निजी वित्त से आशय | लोकवित्त तथा निजी वित्त में समानतायें | निजी वित्त तथा लोक वित्त में अन्तर
निजी वित्त से आशय (Meaning of Private Finance)
प्रत्येक व्यक्ति जिस प्रकार अपनी आय और व्यय का हिसाब रखती है। ठीक उसी प्रकार सरकार भी अपनी आय और व्यय का हिसाब रखती है। सरकार के आय और व्यय के अध्ययन को राजस्व तथा व्यक्तियों के आय और व्यय के अध्ययन को निजी वित्त कहते हैं।
लोकवित्त तथा निजी वित्त में समानतायें
(1) दोनों का उद्देश्य अपनी आय एवं व्यय से अधिकतम सन्तोष प्राप्त करना है।
(2) दोनों ही अपनी आय और व्यय के बीच सन्तुलन बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं।
(3) दोनों को ही आय-व्यय के साधन खोजने पड़ते हैं।
(4) दोनों की आय स्थिर नहीं होती है।
(5) आश्यकता पड़ने पर दोनों ही ऋण लेकर अपना कार्य चलाते हैं।
(6) दोनों ही उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम प्रयोग करना चाहते हैं।
(7) दोनों की प्रक्रियाओं में ही मानवीय मांगों को पूर्ण करने का प्रयास निहित रहता है।
निजी वित्त तथा लोक वित्त में अन्तर
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लक्ष्यों में अन्तर-
सार्वजनिक वित्त एवं निजी वित्त में लक्ष्यों की दृष्टि से मौलि अन्तर है, क्योंकि लोक वित्त का उद्देश्य जन-आकांक्षाओं की पूर्ति करके राष्ट्र हित सर्वोपरि होता है। जबकि निजी वित्त का उद्देश्य स्वहित की रक्षा एवं स्वार्थपरक दृष्टिकोण होता है। इसके अलावा सार्वजनिक वित्त जहाँ सामाजिक विकास एवं कल्याण से प्रेरित रहता है वहीं निजी वित्त केवल व्यक्तिगत प्रगति से प्रेरित होता है। इस प्रकार दोनों के लक्ष्यों में विशिष्ट अन्तर पाया जाता है।
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सार्वजनिक आय की प्रकृति में अन्तर-
सार्वजनिक आगम व निजी आय की प्रकृति में मौलिक अन्तर दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि लोक वित्त एवं निजी दोनों के मध्य आय प्राप्त करने के साधन ही अलग-अलग होते हैं। किसी भी देश की सरकार सार्वजनिक आगम के बगैर निर्बाध रूप में संचालित नहीं हो सकती है, फलतः सरकार आगम प्राप्त करने हेतु जनता को कर, दण्ड आदि के माध्यम से बाध्य कर सकती है जबकि निजी आय के परिप्रेक्ष्य में वह लोगों को बाध्य नहीं कर सकता है। इसके अलावा सार्वजनिक आगम के लिए सरकार ऋण व स्व उत्पादनों से आय प्राप्त करती है, निजी-आज में उक्त दोनों क्रियायें समान रूप से लागू होती हैं। ध्यान रहे, कुछ अर्थशास्त्री सार्वजनिक आगम व व्यक्तिगत आय के इस भेद से सहमत नहीं हैं, उनका मत है कि केन्द्र सरकार आगम प्राप्ति के लिए राज्य सरकारों को बाध्य नहीं कर सकती है। हाँ, सरकार केवल नागरिकों पर ही आगम भुगतान के लिए अंकुश लगा सकती है किन्तु नागरिकों को कर के बदले में सरकार को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में सेवाएं प्रदान करके संतुष्ट करने का प्रयत्न भी करना पड़ता है।
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सार्वजनिक आगम निजी आय की तुलना में अधिक-
