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आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी | हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की भाषा – शैली

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी | हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की भाषा – शैली

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

पद्मविभूषण आचार्य डॉ. हजारीप्रसाद हिन्दी साहित्य के उन महान साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्होंने अपने युग को सर्वाधिक प्रभावित किया है। वे महान् साहित्यकार होने के साथ-साथ महामानव भी हैं। असाधारण प्रतिभा सम्पन्न डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी भारत राष्ट्र की अनुपम निधि हैं। वे राष्ट्रीय विद्वान एवं साहित्यकार हैं। उनका साहित्यिक व्यक्तित्व भी विविधमुखी है। वे उच्चकोटि के समीक्षक, निवन्धकार, उपन्यासकार, अनुवादक, कवि, साहित्य-इतिहास निर्माता एंव अन्वेषक हैं। उन्होंने हिन्दी-समीक्षा के क्षेत्र में नवीन युग का सूत्रपात किया। उन्होंने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विवेचन करते हुए साहित्यकारों की कृतियों का विश्लेषण एंव समीक्षण किया। अपनी मानवतावादी दृष्टि, उदार व्यक्तित्व एव पाण्डित्य के द्वारा उन्होंने वर्तमान युग में साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है।

आचार्य द्विवेदी ने विपुल मात्रा में निबन्धों की रचना की है। साहित्य, संस्कृति, ज्योतिष, धर्म, इतिहास, सम्बन्धी निबन्धों में उनका पाण्डित्य और उनकी कवित्वपूर्ण भाषा दर्शनीय है। निःसन्देह वे ललित निबन्धों के क्षेत्र में श्रेष्ठ हैं। उनके इन निबन्धों में विचार, भाव और कल्पना की त्रिवेणी प्रवाहित होती है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की भाषा-शैली-

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबन्धों में विषय की विविधता के साथ-साथ भावों और विचारों की गहनता, अभिव्यक्ति की अलौकिकता और शैली की स्वाभाविकता विद्यमान है। उनकी भाषा-शैलीगत विशेषताओं की विवेचना निम्नाकिंत शीर्ष बिन्दुओं के आधार पर दृष्टव्य हैं-

भाषागत वैशिष्ट्य

(i) संस्कृत की तत्सम शब्दावली का प्राधान्य- संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान होने के कारण भाषा में उनका झुकाव तत्समता की ओर अधिक रहा है। द्विवेदी जी पर संस्कृत-भाषा और संस्कृत-साहित्य की गहरी छाप पड़ी थी। यही कारण है कि उनकी आलोचनात्मक कृतियों में भाषा की तत्समता का प्राधान्य है, फिर भी भाषा दुरूह अथवा जटिल नहीं हो पाई है। इन निबन्धों में भाषा में स्वाभाविकता एवं व्यावहारिकता लाने के लिए उर्दू, अरबी-फारसी एवं अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का भी समावेश है। जैसे- हिमायत, सल्तनत, कदर, गलत बयानी, मजहब, दुनियाबी, मनहूस, दकियानूस, दिमाग, जिन्दगी, जालिम, आदमीनुमा, बगावत आदि। इसी प्रकार अंग्रेजी के शब्द भी इनके निबन्धों में यत्र-तत्र प्रयुक्त हुए हैं। जैसे- कल्चर, सोसाइटी, सब्जक्टिव, माडर्नाइज आदि। फिर भी आपकी भाषा संस्कृत-प्रधान है। कहीं-कहीं संस्कृत के अपरिचित प्रयोग भी है। जैसे-पदे-पदे, कुज्झटिकाच्छन्न, वार्तातु, कंटकारी, चिद्विषयक, अहमहमिका आदि।

(ii) संस्कृति-सूक्तियों एवं बंगला उद्धरणों का प्रयोग- द्विवेदी जी ने संस्कृत – सूक्तियों एंव बंगला उद्धरणों का प्रयोग करके अपने विषय को पुष्ट किया है। जैसे- ‘सत्यमेव जयते’, ‘नानृतम्’, ‘नहिं ज्ञानेन सदृशं पवित्रमहि विद्यते।’ इसी प्रकार रवीन्द्र की बंगला कविता के उद्धरण भी आपके निबन्धों में यत्र-तत्र मिल जाते हैं। प्रायः द्विवेदी जी ने संस्कृत सूक्तियों और बंगला कविता के उद्धरणों का हिन्दी भावार्थ एवं अनुवाद भी प्रस्तुत किया है। ‘अशोक के फूल’ निबन्ध-संग्रह में ये उद्धरण भाषा को अभिव्यंजना शक्ति प्रदान करते हैं। द्विवेदी जी को शास्त्रों का गूढ अध्ययन था, अतः वे पैराणिक प्रसंगों, उदाहरणों और दृष्टान्तों का भी समावेश करते चलते हैं।

