अर्थशास्त्र

पारस्परिक माँग का सिद्धान्त | पारस्परिक माँग का सिद्धान्त की मान्यतायें | मार्शल का प्रस्ताव वक्र | मिल के पारस्परिक माँग सिद्धान्त का महत्व | मिल के सिद्धान्त की आलोचनायें

पारस्परिक माँग का सिद्धान्त | पारस्परिक माँग का सिद्धान्त की मान्यतायें | मार्शल का प्रस्ताव वक्र | मिल के पारस्परिक माँग सिद्धान्त का महत्व | मिल के सिद्धान्त की आलोचनायें

 पारस्परिक माँग का सिद्धान्त-

पारस्परिक माँग के सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो. जे. एस. मिल. ने किया। रिकार्डो का तुलनात्मक लागत सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केवल पूर्ति पक्ष को सम्मिलित करता है तथा माँग की उपेक्षा करता है। यह सिद्धान्त उस विनिमय दर पर कोई प्रकाश नहीं डालता जिस पर दो देश आपस में व्यापार करके लाभ प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार रिकार्ड ने व्यापार के गुणात्मक पक्ष को तो प्रकट किया परन्तु वे इसके परिणामस्वरूप पक्ष को स्पष्ट नहीं कर सके। इस कमी को दूर करते हुए जे. एस. मिल ने स्पष्ट किया कि दो देशों के बीच वस्तु विनिमय की व्यापार शर्तों का निर्धारण अन्तर्राष्ट्रीय माँग के समीकरण द्वारा होता है जिसे पारस्परिक या प्रतिपूरक माँग (Reciprocal Demand) का सिद्धान्त भी कहा जाता है।

मिल के अनुसार दो देशों के बीच व्यापार की विनिमय दर केवल लागत अथवा पूर्ति की दशाओं पर ही निर्भर नहीं करती बल्कि माँग की दशाओं का भी इस पर प्रभाव पड़ता है।

मिल के अनुसार प्रतिपूरक मांग किसी देश के उत्पादन की वह मांग है जो किसी दूसरे देश के उपभोक्ताओं द्वारा की जाती है।

मिल के अनुसार वस्तुओं के बीच व्यापार होने का वास्तविक विनिमय अनुपात एक देश में दूसरे देश की वस्तु की माँग की लोच (प्रतिपूरक माँग) पर निर्भर करता है।

मिल के अनुसार, सन्तुलित एवं स्थिर विनिमय दर उस अवस्था में प्राप्त होगी जबकि एक देश का निर्यात उसके आयात के भुगतान के बराबर हो।

बेलोचदार प्रतिपूरक माँग वाले देश के लिए विनिमय दर प्रतिकूल होगी जबकि लोचदार प्रतिपूरक माँग वाले देश के लिए विनिमय दर अनुकूल होगी। एक देश में प्रतिपूरक माँग की लोच जितनी अधिक होगी, वह देश व्यापार के लाभ का उतना ही अधिक भाग प्राप्त करने में सफल होगा।

प्रो. मिल के अनुसार विशिष्टीकरण के बाद दो देशों के विनिमय अनुपात की सम्भावित सीमाओं का निर्धारण श्रम की कुशलता द्वारा स्थापित घरेलू विनिमय अनुपात के आधार पर होगा।

सिद्धान्त की मान्यतायें (Assumptions):

मिल का पारस्परिक माँग का सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:

(1) दो देश है, मान लीजिए पुर्तगाल और इंग्लैण्ड

(2) दो वस्तुयें हैं, मान लीजिए शराब और कपड़ा।

(3) दोनों ही वस्तुओं का उत्पादन स्थिर प्रतिफलों के नियम के अन्तर्गत होता है।

(4) परिवहन लागत बिल्कुल भी नहीं है।

(5) दोनों देशों की जरूरतें एक जैसी हैं।

(6) पूर्ण प्रतियोगिता है।

(7) पूर्ण रोजगार है।

(8) दोनों देशों के बीच स्वतन्त्र व्यापार है।

(9) दोनों देशों के बीच व्यापार सम्बन्धों में तुलनात्मक लागतों का नियम लागू होता है।

