हरिशंकर परसाई की निबंध शैली | ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ निबंध का मूल्यांकन
हरिशंकर परसाई की निबंध शैली
श्री हरिशंकर परसाई हिन्दी-साहित्य के हास्य-व्यंग्य के सर्वोच्च सिद्धहस्त लेखक हैं। इनके हास्य-व्यंग्य लेखन समाज के प्रतिष्ठित व प्रतिक्रियावादी शक्तियों पर सीधा किन्तु प्रखर प्रहार करने वाले हैं। इस प्रकार हम कहना चाहें तो कह सकते हैं कि परसाई जी के हास्य-व्यंग्य संसार में बहुत बड़ी जान अनेक विशेषताओं से अलंकृत होकर आयी है। प्रस्तुत निबन्ध ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ की निबंधगत विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
प्रतिपाद्य-
प्रस्तुत निबन्ध प्रतिपद्य सामयिक अंधश्रद्धा, विश्वास और निष्ठा पर हंसी उड़ाते है उसे खोखला और अनुपयोगी सिद्ध करना है। यों तो हम भली-भाँति यह जानते हैं कि परसाई जी बहुत बड़े समाज चिन्तक ही नहीं, अपितु उसको नीर-क्षीर विवेक की दृष्टि से देखने वाले भी हैं। इस निबन्ध में परसाई जी ने स्वयं को केन्द्रित कर इस तथ्य का प्रकाशन करना चाहा है कि आज की श्रद्धा, श्रद्धेय और श्रद्धालु केवल आधारहीन तर्क की परिधि में चक्कर काट रहे हैं, न उनका अर्थ है, न उपयोग है और न ही कोई और अपेक्षा है। इस प्रकार परसाई जी ने ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ निबन्ध में श्रद्धा, श्रद्धेय, और श्रद्धालु इन तीनों को ही विकलांग ही सिद्ध करने का मात्र प्रयास नहीं किया है, अपितु यह भी सिद्ध करना चाहा है कि इस प्रकार तीनों का आजकल खूब जमाना जमकर है। इन तीनों की दौड़ जीवन के सभी क्षेत्रों में हो रही है। इनके प्रति लेखक की अनास्था और असहमति है क्योंकि ऐसे तो जीवन-प्रगति का चक्र नहीं चल सकता है। इसीलिए ये परित्याज्य हैं। इस प्रकार से प्रस्तुत निबन्ध एक साभिप्राय, तथ्यपूर्ण और सोद्देश्यपूर्ण है, जिसमें हास्य की मधुरता और व्यंग्य की कसक भरी पड़ी है।
श्रद्धा-भाव का प्रकाशन-
‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ एक तथ्यात्मक निबन्ध है। इसमें लेखक ने सामयिक श्रद्धा के विषय में अपने वैविध्यपूर्ण विवेचना प्रस्तुत किया है। लेखक के अनुसार श्रद्धेय होना एक बहुत विशिष्ट और अद्भुत बात होती है। श्रद्धेय व्यक्ति गर्वित और अभिमानी बन जाता है।
“कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिये। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले मे ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे तो मैंने आस-पास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा- तिलचट्टों, देखों में श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम।”
श्रद्धेय होने का आधार कृपा ही है। आजकल तो लोग थोड़ी-सी संवेदना प्रकट करते वक्त किसी को श्रद्धेय बना लेते हैं। लेखक के अनुसार वयोवृद्ध होना भी श्रद्धेय होने का एक बहुत बड़ा आधार है-
“सोचता हूँ, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा हो गई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला। कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज को कोई कल्याण भी नहीं किया। दाढ़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी भी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध हैं और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल की हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं।
संवेदना भी श्रद्धेय होने की एक बड़ी जरिया होती है-
“क्या मेरी टूटी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है? तो वह विकलांग श्रद्धा है। जानता हूँ, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है, तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे, इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। आओ हम इसे श्रद्धा दे दें।
इस प्रकार श्रद्धा का विवेचन करते हुए लेखक पुनः कहता है कि श्रद्धा ग्रहण की एक ऐसी विधि होती है। जो बहुत ही सहज और सरल न होकर कठिन होती है। लेखक के अनुसार-
“श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूँ। अभी ‘जार्ज टाइम’ श्रद्धेय ही हूँ। कल दो आदमी आये। वे बात करके जब उठे तब एक में मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौ-सिखिए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था। मुझे छुववाने का जैसा भी बना उसने चरण छू लिये। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुये या नहीं। मैं भिखारी की तरह उसे देख रहा था। वह थोड़ा-सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की। थोड़ा झुका। मेरे पांवो में फड़कन उठी।”
श्रद्धेय के पक्के और अमिट होने की वास्तविक पहचान बतलाते हुए कहा है कि-