(iii) दीर्घ-वाक्यावली- द्विवेदी जी की भाषा में विचारों की विशदता है। उनकी प्रवृत्ति बात को विस्तारपूर्वक कहने की है। किन्तु इसमें पुनरुक्ति और नीरसता नहीं है। बात को विस्तारपूर्वक कहने के कारण उनकी वाक्य रचना अपेक्षाकृत लम्बी हो गई है, किन्तु विचार श्रृंखला में ऐसा तारतम्य बना रहता है कि पाठक का मन निबन्ध की विषय-वस्तु से इधर-उधर हट नहीं पाता है। भाषा की यह विशेषता उनकी व्यास-शैली में दृष्टिगोचर होती है।

(iv) सहज स्वाभाविक भाषा- द्विवेदी जी सहज स्वाभाविक भाषा-प्रयोग के प्रबल पक्षधर हैं। आपने अपने विचारों को सहज स्वाभाविक रूप में प्रतिपादित किया है। उन्होंने कहीं भी ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया है, जो कृत्रिम और प्रयासजन्य हो। उनकी भाषा में बोलचाल की शब्दावली दिखायी देती है। वे इस बोलचाल की शब्दावली में गम्भीर तथ्यों को सरलता से प्रस्तुत करने में पूर्ण समर्थ हैं। आपकों पाण्डित्यपूर्ण भाषा का स्थान पर बोलचाल की भाषा अधिक पसन्द है। एक उदाहरण देखिए-

“मगर उदास होना भी बेकार है। अशोक आज भी उसी मौज में है, जिसमें आज से दो हजार वर्ष पहले था। कहीं भी तो कुछ नहीं बिगड़ा है, कुछ भी तो नहीं बदला। बदली है मनुष्य मनोवृत्ति।”

(v) कहावतों और मुहावरों का प्रयोग- द्विवेदी जी ने कहावतों और मुहावरों का प्रयोग प्रसंगानुकूल विषय को सरस और सुबोध बनाने के लिए किया है। आपने इन्हें किसी कोष से ग्रहण न करके स्थानीय बोलचाल से ग्रहण किया है। इससे भाषा की व्यंजकता में अभिवृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए देखिए-

“हमें टंटे में पड़ना ही पड़ेगा, केवल रोनी सूरत बनाए रहते हैं, चाण्डाल दुर्गति के लिए कर्म की दुहाई देता है, न ऊधों को लेना, न माधौ का देना आदि।”

शैलीगत वैशिष्ट्य

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने विभिन्न विषयों पर निबन्ध रचना की है। उनके निबन्ध भिन्न- भिन्न शैलियों में लिखे गए हैं। आपकी शैली में आचार्यत्व स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उसमें  प्रसाद, माधुर्य और ओज गुणों का सुन्दर समावेश हुआ है। द्विवेदी जी की प्रमुख शैलियाँ निम्नांकित हैं-

(1) विचारात्मक शैली- द्विवेदी जी के विचारात्मक निबन्धों में जिनमें गहन-गम्भीर विषयों का विवेचन हुआ है, इन शैली के दर्शन होते हैं। शैली की भाषा संस्कृतनिष्ठ है. और वाक्य- रचना दीर्घ है। आपके साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक निबन्धों में विशेष रूप से इस शैली को अपनाया गया है। आपने गम्भीर से गम्भीर विषय को भी बड़ी कुशलता तथा सुबोधपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। इस शैली का एक उदाहरण देखिए-

“जितेन्द्रियता चरित्रबल की कुंजी है। वस्तुतः आज जिसे चरित्र बल कहा जाने लगा है, उसे ही पुराना भारत जितेन्द्रियता कहता था। अपने आदर्शों के प्रति अविचल निष्ठा इसी गुण से आती है।’

(2) गवेषणात्मक-शैली- गवेषणात्मक द्विवेदी जी की मौलिक विशेषता है। इस शैली का प्रयोग आपने संस्कृति, इतिहास, समाज-विकास और साहित्य के क्षेत्र में किया है। साहित्य के विभित्र पक्षों पर विचार करते समय तथा शब्दों के नाम-गोत्र, कुल-शील का पता लगाने में डॉ. द्विवेदी की गवेषणात्मकता विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है। ‘कुटज’ निबन्ध का निम्न उदाहरण देखिए- संस्कृत में ‘कुटज’ रूप भी मिलता है और ‘कुटच’ भी। मिलने को तो ‘कुटज’ भी मिल जाता है तो यह शब्द किस जाति का है?”

