अर्थशास्त्र

मिश्रित अर्थव्यवस्था के विकास में नियोजन की भूमिका | साधनों के आबंटन की आवश्यकता एवं महत्त्व | स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में साधनों का आबंटन

मिश्रित अर्थव्यवस्था के विकास में नियोजन की भूमिका | साधनों के आबंटन की आवश्यकता एवं महत्त्व | स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में साधनों का आबंटन | Role of planning in the development of mixed economy in Hindi | The need and importance of resource allocation in Hindi | Resource allocation in a free economy in Hindi

मिश्रित अर्थव्यवस्था के विकास में नियोजन की भूमिका

प्रो० एस० ई. हैरिस के अनुसार, “नियोजन से अभिप्राय आय तथा मूल्य के सन्दर्भ में नियोजन अधिकारी द्वारा निश्चित किये गये उद्देश्यों तथा लक्ष्यों के लिए साधनों का आबण्टन है।”

इस परिभाषा के अनुसार नियोजन अधिकारी द्वारा निश्चित किये गये लक्ष्यों के आधार पर साधनों के वितरण को आर्थिक नियोजन कहते हैं। परिभाषा के प्रमुख तत्त्व निम्न प्रकार हैं-

(अ) नियोजन सम्बन्धी लक्ष्य पूर्व निर्धारित हों। (ब) नियोजन सम्बन्धी संगठन व प्रशासन कार्य-कुशल हों तथा उसे जनता का सहयोग प्राप्त हो। (स) साधनों के वितरण के सम्बन्ध में नियोजन अधिकारी में निम्नलिखित गुण होने चाहिये-(i) उसे राष्ट्रीय स्त्रोतों की उपलब्ध तथा सम्भावी मात्रा का पूर्ण ज्ञान हो, (ii) उसे राष्ट्रीय स्त्रोतों के उपयोग का पूर्ण अधिकार हो, (iii) उसमें जनता की इच्छा जानने तथा उसके अनुरूप प्राथमिकताओं का निर्धारण करने की पूर्ण क्षमता हो, (iv) वह साधनों का मितव्ययिता के साथ उपयोग कर सके, (v) उसमें उपलब्ध साधनों का समन्वित ढंग से समायोजन करने की क्षमता हो।

साधनों के आबंटन की आवश्यकता एवं महत्त्व

एक नियोजित एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था में साधनों के आवंटन की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. सन्तुलित विकास- सन्तुलित विकास के आधार पर देश का समुचित आर्थिक विकास तथा विभिन्न अनुपयोगी साधनों का प्रयोग किया जा सकता है।
  2. सार्वजनिक हित व कल्याण- नियोजित अर्थव्यवस्था का उद्देश्य सार्वजनिक हित व आर्थिक कल्याण में वृद्धि करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधनों का विवेकपूर्ण आवंटन बहुत जरूरी है। आर्थिक विकास का लाभ तब तक प्राप्त नहीं हो सकता है जब तक कि साधनों का विवेकपूर्ण आबंटन नहीं किया जाये।
  3. भावी पीढ़ी के हितों की सुरक्षा- साधनों के आबंटन का महत्त्व न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए होता है वरन् भावी पीढ़ी के लिए भी होता है। अगर साधन का आबंटन करते समय वर्तमान पीढ़ी को ही ध्यान में रखा गया तो यह भावी पीढ़ी के साथ अन्याय होगा।
  4. वैकल्पिक प्रयोग- आर्थिक साधनों के वैकल्पिक प्रयोग होते हैं, अतः इसमें चुनाव की समस्या होती है। उपयुक्त ढंग से साधनों का चुनाव करके ही साधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है।
  5. बहुमुखी विकास- देश का तीव्र तथा बहुमुखी आर्थिक विकास तभी सम्भव है जबकि देश में उपलब्ध साधनों का आबंटन उचित ढंग से किया जाये।
  6. सभी क्षेत्रों की परस्पर निर्भरता- आबंटन के अभाव में हर क्षेत्र का चुनाव उसके महत्त्व के अनुसार नहीं हो पाता। सभी क्षेत्रों को परस्पर निर्भर बनाने तथा देश के आर्थिक विकास के लिए साधनों का उचित आबंटन होना जरूरी है।
  7. प्राथमिकता का निर्धारण- अविकसित राष्ट्रों के उद्देश्य अनेक होते हैं तथा साधन सीमित। अतः इन उद्देश्यों को प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाता है। इस प्रकार के प्राथमिकता के निर्धारण के लिए यह जरूरी है कि साधनों का आबंटन किया जाये।

