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सामान्य भाषा तथा काव्य भाषा | सामान्य भाषा तथा काव्य भाषा के उद्देश्य तथा रूपगत अन्तर की विवेचना

सामान्य भाषा तथा काव्य भाषा | सामान्य भाषा तथा काव्य भाषा के उद्देश्य तथा रूपगत अन्तर की विवेचना

सामान्य भाषा तथा काव्य भाषा

आलोचकों के मन में प्रायः यह भ्रम है कि काव्य भाषा स्वतः स्फूर्ति जन्य होने के कारण अपने आप सामान्य भाषा से पृथक् और विशिष्ट है, इसीलिए सामान्य भाषा के अध्ययन के मापदण्ड उस पर लागू नहीं किए जा सकते। इस अंश में चाहे यह बात सही भी हो कि काव्य भाषा के विवेचन में सामान्य भाषा के मापदण्ड को और अधिक आन्तरिक उद्देश्यपरक बनाना होता है, पर यह सर्वथा निर्विवाद है कि काव्य भाषा सामान्य भाषा से उद्भूत और सामान्य भाषा, जो कल आने वाली है, वह आज की समर्थ काव्य भाषा में मौजूद है। वस्तुतः भाषा के इन दो स्तरों में अन्तर उद्देश्य का है, न कि स्वरूप का। सामान्य कथन और काव्यात्मक कथन में दो अन्तर बहुत स्पष्ट हैं। पहला तो यह कि सामान्य कथन दार्शनिक विवेचन के लिए भी यदि उपयोजित हो तो भी प्रत्येक दशा में बहिर्मुख होता है, क्योंकि उसका उद्देश्य शब्द को पहुँचाना नहीं, शब्द में निहित संदेश को पहुँचाना है और वहाँ अर्थ-बोध की स्पष्टता में ही संदेशप्रेषक का मुख्य तात्पर्य निहित रहता है, जबकि इसके ठीक विपरीत काव्यात्मक कथन का सन्दर्भ अन्तर्मुख है, अन्तर्मुख इस अर्थ में नहीं कि उसका कोई सम्प्रेष्य या पाक सामने नहीं है, वह बल्कि लेखक के निजी अनुभव की ओर ही अभिमुख है, इस मायने में कि उसका कोई सम्प्रेष्य या पाठक सामने नहीं है, वह बल्कि लेखक के निजो अनुभव की ओर ही अभिमुख है, इस मायने में कि उस कथन का सन्दर्भ इसके पूर्व के उन काव्यात्मक कथनो से है, जिनके सातत्य में सौन्दर्य-बोध की दृष्टि से ये कथन संगत हैं। दूसरे शब्दों में इसे यों ही कहा जा सकता है कि काव्यार्थ किसी बाह्यार्थ के सन्दर्भ की विशिष्टता न ज्ञापित करके अपने सदृश दूसरे काव्यार्थ या काव्यार्थो की विशिष्टता ज्ञापित करता है। इसका यह अर्थ नहीं कि शब्दार्थ व्यापार के द्वारा जो काव्यार्थ उद्भूत होता है, वह अनुभव निरपेक्ष है या अनुभव की गहराई से वह कोई संस्कार नहीं प्राप्त करता। यहाँ केवल इस पर बल देना अपेक्षित है कि अनुभव और उस अनुभव को व्यक्त करने वाली समर्थ भाषा के बीच जब तक सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता तब तक कोरा अनुभव उस रूप में प्रेषणीय नहीं हो सकता, जिस रूप में काव्यात्मक कथन हो जाता है।

