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काव्य भाषा तथा सामान्य भाषा का अन्तर | काव्य भाषा तथा लोकभाषा भाषा का अन्तर

काव्य भाषा तथा सामान्य भाषा का अन्तर | काव्य भाषा तथा लोकभाषा भाषा का अन्तर

काव्य भाषा तथा सामान्य भाषा का अन्तर

काव्य भाषा और लोक भाषा के प्रसंग में काव्य भाषा को लोक भाषा का ही एक विशिष्टीकृत रूप माना जाता है क्योंकि वह लोक भाषा के अन्दर से निकलकर उसी तरह विशिष्ट हो जाती है जिस तरह लहर जल से विशिष्ट होती है। वे परस्पर भिन्न होती हुई भी भिन्न नहीं होती। दूसरे शब्दों में, “काव्य भाषा सामान्य नियमों के भीतर रहती हुई उसकी प्रक्रिया को स्वीकार करती हुई उन नियमों की को जोड़कर नयी सार्थकता से उन्हें जोड़ती है। सामान्य भाषा के नियम या व्याकरण को वह नये ढंग से व्याकृत करती है, पर काव्य भाषा अपनी कोई अलग प्रक्रिया नहीं अपनाती।” स्थूल रूप से तो ऐसा ही होता है, लेकिन सामान्य भाषा के व्याकरण को तोड़कर वह जिस नए विधान का निर्माण करती है, उसके अन्तर्गत वह अपना विशिष्ट और भिन्न विन्यास करती है। वह “सदा लोक भाषा के आधार पर टिकी रहती है। पर वह स्वयं लोकभाषा नहीं होती। उसके निर्माण में लोक भाषा के तत्व अवश्य रहते हैं, परन्तु उससे यह मूल रूप से भिन्न एवं परिवर्तित रूप में सामने आती है।” फलस्वरूप चारित्रिक रूप से काव्य भाषा लोकभाषा से भिन्न हो जाती है।

अभिव्यक्ति के स्तर पर सामान्य भाषा अभिधात्मक होती है अर्थात् उसका काम अर्थ-बोध कराना होता है, जबकि काव्य भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् कविता भाषा का संकेतात्मक उपयोग करती है और इस तरह उसके मूल कार्य से हट जाती है” और अपनी अभिव्यक्ति को उससे भिन्न कर लेती है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि “सामान्य भाषा यदि सर्जन है (नाम से रूप की ओर) तो काव्य भाषा विसर्जन या विसृष्टि है, विशेष इस माने में कि अपने स्वार्थ, अपनी निजता को विसर्जित करके नया सृष्टि करती है” इसीलिए कवि को उसकी कलात्मक विशिष्टता और संवेदनशीलता अर्जित करनी पड़ती है फलस्वरूप काव्यभाषा का निरूपण सड़क और बाजार में प्रयुक्त होने वाली भाषा से नहीं किया जा सकता है। उसे विशिष्ट होना ही पड़ता है, सामान्य भाषा से अलग एक आधार बनाना पड़ता है। परम्परा से प्राप्त सामान्य भाषा से कवि को अपनी विशिष्टता की पहचान के लिए विशिष्ट भाषा अर्जित करनी पड़ती है। जिससे उसकी कविता की पहचान होती है। निष्कर्षतः लोकभाषा में जहाँ कथन की प्रधानता है, वहीं काव्य भाषा में भाव चित्रों का नियोजन लक्ष्य होता है। काव्य भाषा और लोकभाषा में यह एक मुख्य तात्विक अन्तर होता है।

काव्य भाषा में विशिष्टता कैसे पैदा होती है और इसकी विकास प्रक्रिया पर विचार करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं। कि “पंडितों को बंधी प्रणाली पर चलने-वालो काव्य भाषा के साथ-साथ सामान्य अपढ़ जनता के बीच एक स्वच्छंद और प्राकृतिक भावधारा भी गीतों के रूप में चलती रहती है-ठीक उसी प्रकार जैसे बहुत काल से स्थिर चली आती हुई पंडितों की साहित्य भाषा के साथ-साथ लोकमाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है। जब पंडितों की काव्य भाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्य परंपरा में नया जीवन डालता है। प्रकृति के पुराने रूपों से लदी अपभ्रंश जब लद्धड़ होने लगी तब शिष्ट काव्य प्रचलित देशी भाषाओं से शक्ति प्राप्त करके ही आगे बढ़ सका।” काव्य भाषा ने लोकभाषा से जीवन प्राप्त किया अवश्य, लेकिन वह उसके विशिष्ट-शिष्ट हो रहो। यही काव्य भाषा और लोकभाषा का वास्तविक संबंध है।

