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अनुवाद की परिभाषा | अनुवाद का स्वरूप | अनुवाद एवं अनुवादक की विशेषताए | अनुवाद प्रक्रिया | अनुवाद के प्रकार या भेद | अनुवाद का व्यावसायिक महत्व

अनुवाद की परिभाषा | अनुवाद का स्वरूप | अनुवाद एवं अनुवादक की विशेषताए | अनुवाद प्रक्रिया | अनुवाद के प्रकार या भेद | अनुवाद का व्यावसायिक महत्व

अनुवाद की परिभाषा एवं स्वरूप

अनुवाद का शाब्दिक अर्थ है किसी के कहने के बाद कहना अथवा किसी कथन का अनुवर्ती कथन-पुनः कथन या पुनरुक्ति। अर्थात् एक भाषा में कही हुई बात को दूसरी भाषा में कहना या बतलाना अनुवाद कहलाता है।

अनुवाद शब्द को अंग्रेजी में ट्रान्सलेशन (Traslation) कहा जाता है। अंग्रेजी कोश के अनुसार ट्रान्सलेश का सीधा अर्थ है- एक भाषा के पाठ को दूसरी भाषा में व्यक्त करना। इस सन्दर्भ में अंग्रेजी के प्रसिद्ध भाषाविद् जे.सी.केटफर्ड के अनुसार अनुवाद एक भाषा (स्त्रोत भाषा) की मूल पाठ-सामग्री का दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) में समानार्थक (ईविवबेलेंट) मूल पाठ सामग्री का स्थानापन्न है। इस प्रकार अनुवाद में तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।

(1) पाठ-सामग्री (2) समतुल्य / समानार्थक (3) पुनर्स्थापना।

अनुवादक से आशय

अनुवाद करने वाले को ‘अनुवाद’ कहा जाता है। अनुवादक के लिए खोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा का अच्छा ज्ञान होना अनिवार्य है। प्रत्येक भाषा की अपनी संरचना होती है। इन संरचनाओं के प्रयोग के विशेष परिवेश एवं मुहावरे के साथ परिचित होना आवश्यक है।

कोई भी अनुवादक किसी पाठ (Tent) को पूरी तरह समझे बिना उसका अनुवाद नहीं कर सकता। कोश देखकर एक भाषा को शब्दों के स्थान पर दूसरी भाषा के शब्द रख देना अनुवाद नहीं है। अनुवाद करने में कोश एवं महत्वपूर्ण सहायक उपादान है किन्तु विषय की समझ और चिन्तन की तर्कशक्ति के अभाव में कोश भी सहायक नहीं हो सकता।

एक अच्छे अनुवाद एवं अनुवादक की विशेषताए

अच्छे अनुवाद में अभिव्यक्ति सुबोध प्रांजल तथा प्रवाहमय होती है। साथ ही प्रामाणिकता के लिए शब्दिक और वास्तविक परिशुद्धता भी होना आवश्यक है। जिस अनुवाद में स्रोत भाषा में कथित अभिव्यक्ति ज्यों लक्ष्य में आ जाए, वह उत्तम कोटि का अनुवाद होता है।

अच्दे अनुवाद में यह भी प्रयत्न किया जाना चाहिए कि मूल रचना की शैली सुरक्षित रहे। मूल रचना की शैली सुरक्षित रखन का तात्पर्य यह नहीं है कि केवल शाब्दिक अनुवाद कर दिया जाए। अनुवाद की भाषा स्त्रोत भाषा की प्रकृति के अनुरूप हो। यदि स्रोत भाषा में कोई मुहावरा है तो उस मुहावरे की प्रकृति से मिलता हुआ मुहावरा लक्ष्य भाषा की भी अनुवाद में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। इससे स्वाभाविक प्रवाह बना रहता है।

अच्छे अनुवाद की भाषा समझ में आने योग्य और सुबोध हो। भाषा के सौन्दर्य का निर्वाह करते हुए ही अनुवाद सामग्री के विचार और भावों को सुरक्षित रखना अपेक्षित है।

इसलिए अच्छे अनुवाद के लिए आवश्यक है कि अनवादक को-

(1) अनुवाद की जाने वाली सामग्री की विषय वस्तु का अच्छा ज्ञान हो, सामग्री की ज्ञानात्मक चेतना हो, (2) स्त्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा पर पूरा अधिकार हो, दोनों भाषाओं की संरचनात्मक बनावट, पदबंध प्रयोग, वाक्य गठन आदि की पूरी समझ हो।

