उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या | उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या | उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या

(Problem of Privatisation of Higher Education)

जब किसी राज्य में उसके किसी उत्पादन के स्रोत अथवा सार्वजनिक कार्य के किसी क्षेत्र पर राज्य का आधिपत्य होता है और वह पूर्णतया राज्य के नियन्त्रण में होता है तो इसे अर्थशास्त्र की भाषा में यथा उत्पादन क्षेत्र अथवा यथा सार्वजनिक कार्य क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण (Nationalization) कहते हैं। इसके विपरीत जब राज्य के किसी उत्पादन स्रोत अथवा सार्वजनिक कार्य के किसी क्षेत्र पर जनता अर्थात् निजी संस्थाओं का आधिपत्य होता है और वे उनके नियन्त्रण में होते हैं तो इसे अर्थशास्त्र की भाषा में यथा उत्पादन स्रोत अथवा यथा सार्वजनिक कार्य क्षेत्र का निजीकरण (Privatization) कहते हैं ।

हमारे देश में वर्तमान में शिक्षा समवर्ती सूची (Concrrent List) में है। यह एक सार्वजनिक कार्य है और इसकी व्यवस्था करना केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व है। परन्तु स्थिति यह है कि केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकारें मिलकर भी इसकी व्यवस्था नहीं कर पा रही हैं। इसमें जन सहयोग तो पहले से ही लिया जा रहा था और कुछ पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं को मान्यता भी दी जा रही थी परन्तु पिछले कुछ वर्षों से उच्च शिक्षा को स्ववित्तपोषित करने की ओर भी कदम बढ़ाए गए हैं और किसी भी प्रकार की स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं खुले हाथ मान्यता दी जा रही है। अब तो सरकार स्ववित्तपोषित विश्वविद्यालयों को भी मान्यता दे रही है। विद्वान इसे ही उच्च शिक्षा का निजीकरण मानते हैं, परन्तु सरकार ऐसा नहीं मानती।

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या का स्वरूप

(Nature of Problem of Privatisation of Higher Education)

उच्च शिक्षा की स्ववित्तपोषित संस्थाओं को मान्यता देने के सम्बन्ध में दो मत हैं कुछ विद्वान इसे शिक्षा का निजीकरण मानते हैं और कुछ नहीं मानते । मार्च, 2003 में जब विद्यार्थी परिषद ने स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देने और इस प्रकार उच्च शिक्षा का निजीकरण करने के विरोध में संसद के सामने प्रदर्शन किया तो मानव संसाधन मन्त्री और प्रधानमंत्री दोनों ने आश्वासन दिया कि सरकार का उच्च शिक्षा के निजीकरण का कोई इरादा नहीं है। कुछ विद्वान भी इसे शिक्षा का निजीकरण नहीं मानते। उनका तर्क है कि जब स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के लिए मानदण्ड सरकारी संस्थाएँ बनाती हैं, उन्हें मान्यता भी सरकारी संस्थाएँ ही देती हैं, उनके पाठ्यक्रम भी सरकारी संस्थाएँ ही बनाती है, उनमें छात्र-छात्राओं के प्रवेश के नियम भी सरकारी संस्थाएँ बनाती हैं, उनके छात्र-छात्राओं की परीक्षाएँ भी सरकारी संस्थाएँ ही लेती हैं और उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं को प्रमाण पत्र भी वे ही देती हैं तो इसे शिक्षा का निजीकरण कैसे कहा जा सकता है ?

दूसरी तरफ अधिकतर विद्वान इसे उच्च शिक्षा का निजीकरण मानते हैं। उनका तर्क है कि जब स्ववित्तपोषित संस्थाओं पर निजी संस्थाओं का आधिपत्य है, वे उनके नियन्त्रण में हैं, वे 50% छात्र-छात्राओं को प्रवेश देने के लिए स्वतन्त्र हैं, वे छात्र-छात्राओं से मनमानी केपीटेशन फीस लेने के लिए स्वतन्त्र हैं और मनमाना वार्षिक शुल्क लेने के लिए स्वतन्त्र हैं और साथ ही शिक्षकों की नियुक्ति करने एवं उनको निकालने के लिए स्वतन्त्र हैं तो यह उच्च शिक्षा का निजीकरण नहीं तो और क्या है ?