काव्य भाषा और लोकभाषा के शब्द-विन्यास और शब्द चयन के पहलू पर विचार करें तो पाते हैं कि लोकभाषा में चयन के स्तर पर शब्दों का महत्व नहीं होता, जबकि काव्य भाषा में यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। काव्य भाषा ये शब्द लोकभाषा से ही लेती है परन्तु उसका प्रयोग अपने तरीके से करती है। इकाई के स्तर पर काव्य भाषा में शब्द इकाई मान्य है जबकि लोकभाषा में शब्द-समूह और वाक्य मुख्य होता है। गति के स्तर पर पाते हैं कि काव्य भाषा में स्थिरता होती है जबकि लोकभाषा गतिशील होती है। अर्थ के स्तर पर लोकभाषा या सामान्य भाषा में शब्द का प्रायः एक अर्थ ही अपेक्षित होता है जबकि काव्य भाषा में अनेकार्थता तथा अस्पष्टता पर प्रायः जोर दिया जाता है। इस प्रकार काव्य भाषा में अर्थ के अनेक स्तर होते हैं जबकि लोकभाषा में प्रायः एक सौंधी-सीधी अभिव्यक्ति होती है।

चयन की दृष्टि से काव्य भाषा के शब्द विशिष्ट होते हैं, लेकिन उनमें साधारण शब्दों का अभाव नहीं होता। श्रेष्ठ कविता सामान्य शब्दों से भी की जा सकती है। कुल मिलाकर शब्द चयन और भाषा प्रयोग कवि की अपनी स्थिति और उसके सामाजिक प्रभाव से निर्धारित होते हैं। कबीर ने अपने-निम्न-वर्ग की शब्दावली को सामान्य तौर से अभिव्यक्ति दी है। वह जुलाहा थे, अपने पेशे को उन्होंने काव्य में- ‘चदरिया झीनी रे बीनी’ आदि के रूप में-निस्संकोच व्यक्त किया है और गूढ़ भावों की व्यंजना की है। समर्थ कवि, लोकभाषा की शब्दावली से महान कविता की रचना कर सकता है, यही नहीं बल्कि वह लोकभाषा से अपनी भाषा विषयक शक्ति भी प्राप्त करता है। वस्तुतः शब्दों का चयन तो लोकभाषा से ही होता है, लेकिन उनका प्रयोग काव्य भाषा की गरिमा के अनुरूप अर्थात विशिष्ट रूप में होता है। कबीर का ही उदाहरण है-उन्होंने बहुत-सी सामान्य शब्दों का प्रयोग गूढ़ रहस्यवादी दार्शनिक शैली में विशिष्ट तरीके से किया है।