अनुवाद प्रक्रिया

अनुवाद प्रक्रिय की मूलभूत समस्या लक्ष्य भाषा में अनुवाद समानार्थी खोजने की है। अतः स्रोत भाषा की पाठ-सामग्री को पूरी तरह समझे बिना आवश्यक लक्ष्य भाषा के समानार्थी शब्दों के द्वारा उसे प्रतिस्थापित नहीं कर सकता। साथ ही लक्ष्य भाषा के वाक्यों तथा संरचनात्मक तत्वों को भी अत्यंत सावधानीपूर्वक प्रयुक्त करना चाहिए। एक शब्द अनेक संदी में प्रयुक्त होकर अनेक अर्थ देता है इसलिए मूल पाठ के सदर्भ और प्रयोग परिवेश को समझकर ही समानार्थी शब्दों का चयन किया जाना चाहिए। प्रत्येक भाषा में अभिव्यक्ति का अपना एक विशेष मुहावरा होता है। इसका लक्ष्य भाषा में अनुवाद कठिन होता है अत इसका अनुवाद लक्ष्य भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखकर करना चाहिए। अनुवाद करते समय सांस्कृतिक पंरपराओं का ध्यान भी रखा जाना चाहिए। वाक्य में पदों का अनुक्रम भी लक्ष्य भाषा की अनुक्रम-व्यवस्था के अनुरूप होना चाहिए। लक्ष्य भाषा में स्रोत भाषा में अनुवाद करते समय शब्दों के लिंग, वचन और व्याकरणिक रूपों की संगति को ध्यान में रखना चाहिए। वाक्यांश और लोकोक्तियों के अनुवाद से लक्ष्य भाषा को अस्पष्ट वं अव्यवस्थित नहीं बनाना चाहिए।

अनुवाद ऐसी होना चाहिए कि वह यांत्रिक या निर्जीव न लगे। अनुवाद क्रिया के अन्तर्गत व्यावहारिक ज्ञान का होना भी आवश्यक है।

उदाहरण के लिए अंग्रेजी भाषा का निम्नलिखित वाक्य देखें

The boy, who does not understand that his future depends on hard studies, is a fool.

यदि हिन्दी में इसका अनुवाद इस प्रकार किया जाता है-

वह लड़का, जो यह नहीं समझता कि उसका भविष्य सख अध्ययन पर निर्भर करता है, मूर्ख है। तो यह वाक्य विन्यास हिन्दी भाषा के वाक्य विन्यास के अनुरूप नहीं होगा, के लिए यहाँ ‘सख्त’ शब्द भी उपयुक्त समानार्थी नहीं लगता। यदि अनुवाद निम्नलिखित हो-

वह लड़का मूर्ख है जो यह नहीं समझता कि उसका भविष्य कठोर अध्ययन पर निर्भर है। तो अनुवाद का वाक्य-विन्यास हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुरूप होगा। इसी प्रकार- Soharab, was killed by his own father Rusram. का अनुवाद-

सोहराब मार दिया गया था अपने पिता रुस्तम के द्वारा। उचित नहीं है, हिन्दी में- सोहराब अपने पिता रुस्तम के ही हाथों मारा गया। अनुवाद उपयुक्त होगा।

अनुवाद के प्रकार या भेद

अर्थपक्ष के अन्तर्गत अनुवाद के चार मुख्य भेद अथवा प्रकार बताये गए हैं-

(1) शाब्दिक अनुवाद, (2) शब्द-प्रतिशब्द अनुवाद, (3) भावानुवाद और (4) छायानुवाद।

  1. शाब्दिक अनुवाद- इसमें वाक्य-स्तर पर अनुवाद किया जाता है। यहाँ यथासाध्य मूलपाठ का अनुगमन किया जाता है। इसमें एक भाषा के भाव का दूसरी भाषा में रूपान्तरण करते हुए प्रत्येक शब्द, उपवाक्य, वाक्य आदि के महत्व पर ध्यान दिया जाता है। इसमें किसी शब्द या वाक्य की उपेक्षा नहीं की जाती। यह अनुवाद वस्तुतः तथ्यात्मक और तकनीकी साहित्य में प्रयुक्त होता है। जैसे विज्ञान, विधि, इंजीनियरी आदि। इस प्रकार के साहित्य में हर शब्द और वाक्य का अपना महत्व होता है और इसका एक निश्चित अर्थ होता है। मूल कृति में कुछ हेर-फेर आदि न करने से अनुवाद में प्रामाणिकता आती है।
  2. शब्दप्रति-शब्द अनुवाद- अनुवाद के शब्द पर आधारित भेदों के शब्द-प्रतिशब्द अनुवाद केवल सिद्धान्त या संकल्पना के रूप में ही व्यवहत हैं।

Rama killed Ravana

राम ने मारा रावण को।

I Yesterday film saw.

