शिक्षाशास्त्र

उच्च शिक्षा में मुख्य समस्यायें | उच्च-शिक्षा की समस्याओं का समाधान

उच्च शिक्षा में मुख्य समस्यायें | उच्च-शिक्षा की समस्याओं का समाधान

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उच्च शिक्षा की समस्याएँ

(Problems of Higher Education)

प्राथमिक शिक्षा के समान ही उच्च शिक्षा का भी देश के योग्य नागरिकों का निर्माण करने की दृष्टि से अत्यन्त महत्व है। इस स्तर पर विविध अनिवार्य, ऐच्छिक अथवा विशिष्टीकरण पाठ्यक्रमों का अध्ययन करन के उपरान्त ही अधिकांश विद्यार्थी राष्ट्र के अनेक महत्वपूर्ण एवं उच्च पदों के योग्य बनते हैं। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए ही उच्च शिक्षा आयोग एवं कोठारी आयोग के द्वारा भारत सरकार को उच्च शिक्षा में सुधार करने हेतु अनेक सुझाव दिये गये थे। इन सुझावों को स्वीकार करके यद्यपि सरकार ने समय-समय पर अनेक प्रयास किये भी हैं, परन्तु इसके उपरान्त भी भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्यायें यथावत् दृष्टिगोचर होती. हैं। इन समस्याओं का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

(1) दोषपूर्ण पाठ्यक्रम की समस्या-

अधिकतर महाविद्यालयों में घिसे-पिटे विषयों, जैसे-इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि का अध्यापन होता है क्योंकि इनके पढ़ाने की व्यवस्था प्रबन्धक सहज में ही कर लेते हैं । यद्यपि शिक्षा-प्रसार की दृष्टि से वह उपयुक्त है किन्तु इससे छात्रों, अभिभावकों एवं देश का विशेष हित नहीं होता है। अधिकांश छात्रों को अपनी अभिरुचियों के विषयों को पढ़ने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। इससे उनका मानसिक विकास तो अवरुद्ध हो ही जाता है, भविष्य में व्यावहारिक जीवन में प्रवेश कर धनोपार्जन सम्बन्धी अनेक संकटों का सामना भी करना पड़ता है।

(2) उद्देश्यविहीनता की समस्या-

विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों का कोई भी निश्चित उद्देश्य नहीं होता है। वे केवल बी० ए० , एमए० की डिग्रियाँ प्राप्त करने के चक्कर में रहते हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं होता है कि वे भविष्य में किस नौकरी या व्यवसाय के लिए अध्ययन कर रहे हैं। वे केवल इस बात की आशा किये रहते हैं कि भविष्य में कोई न कोई अच्छा पद अवश्य प्राप्त कर लेंगे, किन्तु जब वे डिग्री प्राप्त कर किसी पद को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं तो वे निराशा के गर्त में गिर जाते हैं. उन्हें क्लर्की प्राप्त करने के लिये दर-दर ठोकरें खानी पड़ती हैं। वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर किसी व्यवसाय, प्राविधिक प्रशिक्षण या अन्य किसी कार्य में लग जाता तो आज जीवकोपार्जन के लिए इतनी मुसीबतों का सामना न करना पड़ता। इस प्रकार उच्च शिक्षा का उद्देश्यविहीन होना अत्यन्त हानिप्रद है।