‘सामान्य भाषा का उद्देश्य डोलेजेल के शब्दों में भाषा को बाह्य वास्तविकता (अर्थात् बाह्य अर्थ) के महण और भाषा गत संकेत के ग्रहण की ओर उन्मुख करना है, जबकि काव्य भाषा का उद्देश्य यह है कि इसमें भाषागत संकेत ही वाह्य अर्थ का ध्यान केन्द्रित करता है। सामान्य भाषा संकेत और संकेतित के बीच स्थिर सम्बन्धों को विचलित नहीं करती, दूसरे शब्दों में सामान्य भाषा-भाषा के आधारभूत संकेतों और उनसे बोधित होने वाले अर्थों के नियमों का एक स्वयंचालित यन्त्र है, ठीक इसके विपरीत काव्य भाषा के शब्द और बाह्य अर्थ के सम्बन्ध को अंशतः विघटित करके या कम-से-कम उसके स्थिर सम्बन्ध को कुछ मोड़ देकर भाषागत संकेत को एक नया महत्व, एक नई अर्धगर्भता प्रदान करनी होती है। इससे शब्द और अर्थ सम्बन्धी नियमों को स्वयंचालित रूप में नहीं, सर्जनात्मक रूप में प्रवर्तित करना पड़ता है। जिस प्रकार पत्थर या लकड़ी से शिल्प-निर्माण करते समय जहाँ तक कि उपादान-सामग्री का प्रश्न है, वे दूसरे किसी काम में आने वाले पत्थर या काठ की सामग्री से अलग नहीं होते, किन्तु पत्थर या काठ को तराशने को कुशल प्रक्रिया के द्वारा उसके भीतर की रंगत या रेखाआ की भंगिमा को एक नवीन संरचनात्मक साभिप्रायता देकर शिल्पी उसी सामग्री को लालित्य व्यवस्था में अद्वितीय साधन बढ़ाता है, उसी प्रकार कवि या लेखक रोजमर्रा की भाषा का कच्चा माल लेकर उसकी तरी बुनावट को सोद्देश्यकता को नया आयाम देकर अद्वितीय बना देते हैं। वस्तुतः काव्यभा का अध्ययन रोजमर्रा की बोली जाने वाली भाषा के तत्वों के पुनर्विन्यास और काव्य रूपान्तरण का अध्ययन है।

भारतीय काव्य शास्त्र में बहुत पहले शब्दशक्ति के विवेचन के प्रसंग में यह बात अनेक बार दुहरायी गयी है कि काव्य का प्राणभूत व्यायार्थ शब्द-व्यापार के ही द्वारा उदबुद्ध होता है और व्यंजना वस्तुतः भाषागत विविध सन्दर्भों को सहायता से शब्द में निहित वाच्येतर अर्थ को खोज है या वायार्थ अनुपपन्न होने की दशा में वाक्य-वाचक सम्बन्ध अर्थ की प्रतिति का मूलभूत प्रयोजन है। काव्यार्थ का रहस्य शब्द से ही उन्मीलित होता है। हाँ, उन्मीलन का साधन शब्दार्थ-नियम-ज्ञान के अतिरिक्त एक पदार्थ होता है, जिसे ‘प्रतिभा’ कहा गया है। ‘प्रतिभा’ शब्द और अर्थ के सम्बन्धों को एक से अधिक धरातलों पर उठाकार उन्हें एक-दूसरे की ओर चालित करने की रचयित्री शक्ति है। वह शब्द और अर्थ के साहित्य के निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न संस्कर है। कुलात्मक-सर्जन के क्षेत्र में वस्तु-जगत या अनुभव-जगत् का सिद्ध रूप से साध्य-कला-वस्तु या कलानुभूति के रूप  में रूपान्तर हो जाता है और परिणामवश, एक नए प्रकार का अन्तरवलम्बित और अन्तःसम्बद्ध संघटन उद्भूत हो जाता है। वास्तविक जीवन में सम्पर्क छूटता नहीं, बल्कि और बढ़ जाता है, क्योंकि वास्तविक जीवन विम्यानुविम्व-भाव से काव्यार्थ-जगत् को उपकृत करता है और स्वयं उससे रस महण करके अधिक जीवनीय बनता है।