अब यदि निष्पक्ष भाव से देखा-समझा जाए तो स्पष्ट होगा कि हमारे देश में न तो शिक्षा का राष्ट्रीयकरण है और न निजीकरण, इसकी व्यवस्था सरकार और निजी संस्थाएँ दोनों मिलकर कर रही हैं और चूँकि इन स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के प्रशासन एवं वित्त का भार निजी संस्थाओं के ऊपर है और वे उन्हीं के नियन्त्रण में हैं इसलिए ये निजीकरण के दायरे में आती हैं।

इस सन्दर्भ में दूसरा विचारणीय विषय है-इन स्ववित्तपोषित संस्थाओं में लिए जाने वाला वार्षिक शुल्क । सरकार अथवा सम्बन्धित नियन्त्रक तन्त्र इनमें लिए जाने वाले वार्षिक शुल्क का निर्धारण अवश्य करते परन्तु ये मनमाना शुल्क लेती हैं। कभी-कभी तो पाठ्यक्रम के मध्य में शुल्क बढ़ा देती हैं। यही कारण है कि वर्तमान में इनके विरोध में आवाज उठ रही है, हर दिन इनके फीस बढ़ाने के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। अब सरकार के सामने समस्या यह है कि स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को मान्यता दे या न दे और यदि मान्यता दे तो उन पर नियन्त्रण किस प्रकार करे।

स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के गुण

यदि निष्पक्ष भाव से देखा-समझा जाए तो इन स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के अपने गुण-दोष हैं। इनके मुख्य गुण निम्नलिखित हैं-

(1) ये उच्च शिक्षा की व्यवस्था में सरकार का सहयोग कर रही हैं।

(2) ये उच्च शिक्षा के इच्छुक सामान्य छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान कर रही हैं।

(3) फिर इनमें बड़ी स्पर्धा है, इस प्रकार की अधिकतर संस्थाओं की अधिसंरचना (Infrastructure) उत्तम कोटि की है। इनमें काम के बदले दाम का सिद्धान्त लागू है, शिक्षक परिश्रम से पढ़ाते हैं। ये सामान्य छात्रों को प्रवेश देकर सामान्य से अच्छा परीक्षाफल देती हैं। सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त संस्थाओं में यदि 20% संस्थाएँ अच्छे स्तर की हैं तो स्ववित्तपोषित संस्थाओं में 30% संस्थाएँ अच्छे स्तर की हैं।

(4) ये उच्च शिक्षा की सरकारी एवं अनुदान प्राप्त गैरसरकारी संस्थाओं में प्रवेश के दबाव को कम कर रही हैं।

स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के दोष

स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं के दोष भी हैं। इनके मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-

(1) ये कैपीटेशन फीस दसूल करती हैं, इनके वार्षिक शुल्क भी बहुत अधिक हैं, परिणामतः उच्च शिक्षा अति महंगी होती जा रही है, वह आर्थिक दृष्टि से मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों की पहुँच से बाहर है।

(2) इस प्रकार की अधिकतर शिक्षण संस्थाएँ भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी हैं, वे भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही हैं।

(3) कुछ शिक्षा संस्थाएँ सिफारिश और भेंट-पूजा के आधार पर बिना शर्ते पूरी किए मान्यता प्राप्त कर लेती हैं। इनसे अच्छे उत्पाद की आशा कैसे की जा सकती है।

(4) इनको मान्यता देने से शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।

(5) इन संस्थाओं से निकलने वाले उत्पाद की मार्केट वैल्यू कम है।

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या के कारण

(Causes of Problem of Privatisation of Higher Education)

14 अगस्त, 2003 की संध्या को अपने राष्ट्र के नाम संदेश में देश के राष्ट्रपति श्री कलाम ने स्वीकार किया कि देश में शिक्षा अति महंगी होती जा रही है और वह आर्थिक दृष्टि से मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों की पहुँच से भी बाहर हो गई है। उन्होंने इसके प्रति चिन्ता भी व्यक्त की। इस समस्या के मुख्य कारण हैं-

(1) केन्द्र और प्रान्तीय सरकारों के पास संसाधन की कमी, शिक्षा के लिए आवश्यकता से कम बजट और स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देने की विवशता ।

(2) स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं को स्थापित करने वाली संस्थाओं की नियमावली में उनका उद्देश्य भले ही शिक्षा का प्रसार करना लिखा हो परन्तु इन संस्थाओं के सदस्यों का मुख्य उद्देश्य आर्थिक लाभ कमाना होता है।

(3) ईमानदारी एवं कर्त्तव्यनिष्ठा की कमी तो देशव्यापी रोग है और सच पूछिए तो यही किसी भी समस्या का मूल कारण है।

(4) स्ववित्तपोषित संस्थाओं का निर्माण एवं संचालन दोनों का अति व्यय साध्य होना।

(5) वैसे तो स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थाओं की मान्यता के मानदण्ड काफी कठोर हैं परन्तु ऊपर से नीचे तक सिफारिश और भेंट-पूजा करने से बिना शर्ते पूरी किए भी मान्यता मिल जाती है । इस प्रकार छात्र-छात्राओं के आर्थिक एवं शैक्षिक शोषण में सब भागीदार हैं।

