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काव्य भाषा के गठन में साभिप्राय विचलन और उपचार वक्रता

काव्य भाषा के गठन में साभिप्राय विचलन और उपचार वक्रता

काव्य भाषा के गठन में साभिप्राय विचलन और उपचार वक्रता

काव्य भाषा का पहला अंग ‘शब्द-चयन’ है, जिसके लिए अंग्रेजी में ‘डिक्शन’ शब्द प्रयुक्त किया जाता है। ‘डिक्शन’ शब्द-चयन, शब्द विन्यास, शब्द-योजना, पद-चयन, पद-विन्यास, पद-योजना आदि विभिन्न स्वरूपों में हिन्दी में व्यवहृत होता है।

अरस्तू के अनुसार, ‘डिक्शन’ का अर्थ शब्दों का मात्र छन्द के अनुरूप विन्यास करता है। दूसरे शब्दों में, लय की योजना के लिए निर्मित और चुने गये शब्दों को एक सुंदर क्रम में आयोजित करना ‘डिक्शन’ है।

डीट्रिश के शब्दों में, ‘डिक्शन’ का अर्थ है-शब्द-चयन। वह मानता है कि एक अच्छा रचनाकार शब्द-शिल्पी होता है, जो रचना में अपने लक्ष्यों के अनुरूप भाषा की क्षमता को उपयोग में लाना जानता है और उसे लाता भी है, जो सही समय पर सही शब्द के प्रभाव को पहचानता है और एक परिवर्तनशील समाज, भाषा के जिन स्तरों से अपनी परम्पराओं, रीतियों और मूल्यों को परिवर्तित और परिभाषित करता है, उनके प्रति बहुत संवेदनशील भी होता है। इस तरह भाषा में शब्द-चयन या शब्द विन्यास सीधे-सीधे सामाजिक संदर्भोंों से संयुक्त हो जाता है, जिसमें भाषागत परिवर्तन-शब्दों के चयन की एक निश्चित परिपाटी अपने समाज के परिवर्तनों को मूर्तित करने लगते हैं। अपने समाज की परम्पराओं, रीतियों, मूल्यों आदि की अभिव्यक्ति बनकर सामने आते हैं।

अरस्तू और डोट्रिश, यहाँ पर शब्द-विन्यास की दो विशिष्टताओं को प्रकाशित करते हैं-उसकी काव्यात्मकता और सामाजिकता। अरस्तू के अनुसार काव्य में शब्द-चयन विशिष्ट हो जाता है-एक निश्चित लय की योजना के कारण और डीट्रिश के अनुसार काव्य में शब्द चयन विशिष्ट हो जाता है एक निश्चित सामाजिक संदर्भ की व्यंजना के कारण। कुछ मिलाकर, काव्य में शब्द चयन सामान्य नहीं होता, वह सदैव विशिष्ट होता है-काव्यगत और सामाजिक संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में इसी कारण से अथवा विशिष्ट शब्द चयन से उत्पन्न सोंदर्य के कारण काव्य-शब्द को आश्चर्यकारी माना जाता है, जो चमत्कार की सृष्टि करता है। वस्तुतः यह चमत्कार ही है कि वह अपने पूरे सामाजिक, सांस्कृतिक काव्यगत संदर्भों की व्यंजना करने लगता है। इसलिए काव्य के शब्द को विशिष्ट, चमत्कृतियुक्त, प्रतिभाज्य और आनन्द प्रदायक मान लिया जाता है। समष्टि में ऐसे शब्दों का चयन और विन्यास, जो काव्य के संदर्भों को व्यंजित करते चलें, ही ‘डिक्शन’ का अर्थ है, इसे शब्द चयन, शब्द-योजना, शब्द-विन्यास, सभी के रूप में लिया जा सकता है। चूंकि कविता में शब्द सामान्य शब्द नहीं होता, बल्कि एक इकाई के रूप में एक पद के पूर्ण अर्थ में प्रयुक्त होता है, वहाँ उसकी सत्ता जितनी पड़ोसी शब्दों पर निर्भर करती है, उतना ही उसके स्वयं के अस्तित्व का भी प्रभाव होता है। अतः ‘डिक्शन’ को पद-चयन, पद-योजना या पद-विन्यास के विशिष्ट अर्थ में भी किया जा सकता है।

