शिक्षाशास्त्र

पर्यावरण शिक्षा का अर्थ | पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्य | पर्यावरण शिक्षा : आवश्यकता एवं महत्व | पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र

पर्यावरण शिक्षा का अर्थ | पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्य | पर्यावरण शिक्षा : आवश्यकता एवं महत्व | पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र

पर्यावरण शिक्षा : अर्थ एवं परिभाषा

(Environment Education: Meaning & Definition)

पर्यावरण शिक्षा वह शिक्षा है जो-पर्यावरणीय घटकों का विस्तृत ज्ञान, पर्यावरण तथा मानव के मध्य अन्तर्सम्बन्धों एवं पारस्परिक निर्भरता का ज्ञान और पर्यावरण के प्रति संचेतना का विकास कर पर्यावरण संरक्षण की अभिवृत्ति व कौशल का विकास करती है।

उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि-“पर्यावरण शिक्षा पर्यावरण के सुधार के लिए, पर्यावरण के सम्बन्ध में पर्यावरण के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा है।” यह वाक्य पर्यावरण शिक्षा की परिभाषा, विषय-वस्तु, लक्ष्य, उद्देश्य तथा शिक्षण की ओर इंगित करता है।

पर्यावरण शिक्षा एक नया अधिगम क्षेत्र है। पर्यावरण शिक्षा की विषय-वस्तु (Subject Matter) के विस्तार और उपागम (Approach) की अनिश्चितता के कारण इसकी सर्वमान्य परिभाषा की संकल्पना या अपेक्षा करना उचित नहीं है। अतः पर्यावरण शिक्षा की कुछ परिभाषाएँ तथा व्याख्याएँ निम्नानुसार हैं-

(1) ललितपुर (नेपाल) के श्री भोलाप्रसाद लोहानी ने पर्यावरणीय शिक्षा को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “पर्यावरणीय शिक्षा का अभिप्राय मानवीय परिस्थितिकी एवं मानवीयता का प्रकृति के साथ संबंध स्थापना की जागरूकता विकसित करने से है।”

(2) अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक स्रोत संरक्षण परिषद के नेवादा सम्मेलन में पर्यावरण शिक्षा की व्याख्या करते हुए कहा गया कि “पर्यावरणीय शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव अपनी संस्कृति तथा जैवभौतिक परिवेश के बीच पारस्परिक संबंधों की समझ तथा श्लाधा का विकास, सम्प्रत्यों का स्पष्टीकरण, कुशलताओं और अभिवृत्तियों का विकास करता है। यह शिक्षा व्यक्ति की निर्णय प्रक्रिया एवं व्यवहार संहिता में भी अपेक्षित परिवर्तन लाती है।”

(3) न्यूजीलैण्ड के रें चैपमैन टेलर के अनुसार, “पर्यावरणीय शिक्षा का अभिप्राय सनागरिकता विकसित करने के लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पर्यावरणीय मूल्यों एवं समस्याओं पर केन्द्रित करना है ताकि सदनागरिकता का विकास हो सके तथा अधिगमकर्ता पर्यावरण के सम्बन्ध में भिज्ञ, प्रेरित तथा उत्तरदायी हो सके।”

(4) शुकदेव प्रसाद के अनुसार, “पर्यावरण बड़ा व्यापक शब्द है। वस्तुत: इसका तात्पर्य उस समूची भौतिक और जैविक व्यवस्था से है, जिसमें जीवधारी रहते हैं, बढ़ते, पनपते हैं और अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का विकास करते हैं।”

(5) न्यूजीलैंड के संयुक्त पर्यावरणीय अध्ययन केन्द्र के द्वारा स्वीकृत परिभाषा इस प्रकार है-“पर्यावरणीय शिक्षा का उद्देश्य इस प्रकार के समाज की रचना करना है जो कि पर्यावरण तथा उसकी समस्याओं से ज्ञान सम्पन्न होकर उन्हें हल करने के लिए प्रेरित हो सके।”

