अर्थशास्त्र

पूँजी-प्रधान तकनीक का अर्थ | पूँजी-प्रधान तकनीक के पक्ष में तर्क | पूँजी-प्रधान तकनीक के दोष (सीमायें) | अल्पविकसित देशों के लिये मध्यवर्ती तकनीक की उपयुक्तता

पूँजी-प्रधान तकनीक का अर्थ | पूँजी-प्रधान तकनीक के पक्ष में तर्क | पूँजी-प्रधान तकनीक के दोष (सीमायें) | अल्पविकसित देशों के लिये मध्यवर्ती तकनीक की उपयुक्तता | Meaning of capital-intensive technology in Hindi | Arguments in favor of capital-intensive technology in Hindi | Demerits (limitations) of capital-intensive technology in Hindi | Suitability of intermediate technology for underdeveloped countries in Hindi

पूँजी-प्रधान तकनीक का अर्थ

(Meaning of Capital-Intensive Technique)

पूँजी-प्रधान तकनीक का अभिप्राय उत्पादन में एक ऐसी तकनीक से होता है, जिसमें पूँजी की अधिक मात्रा को श्रम की कम मात्रा के साथ मिलाया जाता है अर्थात् श्रम की तुलना में पूँजी का अधिक प्रयोग किया जाता है। चूँकि विकासशील देश विकसित देशों के तकनीक विकास मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते इसलिये उन्हें विकसित देशों की तकनीक (पूँजी-प्रधान तकनीक) अपनाने के लिये प्रेरित किया जाता है। पूँजी की अधिक तथा श्रम की कम मात्रा के प्रयोग के कारण ही यह तकनीक ‘पूँजी प्रधान तकनीक’ अथवा ‘श्रम बचाव उपाय’ कहलाती है।

प्रो. मिन्ट के अनुसार, “उत्पादन की दृष्टि से पूँजी प्रधान तरीके उपभोगीय वस्तुओं को पैदा करने के आधुनिक फैक्ट्री के तरीकों व आर्थिक संरचना के निर्माण के यान्त्रिक तरीकों को बतलाते हैं। इन तरीकों में श्रम की कम लागत किन्तु अधिक उत्पादकता के कारण पूँजी की प्रति इकाई के पीछे उपज सापेक्षिक रूप से अधिक हुआ करती है।”

पूँजी प्रधान तकनीक के सामर्थक इस तकनीक के प्रमुख समर्थक हार्वे लीबिन्स्टीन, पॉल बरान, मॉरिस डॉब, हर्षमैन एवं गैलेन्सन इत्यादि हैं।

प्रो. गैलेन्सन व लीबिन्स्टीन के शब्दों में, “सफल आर्थिक विकास, विशेष रूप से सफल पिछड़ेपन के परिवेश में, अधिकांश रूप से आधुनिक को बड़े पैमाने पर अपनाये जाने पर निर्भर करता है।” पाल बरान के शब्दों में, “अर्थशास्त्रियों द्वारा आर्थिक विकास के कार्यक्रम में श्रम प्रधान तरीको को प्राथमिकता देने की बात करना एक निर्दोष सैद्धान्तिक गलती नहीं है बल्कि यह वैज्ञानिक दृष्टि से यह प्रमाणित करने के प्रचलित अभियान का एक महत्वपूर्ण भाग है कि पिछड़े हुये देशों को आर्थिक एवं औद्योगिक विकास की दिशा में धीरे-धीरे चलना चाहिये (या और भीक्षअच्छा हो यदि वे बिल्कुल भी न चलें)।” प्रो० मॉरिस डॉब के शब्दों में, “वे सभी आधार जो विनियोग की ऊँची दर को उचित ठहराते हैं, विनियोग के स्वरूप के चुनाव के सम्बन्ध में अधिक मात्रा में पूंजी की गहनता को भी स्वीकार करते हैं।”

जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि पूँजी-गहन तकनीक वह कहलाती है, जिसमें श्रम की अपेक्षा पूँजी की अधिक मात्रा प्रयुक्त की जाती है अर्थात् इसमें प्रति इकाई उत्पादन के पीछे पहले से अधिक मात्रा में पूँजी का प्रयोग किया जाता है। उत्पादन पर इसी तकनीक के प्रभाव को चित्र की सहायता से व्यक्त किया गया है-

