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काव्य भाषा की परिभाषा | काव्य भाषा की परिकल्पना और स्वरूप

काव्य भाषा की परिभाषा | काव्य भाषा की परिकल्पना और स्वरूप

काव्य भाषा की परिभाषा

काव्य भाषा काव्य में प्रयुक्त वह भाषा है, जिसकी अभिव्यंजना क्षमता, रूप-विधान और सम्प्रेषण प्रणाली आम भाषा से भिन्न होती है। लैंगर के शब्दों में वह भाषा की तरह ही एक अभिव्यक्तिपरक रूप और कुल मिलाकर प्रतीकात्मक रूप है।

भाषा भी अभिव्यक्ति का एक रूप है। लेकिन भाषा और काव्य भाषा, दोनों में अन्तर है। जॉन मुकरोस्की के अनुसार कहें तो “काव्य भाषा परिनिष्ठित भाषा का सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि से सप्रयोजन विरूपण है।” सामान्य रूप में कहा जा सकता है कि काव्य भाषा भाषा का एक विशिष्ट-काव्यगत-स्वरूप है, जिसका आधार तो भाषा में निहित होता है, लेकिन वह उससे ऊपर उठकर नवीन स्वरूप महणकर काव्य-रचना के काम आने लगती है।

डॉ० परमानन्द श्रीवास्तव मानते हैं कि “काव्य भाषा अपने आप में एक प्रकार की रचना ही है किसी तथ्य अनुभव या प्रतिक्रिया का एक भिन्न स्तर पर पुनः सर्जन।” दूसरे शब्दों में, “सामान्य भाषा की वह आकृति, वह संरचना जो काव्य बन गई है, काव्य भाषा कहलाती है।” इसकी पुष्टि डॉ० खगेन्द्र ठाकुर इन शब्दों में करते हैं कि “काव्य का संघटन भाषा का संघटन है।” डॉ० सुरेश कुमार भी यही कहते हैं कि “हर साहित्यिक कृति अंततोगत्वा भाषा है, दूसरे शब्दों में एक साहित्यिक कृति एक भाषा में लिखा गया एक लम्बा, बहुत लम्या-वाक्य है। परन्तु भाषा साहित्य नहीं।”

विलियम हैजलिट कविता को बहुत प्रभावकारी भाषा मानते हैं। मलानें उसे चरमावस्था की भाषा घोषित करते हैं। श्लेगल का विचार है कि वह आधुनिक संकेत भाषाओं के ऊपर मूलभाषा की पुनर्संर्जना है, जो वस्तु को समुचित ढंग से प्रस्तुत करने में समर्थ होती है। हर्बर्ट रोड इसी को इस प्रकार कहते हैं कि विचार और शब्द अविच्छिन्न हैं और समष्टि में कविता है। लेकिन एबरक्राबी काव्य को अभिव्यक्ति नहीं मानते हैं अपित अभिव्यक्ति को भाषा में प्राप्त करने की कला समझते हैं। पॉल वैलेरी के अनुसार काव्य भाषा भाषा के अन्दर एक भाषा है जो काव्य का रूप ग्रहण करती है।

इन मान्यताओं के पक्ष में तर्क है कि भाषा उत्पादन कारण है, काव्य कार्य है। भाषा मृत्तिका है, काव्य उससे निर्मित घट है। -काव्य भी मूलतः सामान्य भाषा है परन्तु जब इस सामान्य भाषा को एक विशेष आकृति में सरचित किया जाता है तो वह संरचित भाषा काव्य की संज्ञा पाती है।” आगे है कि काव्य में रूप और भाव के सम्पूर्ण तादात्म्य का अर्थ यह है कि कथ्य एक विशेष भाषा रूप में उत्पन्न होता है। काव्य में कथ्य और भाषा को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता है। कथ्य और भाषा का एकरूप होकर उत्पन्न होना हो काव्य है। इसीलिए जिस भाषा में काव्य को हम प्राप्त करते हैं वहीं भाषा उसके लिए एकमात्र और अलम् होती है।”