मैंने कल फिल्म देखी।

ये दोनों वाक्य शब्द-प्रतिशब्द के उदाहरण के रूप में दिए जा सकते हैं। स्पष्ट है कि जब तक अनुवाद में लक्ष्यभाषा का अनुवाद नहीं होगा यह अनुवाद अधूरा रहेगा। विज्ञान आदि विषयों के शोध-प्रबन्धों के विषय का अच्छा जानकर लक्ष्य भाषा में शब्द-प्रतिशब्द अनुवाद किए जाने पर रोज बातें समझ सकता है। तकनीकि, जर्मन, बिसिनस अंग्रेजी आदि के रूप में थोड़ी- सी विदेशी भाषा सीखने वाले इसी उपाय से अनुवाद कर लेते हैं।

  1. भावानुवाद- भावानुवाद का उदाहरण प्रायः साहित्य के अनुवाद में प्राप्त होता है। भावानुवाद में दिखाई जाने वाली स्वतन्त्रता अनुवादक के अनुसार बदलती है। व्याख्यानुवाद का उदाहरण भी साहित्य में मिलता है। इसमें मूल कृति के भावार्थ को प्रस्तुत करने का प्रयास रहता है। इसे सेन्स फोर सेन्स ट्रान्सलेशन कहा जा सकता है। भावानुवाद कभी अनुच्छेद का, कभी पूरे वाक्य का, कभी शब्द का और कभी पूरे पाठ का होता है। इसमें लक्ष्य भाषा को अपनी शब्द- रचना, वाक्य-विन्यास, मुहावरा आदि की योजना अधिक रहती है। सर्जनात्मक कृतियों के विषय में भावानुवाद की उचित है। इसमें भाव-संवेदना की अभिव्यक्ति होती है। अनुवादक की अपनी शैली की भी छाप मिलती है।

इस अनुवाद की कमी यह है कि अनुवादक मूल कृति से कुछ आजादी लेकर अपनी इच्छा से लिखता है। अनुवाद में हम अनुवादक का व्यक्तित्व ही अधिक पाते हैं। गद्य में यह अधिक नहीं खटकता। मगर पद्य में भावानुवाद कभी-कभी अनुदित कविता को अनुवादक की अपनी रचना बना देता है। अनुवादक अपनी व्याख्या कर डालता है। यह मूल रचना से कुछ सामग्री लेकर उसके आधार पर अनुवादक की स्वतन्त्र रचना हो जाती है। सामान्य पाठकगण ऐसे अनुवाद से मजा ले सकते हैं।

उदाहरण- उमरखैयाम के रुबाइयात का फिट्जेराल्ड द्वारा अनुवाद अथवा फिट्जेराल्ड के अनुवाद का ‘बच्चन’ कृत अनुवाद।

  1. छायानुवाद- मूल कृति पढ़ने के बाद अनुवादक ने जो समझा या जो अनुभव किया था उसके मन पर जो प्रभाव पड़ा उसके संदर्भ में वह मूल पाठ का लक्ष्य भाषा में जो रूपान्तरण करता है उसे छायानुवाद कहा जाता है। इसमें अनुवादक को पूरी छूट रहती है कि वह मुख्य भाव को लेकर पाठ-रचना करे। छायानुवाद में मूल की छायामात्र होती है। उसके कथ्य का अनुकूलन लक्ष्य भाषा की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के अनुसार किया जाता है।

डॉ. भोलानाथ तिवारी कहते हैं-“छायानुवाद ऐसे अनुवाद को कहा जाना चाहिए जो शब्दानुवाद की तरह मूल को शब्दों का अनुसरण न करे, अपितु दोनों दृष्टियों से मुक्त होकर उसकी छाया लेकर चले।”

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Pankaja Singh

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