गणितीय रूप में “पारस्परिक माँग की लोच आयातों की कीमतों के सापेक्ष में निर्यात की कीमतों के आनुपातिक परिवर्तन के प्रति उत्तर में आयातों की माँगी गयी मात्रा के आनुपातिक परिवर्तन के प्रति उत्तर में आयातों की माँगी गयी मात्रा के आनुपातिक मात्रा, M= आयातों की मात्रा Px= निर्यातों की कीमत, Pm= आयातों की कीमत तथा n= पारस्परिक माँग की लोच है, तो

X= %∆M / (%∆Px/%∆Pm)

या ∆M/M × Px/∆Px ×∆Pm/Pm

अत:   n=∆M/M ×Pm/∆Px ×∆Px/Pm

संतुलन की स्थिति में जबकि कुल आयातों का मूल्य कुल निर्यातों का मूल्य

Pm x M= Px x x

चूंकि Px/Pm = M/x

मूल्यों को उपर्युक्त सूत्र में प्रतिस्थापित करने पर

n= ΔΜ/M × ∆x/∆M ×M/x

इस प्रकार यदि n=1 तो विनिमय अनुपात साम्य की स्थिति में होगा, व्यापार के लाभ बराबर बैठ जायेंगे।

यदि n>1 तो विनिमय अनुपात सम्बन्धी देश के पक्ष में होगा और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभ में सम्बन्धित देश का हिस्सा अधिक होगा। यदि n>1 से विदेशी विनिमय अनुपात या व्यापार की शर्ते सम्बन्धित देश के प्रतिकूल होंगी तथा विदेशी व्यापार से प्राप्त लाभ में देश का हिस्सा सापेक्षिक रूप से कम होगा। अत: प्रो. मिल के “पारस्परिक माँग सिद्धान्त” की तीन मुख्य विशेषतायें होती हैं-

(1) दो देशों के मध्य व्यापार की शर्ते उन दो सीमाओं के अन्तर्गत निर्धारित होती है जो कि एक देश के तुलनात्मक लागत अनुपात द्वारा निश्चित होती है।

(2) उन सीमाओं के अन्दर का वास्तविक विनिमय अनुपात दूसरे देश की माँग की तीव्रता पर आधारित होता है।

(3) व्यापार शर्तो में सन्तुलन स्थापित करने के लिए दोनों देशों द्वारा एक दूसरे की माँगी जाने वाली वस्तुओं का मूल्य समान होना चाहिए।

मिल के पारस्परिक माँग सिद्धान्त की व्याख्या मार्शल के प्रस्ताव वक्र के रूप में की जा सकती है।

मार्शल का प्रस्ताव वक्र (Marshall’s Offer Curve)

(i) प्रो. मार्शल द्वारा प्रतिपादित प्रतिपूरक (अथवा पारस्परिक) माँग का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय दर की वास्तविक सन्तुलन दशा स्पष्ट करने में असमर्थ रहा। मार्शल ने इस कमी को दूर करने के लिए प्रस्ताव वक्र का प्रतिपादन किया।

(ii) प्रस्ताव वक्र एक विशेष प्रकार का माँग वक्र होता है जो किसी देश की एक वस्तु की उस मात्रा को प्रदर्शित करता है जो वह देश दूसरे देश की किसी अन्य वस्तु के बदले देने को तैयार रहता है। इस तरह, प्रस्ताव वक्र एक वस्तु की माँग को दूसरी वस्तु की पूर्ति के सम्बन्ध में परिभाषित करता है।

(iii) प्रस्ताव वक्र की व्युत्पत्ति में मार्शल ने ह्रासमान सीमान्त उपयोगिता नियम को आधार बनाया है।

(iv) मार्शल के अनुसार, दो देशों के बीच विनिमय दर अर्थात् व्यापार की शर्त का निर्धारण उस बिन्दु पर होगा जहां दोनों देशों के प्रस्ताव वक्र परस्पर एक-दूसरे को काटते हैं।

मिल के पारस्परिक माँग सिद्धान्त का महत्व-

मिल का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है इसे निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा सन्दर्भित कर सकते हैं-

(1) मिल का पारस्परिक माँग सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रक्रिया को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।

(2) मिल का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में पूर्ति पक्ष के स्थान पर माँग पक्ष को मजबूत आधार देता है।

(3) माँग प्रमुख व्यापार को मजबूत बनाता है।

(4) मिल के अनुसार प्रतिपूरक माँगो उपभोक्ता दृष्टिकोण को मजबूत करती है।

(5) माँग सिद्धान्त का महत्व इसमें है कि यह बताता संतुलित विनिमयदर आयात-निर्यात के संतुलन में सहायक है।

