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विकलांग श्रद्धा का दौर सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | हरिशंकर परसाई – विकलांग श्रद्धा का दौर 

विकलांग श्रद्धा का दौर सन्दर्भः प्रसंग- व्याख्या | हरिशंकर परसाई – विकलांग श्रद्धा का दौर 

विकलांग श्रद्धा का दौर

  1. कई साल पहले………………….. बाहाण माना था।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबन्ध ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ से उद्धृत। हरिशंकर परसाई उन प्रमुख लेखकों में गणनीय हैं जिन्होंने व्यंग्य को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर सामाजिक विदूप को वाणी दी। इनकी व्यंग्य की चपेट में सर्वाधिक रूप से राजनीतिक व्यवस्था रही। वह समाज में व्याप्त प्राचार, व्यक्ति की धनलिया और स्वार्थ वृत्ति के लिए राजनीतिक को ही दोष देते हैं।

सामाजिक विदूपताओं का संशोधन तथा मानवीय मूल्यांकन का उपक्रम परसाई जी की रचनाधर्मिता का लक्ष्य प्रतीत होता है। वह अपने व्यग्य निबन्धों में सामान्य विषय उठाते हैं। उनकी रचनाएं हास्य विनोद से परिपूर्ण हैं। उनका व्यंग्य मात्र हास उत्पन्न करने के लिए नहीं बल्कि कथ्य को अधिक प्रभावशाली और गहराई प्रदान करने के लिए होता है।

इस व्यंग्य निबन्ध की इन पक्तियों में परसाई जी श्रदेय होने के आधार पर प्रकाश डाल रहे हैं।

व्याख्या- कुछ वर्षों पूर्व जब वह किसी एक साहित्यिक आयोजन में शरीक हुए थे तब उसके पास एक सज्जन आए। वह उससे प्रभावित हो गये। फिर उन्होंने उसके चरणों का स्पर्श सबके सामने नि:संकोचपूर्वक करना अपना परमधर्म समझा। यही नहीं वह ऐसा कर भी लिए। लेखक का यह मानना कि किसी का चरण स्पर्श करना एक फूहड़ कर्म के रूप में समझा जाता है। इसलिए यह सब कुछ सबके सामने नहीं किया जाता है, अपितु अकेले में किया जाता है और चुपचाप किया जाता है। लेखक को उस व्यक्ति के द्वारा उसके चरणों को सबके समाने ही स्पर्श करना अच्छा नहीं लगा। फिर भी लेखक को बहुत घमण्ड हो गया कि उसे यहाँ उपस्थित लोगों में सबके सामने ही श्रद्धेय होने का सम्मान प्राप्त हो गया है इसलिए उसने मन-ही-मन सबको फटकारते हुए कहा था- ओ तिलचट्टों। तुम जीवन भर लेखक बनने के लिए खून-पसीना एक करते रहो लेकिन मेरा यह दर्जा तुम्हें नहीं प्राप्त हो सकता है। इसी समय मानो उसके विरोध में उस चरण स्पर्शकर्ता ने स्पष्टतः कह दिया- वह तो नियमानुसार गौ-माह्मण के ही चरणों को स्पर्श करता है। इससे लेख का अहंभरा गर्व भाव समाप्त हो गया। उसके चेहरा फीका पड़ गया।

विशेष- 1. अदेय होने के आधार और उसके प्रभाव का सुन्दोल्लेख है, 2. शैली दृष्टान्त है, 3. भाषा सरल है,4. सम्पूर्ण अंश तीखे व्यंग्य से भरा है।

  1. “मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टाँग खींची है। लगोटी धोने के बहाने लगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूँ। अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर में कालेज में एक अध्यापक थे। उन्होंने अपने नेम-प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बंबईवासी हुए और वहाँ उन्होंने अपने को ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम-प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडित जी’ कहलाने लगता।”

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबन्ध ‘विकलाग श्रद्धा को दौर’ से उद्धृत है। हरिशंकर परसाई उन प्रमुख लेखकों में गणनीय हैं जिन्होंने व्यंग्य को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर सामाजिक विद्रूप को वाणी दी। इनकी व्यंग्य की चपेट में सर्वाधिक रूप से राजनीतिक व्यवस्था रही। वह समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, व्यक्ति की धन लिप्सा और स्वार्थवृत्ति के लिए राजनीतिक व्यवस्था को ही दोष देते हैं।

सामाजिक विद्रूपताओं का संशोधन तथा मानवीय मूल्यों का उपक्रम परसाई की रचना धर्मिता का लक्ष्य प्रतीत होता है। वह अपने व्यंग्य निबन्धों में सामान्य विषय उठाते हैं। उनकी रचनाएं हास्य-विनोद से परिपूर्ण है। उनका व्यंग्य मात्र उत्पन्न करने के लिए नहीं बल्कि कथ्य को अन्तिम प्रभावशाली और गहराई प्रदान करने के लिए होता है।