इस शब्द चयन का महत्व दो स्तरों पर परिलक्षित होता है- काव्यगत और सामाजिक।

काव्यगत स्तर पर शब्द चयन और उनकी योजा काव्य को आत्मा को चमत्कृत करने, उसे सुंदर बनाने और काव्यत्व प्रदान करने से ही है। इसमें लय की महत्वपूर्ण भूमिका के कारण माना जाता है कि “शब्द-योजना और लय मिलकर काव्य भाषा का निर्माण करती है।” यह मान्यता पूर्णतः सही नहीं है क्योंकि शब्द-योजना और लय के अतिरिक्त विम्बों और शैली की भी अपनी भूमिका विशेष होती है। इतना अवश्य है कि काव्य भाषा के दोष तीनों अंग शब्द-योजना पर ही आधारित होते हैं, इस कारण से शब्द-योजना का महत्व बहुत बढ़ जाता है। यह बिम्बों की प्रस्तुति करता है, लय तथा छन्द का विधान करता है और शैली का निर्धारण करता है। कुल मिलाकर “कविता का जो स्वर (टोन) होता है, वह शब्द चयन और शब्द-विन्यास पर निर्भर करता है।‘ यह स्वर मात्र काव्यगत ही नहीं होता, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी ध्वनित होता है।

प्रत्येक शब्द (काव्यगत) एक सामाजिक संदर्भ के दबाव और अनुशासन में रहता है, उस संदर्भ को मुखरित करता है। दूसरी ओर रचनाकार “संदर्भ के अनुसार सदा शब्दों के अर्थ को प्रखर अथवा विशिष्ट अथवा अपरिवर्तित करता रहता है।” इस तरह, एक शब्द एक स्थान पर एक अर्थ-विशेष को हो अभिव्यक्ति करता है और दूसरे स्थान पर दूसरे अर्थ की। इसलिये शब्द चयन का, अर्थ की व्यंजना की दृष्टि से, विशेष सांदर्भिक महत्व हो जाता है। दोनों स्तरों पर शब्दों का चयन और विन्यास शब्द के दोनों तरह के अर्थों-भावात्मक (इमोटिव) और निर्देशात्मक (रिफ्रेशियल) को व्यक्त करने में बहुत बड़ा योगदान देता है। इन अर्थों को व्यंजना में एक शब्द कविता के अंदर पूरी तरह स्वायत्त नहीं रहता, अपितु परस्पर समीपवर्ती शब्दों पर भी आश्रित रहता है, जो उनकी व्यंजना को पैनापन प्रदान करते हैं, अतः उसका महत्व परस्पर संबंधित शब्दों को प्रभावित करने और होने  से भी हो जाता है। “काव्य साहित्य में प्रयुक्त कोई भी पद या शब्द जहाँ सिर्फ एक ही मूल्य या मूल्यात्मक अर्थ को संकेतित नहीं करता, वहाँ किसी भी शब्द का उसके अकेलेपन में निश्चित अर्थ नहीं होता। रचना के अन्तर्गत नियोजित विभिन्न विशेषण, क्रिया-विशेषण और संज्ञा शब्द परस्पर सम्बद्ध होकर एक इकाई का निर्माण करते हैं, उनके आपसी संबंध एक-दूसरे की शक्ति का परिसीमन और संवर्धन, उनके गौरव की दिशा का निर्धारण, और संबंधों को प्रकृति के अनुरूप, विभिन्न अथा की विशिष्ट छायाओं का संकेत करते हैं।” विटगेंस्टीन भी अर्थ के सिद्धान्त में शब्द के अर्थ को भाषा में उसके प्रयोग पर आधारित मानता है, जो वस्तुतः शब्दों के पारस्परिक सम्बन्धों का उद्घाटन ही है। संक्षेप में, शब्द का महत्व कविता के सभी संदर्भों को अपने पूरे अस्तित्व के साथ निखारने, संरचित और मूर्त करने में निहित होता है। यह काम वह चाहे विम्ब के माध्यम से करे, छन्द या लय से करे या फिर शैली से करे, लेकिन कविता में वह इस भूमिका का निर्वाह समष्टि में तीनों स्तरों पर एक साथ करता है, इसी में उसका महत्व और सार्थकता होती है।