लोकभाषा के अतिरिक्त काव्य भाषा में और स्वयं लोकभाषा में भी शब्दों का आगमन पुरानी परंपरागत काव्य भाषाओं से होता है। यह सर्वमान्य है कि प्रायः विशुद्ध लोकभाषा-बोलचाल की भाषा में तो कविता होती ही नहीं है क्योंकि “बोलचाल में कविता की रचना अपेक्षया सबसे कठिन है, क्योंकि तब शब्द प्रयोग (महज शब्द नहीं) साधारण बोलचाल और कविता संप्रेषण के दोनों क्षेत्रों को एक साथ संपर्क करते रहेंगे। संश्लिष्ट अनुभव, अर्थ और स्तरों की विवृत्ति परिनिष्ठित काव्य भाषा में होती है। जब शब्दावली रोजमर्रा की होगी बोलचाल होगी, तब उसे काव्य भाषा और सामान्य भाषा एक साथ होना होगा” इसीलिए पूरी तौर पर दैनन्दिन भाषा में काव्य-रचना सम्भव नहीं है क्योंकि प्रयोगों के स्तर पर वे एक नहीं हो सकतीं। वे इस लिहाज से एक साथ हो सकती हैं कि “ग्रामीण भाषा में भी श्रेष्ठ रचनाएँ हो सकती हैं।” लोक काव्य का बहुत बड़ा भाग इसका प्रमाण है, लेकिन वहाँ भी लोक की भाषा और लोक की काव्य भाषा की अपनी-अपनी पहचान कायम है, वहाँ भी उनका पृथक्-पृथक् अस्तित्व देखा जा सकता है। वस्तुतः इसके बिना विशुद्ध प्रामीण भाषा में रचना दुःसाध्य है। वहाँ भी शब्द चयन मनमाना नहीं होता, अपितु उसमें शिष्ट काव्य भाषा जैसा ही विन्यास होता है। कह सकते हैं कि काव्य भाषा में शब्द चयन का महत्व और लोकभाषा में शब्द-चयन का महत्व न होना ही दोनों में एक बड़ा अन्तर है। लोकभाषा में बिना काव्य भाषा की सहायता लिए, काव्य-रचना में कठिनाई के कारण ही शायद रेने वेलेक ने कहा है कि “आम जिंदगी की भाषा से काव्य भाषा को उतना अलग होना चाहिए जितना वह हो सकती है।” सम्भवतः यह सलाह लोकभाषा की स्वच्छन्द तथा व्याकरण के बन्धन से मुक्त होने की प्रवृत्ति को देखकर भी दी गई है। काव्य भाषा को सार्थकता के लिए और उसके वैशिष्ट्य के नैरन्तर्य के लिए एक प्रतिमान, एक तंत्र और एक बंधन अत्यन्त आवश्यक सिद्ध होता है। संक्षेप में कहें तो काव्य भाषा तथा लोकभाषा में कुल मिलाकर कुछ तात्विक और कुछ चारित्रिक अंतर है और शेष “पार्थक्य रूपगत होता है, मूलतः भाषा एक ही रहती है और, काव्य भाषा अपने स्वरूप में लोकभाषा से इसलिए भिन्न पड़ जाती है कि प्रथम में द्वितीय की अपेक्षा भाषा का प्रयोग कुछ भिन्न रूप में होता है। काव्य में भाषा का प्रयोग जान-बूझकर और दिखावट में वार्ता से भिन्न होता है। अर्थात् काव्य भाषा की सृष्टि अनायास नहीं हो जाती, उसे बोलचाल की भाषा से सायास पृथक् किया जाता है और दूसरी बात यह है कि बोलचाल की भाषा में किसी प्रकार के आडम्बर या दिखावट का स्थान नहीं होता, परन्तु काव्य में भाषा का एक आडम्बर या दिखावा अवश्य होता है।”

निष्कर्ष स्वरूप हम काव्य भाषा और लोकभाषा के मुख्य अन्तरों को निम्न प्रकार समझ सकते हैं-