यहाँ परसाई जी चरण स्पर्श की प्रक्रिया के पीछे की अपनी मनोवृत्ति (बालपन में) और अपने अध्यापक द्वारा स्वंय अपनी नामपट्टिका पर आचार्य विशेष लिखवाने को एक प्रकार की विकलांगता से सम्बोधित करते हुए कहा है-

व्याख्या- मैंने स्वयं लोगों के पैर छूने के बहाने उसकी टाँग खींची है, सेवा करने के बहाने लंगोटी धोने की जगह उसे चुरा लिया। वह श्रद्धेय बनने कि खोखली कोशिशों के पीछे की भयावहता को व्यक्त करते हुए कहते हैं वह स्वयं यदि चाहते तो कभी के श्रद्धेय बन जाते, इसमें वह समर्थ थे। बल्कि उनके शहर में ही एक अध्यापक ने स्वयं अपने लिए अपनी नेम प्लेट पर आचार्य लिखवा लिया लेकिन वह समझ गये कि इस फूहड़पन में महानता झलक रही है।

विशेष- जो आप नहीं हैं वह दिखलाएं- इस उतावलेपन को श्रद्धा पाने की व्यग्रता के रूप में व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है। उर्दू शब्दावली में व्यंजना में निखार आ गया है।

  1. सोचता हूँ, लोग.. ..श्रद्धा लायक नहीं हुआ है।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबन्ध ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ से उद्धृत है। हरिशंकर परसाई उन प्रमुख लेखकों में गणनीय हैं जिन्होंने व्यंग्य को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर सामाजिक विद्रूप को वाणी दी। इनकी व्यंग्य की चपेट में सर्वाधिक रूप से राजनीतिक व्यवस्था रही। वह समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व्यक्ति की धनलिप्सा और स्वार्थवृत्ति के लिए राजनीतिक व्यवस्था को ही दोष देते हैं।

सामाजिक विद्रूपनाओं का संशोधन तथा मानवीय मूल्यों का उपक्रम परसाई जी की रचनाधर्मिता का लक्ष्य प्रतीत होता है। वह अपने व्यंग्य निबन्धों में सामान्य विषय उठाते हैं। उनकी रचनाएँ हास्य विनोद से परिपूर्ण हैं। उनका व्यंग्य मात्र हास्य उत्पन्न करने के लिए नहीं बल्कि कथ्य को अधिक प्रभावशाली और गहराई प्रदान करने के लिए होता है।

इन पंक्तियों में लेखक अपने प्रति लोगों के जागे श्रद्धा भाव की विवेचना करते हुए अनुभव कर रहा है कि भारतीय संस्कार में वयोवृद्ध (भले ही वह कर्म में बड़ा न हो) के चरण छूकर श्रद्धा दर्शाना एक आम बात है। बड़ों के प्रति आदर भाव को यहाँ विचार की दृष्टि से परखा गया है।

व्याख्या- मैं लगभग यह सोचा-समझा करता हूँ कि आजकल लोग मेरे चरणों को स्पर्श करके मुझे श्रद्धेय बनाते जा रहे हैं। लोगों की हमारे प्रति यह क्यों श्रद्धा बढ़ती जा रही है। मैं कुछ इस विषय में नहीं समझ पा रहा हूँ। जब कभी मैं इस विषय में सोचता तो बहुत तरह से सोचता हूँ। वह इस प्रकार की आखिर मैंने बीते हुए समय में कौन-से ऐसे महत्वपूर्ण और विशिष्ट कार्य किया है जिनके मूल्यांकन करके मुझे श्रद्धेय का दर्जा दिया जा रहा है। न तो मैंने कोई विशेष साहित्य सर्जना की है और न मैंने कोई तपस्या साधना भी की हैं। मैंने कोई बहुत सामाजिक कार्य भी नहीं किया है। दाढी बढ़ाकर के कोई भगवा वस्त्र भी धारण नहीं किया। इसी तरह मेरी कोई इतनी उम्र भी नहीं है कि उससे मैं कोई बड़ा वृद्ध कहा जा सकूँ जिससे मैं श्रद्धेय कहा जा सकूँ। लेकिन लोगों की यह आम धारणा है कि मैं काफी बुजुर्ग हूँ। मेरी बुजुर्गी बुलन्दी पर है, इससे लोगों का मेरे प्रति श्रद्धा से भीग जाना उन्हें स्वाभाविक लगता है और वे इसलिए मेरा चरण स्पर्श कर लेते हैं। इस आधार पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि अगर की साठ-सत्तर साल का है और वह कमीना और घटिया आदमी है, तब सभी उसे श्रद्धेय होने का दर्जा मिल जायेगा। इस तरह लोग वयोवृद्ध कमीने को भी श्रद्धेय मानकर उसके चरण स्पर्श कर लेते हैं। लेकिन जब मैं अपने विषय में विचार करता हूँ तो यह पाता हूँ मैं भले ही कमीना क्यों न हूँ, लेकिन अभी मैं वयोवृद्ध नहीं हूँ। इसलिए श्रद्धेय होने का दर्जा इस आधार पर संभव नहीं है।

