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हिन्दी साहित्य में रामचन्द्र शुक्ल का मूल्यांकन | रामचन्द्र शुक्ल जी के निबन्धों की समीक्षा

हिन्दी साहित्य में रामचन्द्र शुक्ल का मूल्यांकन | रामचन्द्र शुक्ल जी के निबन्धों की समीक्षा

हिन्दी साहित्य में रामचन्द्र शुक्ल का मूल्यांकन

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र यदि निबन्ध के जन्मदाता थे और आचार्यमहावीर प्रसाद द्विवेदी परिष्कारक, तो आचार्य शुक्ल उसे शिखर तक पहुंचाने वाले हैं। भारतेन्दु युग के लेखकों- बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र तथा बालमुकुन्द गुप्त ने हिन्दी निबन्ध में जीवन भी डाला और उसकी गति को किन्तु वह मनोरंजन की ही सामग्री बना रहा। द्विवेदी जी तथा उनके युग के लेखकों – माधवप्रसाद मिश्र, अध्यापक पूर्णसिंह, बाबू गुलाबराय, बाबू श्यामसुन्दर दास, मिश्र बन्धु आदि ने निबन्ध के स्वरूप को निर्मल बनाया, उसको परिष्कार किया, किन्तु इसमें मौलिकता का अभाव बना रहा। इस युग में निबन्ध उपयोगिता पर आधारित हो गए और उनमें अत्यधिक नैतिकता का समावेश हो गया। आगे चलकर निबन्ध की गति के दुर्बल हो जाने का कारण कुछ विद्वान द्विवेदी युग में निबन्ध का सामाजिक मनुष्य की ओर उन्मुख हो जाना मानते हैं।

शुक्ल जी ने अपने मौलिक चिन्तन के द्वारा निबन्ध में तात्विकता का समावेश किया। उन्होंने अपने निबन्धों द्वारा हिन्दी साहित्य को उस समय समृद्ध किया, जब वह केवल अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।

आचार्य शुक्ल जी के बारे में बाबू गुलाबराय ने लिखा है कि ‘आचार्य शुक्ल के निबन्ध में पदार्पण करने से निबन्ध साहित्य में एक नया जीवन पाया। द्विवेदी युग में विषय विचार और परिमार्जन तो पर्याप्त हुआ किन्तु उस काल में उतना विश्लेषण और गहराई में जाने की प्रवृत्ति न उत्पन्न हो सकी।’

शुक्ल जी के पश्चात् निबन्ध-साहित्य ने पर्याप्त प्रगति की ओर अनेक लेखक उत्पन्न किए। इनमें प्रमुख हैं. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी , डॉ. नगेन्द्र , महादेवी वर्मा, शान्तिप्रिय द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा, वियोगी हरि, राहुल जी, प्रो. कुबेरनाथ, जैनेन्द्र इत्यादि। परवर्ती निबन्ध आलोचना के अधिक समीप है और इनमें जनजीवन के प्रति आकर्षण का अभाव खटकता है।

द्विवेदी युग में अध्यापक पूर्णसिंह के निबन्ध सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। वह सहृदय तथा भावुक निबन्धकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। उन्होंने एक नई लय और गति के साथ निबंधों की परम्परा को नवीन मानवतावादी मार्ग की ओर उन्मुख किया। इनके निबन्ध में गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा मार्मिक भाव-व्यंजना अधिक हैं। इसमें वह अपने निबन्धों में सजीव चित्रोपम वर्णनों का समावेश करके भावों को मूर्त रूप देने की अद्भुत क्षमता प्रदर्शित कर सकते हैं।