सामान्य शब्द ही कविता का शब्द बनता है। इसके पक्ष में तर्क है कि “काव्यात्मक शब्द जैसा कोई शब्द नहीं होता, प्रकरण और उसके आसपास के शब्द ही उसे कवित्व देते हैं। यदि रचनात्मक ऊर्जा बलवती होती है तो एक-दूसरे को प्रभावित करने योग्य शब्द कविता के उपादान में ही घुलमिल जाते हैं।” काव्य भाषा और काव्य परस्पर इतना घुले-मिले हैं कि काव्य भाषा के लिए ‘माध्यम’, ‘मोडिएम’ या ‘वेहिकिल’ आदि शब्द अनुपयुक्त हैं, ये काव्य भाषा के सच्चे स्वरूप को व्यक्त नहीं कर सकते।

प्रस्तुत तकों के आधार पर भाषा के एक रूप को काव्य मान लेना उचित नहीं है। भाषा का एक रूप काव्य भाषा तो है, लेकिन काव्य स्वयं में भाषा का एक रूप है यह अतिरूपवाद है। काव्य साहित्य की एक विशिष्ट विधा है, उसकी अपनी भाषा है। यदि काव्य को भाषा का एक रूप मानकर परिभाषित किया जाय तो फिर उपन्यास, कहानी, नाटक सभी को भाषा का एक रूप मानना पड़ेगा और साहित्य या फिर काव्य अपने व्यापक अर्थ में भाषा का पर्याय हो जायेगा। लेकिन साहित्य भाषा का पर्याय नहीं है।

भाषा साहित्य का सबल समर्थ माध्यम है और साहित्य भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति का एक उपकरण है। इस अर्थ में वे सह-अवलम्बित अवश्य हैं लेकिन पर्याय नहीं। इसी तरह काव्य और काव्य भाषा एक ही वस्तु नहीं है, अपितु सह-निर्भर हैं। पर्याय मान लेने पर काव्य भाषा में काव्य के और काव्य में काव्य भाषा के सभी तत्वों का अस्तित्व अनिवार्य हो जाता है। लेकिन हम पाते हैं कि ऐसी स्थिति महज कुछ गिने-चुने युग-कवियों में ही होती है, जो ‘सिर्फ भाषा नाम के माध्यम की सम्भावनाओं का संकोचन नहीं करते, वे उन संभावनाओं को अप्रत्याशित विस्तार देते हैं। जो पहले धुंधला और अकथ्य जान पड़ता था, वह” उन “श्रेष्ठ लेखकों की रचना में, स्पष्ट रूपाकार ले लेता है।” वे अलंकारों आदि के जरिए एक अमूर्त भाव को मूर्त अभिव्यक्ति में रूपायित कर देते हैं। इस तरह वे काव्य भाषा के विभिन्न तत्वों का समुचित उपयोग कर काव्य की सही दिशा और समर्थ सम्प्रेषण को निर्धारित करते हैं, न कि अलंकारों, प्रतीकों, शब्दों बिंबों की समायोजना कर काव्य सृजन करते हैं, अपितु कथ्य के लिए इनका सहारा लेते हैं। दूसरे शब्दों में अन्तर्वस्तु को रूपायित करने में काव्य-रूप में सृजित करने के लिए जिस माध्यम की सहायता लेते हैं वह काव्य भाषा है। पूर्व उद्धृत मान्यता इसीलिए घोर रूपवादी है कि वह काव्य भाषा को साध्य मानकर एक प्रकार के शास्त्रीय दृष्टिकोण का प्रतिपादन करती है, जिसमें कहीं मात्र अलंकार योजना, कहीं वक्रोक्ति, कहीं रस इत्यादि का निरूपण महत्वपूर्ण माना जाता है। यह विचार दर्शन काव्य भाषा को साधन न मानकर साध्य मान लेता है। वस्तुस्थिति यह है कि काव्य भाषा काव्य का एक साधन है।