विशेष- 1. भाव गम्भीर है, 2. शैली बोधगम्य है, 3. विचारात्मकता इस अंश की सर्वप्रमुख विशेषता है, 4. सम्पूर्ण अंश रोचक और हृदयस्पर्शी है।

  1. हाँ, बीमारी में से श्रद्धा….…..फायदे नहीं उठाते।

प्रसंग- प्रस्तुत व्याख्येय अंश महाव्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ निबन्ध से है।

इसमें लेखक ने बीमारी से श्रद्धा का सम्मान किस प्रकार से मिल जाता है। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए लेखक कह रहा है कि-

व्याख्या- यों तो श्रद्धा के कई स्रोत हैं। सामान्य और असामान्य परिस्थितियों से भी लोगों को श्रद्धा लाभ प्राप्त हो जाते हैं। इस तथ्य का खुलासा करते हुए लेखक का कहना है कि श्रद्धा कभी-कभी बीमारी के होने से अचानक प्राप्त हो जाती है। कहने का भाव यह है कि बीमार व्यक्ति श्रद्धा का निश्चय ही पात्र बन जाता है। लेखक आप बीती बता रहा है। वह अपने एक घनिष्ठ मित्र को लेखक एक अपने अनन्य समाज और साहित्य सेवी मित्र के पास गया। औपचारिक बातचीत के दौरान लेखक के प्रस्थान करते समय उसके उस मित्र ने उसके चरण स्पर्श कर लिये। लेखक ने उस समय अपने मित्र से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन जैसे ही वह बाहर आया, उसने अपने मित्र से इस सम्बन्ध में कहा कि दोस्त उनके चरणों को क्यों छू लिये। इस पर मित्र महोदय ने कहा-दोस्त। तुम्हें कुछ भी पता नहीं है कि आजकल मधुमेह से पीड़ित है। इसे सुनकर लेखक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अपने मित्र को उत्तर देते हुए इस प्रकार कहना आरम्भ कर दिया-दोस्त! इस बात को भली-भांति समझ जाओ कि अगर मधुमेह श्रद्धा उत्पन्न कर सकता है तो किसी की टूटी हुई टाँग की पीड़ा और दुर्दशा निश्चय ही श्रद्धा भाव जाग सकती है इसलिए इस विषय में किसी प्रकार तर्क करने की कोई गुंजाइश नहीं। इसे तो चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। यह भी बात मन में बैठा लेना चाहिए कि सभी लोग अपनी-अपनी बीमारी से इस प्रकार लाभ उठाकर सुख और आनन्द का अनुभव किया करते हैं।

विशेष- 1. श्रद्धा उत्पन्न होने के आधार और उसके प्रभाव का सुन्दर उल्लेख हुआ है, 2. भाव सरल और सुस्पष्ट है, 3. भाषा में प्रवाह है, 4. शैली भावात्मक और यथार्थपरक व स्वाभाविक है।

  1. और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रही में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास उठ गया। उदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं।

प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के व्यंग्य निबन्ध ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ से उद्धृत है। हरिशंकर परसाई उन प्रमुख लेखकों में गणनीय हैं जिन्होंने व्यंग्य को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर सामाजिक विद्रूप को वाणी दी। इनकी व्यग्यं की चपेट में सर्वाधिक रूप से राजनीतिक व्यवस्था रही। वह समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व्यक्ति की धनलिप्सा और स्वार्थवृत्ति के लिए राजनीतिक व्यवस्था को ही दोष देते हैं।

सामाजिक विद्रूपताओं का संशोधन तथा मानवीय मूल्यों का उपक्रम परसाई जी की रचनाधर्मिता का लक्ष्य प्रतीत होता है। वह अपने व्यंग्य निबन्धों में सामान्य विषय उठाते हैं। उनकी रचनाएँ हास्य विनोद से परिपूर्ण हैं। उनका व्यंग्य मात्र हास्य उत्पन्न करने के लिए नहीं बल्कि कथ्य को अधिक प्रभावशाली और गहराई प्रदान करने के लिए होता है।

इन पंक्तियों में लेखक बुद्धिजीवियों एवं राजनीतिज्ञों के उस आचरण पर व्यंग्य कर रहा है जो श्रद्धा का पात्र होकर भी अपने कर्म से नंगा होता जा रहा है।