(3) शिक्षण के निम्न स्तर की समस्या-

इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि छात्र ज्ञानार्जन के लिए अध्ययन नहीं करते हैं बल्कि उनके ज्ञानार्जन का प्रमुख उद्देश्य परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना होता है। फलस्वरूप शिक्षक इस प्रकार अध्ययन कराने की कोशिश करते हैं कि विद्यार्थियों को अच्छे अंक प्राप्त हों। ऐसा करने में वे विद्यार्थियों की अभिरुचियों एवं दृष्टिकोणों का कोई ज्ञान नहीं रखते हैं। कुछ शिक्षक सम्पूर्ण विषय का अध्यापन न करके विद्यार्थियों को ऐसी विषय-सामग्री पर नोट्स लिखाने में जुटे रहते हैं जो परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, तो कुछ शिक्षक इस प्रकार की विषय-सामग्री को विद्यार्थियों को रटने के लिए कहते हैं। इस तरह से अध्ययन करने में उन्हें व्याख्यानों को घर में पूर्ण रूप से तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती है। कक्षा में अधिक विद्यार्थियों के कारण शिक्षक विद्यार्थियों से व्यक्तिगत सम्पर्क नहीं रख पाते हैं। शिक्षा-संस्थाओं में ट्यूटोरियल कक्षाओं, विचारगोष्ठियों एवं पुस्तकालय हो में अध्यापन की प्रथा का सर्वथा अभाव रहता है। शिक्षकों का वेतन कम होने से वे अध्यापन में और भी रुचि नहीं लेते हैं। इस प्रकार उच्च-शिक्षा में शिक्षकों का शिक्षण का स्तर बहुत निम्न रहता है।

(4) शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने की समस्या-

अंग्रेजों को भारत छोड़े प्रायः 57 वर्ष हो गये, किन्तु हम अंग्रेजी आंचल अब भी पकड़े हुए हैं, जिससे हमारे नवयुवकों का अत्यधिक अहित होता है। वे किसी विषय के ज्ञान को समझने की बजाय अंग्रेजी भाषा को ही समझने में समय एवं शक्ति का अपव्यय करते हैं। गाँधीजी ने अंग्रेजी भाषा से होने वाले दुष्परिणामों की ओर संकेत करते हुए लिखा है, “विदेशी माध्यम ने राष्ट्र की शक्ति को क्षीण कर दिया है। इसने लोगों की आयु कम कर दी है, इसने उनको जनसाधारण से अलग कर दिया है, इसने शिक्षा को आवश्यक रूप से महंगा बना दिया है।”

(5) शिक्षा में विशिष्टीकरण की समस्या-

उच्च शिक्षा की समस्या है-विभिन्न विषयों व विशिष्टीकरण पर बल दिया जाना । इसके परिणामस्वरूप विश्वविद्यालयों की शिक्षा समाप्त कर भले ही छात्र किसी विषय में दक्षता प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु उनका दृष्टिकोण बहुत ही संकुचित तथा असन्तुलित हो जाता है, जबकि विशेष तौर से ‘सामाजिक विज्ञानों’ (Social Sciences) की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विशाल, संतुलित तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना है। शिक्षा में विशिष्टीकरण के दोष पर प्रकाश डालते हुए के० जी० सैयदेन ने ठीक ही लिखा है, “विशिष्टीकरण में एक प्रकार की संकीर्णता एवं अकाल्पनिकता होती है जिसका परिणाम यह होता है कि विज्ञान के छात्रों को कला एवं कविता तथा सामाजिक एवं राजनैतक समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता है और आर्ट्स के विद्यार्थियों को इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि विज्ञान ने वैज्ञानिक प्रविधियों से उस संसार को जिसमें वे निवास करते हैं, किस प्रकार परिवर्तित कर दिया है।”

(6) दोषपूर्ण परीक्षा-प्रणाली की समस्या-

विद्यार्थी वर्ष भर कक्षा, पुस्तकालय एवं घर में जो कुछ पढ़ते हैं उस पर उन्हें अगली कक्षा प्रदान न होने में कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, बल्कि तीन घण्टे में जो परीक्षा-कापी में लिखते हैं उसी के आधार पर उनकी उन्नति का मूल्यांकन किया जाता है । सन् 1902 के भारतीय विश्वविद्यालय आयोग ने लिखा है, “भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यह है कि शिक्षण परीक्षा के अधीन है न कि परीक्षा शिक्षण के।”

(7) अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या-

हम देखते हैं कि किस प्रकार उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों एवं उनके अभिभावकों के समय, शक्ति एवं धन की बर्बादी होती है। इस सम्बन्ध में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने प्रकाश डालते हुए लिखा है, “सार्वजनिक धन का प्रतिवर्ष महान अपव्यय हो रहा है, किन्तु इससे अधिक दुःख की बात यह है कि सार्वजनिक धन की गम्भीर हानि के प्रति उतनी ही उदासीनता है जितनी कि विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों के समय,शक्ति और धन के नाश तथा उनकी आशाओं एवं अभिलाषाओं पर भयंकर तुषारापात के प्रति ।”