अपनी प्रारम्भिक अवस्था में यह शब्द संकेत (साइन) रूप में व्यक्त होता है, इसीलिए इसका एक अभिधेयात्मक अथवा निर्देशात्मक (रिफ्रेशियल) अर्थ होता है। संकेत होने के कारण ही कभी-कभी शब्द और प्रतीक में भ्रम भी हो जाता है क्योंकि प्रतीक स्वयं में एक पूर्णार्थ-बोधक संकेत होता है, जिसकी संचेतना एक सामान्य संकेत और शब्द से कहीं ज्यादा विस्तृत और अनेक अर्थों-संदर्भों से संप्रथित होती है। इसलिए संकेत और प्रतीक को एक समझ लेना त्रुटिपूर्ण है।

शब्द काव्यगत अपनी मूल अवस्था में एक संकेत है। संकेत का सामान्य अर्थ है, जो किसी भी माध्यम से एक वस्तु के किसी निश्चित विचार को संप्रेषित करे। विशिष्ट रूप में सभी संकेत विचारों या अवधारणाओं के वाहक ही होते हैं। दूसरे शब्दों में, सभी विचार संकेतों के रूप में ही आते हैं। संकेत ही विचार की पहली सीढी है। वह एक भौतिक संरचना से जुड़ा होता है, जो किसी वस्तु या संघटना का बोध कराती है, लेकिन इस अर्थ में संकेत मात्र बोध नहीं है, अपितु वह एक निश्चित अर्थ का सम्प्रेष्य भी है जो उस वस्तु या संघटना से सम्बद्ध होता है और जिसका अपना एक विशिष्ट प्रासंगिक महत्व होता है। इस कारण संकेत एक ऐसा अस्तित्व है जो अर्थ और अपने सारगर्भित (भौतिक) बोध से संयुक्त होता है। भौतिक बोध या पदार्थ बोध से जुड़े होने के कारण प्रत्येक भौतिक वस्तु संकेत के अंदर समाहित हो जाती है। इस अर्थ में संकेत का अस्तित्व और कुछ नहीं, बल्कि सम्प्रेषण का भौतिकीकरण अथवा पदार्थीकरण है, जिसमें प्रत्येक विचार, प्रत्येक संघटना और प्रत्येक वस्तु एक मूर्ति के रूप में उपस्थित होती है और एक अर्थ तथा बोध-विशेष की व्यंजना करती है। संकेत से सर्वप्रथम इस विचार, संघटना या वस्तु से जुड़ी अनुभूति के प्रभाव का संप्रेषण होता है, जो भाव-जगत् में एक मूर्ति का निर्माण करके वांछित परिणाम को जन्म देती है। सम्प्रेषण और अनुभूति के इस पनिष्ठ सम्बन्ध के कारण ही संकेत सम्प्रेषण का सक्रिय और सबसे सोधा एक मात्र माध्यम है।

इस संकेत से ही शब्द का निर्माण होता है और व्यापक रूप में प्रत्येक शब्द एक संकेत का विस्तृत स्वरूप नजर आता है लेकिन इससे पहले संकेत की एक चिन्ह (सिम्बल) के रूप में आवृत्ति होती है। एक वस्तु, विचार या संघटना से सम्बद्ध अनेक संकेत सामान्यीकृत होकर एक चिन्ह विशेष के रूप में अपनी पहचान करते हैं और जब यह चिन्ह-विशेष ध्वनि से जुड़कर आता है तो वह अपने विस्तार में एक शब्द की योजना करता है, उसका निर्माण करता है और उसे उन मूल संकेतों या संकेत का समस्त विशिष्टताओं से घनीभूत करता है, जो अनेक अर्था-सन्दभों-बोधों की व्यंजक होते हुए भी, अपने अस्तित्व की समयता- संश्लिष्टता में एक खास अर्थ और बोध की वाचक होती है।