कवि भाषा-प्रदत्त सभी साधनों और रूपों को, शब्दावली को जहाँ अपनाते हैं वहीं उनका शोधन करके विलक्षण प्रयोग भी आविष्कृत करते हैं। वे नये-पुराने सभी रूपों का प्रयोग करते हैं, लेकिन अपने ढंग से काव्यात्मक ढंग से। इसमें वे पूरी तरह छूट लेते हैं-नवीन शब्द गढ़ते हैं, पुराने में सुधार करते हैं, श्लेष, विरोधाभास, कल्पना, स्मृति, शब्द-योजना में हेर-फेर आदि से भाषा का एक भिन्न रूप प्रस्तुत करते हैं। प्रसाद जी ने इन्हीं विशेषताओं को परिलक्षित करते हुए छायवादी भाषा के बारे में लिखा था कि “सूक्ष्म आभ्यन्तर भावों के व्यवहार में प्रचलित पदयोजना असफल रहो। उनके लिए नवीन शैली, नया वाक्य-विन्यास आवश्यक था। हिन्दी में नवीन शब्दों की भंगिमा स्पृहणीय आभ्यन्तर वर्णन के लिए प्रयुक्त होने लगी। शब्द-विन्यास में ऐसा पानी चढ़ा कि उसमें एक तड़प उत्पनन करके सूक्ष्म अभिव्यक्ति का प्रयास किया गया।” इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि कविता में आम भाषा से हटकर भाषा के कलात्मक प्रयोग काव्य भाषा का निर्माण करते हैं। संक्षेप में, वह आम भाषा से विशिष्ट, उसका वह स्वरूप है जो काव्य का विधान करता है। यह विवेचन काव्य और काव्य भाषा के सम्बन्ध को न अस्वीकार‌ कर रहा है और न उसका अवमूल्यन कर रहा है, बल्कि पारिभाषिक रूप से दोनों को एक ही मान लेने का निषेध करता है।

काव्य और उसकी भाषा के सम्बन्ध को स्पष्ट करें तो कह सकते हैं कि “कविता की विशेषताएँ अनिवार्यता भाषा की‌ प्रकृति से निःसृत होती हैं और कविता का सक्रिय कार्य समाज, व्यक्ति और वास्तविकता के सम्बन्ध में ही है। अरस्तू के अनुसार कविता, अनुकरणात्मक कला का उच्चतम स्वरूप होने के नाते मानवीय जीवन में शाश्वत तत्वों की अभिव्यक्ति करती है। सर फिलिप सिडनी अनुकरण का अर्थ जीवन के तथ्यों के पुनरोत्पादन या नकल से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार कवि यथार्थ और वास्तविकता में परिवर्तन लाता है और एक नई वस्तु को सर्जना करता है। लेकिन यह यथार्थ और वास्तविकता समाज और व्यक्ति से परे नहीं है। इसीलिए डॉ० सैमुअल जॉनसन की सलाह है कि कृवि को देश और काल के पूर्वाग्रह से मुक्त होकर विभिन्न देश कालों के लिए सामान्य जीवन के आवश्यक सत्यों की खोज करनी चाहिए। “वस्तुतः कविता एक विश्वव्यापी धर्म है। अतः काव्य भाषा में सार्वदेशिकता और सार्वकालिकता के गुणों की कल्पना अस्वाभाविक नहीं कहीं जा सकती।” वे सनातन और सार्वभ हैं। वे समाज, व्यक्ति और उनके यथार्थ से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं।

काव्य भाषा से विशिष्ट होती है। उसका स्वरूप आम भाषा या जिस चीज को हम भाषा नाम से जानते हैं उससे भिन्न तरह का होता है। उसका मूल आम भाषा ही होती है, लेकिन कविता की अपनी विशिष्टता उसे आम भाषा से भिन्न कर देती है। कविता विशिष्ट इसलिए होती है कि “हमारी भावनाओं और अनुभूतियों का जीवन और समाज से अभिन्न सम्बन्ध है और अपने परिवेश को प्रतिक्रिया को अभिव्यक्ति कविता में होती है।”

