तुलनात्मक लागत सिद्धान्त एवं विकासशील देश | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त विकासशील देशों में कहाँ तक लागू है?
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त एवं विकासशील देश
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त विकासशील देशों के विदेशी व्यापार की परिस्थितियों से संगति नहीं रखता है। कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार विकासशील देशों के व्यापारिक ढाँचे को प्रतिकूल बनाने के लिए यह सिद्धान्त ही उत्तरदायी है। फलस्वरूप, ये देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े रह गये हैं। इस मत के समर्थक हैं- प्रो. लुइस, प्रो. मेसन, प्रो. मिण्ट, प्रो. मिर्डल, जॉन रोबिन्सन, प्रो. सिंगर, प्रो. वाइनर, प्रो. विलियम्स, प्रो. प्रेबिश आदि।
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के विकासशील देशों में लागू न होने के निम्नलिखित कारण है–
(1) स्वतन्त्र व्यापार-
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के अनुसार दोनों देशों को स्वतन्त्र व्यापार की नीति का पालन करना आवश्यक है, जबकि विकासशील देशों में स्वतन्त्र व्यापार की नीति सर्वथा अनुपयुक्त है क्योंकि विकसित एवं विकासशील देश के मध्य स्वतन्त्र व्यापार होने पर,
विकासशील देश कच्चे माल का निर्यात और निर्मित माल का आयात करेंगे जिससे व्यापार शर्ते विकासशील देशों के प्रतिकूल हो जायेंगी।
(2) दीर्घकालीन उत्पादन लागतों पर विचार-
यह सिद्धान्त एक देश में किसी वस्तु का उत्पादन निर्धारण करने के लिए केवल वर्तमान लागतों को ही आधार मानता है और दीर्घकालीन लागतों की उपेक्षा करता है। यह सम्भव है कि एक विकसित देश की तुलना में एक अल्प-विकसित देश में कुछ औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन करने की लागत प्रारम्भ में अधिक हो किन्तु संरक्षण देने पर बाद में कम हो जाए।
(3) सामाजिक लागतों की अवहेलना-
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त निजी सीमान्त उत्पादन निजी लागतों पर विचार करता है तथा सामाजिक लागतों पर विचार नहीं करता। यह सिद्धान्त सामाजिक सीमान्त उत्पादन को निजी सीमान्त उत्पादन के बराबर मान लेता है एवं सामाजिक लागतों की उपेक्षा करता है।
(4) स्थैतिक अर्थव्यवस्था-
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त ‘स्थैतिक अर्थव्यवस्था’ की मान्यता पर आधारित है, जिसमें साधनों की पूर्ति स्थिर रहती है किन्तु विकासशील देशों में निर्यात संवर्द्धन व उत्पादकता वृद्धि की व्याख्या इस मान्यता के अन्तर्गत नहीं की जा सकती।
प्रो. मायर व वाल्डविन ने लिखा है- “प्रतिष्ठित व्यापार का सिद्धान्त रुचियों, साधनों और तकनीकी ज्ञान को स्थिर मान लेता है और इनके आधार पर साधनों का सर्वोत्तम वितरण लागू करने का प्रयत्न करना है। ये मान्यताएँ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के दीर्घकालीन प्रावैगिक विकास के विश्लेषण में बाधा उपस्थित करती है और विकास के सार को भुला देती हैं।”
(5) अन्तर्राष्ट्रीय आय के वितरण की उपेक्षा-
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केवल उत्पादन सम्बन्धी पहलू का ही अध्ययन करता है। यह बताता है कि तुलनात्मक लाभ के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय विशिष्टीकरण के द्वारा संसार का कुल उत्पादन कैसे अधिकतम किया जा सकता है, किन्तु यह अन्तर्राष्ट्रीय विशिष्टीकरण से प्राप्त होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय कल्याण के वितरण सम्बन्धी पहलू पर प्रकाश नहीं डालता। स्वतन्त्र व्यापार से विश्व में आय का वितरण विकसित देशों के पक्ष में हो जाता है और विकासशील देशों को हानि उठानी पड़ती हैं।
(6) पूर्ण प्रतियोगिता-
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। एक विकासशील एवं नियोजित अर्थव्यवस्था में मूल्य-यन्त्र (Price- mechanism) स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता।
(7) पूर्ण रोजगार व पूर्ण गतिशीलता की अवास्तविक मान्यताएं-
यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार व साधनों की पूर्ण गतिशीलता की मान्यताओं पर आधारित है, जबकि विकासशील देशों में दीर्घ स्थायी बेरोजगारी की स्थिति पायी जाती है। इसके अतिरिक्त उत्पत्ति के साधन भी अगतिशील होते हैं।
(8) विदेशी विनिमय संकट व प्रतिकूल भुगतान संतुलन की दशाएँ-
अधिकांश विकासशील देशे में विदेशी विनिमय तथा प्रतिकूल भुगतान संतुलन की समस्या विद्यमान रहती है। अत: आयातों पर नियन्त्रण लगाना तथा निर्यात संवर्द्धन की नीति अपनाना इन देशों के हित में रहता है।
(9) प्रतियोगितात्मक शक्ति का ह्रास-
विकासशील देश प्राय: कृषि प्रधान देश होते हैं जिनमें ‘उत्पत्ति ह्रास नियम’ (उत्पादन व्यय वृद्धि नियम) शीघ्रता से लागू हो जाता है। अतः इन देशों को यदि कृषि विशिष्टीकरण प्राप्त है तो कृषि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन लागत बढ़ती जायेगी और उद्योग में (जहाँ उत्पत्ति वृद्धि नियम अथवा लागत व्यय ह्रास नियम लागू होता है) तुलनात्मक हानि होने पर उत्पादन कम कर दिया जायेगा, जिससे उत्पादन लागत बढ़ जायेगी फलस्वरूप इनकी प्रतियोगितात्मक शक्ति बिगड़ जायेगी।
(10) अल्प-विकसित देशों का असन्तुलित विकास-
तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार करने पर ऐसे देशों में देहरी अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण हो जाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तुलनात्मक लागत सिद्धान्त अल्प-विकसित देशों में लागू नहीं होता। मायर एवं बाल्डविन ने स्पष्ट कहा है-“यह निश्चित ही सत्य है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के व्यापार के सिद्धान्त पर विकास समस्याओं एवं पिछड़े देशों के विशिष्ट लक्षणों के सन्दर्भ में विचार किया जाना चाहिए। अभी तक इस पर पर्याप्त विचार नहीं किया गया है।”
विकासशील देशों में तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की अपेक्षा ‘अतिरेक विकास का सिद्धान्त’ अधिक उपयुक्त है। सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि देश में पहले से ही अतिरिक्त उत्पादन क्षमता है क्योंकि साधन अशोषित अथवा अल्प-शोषित है। देश उपभोग में कमी किये बिना ही निर्यात उद्योगों में उत्पादन बढ़ाने में असमर्थ होगा।
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