(8) अनुशासनहीनता की समस्या (Problem of Indiscipline)-

उच्च शिक्षा की समस्या है-छात्रों का अनुशासनहीन होना । उनके अनुशासनहीन होने से समाज और सरकार को अत्यधिक नुकसान उठाना पड़ता है । कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति एन० के० सिद्धान्त (N. K. Siddhanta) ने महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के छात्रों की अनुशासनहीनता के निम्नलिखित पहलू बतलाये हैं-

(i) धन सम्बन्धी अनियमितता’

(ii) ‘साधारण दुर्व्यवहार’

(ii) ‘उच्छंखल व्यवहार

(iv) ‘यौन सम्बन्धी दुर्व्यवहार’

(v) ‘स्वाधिकारों का दुरुपयोग

(vi) ‘चोरी एवं सेंधमारी’

(vi) परीक्षा में धूर्तता

(9) मार्गदर्शन एवं समुपदेशन के अभाव की समस्या–

प्रायः देखा जाता है कि विद्यार्थी विषयों के सम्बन्ध में बिना जाने-समझे उनका चयन कर बैठते हैं जो या तो उनकी रुचि के प्रतिकूल होते हैं या अध्ययन करने में उनकी क्षमता नहीं होती है। फलस्वरूप उन्हें अध्ययन में कठिनाई उठानी पड़ती है और असफलता का सामना करना पड़ता है। इससे उनका छात्र-जीवन ही नहीं बल्कि सारा जीवन चौपट हो जाता है।

(10) छात्र-समितियों की समस्या-

वैसे तो छात्र-समितियों का निर्माण छात्रों के हितों के लिए होता है,किन्तु इनके कार्यकर्ता छात्रों के हितों की अपेक्षा कालेज के प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करना ही अपना परम कर्तव्य समझते हैं। यदि कालेज प्रबन्धक या प्रधानाचार्य कोई ऐसा कार्य करते हैं जो छात्र-समितियों के कार्यकर्ताओं के विरुद्ध हो तो वे उसका डटकर विरोध करते हैं। छात्रों को उत्तेजित कर हड़ताल कराना उनके लिए साधारण बात होती है। इस प्रकार का संघर्षमय वातावरण उत्पन्न करने से कालेज के प्रशासन को तो धक्का लगता ही है,छात्रों की पढ़ाई का बहुत नुकसान होता है । इस प्रकार जिस उद्देश्य को लेकर छात्र समितियों का गठन किया जाता है, वह पूरा नहीं हो पाता है-वे कालेज के लिए अभिशाप सिद्ध होती हैं।

उच्च-शिक्षा की समस्याओं का समाधान

(Solutions of Higher Education’s Problems)

उच्च या विश्वविद्यालाय शिक्षा की समस्याओं के समाधान हेतु क्रमशः निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं-

(1) उद्देश्यों में परिवर्तन (Change in Aims)-

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पायी जाने वाली उद्देश्यविहीनता को तथा दूषित उद्देश्यों को समाप्त करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि विद्यालयों के वर्तमान उद्देश्यों में परिवर्तन कर नवीन उद्देश्यों को निर्धारित किया जाए, इस सम्बन्ध में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने जो उद्देश्य निर्धारित किये हैं, वे कुछ सीमा तक प्रशंसनीय हैं किन्तु शिक्षा आयोग द्वारा निर्धारित उद्देश्य अति उत्तम हैं।

(2) उपयोगी एवं विभिन्न पाठ्यक्रम का निर्धारण (Determination of Useful and Diversified Curriculum)-

उच्च शिक्षा को दोषपूर्ण पाठ्यक्रम से मुक्त करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम छात्रों की रुचियों एवं परिवर्तनशील समाज की परिस्थितियों और सदस्यों की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया जाये !