सार्थकता

कविता अनुभव की बिंबात्मक और लयात्मक अभिव्यक्ति है, जो उसकी भाषा के दो मुख्य तत्व हैं। जीवन की इस तरह विशिष्ट अभिव्यक्ति करने वाली कविता की भाषा का स्वयं ही विशिष्ट होना निर्विवाद है। वह कविता की भाँति ही उच्चस्तरीय भाषा है। रिचर्डस ने तो कविता को आवेश की भाषा का उच्चतम स्वरूप माना है। उनका विश्वास है कि काव्य भाषा का अपना प्रयोग ही भावों को उत्तेजित करने के लिए किया जाता है, मात्र संदर्भाश्रित सम्प्रेषण से इस सम्प्रेषण का चरित्र अधिक गहरा होता है। अर्थात पिता में जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जाता है वह सम्प्रेषण के आधार पर भी आम भाषा से विशिष्ट होती है, उसमें मात्र कथन ही नहीं होता अपितु भवों को उद्बुद्ध करने की शक्ति भी होती है। यही काव्य भाषा की सार्थकता की कसौटी है कि “वह पाठक में भी उन्हीं भावों और विचारों को जगाए जिनकी प्रेरणा उसकी सृष्टि के मूल में है।”

काव्य का उद्देश्य जीवन की निजी अनुभूतियों को और समाज की वास्तविकता को सच्चाई से चित्रित करना है। उसकी “भूमि जीवन से जगत् से परे नहीं है। वह वस्तु व्यापार-योजना जो केवल विलक्षणता, नवीनता या अलौकिकता दिखाने के लिए की जाएगी, जिसमें जगत् या जीवन का कोई मार्मिक पक्ष, गम्भीर या साधारण, व्यक्त होता न दिखाई पड़ेगा, वह काव्य का ठीक लक्ष्य पूरा न कर सकेगी।” इस वस्तु-व्यापार की योजना जो वस्तु कुरती है, वह काव्य भाषा है, उसका धर्म हो इस वस्तु व्यापार-योजना का विधान करना है। इसी में उसकी सार्थकता निहित है। यह काम सामान्य भाषा नहीं कर पाती क्योंकि वह भावना के उतने ही अंश को कह पाती है जितना सर्वनिष्ठ होता है। भावना को विशिष्टता को ठीक-ठीक देख पाने वाला व्यक्ति सामान्य भाषा से संतोष नहीं पाता। वह उस विशिष्ट भाषा को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है जो उसकी विविक्षा को ठीक-ठीक प्रकट कर सके यही विशिष्ट भाषा काव्य भाषा कहलाती है।” तात्पर्य यह कि काव्य के माध्यम से उपयुक्त सम्प्रेषण के लिए काव्य भाषा की सार्थकता है। इसका मानदण्ड यह है कि काव्य को वह किस स्तर तक तादात्म्य-योग्य अर्थात् सम्प्रेषणीय बनाती है और उसकी पहचान को कायम रखती है। इसीलिए डॉ० नगेन्द्र मानते हैं कि साधारणीकरण भाषा कका काव्य भाषा क धर्म है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि काव्य भाषा का उद्देश्य किसी कोटि की सूचनाओं या अर्थों का प्रेषण न  होकर भावात्मक प्रभाव उत्पन्न करना भर है। यह सही है कि ये अर्थ वैज्ञानिक अर्थ नहीं होते, फिर भी काव्य भाषा एक ओर जहाँ भावात्मक प्रभाव उत्पन्न कर बोधगम्य होती है, वहीं अर्थतत्व को व्यक्त कर काव्य की पहचान कायम करती है। इस प्रकार “काव्य भाषा के नियामक हो जाते हैं अर्थ और भाव।” इस प्रसंग में रिचर्डस मानते हैं कि काव्य भाषा का प्रमुख कार्य इच्छित भावों को जागृत करना और सही रुझान (ऐटीट्यूड) को प्राप्त करना है और इस प्रक्रिया में शब्द मात्र उपकरण का काम करते हैं।

