचित। इसी से धर्म, नीति और शिष्टाचार तीनों में क्रोध के निरोध का उपदेश पाया जाता है।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश में क्रोध को जहाँ समाज के लिए उपयोगी निरूपित किया गया है वहीं उसे समाज की शान्ति भंग करने वाला बतलाते हुए कहा है कि-

व्याख्या- क्रोध अन्धा होता है, वह यह भी नहीं देखता की जिसने उसे पीड़ा पहुँचायी है वह जानबूझकर किया गया कार्य है अथवा अनजाने में ही उसे पीड़ा पहुंचायी गयी है और क्रोध का आश्रय बिना उचित-अनुचित का विचार कर तुरन्तु क्रियाशील हो उठता है । इससे समाज की शान्ति भंग होती है और क्रोध के आश्रय को भी हानि पहुंचाने की सम्भावना होती है। जैसे बिना किसी की शक्ति का अनुमान लगाये उससे भिड़ जाना अपने को हानि पहुंचाने का प्रयत्न होता है। जितने भी समाज में अनिष्टकारी कार्य होते पाये जाते हैं उनके मूल में क्रोध होता है। इस प्रकार क्रोध को शान्ति भंग करने वाला मनोविकार कहा गया है।

विशेष- 1. सूत्रात्मक शैली है। 2. समाज का शान्ति भंग करने में क्रोध का कितना अंश होता है, यह प्रकट किया गया है।

  1. “क्रोध के निरोध का उपदेश अर्थ-परायण और धर्म परायण दोनों देते हैं, पर दोनों में जिसे अति से अधिक सावधान रहना चाहिए, वहीं कुछ भी नहीं रहता। बाकी रुपया वसूल करने के ढंग बताने वाला चाहे कड़े पड़ने की शिक्षा दे भी दें, पर धन के साथ धर्म की ध्वजा लेकर चलने वाला धोखे में भी क्रोध को पाप का बाप ही कहेगा। क्रोध रोकने का अभ्यास ठगों और स्वार्थियों को सिद्धों और साधकों से कम नहीं होता। जिससे कुछ स्वार्थ निकालना रहता है, जिसे बातों में फंसा कर ठगना रहता है, उसकी कठोर और अनुचित बातों पर न जाने कितने लोग जरा भी क्रोध नहीं करते, पर उसका वह अक्रोध न धर्म का लक्षण है, न साधन।”

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित निबन्ध संग्रह चिन्तामणि भाग- 1 के क्रोध शीर्षक निबन्ध में से उद्धृत किया गया है। यहाँ पर शुक्ल जी क्रोध को शान्ति भंग करने वाला मनोविकार कहकर यह बतलाना चाहते हैं कि किसी कारण धर्म, नीति और शिष्टाचार में क्रोध के विरोध का उपदेश दिया गया है। संत दुष्टों के वचन सहन करते हैं दुनियादारी वाले लोग बहुत- सी उचित-अनुचित बातों को पचा जाते हैं। आज भी सभ्यता के व्यवहार में लोग अपना क्रोध पचा जाते हैं। वास्तव में क्रोध पर प्रतिबन्ध तथा उसका विरोध समाज के लिए आवश्यक है।

व्याख्या- शुक्ल जी का कहना है कि क्रोध के दमन का उपदेश सभी अर्थ परायण- व्यापारी, साहूकार या धन से सम्बन्धित कार्य-व्यापार में अनुरक्त व्यक्ति तथा धर्म-परायण- धर्माधिकारी, महात्मा, सन्त, महन्त, पुजारी आदि जीवन उत्सर्ग करने वाले पुण्यात्मा आदि देते हैं और सभी ने एक स्वर में यह घोषित किया है कि क्रोध समस्त दोषों एवं पाण का मूल कारण है। किन्तु खेद का विषय है कि इस उपदेशकों में से कोई भी अपने क्रोध का दमन करने में सफल न हुआ। इन दोनों वर्गों में से धर्मपरायण व्यक्तियों को आवश्यकता से अधिक सावधान रहना चाहिए क्योंकि उनका कार्य क्षेत्र अन्य व्यवसायों के क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक व्यापक होता है। धर्माधिकारी निस्वार्थी होकर संसार मैं धर्म कार्य में प्रवृत्त होते हैं। जबकि व्यवसायी और व्यापारी का अपना स्वार्थ होता है। अर्थपरायण अर्थात् साहूकार आदि को तो अपना मूल एवं ब्याज वसूल करने के लिए कभी-कभी कड़ाई व सख्ती से भी काम लेना पड़ता है और यथावसर क्रोध भी प्रकट करना पड़ता है। धर्म की ध्वजा लेकर चलने वाले ये धर्मात्मा कभी भूलकर भी क्रोध करने की सलाह नहीं देते।

  1. बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है जिससे हमें दुःख पहुँचा है उस पर यदि हमने क्रोध किया और यह क्रोध हमारे हृदय में बहुत दिनों टिका रहा तो वह वैर कहलाता है। इस स्थायी रूप में टिक जाने के कारण क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है, पर लक्ष्य को पीड़ित करने की प्रेरणा बराबर काल तक हुआ करती है। क्रोध अपना बचाव करते हुए शत्रु को पीड़ित करने की मुक्ति आदि सोचने का समय प्रायः नहीं देता,पर वैर उसके लिए बहुत समय देता है।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित निबन्ध संग्रह चिन्तामणि भाग- 1 के क्रोध शीर्षक में से उद्धृत किया गया है। इन पंक्तियों में क्रोध और वैर मनोभावों के स्वरूप का अन्तर बतलाया गया है।

व्याख्या- शुक्ल जी का कथन है कि वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। इस कथन में शुक्ल जी अव्यक्त क्रोध के परिणाम ओर संकेत करते हुए कहते हैं क्रोध भी काफी समय तक हृदय में दबा पड़ा रहता है और वह धीरे-धीरे वैर का रूप धारण कर लेता है। क्रोध जब स्थायी रूप से टिक जाता है तो उसका वेग और तीव्रता समय के साथ-साथ कम हो जाती है पर शत्रु -कृत अपमान हृदय को निरन्तर सालता रहता है परिणामतः वह अव्यक्त क्रोध वैर का रूप ले लेता है। क्रोध से फल तुरन्त मिल जाता है जबकि वैसे समयान्तर में शत्रु से बदला लेने और मारने की प्रेरणा देता रहता है। क्रोध और वैर का तात्विक भेद केवल समय की सीमा पर आधारित रहते हैं। दुःख या हानि पहुंचाने वाले को तुरन्त दंडित करना क्रोध और काफी समय पश्चात् उससे दुःख या हानि का प्रतिकार निकालना वैर कहा जाता है। क्रोध तुरन्त और तत्काल प्रकट होता है इसलिए शत्रु को पीड़ित करने की युक्ति आदि सोचने का समय ही नहीं देता जब वैर में समय काफी रहता है इसलिए वैरी को अपने दुःखदाता या शत्रु को अवसर आने पर ही हानि पहुँचायी जाती है।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

1 Comment

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!