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क्रोध का मूल्यांकन | निबंध कला की दृष्टि से क्रोध का मूल्यांकन

क्रोध का मूल्यांकन | निबंध कला की दृष्टि से क्रोध का मूल्यांकन

क्रोध का मूल्यांकन

शुक्ल जी ने अपने निबन्ध में क्रोध की उत्पत्ति बतलाते हुए यह बतलाया कि क्रोध अन्धा होता है, उसका लक्ष्य आलम्बन को भयभीत करता है। उसका वेग बहुत फुर्तीला होता है, यह शान्ति भंग करता है, क्रोध पुराना होकर-वैर बन जाता है आदि उसके दुर्गुणों पर प्रकाश डालता हुआ वह भी स्वीकार करता है कि सामाजिक जीवन मे क्रोध की आवश्यकता होती है और वह भी मंगलकारी भी है। तो निबन्धकार का कथन से आशय यह है कि जब आततायी, किसी व्यक्ति को निरन्तर कष्ट पहुंचाने की धृष्टता करता है तो उसके दमन के लिए, उसके प्रतिकार के लिए क्रोध अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। वैसा तो किसी दुष्ट अथवा आततायी के सुधार के लिए उनके हृदय परिवर्तन को ही महत्व दिया गया है, किन्तु हृदय परिवर्तन द्वारा किसी का सुधार करने में समय अधिक लगता है, और छोटे-छोटे कामों के लिए इतना समय दिया जाना सम्भव नहीं होता, इसीलिए एकमात्र ऐसे व्यक्तियों के दर्पण चूर्ण करने और उन्हें सन्मार्ग पर लाने का उपाय क्रोध ही होता है। यदि ऐसे व्यक्तियों का क्रोधपूर्वक प्रतिकार न किया जाए तो वे अपनी दुष्टता से बाज नहीं आते, इसीलिए क्रोध को समाज के लिए आवश्यक कहा गया है। बिना क्रोध के मनुष्य समाज में अपना अस्तित्व भी बनाये रखने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि बिना क्रोध के मनुष्य ऐसे व्यक्ति को दुर्बल समझकर मनमानी करने पर उतारू हो जाते हैं। अतः अपनी स्वयं की रक्षा और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए क्रोध एक दुर्गुण होते हुए भी आवश्यक गुण है।

क्रोध, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध निबन्ध है। इस निबन्ध में शुक्लजी ने क्रोध की उत्पत्ति, क्रोध की आवश्यकता और उपादेयता, क्रोध का स्वरूप, क्रोध का लक्ष्य, क्रोध और चिड़चिड़ाहट तथा क्रोध और वैर आदि शीर्षकों से क्रोध की विवेचना की है।

क्रोध के जन्म के सम्बन्ध में निबन्धकार का कथन है कि क्रोध का जन्म चेतन के कारण अनुमान या साक्षात्कार से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार एक नन्हा बालक जब अपनी माता को पहचानने लगता है कि इसी से मुझे दूध मिलता है, भूखा होने पर वह उसे ‘देखकर रोने लगता है। उसके इस रोने में क्रोध का आभास मिलने लगता है।

लेखक का मत है कि क्रोध सर्वथा निरर्थक नहीं होता, समाज में उसकी आवश्यकता सदा से रही है। यदि क्रोध न होता तो मनुष्य दूसरों के कष्टों से अपना बचाव न कर पाता। किसी दुष्ट के दो-चार प्रहार तो सहे जा सकते हैं, किन्तु सदैव के लिए उन प्रहारों को समाप्त करने के लिए प्रहार सहन करने वाले व्यक्ति में क्रोध का होना नितान्त आवश्यक होता है। अन्यथा, दुए की दुष्टता पर काबू पाना कठिन हो जाता है। जहाँ तक दुष्टों के हृदय-परिवर्तन कर देने का प्रश्न है, वहाँ हृदय-परिवर्तन कर देने का प्रयत्न, एक अच्छा प्रयत्न है, किन्तु दुष्ट में दया, सद्बुद्धि आदि गुणों को जन्म देने और विकसित करने में अधिक समय लगता है और छोटे-छोटे कामों के लिए कोई इतना समय देना नहीं चाहता। इसलिए दुष्ट में दमन के लिए तात्कालिक उपाय फलप्रद प्रमाणित होता ।

क्रोध, अधिकतर प्रतिकार के रूप में होता है। किन्तु अनेक बार प्रतिकार के साथ क्रोध में हमारी सुरक्षा भावना भी सम्मिलित होती है। अतएव समाज के लिए क्रोध एक दुर्गुण होते हुए भी एक उपयोगी विकार होता है।