काव्य के अर्थ और प्रभाव की प्रेषणीयता के लिए अनिवार्य है कि काव्य भाषा बोधगम्य हो। सार्थक काब्य भाषअर्थतत्व क सरल, सहज, अनुभूति-प्रचुर होती है और यथार्थ-जीवन की अभिव्यक्ति करती है। यूरोपिडस का कहना है कि काव्य में प्रयुक्त भाषा सरल और सुगम होनी चाहिए जो अर्ध-शिक्षित लोगों की समझ में भी आ जाए। लेकिन एशीलस की मान्यता है कि काव्य की आम समझ में आने वाली भाषा में नहीं होना चाहिए। उसे मात्र कुछ निश्चित लोगों के लिए होना चाहिए क्योंकि कविता जीवन से ऊपर की वस्तु है और उसे समाज के उच्च स्तर के लोग ही समझ सकते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि काव्य भाषा सामान्य भाषा नहीं होती, वह उससे विशिष्ट होती है अर्थत् उसके प्रयोग आम न होकर खास होते हैं। इसीलिए एशीलस उसे उच्च-स्तर के लोगों के लिए मान बैठे हैं। काव्य भाषा के इसी विशिष्ट स्वरूप के कारण और एक शिष्ट उच्च धरातल पर अभिव्यक्ति के कारण प्लेटो ने कहा था कि ये कवि अवास्तविक चित्रण करते हैं, वे भ्रम फैलाते हैं, उनका कोई सामाजिक आधार नहीं होता अतः उन पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि काव्य भाषा यदि इस स्तर पर काव्य को प्रस्तुत करे कि वह अवास्तविक, प्रामक और समाज से दूर नजर आए, तो उसकी सार्थकता इसमें नहीं है। जीवन जगत से जुड़कर भी विशिष्ट बने रहने में, सक्षम रूप से काव्य की अभिव्यक्ति में और काव्य को उचित अर्थ देने में ही उसकी सार्थकता विद्यमान है।

इकाई

काव्य भाषा और भाषा की इकाई के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं। एक मान्यता के अनुसार काव्य भाषा की इकाई शब्द है। इस मान्यता के पक्ष में पहला मुख्य तर्क यह है कि ‘काव्यार्थ का रहस्य शब्द से ही उन्मीलित होता है। अतः शब्द काव्य भाषा की इकाई है। दूसरा तर्क है कि कविता शब्दों से बनती है। काव्य चाहे किसी आकार का क्यों न हो, वह शब्दों की संरचना है। अज्ञेय का तर्क है कि कवि के नाते जो मैं कहता हूँ वह भाषा के द्वारा नहीं, केवल शब्दों के द्वारा एक अन्य तर्क है कि काव्यात्मक अभिव्यक्ति शब्दों के क्रम पर निर्भर करती है इसलिए काव्य भाषा की इकाई शब्द है। दूसरा तर्क है कि काव्य की पहचान शब्द से ही होती है, कविता में शब्द ही प्रकार्य करता दीख पड़ता है अतः काव्य भाषा की इकाई शब्द है।

दूसरी मान्यता के अनुसार काव्य भाषा की इकाई वाक्य है क्योंकि मनुष्य शब्दों में नहीं वाक्यों में सोचता है और भाषा उसके मनोविकारों का व्यक्त रूप है, इसलिए भाषा की इकाई वाक्य हो है।” यही मत डॉ० नामवरसिंह का है कि “पदावली तो वाक्य की एकावली का एक मनका है। इसीलिए वाक्य-विन्यास को ही भाषा की इकाई माना जाता है। ” डॉ० सियाराम तिवारी भी हर्बर्ट रोड की मान्यता-वाक्य लय की इकाई है-से निष्कर्ष निकालते हैं कि चूँकि काव्य भाषा भी लयात्मक होती है अतः वाक्य काव्य भाषा की भी इकाई है।