काव्य भाषा की यह निजी विशिष्टता बहुत कुछ तो इस कारण है कि काव्य भाषा के ऊपर सामान्य भाषा की अपेक्षा भाषागत सन्दर्भों का दबाव बहुत ज्यादा है। सामान्य भाषा में केवल वाक्य-रचना के सीमान्तों का दबाव रहता है, शब्द के साहचर्य से झंकृत होने वाले बहुत सारे शब्दार्थ-सम्बन्धों का सन्दर्भ सामने नहीं रहता। सामान्य भाषा में ‘दूब’ मात्र ‘दूब’ है, वह ‘दूब’ शब्द के प्रयोग के साहचर्य से उदबुद्ध होने वाली विनम्रता, तितिक्षा और अदम्य सप्राणता का अनुभावन नहीं करा सकती। सामान्य भाषा में अवतरण के परे अवतरण की संरचना का कोई महत्व नहीं होता, जबकि किसी कविता में उसकी पूरी संरचना के सन्दर्भ में ही कोई पंक्ति अर्थ रखती है। यदि कविता प्रवन्यात्मक हुई तो पूरे प्रबन्ध के सन्दर्भ में उसके अर्थ की खोज की जा सकती है। अर्थ सन्दर्भ का ही व्यापार है-यह सिद्धान्त काव्य भाषा के ऊपर सामान्य भाषा की अपेक्षा और अधिक लागू है, क्योंकि सामान्य भाषा का सन्दर्भ बहुत सीमित है। काव्य भाषा में बाहरी सूचना से  अधिक ध्यान अपने संदेश के गठन पर ही ज्यादा होता है, इस हद तक कि सन्देश अपने बाह्यार्थ के साथ अपने सम्बन्ध की डोर ढीली कर देता है। काव्य भाषा अनायास, अप्रयोजन प्रयोजनशीलता की साधना है और इस प्रयोजनशीलता के निरन्तर खिंचाव के कारण काव्य भाषा के सभी स्तरों पर एक साथ एक नया तनाव जन्म लेता रहता है, ध्वनि और अर्थ के बीच, व्याकरण और शब्द-रचना के बीच, वाक्यखण्ड और वाक्य के बीच इस तनाव के कारण काव्य में प्रयुक्त प्रत्येक वाक्य और वाक्य-खण्ड, शब्द और उसके अवयव तथा वर्ण-ये सभी अपरिहार्य रूप से एक-दूसरे के उपकारक होकर अनुस्यूत हो जाते हैं। काव्य के केन्द्रगत अर्थ को हम रस, ध्वनि, वक्रता, अमूर्त सौन्दर्य-जिस किसी भी नाम से पुकारें, वहीं इस प्रयोजनशीलता का प्रेरक है और वह काव्य का प्रयोजन न होते हुए भी काव्य के प्रयोजन से कुछ और ऊपर है, वही काव्य का आन्तरिक मर्म है। ऐसा नहीं है कि सामान्य भाषा में उसके किसी संदेश-खण्ड के अवयव भीतर-भीतर संगठित न हों, पर उस संगठित का उद्देश्य उस संदेश-खण्ड को बाहर के जगत् के साथ जोड़ना है, इस संगठन को बाह्य जगत के बारे में सूचना देने के कार्य में उपयोजित करना है। इसमें संदेश स्वयं में कुछ महत्व नहीं रखता, इसीलिए काव्येता भाषा में सूचना का सम्प्रेषण या सूचना का क्रम और चयन आदि बाह्य आधार पर निर्धारित होते हैं, जबकि काव्य भाषा में सूचना में निहित शब्द और अर्थ दोनों अपने आप में अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वे बाह्य जगत् से बहुत दूर तक स्वतंत्र होकर स्वयंपूर्ण शब्दार्थ अनुभव के विषय बन जाते हैं।

