बिहारी के काव्य की लोकप्रियता | बिहारी के काव्य की लोकप्रियता के कारणों का संक्षिप्त विवरण
बिहारी के काव्य की लोकप्रियता
बिहारी का रीतिकालीन कवियां में महत्वपूर्ण स्थान है। किसी कवि को उसके ग्रन्थों की संख्या के आधार पर ही महान् नहीं कहा जा सकता। जब तक कि उसकी भाषा, कल्पना एवं भाव-व्यंजना उच्चकोटि की न हो, तब तक वह महान् नहीं कहलाता। लोकप्रियता की दृष्टि से ‘रामचरितमानस’ के पश्चात् ‘बिहारी सतसई’ का ही नाम आता है। ‘सतसई ब्रजभाषा का भूषण है। बिहारी की कविता की प्रशंसा केवल भारतीयों ने ही नही की है।
(i) मौलिक कल्पना तथा सांगरूपक का निर्वाह-
बिहारी के काव्य में कल्पना तथा सांगरूपक का बड़ा सुन्दर निर्वाह हुआ है। ‘बिहारी सतसई में मौलिक सूझ-बूझ, अर्थ-गाम्भीर्य, भाषा की कसावट, कल्पना की समाहार शक्ति, अलंकारों की छटा आदि सभी बातें एक साथ मिल जाती हैं। जिमीकन्द का मुँह काटने की साधारण-सी बात के ऊपर बिहारी ने कितनी सरस और मनोहर कल्पना की है-
ललन सलोने अरु रहे, अति सनेहु सों पागि।
तनक कचाई देति दुख, सूरन लौं मुँह लागि।
उपर्युक्त दोहे में ‘सूरन, स्नेह, कचाई, सलोने तथा मुँह लागि’ दोहरे अर्थ के बोध है। इस कारण यहाँ श्लेष की भी सुन्दर छटा दृष्टव्य है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि कवि ने अलंकार- योजना के लिए बहुत प्रयास किया। अलंकार स्वयं ही उनके काव्य में आ गये हैं। देखिए, बिहारी ने तनिक से दोहे में साधारण शब्दों की सहायता के अनुभूत और गम्भीर बात कह दी है-
दृग अरुझत टूटत कुटुम, जुरति चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन-हियैं, दई, नई, यह रीति॥
(ii) प्रेम में होने वाली बहानेबाजी का चित्रण-
बिहारी ने प्रेम में होने वाली बहानेबाजी का भी सुन्दर चित्रण किया है। नायिका सोने का बहाना करके लेट जाती है। उसका प्रिय मुंख खोलकर देखता है, परन्तु अन्त में दोनों से नहीं रहा जाता। दोनों के नेत्र मिल हैं-
मुँह उघारि प्यौ लखि रह्यौ, रह्यौ न गो मिस-सैन।
फरके ओठ उठे पुलक, गए उघरि जुरि नैन।।
(iii) भावों तथा चेष्टाओं की चित्र-
बहारी ने भावों एवं चेष्टाओं का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रज की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत हाथ पर उठा लिया। राधा आई उसे देखकर ही रसिक श्रीकृष्ण के हाथ का कम्पन हुआ। ब्रज के लोग हाहा कर करने लगे, क्योंकि कृष्ण का हाथ काँपने लगा था। पहाड़ गिरने का डर था। यह दशा देखकर कृष्ण लज्जित हो गये। इतनी लम्बी कथा को बिहारी ने छोटे से दोहे में भर दिया है-
डिगत पानि, डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल।
कंप किसोरी दरस कैं, खरे लजाने लाल।।
(iv) बिहारी के दोहे रस में सराबोर-
बिहारी के दोहे प्रेम रस से सिक्त हैं। उदाहरण देखिए-
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे भौंन में करत है नैननु ही सौं बात।।
इसमें नायक पहले अपनी ओर से कोई प्रस्ताव रखता है, परन्तु नायिका मना कर देती है। इस पर नायक चिढ़ जाता है और नायिक भी खीझ जाती है। पुनः जब दोनों की दृष्टि मिलती है तो नायक प्रसन्न हो जाता है, परन्तु नायिका अपनी हार समझकर लज्जित हो जाती हैं। इतनी लम्बी-चौड़ी सारी बातें नेत्रों से ही हो जाती हैं। एक अन्य दोहे में नायिका की चेष्टाओं का कितना सिमटा रूप है-
