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घनानन्द के काव्य सौन्दर्य का वर्णन | घनानन्द के कलात्मक वैशिष्ट्य का वर्णन | घनानन्द के काव्य सौन्दर्य पर संक्षिप्त निबंध घनानन्द और प्रेम की पीर

घनानन्द के काव्य सौन्दर्य का वर्णन | घनानन्द के कलात्मक वैशिष्ट्य का वर्णन | घनानन्द के काव्य सौन्दर्य पर संक्षिप्त निबंध घनानन्द और प्रेम की पीर

घनानन्द के काव्य सौन्दर्य का वर्णन (घनानन्द और प्रेम की पीर)

घनानन्दजी मुगल बादशाह मुहम्मद शाह के शाही दरबार में मीर मुंशी (प्राइवेट सेक्रेटरी) के रूप में रहते थे। वहीं उनका प्रेम शाही वेश्या सुजान से हो गया। वास्तव में देखा जाय तो सुजान अप्रतिम सौन्दर्य से युक्त युवती थी, जिसके अनुपम के रूप में वर्णन घनानन्द ने अपने काव्य में किया है। इसी सुजान के कारण जब कवि को शाही दरबार त्यागना पड़ा तो उसने सुजान को जीवन-संगिनी बनाना चाहा। उसके निर्मम निषेध करने पर, कवि पर वियोग का वज्र टूट पड़ा, जिसे वे सहन नहीं कर सके। वे उस रूपसी के रूप का साक्षात्मक न करने के विकल ही बने रहते थे। उनहोंने अपनी इस व्याकुलता को अपने काव्य में प्रकट किया है। डॉ कृष्णचन्द्र वर्मा के अनुसार यह व्याकुलता दो प्रकार से प्रकट हुई-एक नेत्रों की दशा का वर्णन करने और दूसरे मन की व्यथा का चित्र अंकित करने से। वे कहते हैं- “इस सौन्दर्य-दर्शन की भावव्यंजक व्यथा को कवि ने दो प्रकार से व्यक्त किया है- एक तो अपनी आँखों की दयनीय दशा का कथन करके, दूसरे मन की वेदना की विवृत्ति द्वारा।” इस प्रकार कवि ने बेचैनी और व्यथा की व्यंजना का आधार सुजान के रूप-सौन्दर्य को भी बनाया, जो तीन प्रकार का है-

(i) आँखों की दयनीय दशा के कथन द्वारा।

(ii) मन की वेदना की विवृत्ति द्वारा।

(iii) समृतिजनित वेदना द्वारा।

(i) आँखों की दयनीय दशा के कथन द्वारा-

सुजान के दर्शनों के अभाव में उनकी आँखों की वहीं दशा है, जो आँख के अन्दर रखी हुई अंजन-शलाका के समय होती हैं पुतलियाँ खटकती हैं, आँखों नहीं ठहरती और बन्द करने में भी व्याकुल होती है अर्थात् न आँखों के बन्द करने में चैन, न उन्हें खोलने में आनन्द।

कवि इस व्याधि को असाध्य समझता है, जिसको उसे विधाता ने प्रदान किया है-

“रूप विधान सुजान लखै बिनु, आँखन रीति ही पीठि दई है।

आँखिन ज्यौं, खरके पुतरीन मै, सूल की मूल सलाक भई है।

ठौर कहूँ न लहै ठहरानि को, मूंदे महा अकुलानि भइ है।

बूड़त ज्यों घनआनन्द सोचि दई, विधि व्याधि असाधि नई है।”

सुजान के दर्शन के बिना कवि की आँखों पर पर्दा उतर आया है। वे जान-बूझकर कवि को दुःख देने लगी हैं। कवि झुंझलाकर उनसे कह बैठता है कि क्या करूं? ये आँखें मेरी होकर मुझे ही दुःख देती हैं। बीमार के समान लेटी रहती हैं ये बड़ी ओछी और मुँहलगी हैं तथा ऐसी भुक्कड़ हैं कि इनका कभी पेट नहीं भरता-

(ii) मन की वेदना की प्रवृत्ति द्वारा-

घनानन्द जी के प्रेम की पीर आँखों द्वारा तो प्रकट हुई है, साथ ही इनके हृदय की वेदनाभिव्यक्ति के द्वारा भी प्रेमी हृदय की कसक ज्ञात होती है। कवि ने जब से सुजान को देखा है, उसके हृदय में चाह की अनूठी आग लग गयी है, जिससे प्राण तो भस्म हुए जा रहे हैं, किन्तु जलाने वाला लापता है। इस आग को जितना बुझाया जाता है, यह उतनी ही अधिक भभक उठती हैं सुजान बिना उन्हें कहीं भी चैन नहीं। उनके लिए तो सारा संसार ही शून्य-सा प्रतीत होता हैं कवि कहता है कि हे सुजान! मैं विधाता से उसकी याचना करता रहा हूँ? क्योंकि मेरी व्याकुलता उस सीमा पर पहुंच गयी है कि अब मृत्यु की प्रतीक्षा की जा रही है।

“भावते के रस रूपहि सोधि लै,

नीकैं भरयौं उर की मजरौटी।

रोमहिं रोम सुजान विराजत,

सोचि तचै मति की मनि औटी॥”