भारतीय चिन्तन में इसीलिए ‘रूप’ से अधिक ‘नाम’ की महिमा है। ‘नाम’ में जब चैतन्य टिक जाता है तो रूपात्मक प्रत्यक्ष का अनुभव बेकार हो जाता है और तब अनुभविता अरूप जगत् में पहुँच जाता है। क्रमशः निरन्तर साधना करने से वह समस्त उपाधियों से मुक्त हो जाता है और तभी वह सच्चे माने में शुद्ध और अनुपहित चैतन्य का आकार ग्रहण करता है। आनन्द कुमर स्वामी ने इसी सिद्धान्त को विस्तार से विवेचित करते हुए कहा है कि नाम-रूप दोनों एक-दूसरे के विरोध में यहाँ खड़े नहीं हैं। यथार्थ आदर्श का द्वार मात्र है, वह स्वयं में साध्य नहीं है। वह परानन्द का प्रतिबन्धक नहीं, अनुबन्धक है इसीलिए उसका उपयोग भारतीय कला में समर्पित रूप में ही है। वह ‘नाम’ की अभिव्यक्ति को पहचानने के लिए दृश्य-रूप मात्र है। भारतीय उपासना का उद्देश्य किसी दृश्य स्थूल वस्तु की पूजा नहीं, बल्कि उस स्थूल वस्तु के सहारे जिस अमूर्त भावना का चिन्तन निरन्तर किया जाता रहा है, उस भावना के साथ तादात्म्य स्थापन है। आनन्द कुमारस्वामी ने पुनः अपने एक दूसरे लेख ‘परोक्ष’ में इसी स्थापना के समर्थन में एक उदाहरण दिया है कि पुष्कर का प्रत्यक्ष और इसके परोक्ष, दोनों अत्यन्त भिन्न हैं। जिसमें दोनों के बीच में भेद न प्रतीत हो, वह कला या सर्जनात्मक भाषा कला नहीं रह जाती, वह अनुकरण हो जाती है और ‘कमल’ भी यदि जीव-विज्ञानी की दृष्टि ‘कमल से कुछ अलग होकर केवल अलंकरण वाला एक प्रतिरूप बन जाए, तब भी वह जब तक कि उसको कोई नया परोक्ष मूल्य न प्राप्त हो, सर्जनात्मक उद्देश्य में साधक नहीं हो सकता।

आधुनिक भाषा-विज्ञान ने उपर्युक्त स्थापना को एक दूसरे प्रकार के प्रत्ययवादी धरातल पर समर्थन दिया है और अब यह मानना शुरू किया है कि जब हम मूल्य की बात करते हैं, तब केवल उसका भावात्मक या उदात आध्यात्मिक मूल्य की बात करना पर्याप्त नहीं समझते, क्योंकि यह मूल्य अब पुराना पड़ गया है, अब मूल्य की बात शुद्ध रूप से सौन्दर्य योधात्मक प्रक्रिया के माध्यम रूप में किसी वस्तु की कृतकार्यता को दृष्टि में रखकर की जाती है। इसके माध्यम से जो अलग-अलग अपने में असुन्दर भी प्रतीत होते हों, उनके भी कशल संयोजन से एक सनिश्चित सौन्दर्यबोधात्मक मूल्य स्थापित किया जा सकता है। यह सौन्दर्यबोधात्मक व्यापार सतही भाषा का व्यापार नहीं और सीमित काव्य भाषा का भी व्यापार नहीं है, यह पूरी रचना की भाषा का समय व्यापार है। इसीलिए किसी भी उक्ति का इस प्रकार का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक कि उसके समय परिवेश को ध्यान में न लाया जाए। पुराने भारतीय व्याख्याताओं की पद्धति को ही एक प्रकार से आगे बढ़ाते हुए उसको कुछ और अधिक परिच्छिन्न बनाने के उद्देश्य से सांख्यिकीय चयन के आधार पर मूल्यांकन प्रारम्भ हुआ है। डोलोजेल ने साख्यिकीय विश्लेषण के लिए दो गुणात्मक आधार स्वीकार किए हैं-

  1. सजातीयता बनाम विजातीयता। यह इस आधार पर है कि एक समकालीन रचनाकार कितनी दूर तक दूसरे समकालीन रचनाकार का साझीदार है और कितनी दूर तक वह अलग है।
  2. स्थिरता बनाम अस्थिरता। यह मानदंड रचना के विविध भागों की भीतरी समीक्षा के ऊपर लागू किया जाना चाहिए। कोई भी विशेषता स्थित मानी जाएगी, यदि समस्त खंडों में पाई जाए, किन्तु यदि भिन्न-भिन्न खंडों में उसके रूपान्तर मिलें तो वह विशेषता अस्थिर मानी जाएगी।

