अज्ञेय जी का जीवन परिचय | अज्ञेय जी की कृत्रिम
अज्ञेय जी का जीवन परिचय
प्रयोगवादी काव्य के प्रवर्तक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ साहित्य के क्षेत्र स्वयं द्वारा किए गए नवीन प्रयोगों के कारण प्रगतिवादी कवियों की कोटी से आगे के कवि है। आपका जन्म मार्च माह में सन् 1911ई. को हुआ था। अज्ञेय जी का बचपन विद्वान पिता हीरानन्द के साथ कश्मीर, बिहार और मद्रास में व्यतीत हुआ। अज्ञेय जी ने मद्रास और लाहौर से शिक्षा प्राप्त की थी। विज्ञान में स्नातक तथा अंग्रेजी में एम.ए. की शिक्षा प्राप्तकर राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में कूद गए। सन् 1930 से 1934 तक आप जेल में बन्द रहे। जेल से अज्ञेय जी साहित्य-सृजन करते रहे। अज्ञेय जी का विवाह सन् 1940 ई. को सन्तोष के साथ हुआ। अज्ञेय जी ने दिनमान, विशाल भारत, बिजली, सैनिक पत्र का सम्पादन भी किया। 1956 ई. को अज्ञेय जी का दूसरा विवाह कपिला के साथ हुआ। आपने अमेरिका स्थित कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में भी अध्यापन कार्य किया। अज्ञेय जी का देहान्त सन् 1987ई. को हुआ।
अज्ञेय जी ने काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तान्तों के साथ ही अनेक ग्रन्थों का अनुवाद तथा संपादन भी किया। आपकी साहित्यिक रचनाधर्मिता विभित्र विधाओं में संक्षिप्त विहंगावलोकन प्रस्तुत हैं-
काव्य-
साहित्यकार अज्ञेय को कवि रूप में ही विशेष ख्याति प्राप्त हुई है। उन्होंने छायावादी प्रभावाविष्ट काव्य सृजन से अपने साहित्यिक जीवन का प्रारंभ किया किन्तु शीघ्र ही वे एक नए और सशक्त काव्यान्दोलन ‘प्रयोगवाद’ के प्रवर्तक बन गए, किन्तु, वे प्रयोग तक ही सीमित नहीं रहे वरन् युग विकास के साथ नई कविता और समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में गणनीय बन गए। भग्रदूत (1933), चिन्ता (1942) इनके काव्य विकास का प्रथम चरण है। भ्रदूत संकलन की कुछ रचनाएँ प्रतीकात्मक तथा कुछ अन्योक्तिपरक हैं। छन्द और लय का आकर्षण इन रचनाओं में पाया जाता है। ‘चिन्ता’ में कवि प्रेम पर छायावादी परम्परा से कुछ हटकर विचार करता प्रतीत होता है। पुरुष और स्त्री का आकर्षण-विकर्षण मूलक चिरन्तन संघर्ष ही चिन्ता का मूल विषय है।
इत्यलम (1946) वह परिवर्तन बिन्दु है जहाँ से अज्ञेय प्रयोगवाद के पुरस्कर्ता बन जाते हैं। बन्दी का स्वप्न, हिय, हारिल, वंचना के दुर्ग और मिट्टी की ईहा नामक चार खण्ड़ों में विभक्त इस संकलन में काव्य विकास की उन स्थितियों का दिग्दर्शन कराया गया है जिनके मध्य से गुजर कर कवि प्रयोगवादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो सका है। सामाजिक परिवेश से विक्षोभ, मौनभावना की अकुंठ, निरावृत्त अभिव्यक्ति, भदेसपन का अंगीकरण अनास्था, अविश्वास, के प्रगाढ़तर भाव इस काल की वे उपलब्धियाँ हैं जो प्रयोगवादी काव्य व्यावर्तक विशेषताएँ मानी गई। हरी घास पर क्षण भर (1946) वावरा अहेरी (1954) इन्द्र धनुरौंदे हुए थे (1957) नामक काव्य संकलनों में क्रमशः प्रयोगवाद का सशक्त स्वरूप लक्षित होता है। अभिव्यक्ति की नवीनता हेतु परंपरित उपमानों के स्थान पर नवीन उपमानों से नवीन सौंदर्यशास्त्र के निर्माण में कवि प्रयत्नशील दिखाई देता है। इसी के साथ व्यक्ति की वैयक्तिक दृढ़ता और कर्तव्यनिष्ठा के साथ ही सामाजिकता के प्रति समर्पण का भाव भी व्यक्त हुए है।