इस चित्र में Q1 सम-उत्पाद रेखा उपज के प्रारम्भिक स्तर को बताती है, जिसे श्रम की OK मात्रा के द्वारा प्राप्त किया गया है। Q2 सम-उत्पाद वक्र उत्पादन के उच्च स्तर को व्यक्त करता है, जिसे श्रम की पहले जैसी मात्रा अर्थात् OL तथा पूँजी की पहले से अधिक मात्रा अर्थात् OK1 द्वारा प्राप्त किया गया है। यह तकनीक पूँजी-गहन तकनीक है, जिसे उन्नत देशों द्वारा अपनाया जा रहा है। इस तकनीक के प्रमुख समर्थक प्रोफेसर गैलेन्सन, लीबिन्सटीन, हर्षमैन, मॉरिस डॉब आदि हैं।

प्रोफेसर कुजनेट्स ने भी विकसित राष्ट्रों को पूँजी-गहन तकनीक अपनाने की सलाह दी क्योंकि इन देशों में पूँजी वृद्धि दर अल्पविकसित देशों की तुलना में ऊँची होती है। विकसित राष्ट्रों के पास इस प्रकार की तकनीक अपनाने के लिये समुचित विशेषज्ञ होते हैं।

पूँजी-प्रधान तकनीक के पक्ष में तर्क

(Arguments in favour of Capital-Intensive Technique)

अल्पविकसित देशों के सन्दर्भ में पूँजी-गहन तकनीक का समर्थन निम्न तर्कों के आधार पर किया जाता है.

(1) द्रुत आर्थिक विकास- पूँजी-गहन तकनीक द्वारा पुनर्निवेश योग्य अतिरेक उपलब्ध होने से द्रुत आर्थिक विकास सम्भव होता है। विकास में निश्चितता भी बनी रहती है।

(2) रहन-सहन का उन्नत स्तर- पूँजी-गहन तकनीक द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन होने से प्रति इकाई लागत कम आती है। फलतः कीमतें घटती हैं तथा रहन-सहन का स्तर ऊंचा हो जाता है।

(3) श्रम-उत्पादकता में वृद्धि – पूँजी-गहन तकनीक के अन्तर्गत पूँजी के साथ श्रम की संगत मात्रा मिलाई जाती है। फलतः श्रम की उत्पादकता तेजी से बढ़ती है।

(4) रोजगार में दीर्घकालीन वृद्धि- अल्पकाल में पूँजी-गहन तकनीक रोजगार वृद्धि में सहायक नहीं होती। परन्तु इस तकनीक द्वारा विकास की दर तेजी से बढ़ने के कारण दीर्घकाल में श्रम-शक्ति को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं।

(5) मितव्ययता- पूँजी-गहन तकनीक अधिक लाभप्रद समझी जाती है, क्योंकि इसके अन्तर्गत बड़े पैमाने के उत्पादन की भीतरी और बाहरी बचतें मिलती हैं।

(6) समन्वित विकास- हर्षमैन (Hirshman) के अनुसार, विकास प्रक्रिया पर पूँजी- गहन तकनीक का दूरगामी प्रभाव पड़ता है। यह तकनीक ‘ऊँची कार्यक्षमता’ तथा ‘समन्वित विकास’ के लक्षणों पर आधारित होती है।

(7) सामाजिक-आर्थिक ऊर्ध्वस्थों की व्याख्या- रेल, सड़क, बाँध, विद्युत-गृह, नहरें, स्कूल, अस्पताल आदि सामाजिक-आर्थिक ऊर्ध्वस्थ प्रत्यक्ष उत्पादन क्रियाओं (कृषि एवं उद्योग) के लिये आधार-स्वरूप होते हैं। इनके निर्माण हेतु बड़ी मात्रा में पूँजी-निवेश की आवश्यकता होती है।

पूँजी-प्रधान तकनीक के दोष (सीमायें)