इस प्रकार किसी भी रचना का विश्लेषण के लिए रचना के भीतरी और बाहरी सन्दर्भ, दोनों महत्वपूर्ण हैं और दोनों के योग से ही उस रचना की अपनी विशेषता, चाहे शब्दों के चयन के स्तर पर, चाहे वाक्य-विन्यास और उसके भंग या विचलन के स्तर पर, चाहे सादृश्य-विधान के स्तर पर, या चाहे सादृश्येतर उक्ति-भंगि के स्तर पर-किसी रचना का केन्द्रभूत प्रयोजन विभिन्न आकड़ों के द्वारा निर्गमित किया जा सकता है।

वस्तुतः अनेक सम्भावनाओं में से एक सम्भावना का चुनाव यादृच्छिक नहीं होता। यह चुनाव भाषा के विभिन्न घटकों के संश्लेष-विशेष से नियन्त्रित होता है। इसी सिद्धान्त को रोमन याकोब्सन ने इस प्रकार प्रतिपादित किया है। “काव्य व्यापार चयन की धुरी रेखा से भाषा के दो तत्वों के जोड़ बिठलाने को मान्यता को संश्लेष की धुरी पर प्रतिक्षिप्त करता है। ऐसे जोड़ बिठलाने का उपयोग चाहे वह भाषा के नादात्मक या अर्थात्मक स्वरूप से निकला हो, कोई आकस्मिक घटना के रूप में नहीं होता। यह अत्यन्त व्यवस्थित रूप में सामने लाया जाता है। मूलतः भाषा का सम्प्रेषण अनेक सम्भावनाओं में से एक के चयन के प्रयोजन का ही संवहन है। जब तक कि उस एक का चुनाव नहीं किया जाता, तब तक हम कह सकते हैं कि कौन-सा विकल्प चुना जाएगा, पर चुनाव हो जाने पर हमें एक निश्चित सूचना मिलती है कि अमुक-विकल्प ही चुना जाने को था।” इस सूचना का सम्प्रेषण ही तो भाषा का व्यापार है। काव्य भाषा में यह चुनाव और अधिक अन्तर्मुक्त होने के कारण परिच्छिन्न और गणितात्मक रूप में स्पष्ट हो जाता है, इसका कारण यह है कि काव्य स्वयं भाषा से ही उत्पन्न रूप है; यह न तो लेखक है और न इसका अनुभव। जिस प्रकार गणित की उपपत्तियाँ गणितज्ञ के वस्तु-जगत् से भिन्न जगत् की होती हैं और वह जगत् अपने ही नियमों से अनुशासित होता है, उसी प्रकार काव्य-जगत् भी वस्तु-जगत् और आनुभाविक जगत् का समानान्तर और संवादी अलग स्वतन्त्र जगत् है। यह अवश्य है कि इसकी शक्ति इसके रचयिता की अनुभव-समृद्धि और काव्य-जगत् की ही जागरुकता की मात्रा के अनुपात में घटती-बढ़ती रहती है। काव्य में रचयिता उसी प्रकार एक अनुभव-विशेष की अभिव्यक्ति विशेष में आबद्ध दिखाई पड़ता है, जैसे किसी व्यक्ति का स्थान-विशेष और मुद्रा विशेष में लिया गया छायाचित्र गुंठर-मूलर ने अपने निबन्ध ‘मार्फालाजिकल पोयटिक्स’ में इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हुए लिखा है कि साहित्य मुख्य रूप से न तो वैचारिक दृष्टियों का लेखा, जोखा है, न भावना-प्रक्रिया का विवरण है, न वस्तु-जगत् से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन है। यह शुद्ध रूप है-ऐसा रूप, जो अपनी ही छवि से आलोकित हो। परन्तु इस प्रकार के काव्यमय अस्तित्व के रूप में यह कवि का एक समानान्तर अभिव्यंजन ठीक उसी प्रकार प्रस्तुत करता है, जैसे कि किसी व्यक्ति का अभिव्यंजन उसके कपाल की बनावट, चेहरे की मुद्राओं या उसके स्वर से प्रस्तुत होता है।