अज्ञेय की यह समष्टिग्राही वैयक्तिकता उनके सम्पूर्णकाल का प्रधान स्वर रही है। यद्यपि परवर्ती काव्य सृजन में इसमें रहस्यवादिता का पुट दिखाई देता है। ‘आगंन केपार द्वार’ (1961) की चक्रान्त शिला तथा असाध्यवीणा आदि कविताओं के अनुशीलन से यह तथ्य प्रमाणित भी होता है। इन कविताओं में कवि किसी रहस्यलोक की अनुभूतियों से भर उठता है और प्रकृति से तादात्म्य के माध्यम से उस सर्व नियंता शक्ति से संबंध स्थापित करने की चेष्टा करता दिखाई देता है, किन्तु क्षणवाद, अनुभूति की महत्ता आदि प्रयोगकालीन प्रवृत्तियाँ अब भी उसके साथ हैं इससे असहयता नहीं हुआ जा सकता है।
‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ तथा ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’ अज्ञेय की विशिष्ट काव्य संकलन हैं जो उनके अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक अभिगम को रेखांकित करते हैं।
कहानी संग्रह-
विपथगा (1937), परंपरा (1944), कोठरी की बात (1945), शरणार्थी (1946), जयदोल (1951), ये तेरे प्रतिरूप (1961)।
उपन्यास-
शेखर एक भीलनी (भाग 1 व 2), नदी के द्वीप (1952), अपने-अपने अजनवी (1961)।
निबंध-
त्रिशंक, आत्मनेपद, भवन्ती।
यात्रा वृतांत-
अरे यायावर रहेगा याद (1953) तथा एक बूंद सहसा उछली (1960)।
संस्मरण-
बसन्त का अग्रदूत।
संपादित ग्रन्थ-
तार सप्तक (प्रथम 1943. द्वीतीय 1951, तृतीय 1959), नेहरू अभिनन्दन ग्रन्थ (1949), पुरस्करिणी (1959) तथा रूपाम्बरा (1960)।
अनुवाद-
श्रीकान्त, त्यागपत्र और अपने-अपने अजनवी का अंग्रेजी अनुवाद।
नाटक-
उत्तर प्रियदर्शी (1976)।
सारतः अज्ञेय के सम्पूर्ण कृतित्व को देखकर व उसका अनुशीलन कर कहा जा सकता है कि वे साहित्य को आत्मा के सत्य के अन्वेषण की अभिव्यक्ति हुए उपचेतन मन के अनुभव खण्ड़ों के यथावत चित्रण के आग्रही रहे हैं। उनके काव्य में साधारणीकरण का त्याग एक सीमा तक ही मिलता है किन्तु सहज कविता निश्चय ही सामान्य पाठक को अपनी अनुभूति से तदाकार कर लेती है। इसीलिए उन्हें वादमुक्त प्रयोग का आग्रही माना गया है और उनकी व्याप्ति प्रयोगवाद से लेकर समकालीन कविता तक अबाध रूप से स्वीकार की जाती रही है।
अज्ञेय के सम्पूर्ण काव्य सृजन की समीक्षा-
अज्ञेय, यद्यपि प्रयोगवाद के पुरस्कर्ता और नयी कविता के प्रमुख कवि के रूप में प्रख्यात हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि उनके काव्य का भव्य एवं उत्तुंग प्रासाद छायावाद की नींव पर खड़ा है। अज्ञेय के काव्य में छायावाद ही नहीं रहस्वाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद तथा नयी कविता संबंधी अन्यान्य विशेषताएं अनुस्यूत हैं। इस प्रकार उनका काव्य किसी वाद विशेष में बंधा नहीं है। वे स्वयं अपने को प्रयोगवादी न कहकर प्रयोगशील या प्रयोगधर्मा रचनाकार मानते हैं। तारसप्तक की भूमिका में उनकी इस उद्घोषणा का निहितार्थ यही है कि जिस प्रकार प्रयोग में परम्परा और नवीनता का अपूर्व सामंजस्य रहता है उसी प्रकार उनके काव्य में भी पूर्ववर्ती और समकालिक काव्यान्दोलनों की विशिष्ट प्रवृत्तियाँ आत्मसात दिखाई देती हैं।
अज्ञेय की काव्य वस्तु विशुद्ध भारतीय जीवन और संस्कारों से जुड़ी हैं। उसमें यथार्थ का तीव्र संवेदनात्मक स्पन्दन भी प्राप्त होता है और भविष्य की दिशा का भी संकेतन है। इस दृष्टि से अज्ञेय का काव्य विकास के अनुरूप उनके काव्यवस्तु और शिल्प अथवा उनके काव्यगत वैशिष्ट्य को निम्न चरणों में विभक्त कर समीक्षित कर सकते हैं-
(1) अज्ञेय का छायावादी काव्य।
(2) अज्ञेय का प्रगतिवादी काव्य।
(3) अज्ञेय का प्रयोगवादी काव्य।
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