काव्य भाषा और सामान्य भाषा (लोकभाषा) में अन्तर

  1. काव्य भाषा और ललोकभाषा का एक मौलिक अंतर यह है कि प्रथम की प्रवृत्ति जहाँ स्थिरीकरण को होती है वहा द्वितीय की प्रवृत्ति विकासमान होती है। काव्य भाषा का एक प्रतिमान बन जाता है जिससे हटना कवियों के लिए अत्यन्त कठिन होता है। प्रतिमान गत्यावरोध उत्पन्न करता है अतः काव्य भाषा लोकभाषा से पीछे छूट जाती है। बोलचाल की भाषा जब इतनी दूर चली जाती है कि काव्य भाषा का उससे संपर्क बिल्कुल छूट जाता है तो काव्य भाषा के क्षेत्र में क्रांति हो जाती है।
  2. लोकभाषा में वैयाकरणिक रूप का महत्व सर्वाधिक होता है जबकि काव्य भाषा में शब्द समूह की सर्वप्रधानता होतई है। केवल शब्दों को रख देने से ही विवक्षा प्रकट नहीं हो जाती, उसके सम्यक् बोध के लिए शब्दों को निधारित वैयाकरणिक रूपों में बैठाना आवश्यक होता है। लोकभाषा में विवक्षा का स्थूल कथन और ग्रहण ही सब कुछ होता है, अतः उसमें वैयाकरणिक रूप ही सब कुछ हो जाता है। इसके विपरीत काव्य भाषा में शब्द की सर्वप्रधानता होती है जिसके दो कारण है। प्रथम, काव्य भाषा में लोकभाषा के समान कथन न होकर संकेत रहता है और संकेत वैयाकरणिक रूप नहीं, वरन शब्द देते हैं। द्वितीय, किसी भाषा के शब्द उस देश की संस्कृति के रस से सिक्त रहते हैं। अतः किसी देश का काव्य जिस सांस्कृतिक वातावरण का सृजन करता है वह शब्दावली के ही द्वारा करता है न कि वैयाकरणिक रूपों के द्वारा।
  3. भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से हम वाक्य ही बोलते हैं शब्द नहीं बोलते। इसलिए लोकभाषा की इकाई वाक्य है। इसके विपरीत काव्य भाषा की इकाई शब्द है।
  4. काव्य भाषा लोकभाषा से शब्द लेती है किंतु उसका प्रयोग वह अपने ढंग से करती है, क्योंकि कविता में अंतिम महत्व इस प्रयोग का हो होता है।
  5. लोकभाषा में शब्दों का अर्थ प्रायः निश्चित रहता है, क्योंकि शब्द के साहचर्यों का वहाँ लगभग न के बराबर महत्व होता है। इसलिए लोकभाषा में संदर्भ के अनुसार शब्द के साहचर्य से झंकृत होने वाले अनेक अर्थ सामने नहीं आते। इसके विपरीत काव्य भाषा में अर्थसंदर्भ का व्यापार होता है और इसमें शब्द के साहचर्यों का संदर्भ के अनुसार पूरा उपयोग होता है। कविता में प्रयुक्त कोई शब्द कविता की पूरी संरचना के अनुसार अर्थ रखता है। इससे यह बात निकलती है कि लोकभाषा अभिधात्मक एवं काव्य भाषा संकेतात्मक होती है।
  6. लोकभाषा की अभिधात्मकता एवं काव्य भाषा की संकेतात्मकता के कारण इन दोनों के मध्य एक अन्य अंतर आ जाता है। लोकभाषा में अर्थ निश्चित होता है क्योंकि उसमें कथन होता है जो पूर्ण रूप से भाषा में ही रहता है। किंतु संकेत तो बहुत-कुछ ग्राहक के चित में भी होता है। इसलिए काव्य भाषा का अर्थ, जो वस्तुतः संकेत है, निश्चित करना कठिन है।
  7. लोकभाषा का मुख्य प्रयोजन सूचना देना है। इस प्रयोजन के सिद्ध होते ही लोकभाषा की उपयोगिता समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत काव्य भाषा का अपने से भिन्न कोई इतर प्रयोजन नहीं है। काव्य भाषा अपना प्रयोजन आप है।
  8. लोकभाषा एक चिन्ह है परन्तु काव्य भाषा नाद एवं बिब में अवतरित आत्मा है।
  9. लिखित भाषा में शब्दों का क्रम तार्किक संबंध के अनुसार होता है, बोलचाल की भाषा में ऐसा नहीं होता। बोलचाल की भाषा में कदाचित बक्ता और श्रोता के आमने-सामने होने के कारण मात्र शब्द विन्यास से प्रभावोत्पादन का प्रश्न नहीं रहता है। खाना बहुत कुछ अपनी मुद्राओं, अपने हावभाव एवं अपनी आंगिक चेष्टाओं से भी प्रकट करता है। लिखित भाषा में ये सारे कार्य शब्दों के क्रम से लेने पड़ते हैं। यही बात काव्य भाषा के साथ भी है। काव्य भाषा में भी इसीलिए शब्द का विन्यास अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि काव्य में वाणी की सारी भंगिमा शब्द विन्यास से ही ध्वनित होती है।