एक ध्वनि-चिन्ह (साउण्ड-सिम्बल) के व्यापक अर्थ में शब्द जब मूल संकेतों या संकेत की समस्त विशिष्टताओं को प्रतिविम्बित करने का माध्यम बनकर आता है, तब उसे सामाजिक अन्तरक्य (इंटरकोर्स) के एक शुद्धतम और सर्वाधिक संवेदनशील माध्यम के रूप में पहचाना जाता है। वह समझ और व्याख्या के प्रत्येक अंश में अपने अस्तित्व को प्रस्तुत करता है। संस्कृति का अभिन्न अंग बनकर मानवीय विविध आयामों की व्याख्या का साधन बन जाता है जिसमें समस्त सांस्कृतिक संदर्भ सुनियोजित रहते हैं। जैसे-जैसे संस्कृति में, समाज में परिवर्तन आता है, शब्द-विशेष की अभिव्यक्ति में परिवर्तन आ सकता है और प्रायः आता है, उसकी योजना में परिवर्तन आता है, तभी वह बदलते हुए संदर्भों की अभिव्यक्ति के रूप में जाना जाता है। इस परिवर्तन के क्रम में सामाजिक आवश्यकताओं के तहत नया शब्द निर्मित भी होता है और पुराना तथा अनावश्यक शब्द त्याग भी दिया जाता है। इसके अतिरिक्त आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक कारणों से एक समाज दूसरे समाज से नये शब्द लेता भी है, उसे देता भी है और कभी-कभी अपने शब्द को छोड़कर दूसरी भाषा के पर्यायवाची को ही मान्य कर लेता है। इस तरह विभिन्न स्तरों पर शशब् की योजना होती है। इस स्तर पर शब्द मात्र एक चित्र के तत्व रूप में नहीं रह जाता, बल्कि एक औजार (टूल) या उपकरण के रूप में आता है, जिसका प्रयोग सम्प्रेषण के विविध प्रकार के उद्देश्यों के लिए किया जाता है। उससे नये, पुराने परिवर्तित सपर्कित, सभी तरह के सामाजिक सम्प्रेषण के उद्देश्यों का साधन किया जाता है। इस क्रम में या इस योजना में प्रत्येक समाज अपनी भाषा की एक परम्परागत शब्द-संगति का विकास करता है जो उस भाषा के बोलने वालों द्वारा अअनुभू की जाती है, जानी और पहचानी जाती है। दूसरे स्तर पर जो उस समाज की अनेक विशेषताओं को परिभाषित भी करती है। वह भाव और वस्तु, दोनों स्तरों पर काम करती है, एक जगह अमूर्त होकर और दूसरी जगह मूर्त होकर।