“अभी कच्चा हूँ। पीछे पड़ने वाले तो पवित्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध-श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा आँखे खींचने वाली, पाँव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर श्रद्धेय लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं।”
लेखक ने आधुनिक श्रद्धा के स्वरूप पर सुन्दर प्रकाश डालते हुए कहा है-
“और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अण्डरवीयर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धीजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं।”
भाषा-
भाषा किसी रचना की सबसे बड़ी शक्ति और पहचान है। इसकी कमजोरी रचना की कमजोरी होती है और इसकी सार्थकता रचना की सार्थकता का बहुत बड़ा आधार होता है। इस प्रकार भाषा का महत्त्व निःसन्देह हरेक प्रकार से है। प्रस्तुत निबन्ध ‘श्रद्धा विकलांग का दौर’ की भाषागत वैशिष्ट्य विचारणीय है। इस प्रकार निबन्ध की भाषा की पहली विशेषता है- उर्दू शब्दावली की प्रधानता। इस निबन्ध में आए उर्दु के शब्द साधारण और प्रचलित है। इनसे भावों का सुन्दर प्रकाशन हुआ है। एक उदाहरण देखिए-
“अभी-अभी तक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूँ। जैसे कोई चलतू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पवित्रता होने लगती है। यह हरकत मेरे साथ पहले कुछ महीनों से हो रही है कि जब-तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसा नहीं होता था। हाँ, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिये। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही लिया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे तो मैंने आस-पास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा-तिलचट्टों, देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम।”
इस निबन्ध में लेखक ने मुहावरेदार भाषा के भी प्रयोग किये हैं। इससे भाव और अर्थ अत्यन्त सुगमतापूर्वक प्रकट हुए हैं। इस प्रकार के कुछ प्रयोग देखिए-
- पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरा पानी उतार दिया।
- मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांगे खींची हैं।
- लंगोटी धोने के बहाने लंगोटी चुराई है।
प्रस्तुत निबंध ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ की शैली बहुत की रोचक है जो विविध-रूपों में है। कथात्मकता इस निबंध की पहली शैली है। इस विषय का कथन बड़े ही तथ्यपूर्ण रूप में सामने आया है। एक उदाहरण देखिए-
“अभी-अभी तक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूँ। जैसे कोई चलतू औरत शादी के बाद बढ़ी फुर्ती से पवित्रता होने लगती है। यह हरकत मेरे साथ पहले कुछ महीनों से हो रही है कि जब-तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसा नहीं होता था। हाँ, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिये। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही लिया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे तो मैंने आस-पास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा तिलचट्टो, देखों में श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम।” पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरा पानी उतार दिया। उसने कहा, अपना तो यह नियम है कि गौ-ब्राह्मण के चरण जरूर छूते हैं।
इस निबन्ध की शैली सम्बन्धित तीसरी विशेषता है- उद्धरण या दुष्टान्त शैली है। लेखक ने इस शैली के द्वारा विषय को बखूबी समझाने और सुस्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है। इससे लेखक की शैलीगत चातुर्य और क्षमता का सही दिग्दर्शन हुआ है। प्रसंगानुसार उद्धरणों की एक झांकी देखिए।
“हाँ, बीमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के एक सेवक से मिलने में एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उसने चरण छू लिये। बाहर आकर मैंने मित्र से कहा, “यार! तुम उनके चरण क्यों छूने लगे?” मित्र ने कहा, “तुम्हें पता नहीं हैं, उन्हें डायबिटीज हो गया है।” अब डायबिटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बीमारी से कौन से फायदे नहीं उठाते। मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। जैसे ही कोई स्त्री उन्हें देखने आती, वह सिर पकड़कर कराहने लगते हैं। स्त्री पूछती, “क्या सिर में दर्द है?” वे कहते, हाँ सिर फटा पड़ता है।” सी सहज ही उनका सिर दबा देती है? उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी- क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती है, तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है?” उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा, “तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है।” जान प्रीत रस इतने हूँ माहीं।
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