(Demerits of Capital-Intensive Technique)

अल्पविकसित देशों के सन्दर्भ में पूँजी-गहन तकनीक की प्रमुख सीमायें निम्नलिखित हैं-

(1) बेरोजगारी में वृद्धि- श्रम बाहुल्य और पूँजी-स्वल्प देशों में श्रम वचत तकनीक अपनाने का अर्थ बेकारी को बढ़ावा देना होता है।

(2) पूँजीगत साज-सामान के रख-रखाव और मरम्मत की कठिनाइयाँ- अल्पविकसित देशों के लिये पूँजीगत साज-सामान का आयात महँगा सिद्ध होता है। उसकी मरम्मत, रख-रखाव तथा अतिरिक्त हिस्से-पुर्जे प्राप्त करने के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं।

(3) भुगतान-सन्तुलन की कठिनाइयाँ- बड़ी मात्रा में पूँजीगत साज-सामान का आयात अल्पविकसित देशों के सामने भुगतान-सन्तुलन की कठिनाइयाँ उत्पन्न कर देता है।

(4) साधनों का अपव्यय- बौर (Bauer) और यामी (Yamey) के अनुसार, अल्प-विकसित देशों में पूंजी-गहन तकनीक की सिफारिश करने का अर्थ साधनों के अपव्यय को जन्म देना है। इन देशों में मण्डी का लघु आकार छोटे उपक्रमों की आवश्यकता व्यक्त करता है, जबकि पूँजी-गहन तकनीक अपनाने का अर्थ बड़े पैमाने के उपक्रमों की स्थापना होता है।

(5) अनुपयुक्त वातावरण- पूंजी-गहन तकनीक केवल विकसित देशों की परिस्थितियों के लिये अनुकूल है। अल्पविकसित देशों का वातावरण इस तकनीक को अपनाने के लिये उपयुक्त नहीं है।

अल्पविकसित देशों के लिये मध्यवर्ती तकनीक की उपयुक्तता

अल्पविकसित देशों को अपने सीमित पूँजीगत साज-सामान तथा तकनीकी कौशल के अनुसार ऐसी सीधी-सादी तकनीक का चयन करना चाहिये, जो उत्पादन के प्रचुर मानवीय एवं भौतिक साधतों का सर्वोत्तम प्रयोग सम्भव बना सके। ऐसी तकनीक को शुम्पीटर (Schumpeter) ने ‘मध्यवर्ती तकनीक’ (Intermediate Technology) की संज्ञा दी है। ‘कौशल-निर्माण’ तथा ‘पूँजी- निर्माण’ के दोहरे उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अल्पविकसित देशों द्वारा कम लागत एवं ऊँची उत्पादकता वाली कुछ साज-सज्जा एवं मशीनों का विदेशों से आयात किया जा सकता है। तदुपरान्त स्थानीय निणुता एवं कच्चे माल की सहायता से मिलती-जुलती मशीनों का स्थानीय उत्पादन किया जा सकता है। शक्ति-चालित पम्पों, चावल की जापानी खी, गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्मों तथा उन्नत उर्वरकों के प्रयोग से कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ायी जा सकती है। संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर जापान तक सभी विकसित देशों की लघु औद्योगिक इकाइयों तथा कृषि क्षेत्रों में प्रयुक्त तकनीक एवं साज-सज्जा कम पूँजी-गहनता वाली है। जिन देशों ने आर्थिक विकास के पथ पर अभी-अभी चलना आरम्भ किया है, उनके द्वारा श्रम-प्रधान एवं उत्पादकता बढ़ाने वाली तकनीक (जो विकसित देशों में जन्मी तथा अच्छी तरह से आजमाई हुई हो) अपनायी जानी ही उपयुक्त है। भारी और आधारभूत उद्योगों की स्थापना हेतु पूँजी-प्रधान तकनीक का प्रयोग अनिवार्य होता है। परन्तु कृषि एवं उपभोक्ता- वस्तु उद्योगों के विकास हेतु श्रम-प्रधान तकनीक का प्रयोग ही किया जाना चाहिये।

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Pankaja Singh

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