काव्य भाषा का स्वरूप

चेतना के कई स्तर होने के कारण भाषा के भी कई स्तर हो जाते हैं, काव्य भाषा उनमें से एक है। प्रयोग की दृष्टि से यह भाषा का वह स्वरूप है जो काव्य में प्रयुक्त होता है और शब्द जिसकी इकाई है: “मनुष्य भाषा के अनेक उपयोग करता है जिसमें से एक काव्य भी है।” काव्य में उसकी भाषा एक अपना ही स्वरूप लेकर प्रकट होती है। यही विशिष्ट स्वरूप वाली भाषा काव्य भाषा है।” इस स्वरूप की निर्माण प्रक्रिया के बारे में डॉ० देवराज की टिप्पणी है कि “साधारण लोग अपनी जिन्दगी की साधारण, व्यावहारिक जरूरतों की पूर्ति के लिए, सीमित शब्दावली का ही प्रयोग करते हैं, फलतः उस पदावली की अभिव्यंजना शक्ति की सीमाएँ होती हैं। जो लेखक अभिव्यक्ति की सूक्ष्म और जटिल तहों में घुसते हुए जीवन को नैतिक और आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आयामों का बारीकी से चित्रण व उद्घाटन करना चाहता है, उसे अनिवार्य रूप में साधारण बोलचाल की भाषा की सीमाओं अतिक्रमण करना पड़ेगा। उसे कभी-कभी ऐसी भाषा का प्रयोग करना होगा जिसे केवल सुशिक्षित या अभिजात वर्ग के लोग ही जानते हैं।” इस तरह एक विशिष्ट स्वरूपवाली भाषा-काव्य भाषा का जन्म होता है। वह “सामान्य भाषा के भीतर एक भाषा है। जिस प्रकार लहर जल से स्पष्टतः भिन्न दिखाई पड़ती है किंतु वह जल से विच्छेद्य नहीं है उसी प्रकार से काव्य भाषा सामान्य भाषा से स्पष्टतः भिन्न दिखायी पड़ती हुई भी मूलतः सामान्य भाषा ही रहती है।” काव्य भाषा की विशिष्टता इतनी स्पष्ट होती है कि कई लोग काव्य और काव्य भाषा में अन्तर ही नहीं करते। वे काव्य भाषा को काव्य बन गई भाषा मान बैठे हैं। लेकिन यह निष्पत्ति यह अवश्य स्पष्ट करती है कि काव्य भाषा तात्विक रूप से बहुत विशिष्ट होती है। तात्विक रूप से तात्पर्य मात्र इतना है कि उसका शब्द-चयन, शैली, विम्य-योजना, प्रतीक, व्याकरणगत प्रयोग आदि भिन्न प्रतीत होने लगते हैं। इसीलिए माना जाता है कि “साहित्य के इतिहास में अक्सर ऐसे युग आते हैं जब काव्यरचना में निवेशित किए जाने वाले शब्दों का एक अलग वर्ग-सा बन जाता है, इस वर्ग के बाहर जाकर साधारण बोलचाल में इसतेमाल होने वाले विशेषणों, क्रियाओं तथा क्रियाविशेषणों का प्रयोग अपरिष्कृत या घटिया रुचि का परिचायक माना जाने लगता है। ” ऐसी स्थिति में काव्य भाषा का साधारण भाषा से हटकर अपना अलग विन्यास हो जाता है। इसकी पुष्टि करते हुए डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि “काव्य-रचना में सामान्यतः भाषा के दो स्तर परिलक्षित किए जा सकते हैं- सामान्य वर्णन की भाषा और बिंबों की भाषा। कविता के रचना-विधान में बहुत बार बिवात्मक भाषा अपने आंतरिक संस्पर्श से वर्णन की सामान्य भाषा को भी आलोकित करती चलती है। यह तो स्पष्ट है कि कविता का अधिकांश वर्णन सामान्य भाषा में होता है, जबकि कविता का पूरा रचना संघटन कुछ विशिष्ट प्रयोगों से सममतः दीप्त हो उठता है।” वे काव्य भाषा को विवों से परिलक्षित करते हैं। निस्संदेह काव्य भाषा का एक विधायक तत्व बिंब है, लेकिन एकमात्र तत्व नहीं।