स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में साधनों का आबंटन

सैद्धान्तिक रूप से स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था, उत्पादन के साधनों तथा विनियोगों के तर्कपूर्ण आवंटन की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण व आदर्श अर्थव्यवस्था समझी जाती है। इस अर्थव्यवस्था में ब्याज व मजदूरी की दरें माँग व पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होती हैं और प्रत्येक साधन का उपयोग सीमान्त उत्पादकता नियम के अनुसार उस विन्दु तक किया जाता है, जिस पर इसकी सीमान्त उत्पत्ति व उसके लिए दिया गया मूल्य बराबर हो जाता है।

साधनों के आबंटन के विभिन्न मानदण्ड

  1. सामाजिक सीमान्त उत्पादकता मानदण्ड- साधनों के आवंटन के इस मानदण्ड को काहन एवं चेनरी ने प्रतिपादित किया है। यह साधनों के आबंटन का प्रमुख मानदण्ड है। इसका सहयोग सामाजिक कल्याण में वृद्धि करने के लिए किया जाता है। इसके अनुसार साधनों का आबंटन उस समय अधिक होगा, जबकि प्रत्येक साधन की प्रत्येक उपयोग में सामाजिक सीमान्त उत्पादकता समान हो। सीमान्त इकाइयों का एक उपयोग से दूसरे उपयोग में हस्तान्तरण उत्पादन को नहीं बढ़ाता, लेकिन समस्त साधनों के हस्तान्तरण पर कुल उत्पादन को बढ़ाया जाता है।

कठिनाइयाँ :

(1) इस मानदण्ड में उत्पादन के वर्तमान मूल्य पर ध्यान नहीं दिया गया है,

(2) यह मानदण्ड अस्पष्ट है, तथा

(3) इसका लागत मूल्यांकन दोषपूर्ण है।

आलोचनाएँ:

(1) इस मानदण्ड में आय के वितरण को त्याग दिया गया है।

(2) आलोचकों का कहना है कि इसमें भावी उपयोग प्रवृत्ति पर ध्यान नहीं दिया गया है तथा उत्पादन स्थिति को स्थिर मान लिया गया है। यह मानना त्रुटिपूर्ण है।

(3) जनसंख्या वृद्धि के प्रभावों को ध्यान में रखा गया है तथा साहसी विस्तार पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

(4) इस मानदण्ड में यह कल्पना की गयी है कि उत्पादन उत्पत्ति ह्रास नियम के आधार पर किया जाता है, जबकि वास्तव में उत्पादन उत्पत्ति वृद्धि नियम के आधार पर भी किया जा सकता है।

(5) जब विनियोग किसी क्षेत्र विशेष में परिलक्षित होते हैं तो अन्य क्षेत्रों में आर्थिक परिस्थितियाँ पूर्ववत् रहती हैं। यह बात छोटे पैमाने के परिवर्तन पर तो सत्य प्रतीत होती है, परन्तु बड़े पैमाने पर परिवर्तन होने पर यह बात असत्य सिद्ध हो जाती है।

  1. रोजगार वृद्धि का मानदण्ड- इस मानदण्ड के प्रतिपादक प्रो. नर्कसे हैं। इस मानदण्ड के अनुसार अर्द्धविकसित देशों में पूँजी की न्यूनता तथा मानव शक्ति की अधिकता पायी जाती है, जिससे इन देशों में बेरोजगारी तथा अर्द्ध-बेरोजगारी व्याप्त रहती है। बेरोजगार होव्यक्तियों को रोजगार के अवसर प्रदान करके उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। अतः देश में साधनों के आवंटन में बेरोजगारी का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए।

आलोचनाएँ : (1) उत्पादन की कमी- इस मानदण्ड के आधार पर उत्पादन को अधिकतम नहीं किया जा सकता।