लोक वित्त के अंतर्गत सार्वजनिक आगम जहाँ देशवासियों से प्राप्त होता है तो वह करोड़ों अरबों रुपये हो जाता है, जबकि निजी आय के स्रोत सीमित होते हैं, अतः दोनों के मध्य आय में अपेक्षाकृत भारी अन्तर पाया जाता है। इसीलिए सार्वजनिक आगम में अधिकता और तुलनात्मक रूप से निजी आय में सीमितता का प्रमुख अन्तर होता है। अर्थविदों का मत है कि सार्वजनिक आगम में लोच का गुण विद्यमान होता है क्योंकि सरकार आगम को आवश्यकतानुसार नवीन करों से बढ़ा सकती है जबकि व्यक्तिगत आय में सीमित आय के स्रोत एवं धनराशि की मात्रा सीमित रूप में ही रहती है।
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बजट-अवधि-
सार्वजनिक वित्त एवं निजी वित्त दोनों ही व्यवस्थाओं में बजट निर्माण होने की समानता पायी जाती है किन्तु दोनों में ‘बजट अवधि’ सम्बन्धी अन्तर विद्यमान होता है, क्योंकि सार्वजनिक बजट की अवधि 1 वर्ष निर्धारित है। फलतः परम्परागत ढंग से बजट की घोषणा प्रतिवर्ष होनी अनिवार्यता है जबकि व्यक्तिगत बजट की कोई अवधि नहीं होती है। कुछ लोग मासिक, त्रैमासिक, छ:मासिक बजट बनाते हैं, तो कुछ लोग बजट निर्माण ही नहीं करते हैं। ऐसे लोगों के वित्तीय कार्यों का संचालन पूर्णतया अनियमित होता है।
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अब सरकार के बजट स्वरूप पर ध्यान दें। केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार के ‘घाटे के बजट’ घोषित होते हैं। सामान्यतः सरकार घाटे के बजट को श्रेष्ठ मानती है क्योंकि इससे विकास प्रोत्साहित होता है। लेकिन व्यक्तिगत बजट में घाटे को अनुचित व प्रतिकूल समझा जाता है, फलतः लोकाधिक्य बजट के पक्षधर होते है।
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व्यक्तिगत वित्त में गोपनीयता-
लोक वित्त व निजी वित्त व्यवस्था में गोपनीयता का मूलभूत अन्तर विद्यमान होता है। प्रायः निजी वित्त में अत्यन्त गोपनीयता का भाव प्रारम्भ से अन्त तक निहित रहता है। फलतः व्यक्ति अथवा संस्था अपने बजट सम्बन्धी आय व व्यय को प्रकाशित नहीं करते हैं क्योंकि निजी वित्त व्यवस्था में खुली प्रतिस्पर्धा होती है लेकिन राजस्व अथवा सार्वजनिक वित्त के बजट सम्बन्धी प्रकरण सार्वजनिक रूप में प्रकाशित किये जाते हैं। हाँ, केन्द्रीय सरकार के बजट घोषित होने से पूर्व गोपनीय रखे जाते हैं। इस प्रकार निजी वित्त जहाँ गोपनीय होते हैं वहीं राजस्व बजट व्यवस्था को सार्वजनिक करना अनिर्वायता है।
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ऋण व्यवस्था में अन्तर-
सार्वजनिक ऋण व्यवस्था एवं निजी ऋण व्यवस्था में सैद्धान्तिक व व्यावहारिक अन्तर पाया जाता है, क्योंकि सरकार तो ऋणों को अनिवार्य रूप से प्राप्त कर सकती है जबकि निजी ऋण में अनिवार्यता का भाव नहीं होता है। प्रायः सरकार से ऋण वित्तीय संस्थाओं एवं विदेशों से प्राप्त होते हैं, जबकि निजी ऋण में इतनी व्यापकता नहीं होती है। इतनी ही नहीं, राज्य अपने ऋणों को वैज्ञानिक रूप में समाप्त कर सकता है किन्तु निजी ऋण के उत्तरदायित्व को समाप्त करना व्यक्ति के लिए असम्भव है।
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