क्रोध के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि वह अन्धा होता है। क्रोध करने वाला क्रोध के आलम्बन की ओर ही देखता है, अपनी ओर नहीं देखता। साथ ही क्रोध करने वाला क्रोध के परिणाम को भी नहीं देख पाता। जब इस प्रकार के क्रोध का उग्र रूप आततायी की शक्ति को समझे विना प्रयोग किया जाता है तो उससे क्रोध करने वाले को हानि होने की भी सम्भावना रहती है। इस मनोविकार पर बुद्धि और विवेक से ही अंकुश रख सकते हैं।

क्रोध के सम्बन्ध में यह मत है कि पहले यह प्रयत्न करना चाहिए कि- जिस पर क्रोध किया जा रहा है, उसमें भय का संचार किया जाए, सम्भव है कि वह इसी से डर जाए और क्रोध करने की आवश्यकता न पड़े। एक की डर प्रकृति देखकर दूसरा चुपचाप पीछे हट जाता है।

अनेक अवसरों पर क्रोध का आशय दूसरे का अभिमान चूर्ण करना होता है। अतः प्रयत्न यह होना चाहिए कि अभिमानी विनम्र बन सके। इस प्रकार अभिमानी पर क्रोध करने में अभिमानी को हानि पहुंचाने अथवा चोट पहुंचाने का उद्देश्य नहीं होता, वरन् उसे अंहकारी से नम्र बनाना होता है। क्षणसंसार से अभिमानी, अपमान से ही नम्र हो गए हैं।

क्रोध का वेग बहुत तीव्र होता है। क्रोधी मनुष्य यह भी ध्यान नहीं दे पाता कि जिस व्यक्ति ने उसे पीड़ा पहुंचाई है वह जानबूझकर किया हुआ कृत्य है अथवा अनायास ही उससे बन पड़ा है। चाणक्य के पैरों में कुश चुभ गए तो उन्होंने क्रोध के वश होकर उन्हें समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा कर डाली।

क्रोध अवसर पड़ने पर अन्य मनोविकारों का भी साथ देकर उनकी सृष्टि करने में सहायता देता है। कभी दया के साथ आता है, कमी घृणा के साथ। एक व्यक्ति का क्रोध दूसरे में भी क्रोध का संचार कर देता है। एक की चढ़ी हुई भृकुटी देखकर दूसरे की भृकुटी भी चढ़ जाती है। इस प्रकार क्रोध-क्रोध को जन्म देता है।

क्रोध के प्रेरक दो प्रकार के दुःख होते हैं। पहला, अपना दुःख और दूसरा दूसरे का दुःख। जिसे क्रोध के शमन का उपदेश किया जाता है, वह पहले प्रकार के दुःख से उत्पन्न क्रोध है। दूसरे के दुःख पर उत्पन्न क्रोध बुरा नहीं समझा जाता। क्रोध को उत्तेजित करने वाला दुःख जितना ही अपने स्वार्थ आदि से दूर होता है वह उतना ही सुन्दर होता है।

क्रोध और वैर में कोई विशेष अन्तर नहीं है। क्रोध पुराना होकर वैर बन जाता है जिससे हमें कष्ट हुआ, यदि हमने उससे किसी समय प्रतिकार ले लिया तो वह क्रोध कहलाएगा। यदि हम कष्ट देने वाले की शक्ति देखकर उस समय कष्ट सहन करके चुप रह गए और हमने समय मिलने पर प्रतिकार करने का दृढ़ निश्चय अपने मन में ठान लिया तो वह वैर कहलाएगा। क्रोध पुराना होकर वैर बन जाता है। इसीलिए वैर को क्रोध का अचार या मुरब्बा कहा जाता है। पशु और बच्चों में वैर नहीं होता, उनमें कवल क्रोध होता है।

इसी प्रकार चिड़चिडाहट भी क्रोध ही है, किन्तु वह क्रोध का हल्का रूप है। इसमें उग्रता और वैर नहीं होता। किसी कार्य में बाधा पड़ने या सुभक्ति न होने अथवा व्यग्रता होने से लोग चिड़चिड़ा उठते हैं। यह एक प्रकार से मानसिक दुर्बलता का परिणाम होता है।

क्रोध की उग्र अवस्था में अमर्ष होता है। इसमें आश्रय का ध्यान आलम्बन की ओर रहता है। अमर्ष की अवस्था में मनुष्य आपे से बाहर होकर अनर्थकारी वचन कहने लगता है।

अन्ततः हम कह सकते हैं कि उक्त निबन्ध क्रोध की व्यावहारिक मीमांसा करने में सफल रहा है। इसमें क्रोध की उपादेयता पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

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Pankaja Singh

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