(6) शिक्षाशास्त्री टॉमसन के अनुसार, “पर्यावरण ही शिक्षक है और शिक्षा का काम छात्र को उसके अनुकूल बनाना है।”

(7) ब्रिटिश पर्यावरणविद् स्वॉन के अनुसार, “पर्यावरण की गुणवत्ता के प्रति चिंता के सुविज्ञ दृष्टिकोण का विकास करना ही  पर्यावरण-शिक्षा है।”

(8) स्वॉन के ही अनुसार, “पर्यावरण शिक्षा की अवधारणा यह है कि एक ऐसी सनागरिकता का विकास किया जाए जो अपने पर्यावरण एवं उससे जुड़ी हुई समस्याओं से परिचित हो तथा इन समस्याओं के समाधान के लिए अपनी भागीदारी के अवसरों की जानकारी रखती हो।”

(9) ओडम के अनुसार, “पर्यावरण शिक्षा मानव के चारों ओर व्याप्त जीवित तथा भौतिक वातावरण की शिक्षा है।”

(10) राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के महानिदेशक श्री लक्ष्मीधर मिश्र के अनुसार, “पर्यावरण उन सभी प्राकृतिक संसाधनों की समग्रता का नाम है, जो धरती माता ने मानव जाति के लिए वरदान के रूप में दिए हैं। ये संसाधन हैं जमीन, जल, वायु, वनस्पति, वन और वन्यजीव, जो हमें घेरे हुए हैं और जो प्रतिदिन हमारे जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।”

(11) चैंबर्स डिक्शनरी के अनुसार, “पर्यावरण शिक्षा एक ऐसा अध्ययन क्षेत्र है, जिसमें जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों तथा मनुष्य समुदायों के अपने वातावरण के साथ अन्तरसम्बन्धों को व्याख्यायित किया जाता है। पर्यावरण के साथ जीवधारियों का जो भी आदान-प्रदान होता है, जो भी अंतःक्रियाएँ होती हैं अथवा अंर्तसंबंध बनते हैं, उनका वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करना ही पर्यावरण शिक्षा है।”

(12) ए०बी० सक्सेना के अनुसार, “पर्यावरण शिक्षा वह प्रक्रिया है जो पर्यावरण के बारे में हमें संचेतना, ज्ञान और समझ देती है, इसके बारे में अनुकूल दृष्टिकोण का विकास करती है तथा इसके संरक्षण और सुधार की दिशा में हमें प्रतिबद्ध करती है।”

(13) चैपमैन टेलर के अनुसार, “पर्यावरण शिक्षा सद्नागरिकता का विकास करती है। इससे अध्येता में पर्यावरण के संबंध में जानकारी, प्रेरणा और उत्तरदायित्व के भाव आते हैं।”

(14) अमेरिकन लेखक बोसिंग के अनुसार, “शिक्षा का कार्य व्यक्ति का पर्यावरण से इस सीमा तक सामंजस्य स्थापित करना है, जिससे व्यक्ति और समाज को स्थायी संतोष मिल सके।”

(15) यू० के० यादव के अनुसार, “पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य प्रकृति तथा मानवीय सम्बन्धों के मध्य संतुलन की स्थापना करना है, जिसके द्वारा बालक से वृद्ध तक सभी स्तर पर मनुष्य प्रकृति के साथ दुर्व्यवहार न करे जिससे कि प्रकृति का भौगोलिक तथा जलवायुविक चक्र परिवर्तित या दिग्भ्रमित हो। इससे पर्यावरण तथा मानव पारस्परिक निर्भरता विधिवत बनी रहेगी अन्यथा वह पारस्परिक विकास में परिवर्तित हो जायेगी।”