वस्तुतः इसीलिए काव्य भाषा का विश्लेषण काव्यगत सन्दर्भों के ऊपर आधृत होने के कारण सामान्य भाषा के विश्लेषण की अपेक्षा अधिक गणितीय और विच्छिन्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। काव्य भाषा में वाक्यगठन केवल घटक वाक्य-खंडों से ही पूरा नहीं होता, और न वाक्यार्थ की संगति से हो मर्यादित रहता है। काव्य भाषा का गठन विभिन्न पदांशों-प्रत्ययों, विभक्तियों की आवृत्ति के द्वारा अर्थ का प्राचीर तैयार करता है। वाक्य-खण्डों के क्रम के हेर-फेर के द्वारा यह अभीष्ट अर्थ के ऊपर अधिक बल डालने का काम करता है तथा समान रचना-खण्डों के सम्मुखीकरण के द्वारा अर्थों के टकराव और उस टकराव से उत्पन्न होने वाले नए अर्थ को उद्बोधित करता है। इसी अंश तक काव्य भाषा बाह्य सन्दर्भ की दृष्टि से अप्रयोजन या निरुद्देश्य लगती है, अपने आप कभी-कभी बेतुकी भी लगती है और वही भाषागत सन्दर्भ के भीतरी गठन की दृष्टि से सप्रयोजन और सोद्देश्य लगने लगती है। भाषागत-संकेत की ओर ध्यान केन्द्रित होने के कारण हो भाषागत संदेश सामान्य-भाषा का एक लकीर में स्थिर बहुआयामीय रूपान्तर बन जाता है, जिसमें एक साथ ध्वनि से लेकर अर्थ के प्रत्येक धरातल को एक बिन्दु पर देखा जा सकता है।

भाषा का श्रव्य रूप अधिक सक्रिय, अधिक गतिशील तथा अधिक परिवर्तनशील होता है, जबकि दृश्य रूप अधिक स्थिर, अधिक रूढ़ और अधिक अपरिवर्तनीय होता है। यान्त्रिकता के प्रभाव में जब भाषा अधिक दृश्य बन जाती है और दृश्य भी ऐसा कि उसमें लिखने वाले व्यक्ति की भी विशिष्टता न रहकर छापने वाली मशीन की छाप मात्र दिखाई पड़ती है, लचीलापन ननहीं रह जाता और तब सर्जन-प्रक्रिया और भी जटिल हो जाती है।

समूह-संस्कृति का पहला आक्रमण होता है, शब्दों के नुकीलेपन पर। बार-बार पुनरावर्तन से और एक ही प्रकार के पुनरावर्तन से शब्दों की कोर मर जाती है और इतने जल्दी जल्दी शब्द अपना जामा बदलने लगते हैं कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। सही शब्दों की तलाश के लिए इतनी अंधेरी गलियों, इतने कोनों अंतरों में जाना पड़ा है और उन शब्दों को तुरंत बिल्कुल सरे बाजार रोज-रोज नई-नई पंक्ति में खड़े करना पड़ता है कि यह नापने के लिए अवकाश ही नहीं मिलता कि कोन शब्द कब कूट भाषा (स्लेङ) का था और कब सामान्य भाषा का हो गया। कविता बोलचाल की ही भाषा से ही नहीं, एकदम भदेसी एवं अन्तरंग अनगढ़ बोलचाल की भाषा से शब्द लेने के लिए लाचार हो जाती है, इसलिए कि पिछले शब्द कुछ ही समय में आवृत्तियों की संख्या के तथा पहुंच के दायरे के फैलाव के कारण बहुत जल्दी चुक जाते हैं। यही नहीं, जब कभी बात को मोड़ देकर कुछ बांकी भंगिमा लाने की कोशिश की जाती है तो वह बांकपन दूसरे ही दिन सीधा-सपाट बनकर प्रस्तुत हो जाता है।