मिल के सिद्धान्त की आलोचनायें-

मिल का पारस्परिक माँग का सिद्धान्त लगभग अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है। इसके अतिरिक्त वाइनर ग्राहम (Graham) तथा अन्य अर्थशास्त्रियों ने कुछ और भी आलोचनायें की हैं –

  1. मिल का पारस्परिक मॉग का सिद्धान्त वस्तु की घरेलू मॉग पर ध्यान नहीं देत : जैसा कि वाइनर (Viner) ने लक्ष्य किया है, प्रत्येक देश अपनी घरेलू मांग को पूरा करने के बाद ही अपने उत्पादन को निर्यात करेगा। इसलिए जब तक घरेलू मांग पूरी नहीं होता तब तक जर्मनी का माँग वक 0% रेखा से नीचे नहीं होगा, और यही बात इंग्लैण्ड पर भी लागू होती है।
  2. दोनों देश समान आकार के नहीं हो सकते (Both Countries cannot of Equal Size): ग्राहम (Graham) के मतानुसार मिल का विश्लेषण तभी सही ठहरता है, जब दोनों देशों का आकार समान हो और दोनों वस्तुओं का उपभोग मूल्य भी समान हो। इन दो मान्यताओं के अभाव में यदि एक देश छोटा है और दूसरा देश बड़ा है, तो दोनों ही स्थितियों में छोटे देश को अधिकतम लाभ होता है: प्रथम, यदि वह उच्च मूल्य वस्तु का उत्पादन करेगा, तो वह अपने बड़े भागीदार के लागत अनुपात अपनाएगा; और दूसरे, क्योंकि दोनों देशों का आकार बराबर नहीं है, इसलिए व्यापार की शर्ते बड़े देश की तुलनात्मक लागतों पर अथवा उनके निकट तय होंगी।
  3. पूर्ति पक्ष की अवहेलना (Neglect of Supply Side): ग्राहम ने आगे इस बात के लिए भी मिल की आलोचना की है कि उसने अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों के निर्धारण में माँग पर बल दिया है और पूर्ति की उपेक्षा की है। उसका कहना है कि पारस्परिक माँग लागू करने से ऐसा प्रतीत होता है कि केवल माँग ही रुचि का विषय है। उसका दृढ़ मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उत्पादन लागते (पूर्ति) भी बहुत अधिक महत्व रखती है।
  4. दो देशों में आय के उतार-चढ़ावों पर ध्यान नहीं : मिल के पारस्परिक माँग के विश्लेषण की एक और दुर्बलता यह है कि वह दो व्यापार में लगे देशों में आपस में उतार-चढ़ाव पर कोई ध्यान नहीं देता जबकि यह अनिवार्य है कि उतार-चढ़ाव निश्चय ही उन दोनों देशों के बीच व्यापार शर्तों को प्रभावित करेंगे।
  5. वास्तविक तथा काल्पनिक (Unrealistic and Arbitrary): पारस्परिक माँग का सिद्धान्त व्यापार की वस्तु विनिमय शर्तों और सापेक्ष कीमत अनुपातों पर आधारित है। इस प्रकार यह सिद्धान्त “कीमतों और मजदूरियों की समस्त दृढ़ता, समस्त संक्रमणात्मक स्फीतिकारी तथा अतिमूल्यन अन्तरों और सभी भुगतान-शेष सम्बन्धी समस्याओं की उपेक्षा करता है।” इसलिए यह इस सिद्धान्त को काल्पनिक और अवास्तविक कहा जाए तो आश्चर्य नहीं। इसलिए, ग्राहम इस सिद्धान्त को भ्रममूलक मानता है और इसे रद्द करने की बात कहता है।
  6. अवास्तविक मान्यताएं (UnrealisticAssumptions) : मिल का सिद्धान्त ऐस मान्यताओं पर आधारित है जो अवास्तविक है, जैसे दो देश, दो वस्तुएं, स्थिर प्रतिफल का नियम, परिवहन लागतों का अभाव, समान आवश्यकताएं, पूर्ण रोजगार तथा पूर्ण प्रतियोगिता का पाया जाना। ये सिद्धान्त को अवास्तविक बना देती है।

निष्कर्ष (Conclusion):

परन्तु ग्राहम द्वारा की गई आलोचनाओं का कोई आधार नहीं है और ये आलोचनाएं निरर्थक जान पड़ती है।

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Pankaja Singh

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