शुक्ल जी के परवर्ती युग में समालोचनाओं की भरमार रही है और विषय वैविध्य का अभाव रहा है। डॉ. रामविलास आदि प्रगतिवादी लेखकों के निबन्धों में अत्यधिक स्पष्टवादिता एवं तीखे व्यंग्य का समावेश दिखाई देता है। नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र आदि लेखकों के निबन्ध अध्यापकोचित शैली पर लिखे गए निबन्ध हैं उन्हें समालोचना की कोटि में रखना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। शान्तिप्रिय द्विवेदी की निबन्धों में भावुकता का प्राधान्य है। इस युग के निबन्धकारों में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबन्ध सच्चे अर्थों में निबन्ध कहे जा सकते हैं। उनमें अध्ययन मनन के साथ व्यक्तित्व का समावेश उपलब्ध होता है। उनमें शास्त्रीयता और विनोदप्रियता का एक सुखद संयोग दृष्टिगत होता है। इनकी समर्थ शैली बहुत कुछ शुक्ल जी की शैली से मिलती-जुलती है परन्तु यह मानना ही पड़ता है कि इनकी शैली में शुक्ल जी जैसे विवेचना-गाम्भीर्य का अभाव बना रहता है।

शुक्ल जी की भाषा शैली का मूल्यांकन करते समय हमें निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए-

(i) प्रतिपाद्य विषय की तह तक पहुँचने की प्रवृत्ति, सूक्ष्म-निरीक्षण, दार्शनिक चिन्तन तथा पूर्व और पश्चिम के विचारों का सुखद संयोग इनके मननशील व्यक्तित्व की विशेषताएँ हैं।

(ii) इनके निबन्ध सुकुमार-मति बालकों के मनोरंजन की वस्तु नहीं, बल्कि विद्वानों के लिए गम्भीरतापूर्वक मनन करने की सामग्री हैं।

(iii) इनके प्रत्येक निबन्ध पर मौलिकता की ओर प्रत्येक वाक्य पर इनके विचारशील एवं सहृदय व्यक्तित्व की छाप है। प्रत्येक वाक्य पुकार कर कहता हुआ प्रतीत होता है कि ‘मैं शुक्ल जी की श्रेष्ठ लेखनी द्वारा लिखा गया हूँ।’

(iv) आचार्य शुक्ल के निबन्धों के विषय-प्रतिपादन और भाषा शैली मे विचित्र भव्यता और विशालता है, जिसके द्वारा उनकी उठान, उनके विकास तथा उनकी समाप्ति में प्रभूत प्रभावात्मकता दृष्टिगत होती है।

(v) ‘उनके निबन्ध उच्चकोटि के निबन्ध हैं। इस कारण कम विधा बुद्धि बालों को ये कुछ दुरूह प्रतीत हो सकते हैं, यह सुबुद्धि की अक्षमता के कारण इन पर रूखेपन का आरोप युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।

(vi) हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में निबन्ध साहित्य पर विचार करते समय शुक्ल जी की दृष्टि निबन्ध के काम विधान और आत्म-विधान दोनों ही पक्षों पर रही है। उनके मतानुसार निबन्धों में विचारों की उद्भावना इस प्रकार की जानी चाहिए, उन विचारों को इस प्रकार संगुफित किया जाना चाहिए कि पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नई विचार पद्धति पर दौड़ पड़े।

शुक्ल जी विचारात्मक निबन्धों को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के निबन्धों पर विचार करते हैं उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि ‘शुद्ध विचारात्मक निबन्धों का चरम उत्कर्ष वहीं कहा जा सकता है, जहाँ एक-एक वाक्य, किसी सम्बद्ध शुद्ध विचारात्मक निबन्धों की कोटि मे आते हैं कठिन ही है। चिन्तामणि के निवेदन के अन्तर्गत उन्होंने स्वयं लिख दिया है कि इस बात का निर्णय मैं विज्ञ पाठकों पर छोड़ता हूँ, कि निबन्ध विषय प्रधान है या व्यक्ति प्रधान।’

वस्तुस्थिति यह है कि शुक्ल जी विचार क्रम और व्यक्तित्व के समन्वय मे ही निबन्ध के सम्यक स्वरूप विकास की आशा करते हैं। उन्होंने लिखा है- ‘काव्य समीक्षा के अतिरिक्त और प्रकार के विचारात्मक निबन्ध साहित्यिक कोटि में वे ही आते हैं जिनमें बुद्धि के अनुसंधान – क्रय या विचार परम्परा द्वारा ग्रहीत अर्थों या तथ्यों के साथ लेखक के व्यक्तिगत वाग्वैचित्र्य तथा उसके हृदय के भाव या प्रवृत्तियाँ पूरी-पूरी झलकती हैं?’