एक ओर तेजी से बदलाव की यह लाचारी है, दूसरी ओर भाषा को एक सीमा के बाहर तोड़ने में सम्प्रेषण के सूत्र के टूटने का खतरा। कवि-कर्म इन दोनों छोरों के बीच तनाव के कारण आज बड़ा कठिन हो गया है। कवि अपनी सीखी हुई भाषा और भाषा के बोलने वाले के बीच में अपने को एकाएक अजनबी महसूस करने लगता है-विशेषकर उस समय जब सीखी हुई भाषा की भीतरी गांठ को खोलने के लिए, उसको और नजदीक से समझने के लिए अपने कविधर्म के कारण बेचैनी महसूस करता है। वह दुहराने से जितना बचना चाहता है, उतना ही दुहराव के घेरे उसे लपेटने लगते हैं। कोई रचनात्मक बन्ध आविष्कृत होने-भर की प्रतीक्षा करता है, आविष्कृत होते ही यांत्रिक सांचे में ढलकर कोटि-कोटि रूपों में आवृत्त हो जाता है वह आविष्कार न रहकर एक बासी ठहराव वाला मॉडल बन जाता है। कोई भी प्रयोग सिद्ध होने के पहले उच्छिष्ट बन जाता है। इन संकट से उबरने के लिए कवि को एक साथ दो काम करने होते हैं उसे विशेष से अधिक सामान्य की खोज करनी होती है और सपाटता से बचने के लिए एक साथ बहु-आयामी वास्तविकता का साक्षात्कार कराना होता है।

वह रोजमर्रा की भाषा में सीधी चोट करने की क्षमता की सही-सही पहचान करता है और इस पहचान में वह विश्व यारी न अपनाकर अपने शहर या गांव, अपने साथी-संघाती, अपने आस-पड़ोस से सम्पृक्त रहता है, दूसरी ओर वह किसी एक संस्कृति जाति या इतिहास के केन्द्र में न रहते हुए अनेक जातियों, संस्कृतियों और इतिहासों के पिरामिड (शंकुस्तूप) के शिखर पर अपने को स्थापित करता रहता है। उसकी कविता की रेखाएं एक-दूसरे को काटती नहीं, क्योंकि वे एक धरातल की रेखाएं नहीं होतीं-इसलिए कि वह कविता एक दिशीय न होकर अनेक दिशीय होती है उसमें दिग्भ्रान्ति के भय का ख़तरा हो तो हो कम-से-कम एकदिशीयता की ऊत्व तो न हो।

ऊपर जो बात काव्य भाषा के सम्बन्ध में कही गई है वह कुछ उपादानों को छोड़कर साहित्य-मात्र की भाषा पर घटाई जा सकती है और आधुनिक भाषा-विज्ञान तथा प्राचीन भारतीय शब्दार्थ-चिन्तन को साहित्य-भाषा मीमांसा के सार्वभौम सिद्धान्त-शास्त के रूप में सामने लाया जा सकता है। विगत दशक में इस दिशा में पश्चिम में प्रयत्न बड़ी तेजी से शुरू हुए हैं, परन्तु हम तो अपने समानान्तर प्राचीन चिन्तन को अलंकार-शाल कहकर हेय समझ रहे हैं। इसीलिए हमारा आज का काव्य-चिन्तन बहुत उलझा हुआ और आत्मनिष्ठ है। प्राचीन अलंकार-शाल और नवीन भाषा-शास्त्र दोनों अलग-अलग सार्वभौम काव्य की मीमांसा के सिद्धान्त प्रतिपादित करने में समर्थ नहीं हो पाए हैं, पर दोनों के अंशदान एक-दूसरे के पूरक के रूप में यदि स्थापित किए जाएं तो काव्य भाषा की सही-सही सार्थकता सर्जनात्मक रूप में नापी जा सकेगी।

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Pankaja Singh

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