(16) इन्सायक्लोपीडिया ऑफ एजुकेशन रिसर्च के अनुसार, “पर्यावरण शिक्षा की परिभाषा देना कोई सरल कार्य नहीं हैं। पर्यावरण शिक्षा का विषय-क्षेत्र अन्य पाठ्यक्रमों की तुलना में कम परिभाषित है, फिर भी यह सर्वमान्य है कि पर्यावरण शिक्षा बहुविषयी होनी चाहिए जिसमें जैविक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय संसाधनों से सामग्री प्राप्त होती है। इस शिक्षा के लिए संप्रत्यात्मक विधि सर्वोत्तम है।”

(17) डॉ. पंकज श्रीवास्तव के अनुसार, “Environment Education is concerned with the development of interrelationship between Man & Environment, promotion of quality of human life and personal commitment towords environment conservation.”

(18) डॉ० आर० मिश्र के अनुसार, “प्रकृति में अजीवित घटक तथा जीव-जन्तु, पौधों के मध्य असंतुलन तथा सह-अस्तित्व पर्यावरण है और इसका वैज्ञानिक विधि से अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा है।”

संक्षेप में कहा जा सकता है कि मनुष्य पर्यावरण को समझे, पर्यावरण संतुलन बनाना सीखे और पर्यावरण सुधार के लिए प्रयत्न करे यही पर्यावरण शिक्षा का मूल है। अत: पर्यावरण शिक्षा को निम्न बिन्दुओं के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है-

(1) मानव एवं पर्यावरण के मध्य अर्न्तसम्बन्धों का ज्ञान,

(2) मानव में पर्यावरणीय घटकों के प्रति संवेदनशीलता का विकास,

(3) मानव में पर्यावरण संचेतना का विकास,

(4) पर्यावरण प्रदूषण के स्रोतों की जानकारी,

(5) मानव में उपलब्ध संसाधनों के सुव्यवस्थित उपयोग की समझ का विकास,

(6) ऐसे जनमत का विकास जो पर्यावरण संबंधी समस्याओं को न सिर्फ सुलझा सके अपितु उसकी पुनरावृत्ति को भी रोक सके,

(7) मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार,

(8) मानव एवं अन्य जीवधारियों के मध्य संतुलन।

पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्य

(Aims of Environment Education)

शिक्षा एक सोद्देश्य प्रक्रिया है। ब्लूम (Bloom) के अनुसार, “शैक्षिक उद्देश्य से हमारा तात्पर्य उन व्यवहारों के निर्माण से है जिनमें शैक्षिक प्रक्रिया द्वारा छात्रों को लाना होता है।” ब्लूम ने शिक्षा के उद्देश्यों को निम्नानुसार वर्गीकृत किया है-

(1) ज्ञानात्मक पक्ष (Cognitive Domain)-  इस पक्ष के अन्तर्गत उन उद्देश्यों को रखा गया है जो बौद्धिक कौशल और क्षमताओं के ज्ञानात्मक विकास की पहचान के लिए आवश्यक होते हैं। इस पक्ष में याद रखना, समस्या समाधान,संप्रत्यय निर्माण और कुछ सीमा तक सृजनात्मक सोच (Remembering, Problem Solving, Concept Formation, Creative Thinking) का समावेश होता है। अर्थात् ज्ञानात्मक पक्ष चैतन्य मस्तिष्क में होने वाली समस्त प्रक्रियाओं चाहे वो सामान्य हों (जैसे-याद रखना) या फिर जटिल हों (जैसे-समस्या समाधान) पर आधारित होता है। अत: ज्ञानात्मक पक्ष में निम्न शैक्षणिक स्तर होते हैं-

(i) ज्ञान (Knowledge)

(ii) विश्लेषण (Analysis)

(iii) अवबोध (Understanding)

(iv) संश्लेषण (Synthesis)

(v) ज्ञानोपयोग (Application)