शुक्ल जी के उक्त कथन की दृष्टि से श्री शिवनाथ ने उनके निबन्धों के विषय में ठीक ही लिखा है कि “यद्यपि आचार्य शुक्ल के निबन्धों में बुद्धि का उपयोग प्रधान रूप से किया गया है, तथापि हृदय भी बुद्धि के साथ ही था। इनमें बुद्धि और हृदयों की क्रिया का समावेश है। यही कारण है कि उनके विचारात्मक निबन्धों में प्रसंग उपस्थित होने पर भावात्मकता की भी बड़ी नियोजन हुई है जो फालतू नहीं, प्रत्युत समुचित स्थल पर होने के कारण उपयुक्त प्रतीत होते हैं।”

हमारे विचार से डॉ. जयचन्द्र राय का उपर्युक्त कथन सर्वथा समीचीन है। शुक्ल जी के निबन्ध विचारात्मक निबन्धों की कोटि मे ही रखे जा सकते हैं, उनमें विषय एंव व्यक्तित्व का सुखद संयोग है- विषय को यदि स्वर्ण कहा जाये, तो व्यक्तित्व के समावेश ने सुहागे का कार्य पूर्ण तत्परता के साथ किया है।

(vii) हिन्दी गद्य की शैली-निर्माण के कार्य में शुक्ल जी का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है, वह एक प्रकार से हिन्दी निबन्ध साहित्य के सर्वश्रेष्ठ शैली-निर्माता हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनके विषय में एक बार लिखा था, “शुक्ल जी प्रभावित करते हैं, नया लेखक इनसे डरता है, पुराना घबराता है, पण्डित सिर हिलाता है।”

(viii) शुक्ल जी के निबन्ध वास्तव में हिन्दी साहित्य की चिरन्तर सम्पत्ति है। बाबू गुलाबराय के शब्दों में, “यह बात निर्विवाद है कि गद्य साहित्य की ओर विशेषकर निबन्ध-साहित्य की प्रतिष्ठा बढ़ाने में शुक्ल जी अद्वितीय है। इस नाते हम उनको युग का निर्माता भी कहें तो कुछ अनुचित न होगा। निबन्ध के क्षेत्र में गूढ़ विवेचन और सूक्ष्म विश्लेषण को लाने का श्रेय आचार्य शुक्ल जी को है।”

(ix) शुक्ल जी ने जो कुछ लिखा वह मौलिक था, अलभ्य था उन्होंने जो भी दिया वह अन्यत्र था। उनकी एक-एक पंक्ति उनकी अविचल कीर्ति का स्तम्भ है। जायसी को लोगों ने तब जाना जब शुक्ल जी ने ‘जायसी ग्रन्थावली प्रकाशित कराई।

(x) शुक्ल जी ने जिस विषय को भी लिया, उस पर अन्तिम निर्णय दे दिया। कविता क्या है? विषय ऐसा है जिस पर पूर्व और पश्चिम के अनेक साहित्यकार अनेक बार लिख चुके हैं पर शुक्ल जी ने उस पर भी अपनी लेखनी उठाई और उसे नवीन बना दिया।

(xi) अपनी बलवती शैली एवं मौलिक उद्भावनाओं के कारण शुक्ल जी निबन्ध क्षेत्र में एकमात्र अधिपति हैं। शुक्ल जी जैसा निबन्धकार रत्न उत्पन्न करने के लिए हिन्दी साहित्य सागर के गम्भीर मंथन की अपेक्षा है। इसमें सन्देह नहीं, अभी तक हिन्दी साहित्य को शुक्ल जी जैसा दूसरा श्रेष्ठ निबन्धकार नहीं मिल सका है मौलिक चिन्तन और विवेचना की शुद्धि के कारण शुक्ल जी आज भी निबन्धकारों में मूर्धन्य स्थान के अधिकार हैं।

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Pankaja Singh

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