क्रमानुसार देखें तो बिंब से पहले शब्द-योजना का स्थान निश्चित होता है। “काव्य भाषा में सभी प्रकार के शब्दों को स्थान प्राप्त होता है। शर्त यह है कि उनके साहचर्य प्रसंग के अनुकूल हों और यदि किसी शब्द के एक से अधिक साहचर्य हो तो प्रसंग में इतना बल होना चाहिए कि वह अनिच्छित साहचर्य को दूर रखें।” इस प्रसंग में ध्यातव्य है कि सन्दर्भानुसार शब्द-योजना काव्य भाषा को सुगठित करती है। दूसरी बात यह कि काव्य भाषा में प्रयुक्त शब्द मात्र अर्थ-सम्प्रेषण का माध्यम या वाहन ही न हों अपितु अर्थ उत्पन्न करने का जरिया हो। उदाहरण के लिए निराला की कविता ‘कुकुरमुत्ता’ में ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘गुलाब‘ शब्द दो पौधों या फूलों की ही व्यंजना नहीं करते, बल्कि एक दूसरा अर्थ भी उत्पन्न करते हैं जिसमें ये दोनों शब्द समाज के दो वर्गों का प्रतिनिधित्व करने लगते हैं। इसलिए शब्द-योजना में शब्दों का अर्थ उत्पन्न करना अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

शब्द योजना और विम्ब-योजना के बाद काव्य भाषा के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले शेष तत्व लय या छन्द-विन्यास और शैली हैं, लेकिन ‘पाश्चात्य जगत् में फिगर आव स्पीच (अलंकार), स्टाइल (शैली), डिक्शन (शब्द-योजना) और पोयटिक इमेज (काव्य-बिंव) के रूप में जो चिंतन-मनन हुए हैं, उनसे काव्य भाषा का स्वरूप स्पष्ट होता है।” वस्तुतः अलंकार-योजना शब्द-योजना का हिस्सा है, उसे अलग करके देखने का विशेष औचित्य नहीं है। इस पाश्चात्य चिन्तन में जो तत्व छूट गया है वह है लय-छन्द – विन्यास जो काव्य भाषा का अपना निजी महत्वपूर्ण और अनिवार्य तत्व है। ऐसा नहीं कि पाश्चात्य चिंतकों ने इस तत्व की चर्चा नहीं की है या उसे महत्वपूर्ण नहीं माना है। क्रिस्टोफर कॉडवेल कविता को जब दैनन्दिनी भाषा का उन्नत रूप मानते हैं तो उसकी संरचना में छन्द-लय की भूमिका को मुख्य मानते हैं, जो कविता को दैनिक भाषा से अलग करते हैं और इस तरह उसे एक खास रहस्यवादी और शायद जादुई स्वरूप देते हैं। कविता की यह लयात्मकता किसी भी भाषा की ‘प्राकृतिक’ लय को दबा देती है। डेविड डशेज की ध्वनि, साहचर्य, अर्थमयता आदि के साथ भाषा के तत्व रूप में लय और छन्द को अनिवार्य मानते हैं। इस प्रकार, काव्य भाषा के स्वरूप के नियामक तत्व शब्द-योजना, विम्ब विधान, छन्द-विन्यास और शैली हो जाते हैं, जो काव्य भाषा को एक प्रकार का अनुशासन बना देते हैं।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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