(2) कम श्रम उत्पादकता- पूँजी बचत तथा श्रम प्रधान विनियोग के प्रयोग से श्रम उत्पादकता में कमी हो जाती है। इस प्रकार श्रम प्रधान विधि का प्रयोग केवल उसी समय करना चाहिए जबकि उसी मात्रा की पूंजी के विनियोग से उत्पादन की मात्रा में वृद्धि सम्भव हो सके, परन्तु इस मानदण्ड में विशेष व्यवस्था रखी गयी है।

(3) रोजगार का अभाव- विनियोग दर को अधिकतम करने पर भी यह सम्भव नहीं हैं कि निकट भविष्य में रोजगार की मात्रा में वृद्धि सम्भव हो सकेगी।

(4) उद्देश्य में अन्तर यह विधि उस समय अधिक उपयुक्त मानी जाती है जबकि प्रधान उद्देश्य उत्पादन में वृद्धि न होकर रोजगार में वृद्धि करना हो।

  1. प्रमुख क्षेत्र मानदण्ड- इसका प्रतिपादन प्रो. रोस्टोव ने किया है। उनके अनुसार अर्थव्यवस्था को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –(1) प्राथमिक विकास क्षेत्र, (2) पूरक विकास क्षेत्र, (3) इच्छित विकास क्षेत्र। रोस्टोव के अनुसार, “प्राथमिक क्षेत्रों में अनुपयोगी साधनों का उच्च विकास दर के लाभ पर शोषण किया जाता है तथा विस्तारक शक्तियों का उपयोग किया जाता है। पूरक क्षेत्र का विकास प्राथमिक क्षेत्रों के विकास के परिणामस्वरूप प्रत्यक्ष रूप से हो जाता है तथा इच्छित क्षेत्र का विकास कुल आय, जनसंख्या, औद्योगिक उत्पादन आदि के विकास के परिणामस्वरूप हो जाता है।
  2. पुनर्विनियोग उपलब्धि मानदण्ड- इसका प्रतिपादन मेलनसन एवं एच. लीवेंस्टीन ने किया है। इनके अनुसार, साधनों के विकास का प्रमुख उद्देश्य वर्तमान हित न होकर भावी हित होना चाहिए, जिससे भविष्य में प्रति व्यक्ति उत्पादन अधिकतम किया जा सके। इस मानदण्ड के अनुसार, साधनों का आवंटन उस समय अधिकतम व आदर्श होगा जबकि पूँजी की सीमान्त प्रति व्यक्ति पुनर्विनियोग उपलब्धि उसके विभिन्न उपयोगों के समान हो। पुनर्विनियोग की दर को निम्नलिखित सूत्र के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है.

सूत्र- r =P – eW/C

यहाँ r = पुनर्विनियोग दर, P= प्रति मशीन शुद्ध उत्पादन, e= प्रति मशीन श्रमिक, W = वास्तविक मजदूरी दर, C = मशीन लागत।

  1. बूचानन व पोलक का मानदण्ड- देश की विकास प्रक्रिया में प्रारम्भिक वर्षों में उत्पादन सन्तुलन के प्रतिकूल प्रवृत्ति तथा आन्तरिक बाजार में मूल्य वृद्धि की समस्या उत्पन्न हो सकती है। अतः देश में उपलब्ध साधनों का आबंटन इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि समस्त समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सके। उपभोक्ता उद्योगों को प्राथमिकता के आधार पर उचित स्थान दिया जाना चाहिए तथा ऐसे विनियोगों को प्रोत्साहन देना चाहिए जिससे कि उत्पादन में वृद्धि हो तथा प्रति इकाई लागत कम हो।
  2. विनियोग मानदण्ड- वास्तव में विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में नियोजन संस्थाएँ विनियोग मानदण्ड पर न्यूनतम तथा साधनों के आबंटन के लिए सामान्य ज्ञान एवं राजनीतिक प्रतिफलों का अधिक उपयोग करती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि विभिन्न विद्वानों द्वारा बनाये गये मानदण्डों को समझने व पढ़ने का समय नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त कुछ मानदण्ड इतने अधिक गणितीय व जटिल हो गये हैं कि उनको समझना आसान नहीं है। अर्द्धविकसित एवं अविकसित राष्ट्रों में समकों को प्राप्त करने की समस्या जटिल है। अतः इन देशों में साधनों का आबंटन विनियोग मानदण्ड के आधार पर नहीं किया जा सकता है।
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Pankaja Singh

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