भौहनि त्रासति मुँह नटति, आँखिन सों लपटाति।
ऐंचि छड़ावति कर इँची, आगे आवति जाति।।
(v) प्रेमभरी खिलवाड़ों का वर्णन-
कवि बिहारी ने कृष्ण की अनेक प्रेमभरी खिलवाड़ी का वर्णन भी अपने दोहों में किया है। गोपियाँ कृष्ण से खिलवाड़ करती हैं। वे उनकी मुरली छिपा लेती हैं। कृष्ण के मांगने पर वे कसम खाकर कहती हैं कि उनके पास मुरली नहीं है, परन्तु नेत्रों से हँस पड़ती हैं। इस पर कृष्ण को यह विश्वास हो जाता है कि मुरली उन्हीं के पास है। वे पहले तो मुरली लौआने का वचन दे देती हैं, पर पुनः मना कर देती है। इस प्रकार न तो वे कृष्ण को मुरली देती हैं और न ही उन्हें जाने देती हैं, अपितु अधिकाधिक समय तक अटकाये रखकर वार्तालाप का आनन्द उठाती हैं। इतनी लम्बी-चौड़ी बात को कवि बिहारी ने दोहे में कितनी सुन्दरता से व्यक्त किया है-
बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं, भौहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ॥
(vi) भाषा पर अधिकार-
बिहारी का भाषा पर असाधारण अधिकार होने से उनका प्रत्येक दोहा गठा हुआ प्रतीत होता है। उनकी भाव-व्यंजना भी बहुत सुन्दर है। उनके पदों में सर्वत्र कसावट रही है, कहीं भी शिथिलता नहीं आने पाई है। उनका अर्थ-स्फुटित होकर संक्षिप्त पदों के भीतर भर जाता है। अनेक क्रियाओं का वर्णन करते हुए बिहारी ने ‘है’ का प्रयोग नहीं किया है-
छला छबीले लाल कौ, नवल नेह लहि नारि।
चुंमति चाहति, लाइ उर, पहिरति, धरति उतारि॥
(vii) लोकप्रियता पर कुछ विद्वानों के मत-
श्री दुलारेलाल भार्गव के शब्दों में- जितना श्रृंगार-रस वाटिका के इस सुविकसित और सुगन्धित सुमन का सौन्दर्य सहृदयों के चित्त में चुभा और आँखों में खुबा है, उतना औरों का नहीं। अमान्य अनेक कवियों की कविता- कामिनी भी कमनीयता में कम नहीं, किन्तु ‘सतसई’ सुन्दरी की-सी, सुन्दरता उनमें कहाँ?
श्री राधाकृष्णदास का मत है- यदि सूर, सूर्य हैं, तुलसी शशि और उड़गन केशवदास हैं तो बिहारी उस पीयूषवर्षी में मेघ के समान हैं, जिनके उदय होते ही सब का प्रकाश आच्छन्न हो जाता है, फिर उसकी वृष्टि से कवि-कोकिल कुहकने, मन-मयूर नृत्य करने और चतुर-चातक चहचने लगते हैं और फिर बीच-बीच में लोकोत्तर भावों की विद्युत चमकती हैं और हृदयच्छेद कर देती है।
निष्कर्ष-
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि ‘बिहारी सतसई’ हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण मानी जाती है। ‘बिहारी सतसई’ में रस का सागर लहराता है। ‘रामचरितमानस’ के पश्चात् ‘बिहारी सतसई ही उच्च कोटि का काव्य माना जाता है। ‘सतसई में नौ रस, तेतीस संचारी भाव, नौ स्थायी भाव, नायक-नायिका भेद, हाव, सखी, दूती, संयोग, बिरह, मान,परिहास, नख-शिख, षड्ऋतु, भक्ति, नीति, अन्योक्ति, दर्शन, व्यंग्य देखकर आश्चर्यचकित होना पड़ता है। ‘बिहारी-सतसई अपने रचना-काल से लेकर आज तक काव्य-रसिकों का कंठहार रही है। बिहारी का यह कथन उनकी ‘सतसई पर सदैव घटित होता है-
अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरुनि समान।
वह चितवनि औरे रे कछू, जिहिं बस होता सुजान॥
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