सुजान पर रीझना क्या हुआ, जन्म-भर को ऐसा दुख मोल ले लिया, जिसको वे न भुला पाते हैं और न सह ही सकते हैं। सुजान के रूप में न जाने ऐसा कौन-सा जादू हैं, जिसने कवि के मन को रिझा रखा है, उसके देखने के लिए मन बावला बना रहता है। रीझ उमड़ी ही चली आती है। इससे कवि का चित्त उदास रहता है। हृदय में जो पीड़ा, प्राणों की जो दुर्गति एवं जीवन में जो जलन हो रही है, उसे कवि लाख प्रयत्न करने पर भी वर्णन नहीं कर पा रहा है। उसके हृदय में चाह का दाह हो रहा है, वह बुझाने पर और अधिक भमक उठता है। प्राण इस दाह से बचने के लिए आँखों के द्वार से झाँकते हैं, किन्तु उस रूपसी का दर्शन न मिलने से वे अधीर होकर हा-हाकार करने लगते हैं।

कवि अपनी प्रेमिका के सौन्दर्य पर रीझे हुए मन की विरह-व्यथित दशा का वर्णन करता हुआ कहता है-

“चोप चाह चावनि चकोर भयो चाहत ही,

सुषमा प्रकाश मुख सुधाधरे पूरे को।

कहा कहौ कौन-कौन विधि की बँधनि बँध्यौ,

सुकस्यौ ने उकस्यौ बनाव लखि जूरे को।

जाही-जाही अंग पर्यौं ताहि गिरि-गिरि सर्यो,

हर्यौ बल बापुरे अनंग दल चूरे को।

अब बिन देखें जान प्यारे यौँ आनन्दघन,

मेरो मन भंवे भटू! पात है बधूरे को।।

इस प्रकार घनानन्दजी का मन विरह के बवंडर मे पड़ा इस प्रकार चक्कर काट रहा है, जिस प्रकार घूर्णवात में एक पत्ता चक्कर काटता हो। यह व्यथित मन सदैव संकटों की श्रृंखला से जकड़ा रहता है। सोते-जागते, उठते-बैठते उसी सुजान का रूप शूल की भाँति कसकता रहता है। मद दर्शन, अदर्शन दोनों से दुःखी रहता है। प्राणों से उसी के हेतु आह और कराह निकलती रहती है। उसे ऐसा मालूम होता है, मानों मन की व्यथामय दशा सदैव बनी रहेगी, कभी समाप्त न होगी। इससे अधिक मर्मस्पर्शी चित्र और क्या हो सकता है?

(iii) स्मृतिजनित वेदना द्वारा-

घनानन्द की प्रेमिका का सौन्दर्य अनूठा था। उसकी स्मृति में निमग्न होकर उनकी आँखें तथा मन सदैव बेचैन बना रहता था, किन्तु उनकी इससे भी अधिक बुरी गति उसकी क्रिया-कलापों का स्मरण करने से हो जाती है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि स्मृति ही अनेकानेक विरहोद्वेगों की जननी है। स्मरण के अभाव में विरह की व्यथा कैसी? घनानन्द ने स्मृतिपरक छन्द विशेष नहीं लिखे हैं। उनमें अतीत का मार्मिक चित्रण है, जो अपनी रूपसी के रूप की रीझ से ही सम्बन्धित हैं सच तो यह है कि उनके प्रत्येक छन्द में स्मृति किसी न किसी रूपमें लगी हुई है। घनानन्दजी को सुजान की गतिविधियों का स्मरण हो आता है। वे उससे सुख और सन्तोष लाभ करते हैं, किन्तु अन्ततोगत्वा वेदना का अगाध वारिधि दृष्टिपात होता हैं सुजान के प्रतिकूल आचरण की स्मृति का चित्र देखिये-

“तेरी अनुमाननि ही मेरे मन मानि रही,

लोचन निहारें हेरि सौहे न निहारिबो।

कोरि-कोरि आदर को करत निरादर है,

सुधा तें मधुर महा झुकि झिझकारिबो।

जीवन की प्यारी घनानन्द सुजान प्यारी,

जीव जीति-लाहौ लहै तेरे हठ हारिबौ।

अनेक बार कवि का वर्तमान उसे उसके गत जीवन का स्मरण दिला देता है और वह दोनों स्थितियों की तुलना करता है। तुलनात्मक वृत्ति का परिचायक अतीत और वर्तमान के अन्तर को स्पष्ट करने वाला यह छन्द बड़ा ही सुन्दर बन पड़ा है-

“तब तो छवि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे।

हिय पोष के तोष सु प्रान पले बिललात महा दुख रोष भरे।

घन आनन्द प्यारे सुजान बिना, सब ही सुख साज समाज टरे।

तब हार पहार से लागत है, अब आनि के बीच पहार परे।।”

निष्कर्ष- इस प्रकार स्पष्ट है कि स्मृति-प्रसूता-पीड़ा के वर्णन में कवि ने प्रधानतः अपने वर्तमान से प्रेरणा प्राप्त की है। उसकी यह विरह व्यथा उसके गत सुख-दिवसों का स्मरण दिलाकर चित्त को और भी अधिक व्यथित एवं दयनीय कर देती हैं सुजान का रूप-सौन्दर्य उसका व्यवहार एवं उसकी अविस्मरणीय बातें कुछ ऐसी थीं, जिन पर कवि रीझता रहता है, नीर बिना मीन की भाँति तड़पता रहता है।

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Pankaja Singh

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