(3) सामान्य शिक्षा की व्यवस्था (Provision for General Education)-

उच्च शिक्षा में पायी जाने वाली विशिष्टीकरण की समस्या को हल करने के लिए, विश्वविद्यालयों,कालेजों एवं माध्यमिक विद्यालयों में कला एवं विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ सामान्य शिक्षा की व्यवस्था की जाए ताकि कला एवं साहित्य के विद्यार्थी विज्ञान के ज्ञान से और विज्ञान के विद्यार्थी कला एवं साहित्य के ज्ञान से अनभिज्ञ न रहें।

(4) शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करना (Effort to Raise the Standard of Teaching)-  

उच्च शिक्षा के शिक्षण को ऊँचा उठाने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाने की आवश्यकता है-(i) अध्यापकों की वेतन-वृद्धि, (ii) उनके सेवा-सम्बन्धों में सुधार, (iii) उनके द्वारा सप्ताह में 18 घण्टे अध्यापन-कार्य, (iv) ट्यूटोरियल कक्षाओं की व्यवस्था,(५) पुस्तकालयों की सुन्दर व्यवस्था,(M) प्रयोगशालाओं एवं अनुसन्धानों का सुसंगठन, (vi) विचार गोष्ठियों को प्रोत्साहन देना, (i) जूनियर लेक्चररों को व्यावसायिक शिक्षा देना, तथा (ix) नवीन लेक्चरों के लिए निश्चित पाठ्यक्रमों का निर्माण।

(5) मार्गदर्शन एवं समुपदेशन की व्यवस्था (Provision of Guidance and Counselling) –

कालेजों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को आदि से अन्त तक सुप्रशिक्षित, योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों द्वारा मार्गदर्शन एवं परामर्श प्रदान करने की व्यवस्था होनी चाहिए।

(6) परीक्षा-प्रणाली में सुधार (Reform in Examination System) –

उच्च शिक्षा में प्रयुक्त परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव क्रियान्वित किये जाने चाहिएं-) परीक्षा में आधुनिक एवं वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग, (ii) छात्रों की प्रगति का परीक्षाओं द्वारा परीक्षण करना, (iii) बाह्य परीक्षाओं की समाप्ति, (iv) आन्तरिक निर्धारण या मूल्यांकन (Internal Assessment or Evaluation) प्रणाली का प्रारम्भ, तथा (v) शिक्षकों को मूल्यांकन की नवीन विधियों की जानकारी आदि।

(7) अपव्यय एवं अवरोधन को रोकना (Check to Wastage and Stagnation)-

उच्च-शिक्षा के क्षेत्र में पाये जाने वाले अपव्यय एवं अवरोधन को रोकने के लिए सबसे अधिक ध्यान इस बात का रखा जाए कि विद्यालयों में केवल योग्य एवं आकांक्षी छात्रों को ही प्रवेश दिया जाये।

(8) छात्र-समितियों का पंजीकरण (Registration of Student-Societies)-

इस सम्बन्ध में वी० के आर. वी. राव ने सिफारिश की है कि, “समस्त विश्वविद्यालयों में कालेज-समितियों के पंजीकरण हेतु एक कानून बना दिया जाये जिससे वे अपने सभासदों के निर्वाचन के समय कार्य नियमों का पालन करें और आय-व्यय कार्यों को लेखबद्ध करें।”

(9) अनुशासन की समस्या का उन्मूलन (Liquidation of the Problem of Indiscipline)-

कालेजों एवं विश्वविद्यालयों में छात्रों में पायी जाने वाली अनुशासनहीनता को समाप्त करने के लिए प्रो० एन० के सिद्धान्त (Prof. N. K. Siddhanta) ने निम्नलिखित सुझाव दिये हैं- (i) प्रत्येक उच्च शिक्षा केन्द्र में अनुशासनहीनता के प्रकार के आंकड़ों का रखना, (ii) अनुशासनहीन छात्रों के पारिवारिक, सामाजिक एवं उनके पूर्व विद्यालय जीवन का अध्ययन किया जाना, (iii) प्रत्येक अपराध के कारण का जानना, (iv) अनुशासनहीन या अपराधी बालक का शिक्षा-विशेषज्ञ द्वारा साक्षात्कार तथा मार्गदर्शन करना।

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Pankaja Singh

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