व्याख्या- आजकल हमारे देश में श्रद्धा का स्वरूप और प्रभाव लगभग समाप्तप्राय है। दूसरे शब्दों में हमारे देश में अब इस समय न तो श्रद्धेय ही रहे हैं और न ही श्रद्धालु। ऐसा इसलिए कि हमारे देश में श्रद्धा का माहौल लगभग उठ चुका है। लोगों में आस्था और विश्वास की भावनाएं समाप्त होकर अनास्था और धोखाधड़ी की ओर तेजी से बढ़ती जा रही है। इसलिए यह कहना किसी प्रकार से उचित नहीं होगा कि कोई किसी के प्रति श्रद्धा कर सकता है। इस प्रकार हमारे देश में श्रद्धा का रूप व्यर्थ के अखबारी कागज के समान दिखायी दे रहा है लोगों के विश्वास को लगभग ओला मार गया है। इस प्रकार की घटना हमारे देश हमारे देश में पहले कभी नहीं हुई थी। इस प्रकार श्रद्धा और विश्वास का हनन इससे पहले कभी नहीं हुआ था। अब तक जिसके प्रति श्रद्धा और विश्वास भरा पड़ा था, उसको खोखला और व्यर्थ समझा जा रहा है। उसकी खिल्ली और हंसी उड़ाई जा रही है। वह हर प्रकार से श्रद्धेय होने का विरोधी बन रहा है। इसीलिए उसके प्रति लोगों का विश्वास और श्रद्धा नहीं रहा है इस प्रकार आज हमारे देश में श्रद्धा और विश्वास लगभग गायब हो गये हैं। यह सब जगह दिखायी दे रहा है। चाहे अदालत हो या कानून आज चाहे कोई कितनी ही ज्ञानी विवेकी क्यों न हों, उसके प्रति आशंका प्रकट की जा रही है। डॉक्टरों के प्रति भी ऐसी शंका है। उन्हें बीमारी का महाकारक माना और सिद्ध किया जा रहा है। इस प्रकार श्रद्धा और विश्वास की आशा करना कोरी मूर्खता ही है।

विशेष- 1. आधुनिक भारत में समाप्त हो रही श्रद्धा में स्वरूप पर सीधा प्रहार है, 2. भाव तीखे और मर्मस्पर्शी हैं।

  1. श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती अटपटा जाता हूँ। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूँ। कल दो आदमी आये। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखिए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छूए या नहीं। मैं भिखारी की तरह से देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी थहा करके कोशिश की। थोड़ा झुका। मेरे पाँवों मे फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया।

संदर्भ- पूर्ववत्।

व्याख्या- परसाई जी ने अपने इस निबन्ध में श्रद्धा के सम्बन्ध में बताया है कि इसे ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। उनसे सहज ढंग से श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। वे अटपटा जाते हैं, क्योंकि वे अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हैं। लेखक को एक साथ ही राजनीतिक विकलांगता तथा शारीरिक विकलांगता का सामना करना पड़ा। लेखक से मिलने दो आदमी आये। उनमें से एक ने लेखक का पैर छूने के लिए हाथ बढ़ाया। वे तथा लेखक दोनों ही नौसिखिए थे। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, न ही उन्हें छुआने का। जिस भी तरह बना उसने उनके चरण स्पर्श कर लिये। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि उनके चरण छूए या नहीं। श्रद्धेय भी याचक की भाँति देख रहे थे। वह थोड़ा सा झुककर पैर छूने का उपक्रम करता रहा, उनके मन में भी यह आशा जगी कि शायद वह पैर छुए। श्रद्धेय में भी यही इच्छा होती है कि श्रद्धालु उसके पैर छुए, किन्तु जब दूसरा आदमी प्रयत्न करने पर भी उनका पैर छूने में असफल रहता है, नमस्ते करके ही चला जाता है, तब लेखक को बड़ी ग्लानि एवं क्षोभ होता है कि श्रद्धा पाना भी कितना कठिन है। श्रद्धा मनुष्य स्वार्थ से प्रेरित होकर ही करता है, आज के युग में श्रद्धा भी बड़ी महंगी हो गयी है। पैर छूना तथा नमस्कार करना भी बड़ी बात है, लोग मानो एहसान कर रहे हों। श्रद्धा एक विशिष्ट भाव है जो व्यक्ति के विशेष गुण या कर्मों से उत्पन्न होता है। जबर्दस्ती किसी की न तो श्रद्धा की जा सकती है, न कराई ही जा सकती है। आज लोग दिखावा भी कर लेते हैं, अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए विनम्र, श्रद्धावान दिखायी पड़ने लगते हैं, लेकिन जैसे ही काम निकल जाता है, पहचानते तक नहीं। आज की स्वार्थपरता दो मुंहे नीति को लेखक ने उजागर किया है।

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Pankaja Singh

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