शब्द, उपयुक्त विकास-क्रम में  मूर्तन से अमूर्तन की ओर बढ़ता है। ध्वनि-संकेत के रूप में ठोस भौतिक पदार्थों की व्यंजना के साथ-साथ वह मनोजगत के रहस्यमय, काल्पनिक, सूक्ष्म और अमूर्त भावों-विचारों का योजक भी हो जाता है। यहाँ वह अपने निर्देशात्मक अर्थ से एक श्रेणी ऊपर होकर भावात्मक अर्ध से बहुत गहरे स्तर पर संबंधित होता है। ऐंद्रिय अनुभूति को वास्तविक बनाने के लिए, दूसरे शब्दों में उसके बोध को सही रूप में, प्रमाणिक रूप में व्यक्त करने के लिए, वह अमूर्तन की ओर बढ़ता है। लेकिन संप्रेषण की इस परिधि में भी उसका प्राथमिक कार्य भौतिक वस्तुओं से जुड़ा ही रहता है। अमूर्तन  के लिए उसे तथ्य पर आश्रित होना पड़ता है और यह तथ्य भौतिक जगत् से ग्रहीत होता है। इसलिए अमूर्तन की स्थिति में या एद्रिय अनुभूति की अभिव्यक्ति में शब्द अपने भौतिक-सामाजिक संदर्भ को नहीं छोड़ता। उदाहरणार्थ, हिंदी भाषा में एक शब्द है-‘जूठा’ : अग्रेजी भाषा में इसके पर्याप रूप में या समानान्तर रूप में कोई शब्द नहीं है। ‘जूठा’ शब्द जिस भाव का व्यंजक है, उसका संदर्भ हिन्दी भाषी समाज से सीधे-सीधे सांस्कृतिक स्तर पर गहरे रूप में संबद्ध है। अंग्रेजी भाषी समाज में ऐसे संदर्भ का नितान्त अभाव है, अतः वहाँ ऐसे शब्द की आवश्यकता हो नहीं। यह शब्द जिस ऐंद्रिय अनुभूति का प्रेषक है, वह भौतिक जगत् से ही सम्बद्ध है। एक अमूर्त भाव का बोध कराता हुआ भी, वह भौतिक तथ्य से और उसके सामाजिक संदर्भ से बँधा है।

सामाजिक भौतिक स्तर पर व्यवहत प्रचलित शब्द मूर्त और अमूर्त के सूचक-कविता में एक विशिष्ट रूप में आयोजित होते हैं। वह पारिभाषिक तथा अधिक व्याप्ति वाले जाति-संकत से हटकर तथ्य-विशेष की व्यंजना करता है। रचनाकार उसके माध्यम से “कुछ विशेष मार्मिक रूपों और व्यापारों का चित्रण करता है।” वह शब्द की शक्ति और सामर्थ्य को परखकर जीवन के अपने बोध, ‘अनुभूत जीवन के अपने अनुभव, मानवीय परिस्थितियों के प्रति अपनी गहरी और विस्तृत चेतना तथा मानवीय पक्षसंबंधों के विविध वृत्तों को सम्प्रेषित कता है। प्रामाणिकता की दृष्टि से यहाँ शब्द का प्रसंगानुकूल और बोधगम्य होना नितान्त आवश्यक है। ऐसा होने पर “शब्दों को सूक्ष्मता एवं सावधानी से स्थान देकर अभिव्यक्ति को उत्तम बनाया जा सकता है। ” उनके कलात्मक विन्यास से नवीन अर्थों को समावेशित किया जा सकता है। रचना या अभिव्यक्ति के मूल में होने के कारण शब्द रचनाकार के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। उसकी योजना पर सभी कुछ निर्भर करता है- अभिव्यक्ति, सम्प्रेषण, पहचान। दाते के बारे में इसीलिये कहा जाता है कि वह शब्द चयन में इस तरह व्यस्त होता है जैसे विश्वास पात्र साथियों को एकत्र कर रहा हो और उनमें एक भी ऐसा नहीं होता जो रचना के विधान में योग्यतापूर्वक हिस्सा न लेता हो।”

प्रत्येक रचनाकार अपने परिवेश से प्रभावित होता हुआ शब्द-चयन और शब्द विन्यास करता है। इसमें वह दूसरे समकालीन रचनाकारों से अलग नहीं होता, परन्तु सूक्ष्मता और व्यक्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक रचनाकार का शब्द-चयन और विन्यास थोडा अलग होता है, जिससे उसे और उसके समाज के परिवर्तन की दिशाओं को पहचाना जाता है। रचना-प्रक्रिया के प्रवाह में रहकर लेखक, अपने भावों की शब्दों से तुलना करता जो शब्द सर्वाधिक प्रतिनिधिक हैं उनकी योजना करता है, वह शब्द-साधना करता है, साथ ही संगति और निर्वाह को साधता चलता है, वह अपने ही भावों के उत्स को संयमित कर, उनका संपादन-संशोधन करता है-संगति और निर्वाह के हेतु।“ वह सतर्कता से शब्द ग्रहण करता है, आवश्यकतानुसार त्यागता या प्रयुक्त करता है। तभी उसकी  शब्द-स्थापना विषयानुकूल हहोक काव्य-रस की सर्जना करती है।