(vi) मूल्यांकन (Evaluation)।

(2) भावात्मक पक्ष (Affective domain)-  इस पक्ष के अन्तर्गत उद्देश्य समाहित हैं जो रुचियों में परिवर्तन, अभिवृत्तियों और मूल्यों में परिवर्तन और गुणों की पहचान तथा प्रबंध के लिए आवश्यक होते हैं। अर्थात् इस पक्ष के अन्तर्गत उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सामान्य अवलोकन से लेकर भावनात्मक सुझाव समाहित हैं।

(3) मनोगत्यात्मक पक्ष (Psycomotor domain)-  इस पक्ष अन्तर्गत वह सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जिनमें तंत्रिकाएँ और पेशियाँ एक साथ कार्य करती हैं, जैसे-लिखना, बोलना इत्यादि । अर्थात् इस पक्ष के व्यक्त करने के लिए विचार (ज्ञान) को परिभाषित करके प्रस्तुत किया जाता है।

पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्यों की भी ज्ञानात्मक, भावात्मक और मनोगत्यात्मक पक्षों के आधार पर व्याख्या की जा सकती है-

(1) पर्यावरण शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष पर आधारित उद्देश्य-

(1) अपने आस-पास के पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त करना।

(2) अपने चारों ओर के विस्तृत पर्यावरण का ज्ञान प्राप्त करना।

(3) बढ़ती हुई जनसंख्या और उसके दुष्परिणामों संबंधी अवबोध/समझ।

(4) जैविक और अजैविक घटकों का अवबोध (Understanding) ।

(5) विभिन्न पोषक स्तरों और उनके अन्तर्सम्बन्धों संबंधी अवरोध/समझ ।

(6) अनियोजित संसाधनों के दोहन के दुष्परिणामों संबंधी अवबोध/समझ ।

(7) पर्यावरणीय प्रदूषण के विभिन्न प्रकारों,उनके कारकों तथा परिणामों संबंधी ज्ञान और अवबोध/समझ ।

(8) मौलिक और मानवीय संसाधनों के उपयोग का मूल्यांकन और उसके उपायों संबंधी अवबोध/समझ ।

(9) पर्यावरणीय घटनाओं को समझने के कौशल का विकास एवं विश्लेषणात्मक योग्यता के आधार पर पर्यावरणीय समस्याओं के निदान के लिए अर्थपूर्ण निर्णय लेना।

(10) पर्यावरणीय संकट को दूर करने वाली विधियों का ज्ञान ।

(11) आकार, स्पर्श, ध्वनि, आदत, इत्यादि को पहचानने के कौशल का विकास।

(II) पर्यावरण शिक्षा के भावात्मक पक्ष पर आधारित उद्देश्य-

(1) प्रकृति प्रेम की भावना का विकास करना।

(2) पर्यावरण के प्रति संचेतना एवं वैज्ञानिक सोच का विकास करना।

(3) देश के भावी नागरिकों को यह एहसास दिलाना कि पर्यावरण से सिर्फ वे ही नहीं जुड़े हैं उनक आने वाली संततियाँ भी इसी पर्यावरण का उपयोग करेंगी।

(4) पर्यावरणीय घटकों के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण का विकास करना।

(5) प्रचलित अंधविश्वासों (जैसे-नदियों में अस्थि, राख, पुष्प, नारियल इत्यादि के विसर्जन) को दूर करना।

(6) मानवीय व्यवहारों जैसे-समानता, न्यायप्रियता, सत्यता इत्यादि के मूल्यात्मक पहलू का विकास करना।

(7) मनुष्य और प्रकृति के मध्य सीधे अन्तर्संवाद की स्थिति का निर्माण करना।

(8) पर्यावरणीय समस्या के प्रति जनमत का विकास करना।

(9) आस-पास पाये जाने वाले जैव समुदाय तथा सम्पूर्ण मानव सभ्यता से प्रेम की भावना का विकास करना।

(10) विभिन्न धर्मों, जातियों व संस्कृतियों के प्रति संवेगात्मक दृष्टिकोण का विकास करना।