  10. काव्य भाषा में एक प्रकार की लय होती है जो लोकभाषा से गृहीत होकर भी उसकी प्राकृतिक लय से भिन्न होती है। काव्य भाषा में भाषा के नाद-गुण का सर्वाधिक सटीक उपयोग होता है जिसके कारण वह बोलचाल की भाषा से विशिष्ट हो जाती है।
  11. काव्य भाषा और लोकभाषा का एक अन्तर अलंकारों के प्रयोग से भी संबद्ध है। लोकभाषा भी सर्वथा अलंकारों से शून्य नहीं होती किंतु उसके अलंकार काव्य भाषा के द्वारा परित्यक्त अलंकार होते हैं। काव्य भाषा सदेव नवीन अलंकारों को स्वीकार करती है तथा सतत् प्रयोग से घिसे हुए अलंकारों को नई चमक देती है।
  12. बोलचाल की भाषा मूलतः उच्चरित होती है और काव्य भाषा व्यवहारतः लिखित होती है। इस कारण दोनों में अन्तर आ जाता है। बोलचाल की भाषा में वाणी के आरोह-अवरोह से ही किसी स्वरसंगति (हार्मोनी) पर पहुंचते हैं किन्तु काव्य में अक्षरों के नियमित विन्यास के द्वारा उसे सुव्यवस्थित रूप में प्राप्त करते हैं। अक्षरों के नियमित विन्यास का तात्पर्य छन्द योजना से है। हिन्दी में यह कार्य अक्षर के साथ-साथ मात्रा से भी लिया जाता है।
  13. 13. बोलचाल की भाषा में जो तत्व बाह्य होते हैं, काव्य भाषा में वे आंतरिक हो जाते हैं। अभिव्यक्ति का रूप, नाद, स्वर, लय ये सब बोलचाल की भाषा में रूढ़ि के द्वारा शासित होते हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में रूढ़ि का बहुत महत्व होता है। दूसरी बात यह है कि ये सभी लोकभाषा में बाहरी रूप होते हैं, क्योंकि वक्तव्य के साथ ये जन्म नहीं लेते वरन् पहले से प्रचलित रहते हैं। तीसरी बात यह है कि ये सब हमारी आवश्यकता एवं प्रयोजन के अनुसार होते हैं अर्थात् ये सब उस भाषा के बोलनेवालों के बौद्धिक और सांस्कृतिक स्तर के अनुकूल पूर्वनिर्धारित रहते हैं। कविता में इससे भिन्न स्थिति होती है। वहाँ ये सब भीतरी और प्रधान भाग होते हैं और वहाँ इन्हीं के अनुसार वाक्य रचना के नियमों और शब्दों प्रयोगों को ढलना पड़ता है। काव्य में कुछ-न-कुछ व्याकरण का जो अतिक्रमण पाया जाता है उसका कारण यही है।
  14. लोकभाषा का उद्देश्य तब पूर्ण होता है जब प्रत्येक वाक्य अर्थ के द्वारा समाप्त, विलुप्त और प्रतिष्ठापित कर दिया जाता है क्योंकि वहाँ अर्थ ही सब कुछ है, भाषा माध्यम मात्र है, किंतु काव्य भाषा में भाव और सामाजिक चेतना की पूर्णता समग्रता में अभिव्यक्ति होती है। इसके अतिरिक्त ‘काव्य भाषा में सतर्क, सतत् और अविच्छिन्न सांगीतिक अनुभूति की भी प्रधानता रहती है। ऊपर कहा जा चुका है कि काव्य भाषा लय को लेकर बोलचाल की भाषा से पृथक हो जाती है। वस्तुतः काव्य भाषा में लयात्मकता सर्वप्रधान होती है, अतः उसकी अविच्छिन्न स्थिति होती है और सतर्कता के साथ उसकी योजना करनी पड़ती है। “

अन्त में हम कह सकते हैं कि काव्य भाषा जनसाधारण और स्थान विशेष की भाषा से इस दृष्टि से भी भिन्न होती है कि वह परिशुद्ध (प्योर) अमूर्त और दूरस्थ (डिस्टैण्ट) ज्यादा होती है। उसकी परिशुद्धता उसकी व्याकरण सम्यता में, उसकी अपूर्तता उसके सूक्ष्म संप्रेक्षपत्व में और उसकी दूरस्थता उसकी अमूर्तता में निहित होती है।

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Pankaja Singh

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