एक युग-विशेष के विभिन्न रचनाकारों के शब्द-चयन और शब्द-विन्यास का अध्ययन उस युग की भाषिक संरचना को आलोकित करता है और किसी समाज के पूरे साहित्य की सामान्य शब्द-योजना को देखा जाये तो उस समाज की संरचना सामने आती है। इस तरह शब्द-चयन चाहे एक कवि का हो या एक युग के अनेक कवियों का, अथवा पूरे सामाजिक विकास के संपूर्ण साहित्य का, प्रत्येक स्तर पर उसकी प्रतिबद्धता सामाजिक मूल्यों, संदर्भो से होती है। भाषा के स्तर पर भाषा का प्रवाह उसकी शब्द-योजना पर निर्भर करता है। भाषा का एक-एक परिवर्तन उसके शब्द-चयन में प्रतिविम्बित होता है और परिवर्तन से ही विकास होता है, जिसमें भाषा पुराने अनुपयोगी प्रयोगों को त्यागती हुई नवीन अभिव्यक्तियों के साधनों को महण करती है। त्यागने क्रम में, मिथ्या, भ्रमात्मक और त्रुटिपूर्ण दिशा-निर्देशक शब्द छूटते जाते हैं। कुछ मिलाकर जो शब्द-चयन विकास क्रम में सामने आता है, इसमें मूल शब्द, नये  शब्द, कुछ खास पुराने शब्द और बाहर से आये शब्दों की नियामक भूमिका होती है, जो किसी भाषा के स्वरूप और संरचना को अभिव्यक्त करते हैं। एक युग-विशेष के कवि (उदाहरण के लिये, मुस्लिम सामंतवाद के प्रथम चरण के रचनाकार: कबीर) की दूसरे युग के कवि (उदाहरण के लिए: मुस्लिम सामंतवाद के दूसरे चरण के रचनाकार तुलसी) से शब्द चयन के स्तर पर तुलना करके भाषिक और युगीन परिवर्तनों-परिस्थितियों-स्वरूपों को व्याख्यायित किया जा सकता है। यह सही है कि, “एक महत्वपूर्ण लेखक के लिए किसी भी वर्ग के शब्द वर्जित नहीं हैं। जो लेखक जीवन की जटिलताओं को जितना ही अधिक पकड़ना चाहता है उसे उतनी ही ज्यादा समृद्ध और जटिल भाषा का सहारा लेना पड़ता है।” परन्तु लेखक जय भी शब्द-चयन करता है, वह अपने वर्ग, उसको विचारधारा और चेतना तथा हितों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाता। यदि ऐसा होता है तो वह जीवन की वास्तविकताओं को पूर्णतः अभिव्यक्ति भी नहीं करता। अपने अचेतन में वह कहीं-न-कहीं वर्गीय चरित्र और आधार से सम्बद्ध प्रतिबद्ध होता है जो रचना-प्रतिक्रिया में काव्यभाषा के सभी स्तरों पर प्रतिबिम्बित होता चलता है।

शब्द-चयन के अन्तर्गत सर्वप्रथम कविता में प्रयुक्त शब्दों की समष्टि पर ध्यान दिया जाता है। दूसरे बिन्दु पर किसी एक या एक समूह के कवियों द्वारा प्रयुक्त शब्दों की समष्टि का अध्ययन करते हैं और तीसरे चरण में किसी एक अथवा किसी एक  समूह के कवियों द्वारा प्रयुक्त उनके प्रिय शब्दों की समष्टि पर प्रकाश डाला जाता है। इस तरह शब्द-चयन का क्षेत्र सीमित और विशिष्ट हो जाता है।

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Pankaja Singh

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