(3) विवेचनात्मक-शैली- द्विवेदी जी की विवेचनात्मक-शैली में विशदता है। इसलिए वह अत्यन्त प्रभावोत्पादक हो गई है। कहीं-कहीं तो वे वाक्यों की लड़ी-सी गूंथ देते हैं और उसमें भी सही वाक्यों को एक ही शब्द से प्रारम्भ करके भाषा में लय-सौन्दर्य का समावेश कर देते हैं।

जैसे- ‘महात्मा के महाप्रयाण के बाद’ निबन्ध का निम्नलिखित उदाहरण देखिए, “महात्मा जी को सचमुच ही किसी ने गोली मार दी थी, सचमुच ही वे सदा के लिए हमें छोड़कर चले गए थे, सचमुच भारतवर्ष का भविष्य कुछ समय के लिए अन्धकार का आच्छन्न हो गया था, सचमुच ही हिन्दू धर्म के सिर पर कंलक लगा था, जो उसके हजारों वर्षों के इतिहास में अपरिचित था।”

(4) भावात्मक-शैली- सरल, सामान्य जीवन के विषयों के निबन्ध तथा वैयक्तिक संस्मरण, जीवन-वृत्त आदि इस शैली मे लिखे गए हैं। भावुकता, सरसता, सहज गतिशीलता , प्रवाह और माधुर्य इस शैली में सर्वत्र व्याप्त दृष्टिगोचर होती है। आपके ‘अशोक के फूल’ निबन्ध में भावात्मक शैली के दर्शन होते हैं। स्थान-स्थान पर अलंकारों के प्रयोग से रोचकता और भी बढ़ गई है। लेखक की भावुकता उमड़ पड़ी है। एक उदाहरण देखिए, “कन्दर्प देवता के अन्य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों-की-त्यों है। अरविन्द को किसने भुलाया, आम कहाँ छोड़ गया और नीलोत्पल की माया को कौन काट सका? नवमल्लिका की अवश्य ही अब विशेष पूंछ नहीं है, किन्तु उसकी इससे अधिक कदर कभी भी नहीं। भुलाया गया है अशोक।”

(5) समीक्षात्मक-शैली- द्विवेदी जी ने इस समीक्षात्मक-शैली में सरसता और प्रवाहमयता विद्यमान है। इस शैली मे कोमलकान्त पदावली का सुन्दर समावेश मिलता है। जब वे किसी कवि के भावपक्ष का विश्लेषण करने लगते हैं तो इतना सरसता उत्पन्न कर देते हैं कि पाठक भाव-विभोर होकर उनकी भाव-धारा में बहने लगता है। एक उदाहरण देखिए, “किसी मसखरे आँकड़ेबाज ने हिसाब लगाकर अपनी जानी हुई दुनिया की सारी कहानियों, नाटकों और उपन्यासों की कथाओं का वर्गीकरण करके बता दिया था कि दुनिया मे केवल सात ही प्लाट हैं, जो भिन्न-भिन्न रूपों में लिखे गए हैं और भविष्य में भी लिखे जाएंगे।”

(6) वर्णनात्मक-शैली- द्विवेदी जी ने वर्णन-प्रधान निबन्धों में वर्णनात्मक-शैली का आश्रय लिया है इस शैली की भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। ‘बसन्त आ गया है’ लेख में एक उदाहरण देखिए- “जिस स्थान पर बैठकर लिखा रहा हूँ, उसके आस-पास कुछ थोड़े-से पेड़ हैं। एक शिरीष है, जिस पर लम्बी-लम्बी सूरती छिम्मियाँ अभी लटकी हुई हैं।”

(7) सूत्रात्मक-शैली- द्विवेदी जी के निबन्धों में जहां बौद्धिकता अधिक प्रखर हो गई है, वहीं उनके वाक्यों में सूत्र का रूप धारण कर लिया है। उनके इन सूत्रात्मक कथनों में विलक्षणता और चमत्कार की सृष्टि हुई है।

(8) आलंकारिक-शैली- द्विवेदी जी के निबन्धों में कहीं-कहीं अभिव्यक्ति चमत्कारिक हो गई है। आपके इस चमत्कार रूप को उत्पन्न करने के लिए आलंकारिक शैली का अनुगमन किया है। इससे उनके निबन्ध गद्य-काव्य जैसे मनोरम हो गए हैं।

(9) हास्य-व्यंग्यात्मक-शैली- चिन्तनशील होते हुए भी द्विवेदी जी बड़े विनोदी और मनमौजी स्वभाव के हैं। आपकी रचनाओं में हास्य-व्यंग्य शिष्ट संयत और पैने छींटे हैं। द्विवेदी जी ने साहित्यकारों और प्रचलित साहित्यिक प्रवृत्तियों पर चुटीले व्यंग्य करते हुए बड़ी मीठी चुटकियां ली हैं। वे गम्भीर वातावरण के बीच में भी व्यंग्य की गुदगुदी से पाठक के मन में नवीन स्फूर्ति भरते चलते हैं।

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Pankaja Singh

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