(11) प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहारों की सराहना करना।

(12) व्यक्तिगत, सामूहिक व सामुदायिक समस्याओं को समझना ।

(III) पर्यावरण शिक्षा के मनोगत्यात्मक पक्ष पर आधारित उद्देश्य-

(1) ज्ञानात्मक एवं भावात्मक पक्षों में वर्णित उद्देश्यों को कार्य रूप देना।

(2) लेखन, कार्यक्रम निर्माण इत्यादि के द्वारा पर्यावरण जागरूकता का प्रयास करना।

(3) पर्यावरण खेल, पर्यावरण क्लब तथा पर्यावरण नाटिका आदि के द्वारा पर्यावरण के प्रति संचेतना का विकास करना।

पर्यावरण शिक्षा : आवश्यकता एवं महत्व

(Environment Education: Importance & Need)

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता का प्रमुख कारण पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव है। प्राच्य शिक्षा व्यवस्था में बालक की शिक्षा का प्रारंभ संयुक्त परिवार में होता था जहाँ वह पारिवारिक संस्कारों से परिचित होता था। इसके पश्चात आश्रम या पाठशाला से उसके संस्कारों का विकास एवं मानसिक अभिवृद्धि होती थी और तत्पश्चात् समाज से वह अपने अन्तर्सम्बन्धों के कारण प्राप्त हुए अनुभवों से जीवन पर्यन्त सीखता था जिसमें वह कहीं शिक्षक का दायित्व भी निभाता था।

आज बालक की प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम परिवार के स्थान पर उसका आस-पड़ोस, चलचित्र, दूरदर्शन और कॉमिक्स हो गया है, जिसका स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है अभिनय से परिपूर्ण शिष्टाचार। आश्रम शिक्षा के स्थान पर निर्मित विद्यालयों में आधुनिकता के नाम पर कुसंगति, अशिष्टता तथा अश्लीलता ही अधिक दिखाई देती है। शिक्षा का तीसरा स्तर समाज की दुर्भावना, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और ईर्ष्या से ओतप्रोत होने के कारण परिवर्तित हो चुका है। आज व्यवहार की परिभाषा बदल चुकी है, व्यवहार का अर्थ काम निकालना या काम करा लेने की क्षमता हो गया है।

उपरोक्त परिवर्तनों का परिणाम है मानवीय सोच और विचारधारा में परिवर्तन। जहाँ पहले वृक्षों को रात्रि में हाथ लगाना पाप माना जाता था, आज उन्हीं पेड़ों को रात्रि में काटकर बेच दिया जाता है। मानवीय सोच/अभिवृत्ति में आए परिवर्तन ने ही प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ा है जिसके परिणामस्वरूप आज मानव के ही अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। अतः वर्तमान समय में आवश्यकता है मानवीय सोच, उसकी अभिवृत्ति में परिवर्तन करने की और निश्चित रूप से यह कार्य शिक्षा ही कर सकती है। पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से बालक को प्रारम्भ से ही. पर्यावरणीय घटकों के प्रति सचेत किया जाए और युवावर्ग में पर्यावरण संचेतना जागृत कर उनकी अभिवृत्तियों में परिवर्तन किया जाये ताकि समय रहते पर्यावरण को सुरक्षित रखकर मानव अस्तित्व की रक्षा की जा सके। आज अभिभावकों की व्यस्त दिनचर्या और बच्चों के बढ़ते हुए बस्ते के आकार को देखते हुए प्रश्न यह उठता है कि एक और नया विषय क्यों? परन्तु यदि विषय की गम्भीरता और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व के बारे में सोचा जाए तो पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता स्वयं सिद्ध है। एक साधारण-सी बात है कि किसी को यह बताया जाए कि आगे गढ्ढा है तो एक जिज्ञासा अवश्य होती है कि चलो देख लें परन्तु फिर भी मन के किसी कोने में गिरने का भय अवश्य ही रहता है। अतः यदि किसी बालक को प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता और इसके अन्धाधुन्ध दोहन से होने वाले दुष्परिणामों से अवगत कराया जाए तो वह कम से कम इन समस्याओं के प्रति सजग अवश्य हो जाएगा। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा पर्यावरण से संबंधित समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। सारांश यह है कि पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मनुष्य सम्पूर्ण एवं संवर्द्धन के प्रति वह पहले से अधिक क्रियाशील बने । समाज में मनुष्य अनेक समस्याओं जैसे-जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, निरक्षरता इत्यादि से घिरा हुआ है जिन्हें उसकी स्वयं की नासमझी और अकर्मण्यता ने भयावह बना दिया है। कारण चाहे जो हो प्रभावित प्रकृति हुई है और उसका परिणाम भोग रहा है मनुष्य । अत: आज के संदर्भ में पर्यावरण शिक्षा एक अनिवार्य आवश्यकता बन चुकी है।

पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र

(Scope of Environment Education)

पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र बहुत व्यापक है। मानव एक विशालकाय सृष्टि का अभिन्न अंग है, उस सृष्टि का निर्माता या संहारकर्ता नहीं है। मानव का इस सृष्टि पर पाए जाने वाले सभी जीवधारियों तथा निर्जीव वस्तुओं से घनिष्ठ सम्बन्ध है। मानव को अपने इस घनिष्ठ सम्बन्ध को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि सम्बन्धों का बिगड़ना मानव के अनिष्ट का संकेत है।

(1) पर्यावरण की निरंतरता-पर्यावरण परिवर्तनशील है और पर्यावरण का परिवर्तनशील होना ही उसकी निरन्तरता का कारण है। पर्यावरण मानव द्वारा किये गये नुकसान की भरपाई करने में सक्षम है परन्तु एक सीमा तक, उस सीमा के पश्चात् पर्यावरण अपनी निरंतरता को कायम नहीं रख पाता और प्रदूषित हो जाता है।

(2) विज्ञान और प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में- विज्ञान और प्रोद्यौगिकी एक-दूसरे के पूरक हैं। जहाँ एक ओर विज्ञान हमें वास्तविकताओं से साक्षात्कार करवाता है, वहीं दूसरी ओर प्रोद्यौगिकी मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप नई चीजों का विकास करवाती है। मानव अपने विज्ञान और प्रोद्यौगिकी के सम्मिलित ज्ञान से पर्यावरण को परिवर्तित कर रहा है।

(3) कला एवं संगीत के क्षेत्र में सामाजिक विज्ञान, कला, संगीत और पर्यावरण पर किये सर्वेक्षणों के आधार पर ये निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं कि मनुष्य पर्यावरण में स्थायित्व चाहता है, वह चाहता है कि प्रकृति सदैव जीवनदायिनी बनी रहे उसमें कोई परिवर्तन न हो। कला और संगीत के माध्यम से भी पर्यावरण समस्याओंको जन चेतना का विषय बनाया जा सकता है और पर्यावरण के प्रति एक भावनात्मक आधार/लगाव विकसित किया जा सकता है।

(4) मानविकी के क्षेत्र में- मानव प्रकृति से सुख की अनुभूति पाता है। प्राकृतिक दृश्य उसे सुख और संतोष प्रदान करते हैं। यह सुख और संतोष मानविकी से ही संबंधित है जो मानव को पर्यावरण से जोड़ता है। प्राकृतिक संसाधन हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी हैं जिन्हें बनाए रखना अपनी पहचान को कायम रखना है।

(5)साहित्य के क्षेत्र में पर्यावरण शिक्षा का संरक्षण, संवहन, विकास एवं वर्तमान से जोड़ने का माध्यम साहित्य है। पर्यावरण के क्षेत्र में सोचने,समझने, लिखने और संचार माध्यमों द्वारा प्रसार करने से ही जागरूकता और संवेदनशीलता का वातावरण बन सकेगा।

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Pankaja Singh

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