उच्च शिक्षा के निजीकरण की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

(Suggestions for solving the Problem of Privatisation of Higher Education)

इसके समाधान के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए-

(1) उच्च शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है राष्ट्र के विभिन्न कार्य क्षेत्रों के लिए विशेषज्ञों का निर्माण। इसके लिए अति योग्य एवं परिश्रमी छात्रा-छात्राओं का चयन करना होता है। ये यथा आयु वर्ग के लगभग 10% होते हैं। सिद्धान्तः इनकी उच्च शिक्षा की व्यवस्था राज्य को स्वयं करनी चाहिए। परन्तु वर्तमान में हमारे देश में उच्च शिक्षा स्तर पर इस आयु वर्ग के केवल 6% छात्र-छात्राएँ ही अध्ययनरत हैं और उनको शिक्षा की व्यवस्था करने में भी निजी संस्थाओं का सहयोग है । इस सन्दर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि हमारे देश की जनसंख्या इतनी अधिक है कि इसमें यथा आयु वर्ग के केवल 6% को उच्च शिक्षा सुविधा होने के बाद भी शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, तब आवश्यक है कि सरकार प्रथम 5% अति मेधावी एवं अति परिश्रमी छात्र-छात्राओं की उच्च शिक्षा की व्यवस्था स्वयं करे और शेष 5% मेधावी एवं परिश्रमी छात्र-छात्राओं की व्यवस्था निजी संस्थाओं पर छोड़ दे।

(2) किसी भी क्षेत्र की स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को, उनके लिए निश्चित मानदण्डों को पूरा करने के बाद ही मान्यता दी जाए। मान्यता देने में किसी प्रकार की सिफारिश व भेंट-पूजा को बन्द किया जाए। यह तभी सम्भव है जब इस प्रक्रिया में सम्मिलित सभी व्यक्ति ईमानदार हों। और यही बड़ा कठिन कार्य है।

(3) सरकार स्ववित्तपोषित संस्थाओं के कुल व्यय का आंकलन करे और उस आधार पर छात्र-छात्राओं से लिए जाने वाले वार्षिक शुल्क का निर्धारण करे। वैसे 14 अगस्त, 2003 को उच्चतम न्यायालय ने इन संस्थाओं द्वारा कैपीटेशन फीस वसूल करने पर रोक लगा दी है और साथ ही छात्र-छात्राओं के लिए प्रवेश नियम बनाने एवं उनसे लिए जाने वाले वार्षिक शुल्क को निश्चित करने के लिए प्रान्तीय स्तर पर दो अलग-अलग समीतियों के गठन करने का निर्देश दिया है परन्तु नियमों के विपरीत कार्य करना भारत में एक आम बात है इसलिए आवश्यकता है नियमों के पालन कराने की। इन संस्थाओं पर नियन्त्रण करने के लिए पहले से ही 3-3, 4-4 प्रशासन एवं निरीक्षण तन्त्र हैं, यदि एक और तन्त्र खड़ा कर दिया जाए तो क्या फर्क पड़ने वाला है, उसकी भी भेंट-पूजा कर दी जाएगी। आवश्यकता है सभी तन्त्रों के ईमानदारी से काम करने की।

(4) इन संस्थाओं के लिए नियम भी हैं और नियमों का पालन हो यह सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन एवं निरीक्षण तन्त्र भी हैं, परन्तु ऊपर से नीचे तक इतना भ्रष्टाचार है कि सब कुछ अनदेखा हो रहा है । करोड़ों और अरबों का घोटाला करने वालों पर भी मुकदमे चलने के समाचार तो हमने पढ़े हैं पर कभी किसी को कोई दण्ड दिया गया है, यह समाचार पढ़ने को नहीं मिला। आवश्यकता है कठोर दण्ड विधान की और यह कार्य ईमानदार,कर्त्तव्यनिष्ठ और राष्ट्रभक्त व्यक्तियों की सरकार ही कर सकती है। पता नहीं अभी इसके लिए कितनी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, पर निराश नहीं होना चाहिए, अब क्रान्ति का बिगुल बजने ही वाला है।

(5) किसी भी प्रकार की स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देते समय दो बातों का ध्यान अवश्य रखा जाए-एक क्षेत्र विशेष में उनकी माँग का और दूसरा क्षेत्र विशेष एवं राष्ट्र में उस उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की माँग का।

(6) सरकार स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं में मैनेजमेन्ट कोटे के द्वारा छात्र-छात्राओं के प्रवेश सम्बन्धी भी नियम बनाए और देखे कि इनका पालन हो।

(7) सरकार स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षा संस्थाओं में अध्ययनरत मेधावी एवं निर्धन छात्र-छात्राओं के लि भी छात्रवृत्तियों की व्यवस्था करे।

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