कबीर की भाषा शैली | कबीर की भाषा सम्बन्धी विशेषताएँ
कबीर की भाषा शैली
कबीर की भाषा विविध-रूपात्मक है – कबीर की भाषा पर दो दृष्टियों से विचार करना चाहिए – (1) उसकी विविधरूपता पर और (2) उसके भदेसपन पर। कबीर का युग वह युग था, जब पंजाबी, फारसी, पिंगल, हिंदवी, ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि उत्तरी भारत की भाषाएँ अपनी रूप-रचना कर रही थीं और हिन्दी का रूप नित्य परिवर्तित हो रहा था। इस प्रकार स्थान- भेद से हिन्दी के रूप में परिवर्तित हो जाना स्वाभाविक ही था और युग की आवश्यकता के अनुरूप भी था। यही कारण है कि भाव-प्रेषण की दृष्टि से कबीर ने एक ही शब्द को कई रूपों में प्रयुक्त किया है अथवा यह कहिए कि कबीर की ‘वाणी’ को अंकित करने वाले शिष्य अपने क्षेत्र में प्रचलित शब्द-रूपों अनुरूप अंकित कर लिया करते थे।
कबीर की भाषा की विविधरूपता का एक अन्य कारण भी है-कबीर विविध वर्ग के लोगों को उपदेश दिया करते थे। श्रोताओं को अपनी बात स्पष्ट समझाने के लिए वे उसी शब्द-रूप का प्रयोग करते थे जो उनकी समझ में सरलता से आ जाय। पर्यटन भी एक ऐसा महत्वपूर्ण कारण है, जिसके फलस्वरूप उनकी भाषा में स्थान-स्थान के प्रचलित शब्दों का समावेश हो जाना अनिवार्य था। इन्हीं कारणों से उनकी भाषा विविध-रूपी है और उसका प्रमुख गुण स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता है। इस विविधरूपता के कारण ही उनकी भाषा के सम्बन्ध में इतना मत- विभिन्न है। जिस आलोचक के पल्ले जो पाठ पड़ गया, उसी को लेकर उसने कबीर की भाषा का मूल्यांकन कर डाला और उसी के आधार पर उनकी भाषा के रूप का प्रतिपादन कर डाला।
कबीर की भाषा का तीखापन और भदेसपन- जनता के ऊपर स्पष्ट एवं अखण्ड भाषा का विशेष प्रभाव पड़ता है। उन दिनों प्रचालित साधनाओं के प्रचारक नाथपंथी, योगी, अवधूत आदि की भाषा भी इसी प्रकार की थी। अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए कबीर ने भी यदि तीखी और अक्खड़ भाषा का प्रयोग किया तो यह सर्वथा आवश्यक और परम्परानुसार ही था। भाव के तीखेपन से भाषा में अक्खड़ता आती है। योगी, संन्यासी और सामान्य जन-समुदास ऐसी ही पदावली के अभ्यस्त थे-
ज्ञान का गेंद कर सुरत का दंड कर, खेल चौगान, मैदान माहीं।
जगत का भरमना छोड़ दे बालके, पाय जा मेश भगवन्त माहीं।।
कबीरदास की भाषा के खरेपन की मिठास की चर्चा करते हुए डॉ. श्याम सुन्दरदास लिखा है – “कहीं-कहीं उनकी भाषा बिल्कुल गवारू लगती है, पर उनकी बातों में खारेपन की मिठास है, जो उन्हीं की विशेषता है और उनके सामने यह गँवारूपन डूब जाता है।”
कबीर की भाषा का स्वरूप- कबीर की विविधरूपात्मक भाषा का स्वरूप-निर्णय करना अत्यन्त कठिन है। कबीर की भाषा पंचमेल खिचड़ी है और उसमें केवल शब्द ही नहीं, क्रियापद, कारक चिह आदि भी कई भाषाओं के मिलते हैं।
कबीर की भाषा में लगभग आधी दर्जन भाषाओं के कियापद मिलते हैं और कितने ही पदों में अनेक भाषाओं की पंचमेल खिचड़ी है। पं. रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है और रेवरेण्ड अहमदशाह ने कबीर की भाषा की बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के आसपास बोली जाने वाली भाषा बताया है “कबीर की मूलवाणी का बहुत कुछ अंश उनकी मातृभाषा बनारसी में लिखा गया था, किन्तु उनके पदों का पछाँह की साहित्यिक भाषाओं में रूपान्तर कर दिया गया है।”
अनेक विद्वानों ने कबीर की भाषा को पूर्वी भाषा वर्ग के अन्तर्गत रखने का प्रयत्न किया है। इसका मुख्य कारण है ‘कबीर बीजक’ में उपलब्ध निम्नलिखित साखी-
बोली हमारी पूरब की, हमें लखै नहिं कोय।
हमको तो सोई लखै, जो धुर पूरब का होय॥
पं. परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर की भाषा एवं रचना-शैली पर विचार करते हुए उपर्युक्त साखी पर एक नवीन दृष्टिकोण से विचार किया है। उन्होंने कबीर का दोहा तथा रमैनी को उद्धृत किया है-
पूरब दिसा हंस गति सोय।
है समीप संधि बूझै कोय॥
हम पूरब के पुरबिया, जात न पूछे कोय।
जात पाँत, सो पूछिये, धुर पूरब का होय॥
आचार्य शुक्ल ने कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा बताया है। यह नाम सूचित करता है कि यह भाषा सामान्यतः काव्य-भाषा से अलग साधुओं की भाषा है। अतः कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहना ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं संगत प्रतीत होता है। इस सम्बन्ध मे विद्वान् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस कथन से सहमत हैं कि “साम्प्रदायिक शिक्षा और सिद्धान्त के उपदेश मुख्यतः ‘साखी’ के भीतर, जो दोहों में है।
कबीर की भाषा सम्बन्धी विशेषताएँ-
कबीर की भाषा में निम्न सामान्य विशेषताएं पायी जाती हैं
(1) कबीर ने लोकभाषा की सन्देशवाहिका शक्ति को पहचानकर उसे अपनाया। उसमें खड़ीबोली, ब्रजभाषा, राजस्थानी, पंजाबी, अवधी तथा फारसी बोलियो का सुखद संयोग है। सामान्य काव्य-भाषा से पृथक् साधुओं की इस भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा गया है।
(2) कबीर द्वारा व्यवहृत भाषा यद्यपि विशेष परिष्कृत और परिमार्जित नहीं है, तथापि कबीर की उक्तियों में कहीं कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है।
(3) कबीर की भाषा में व्याकरण के नियमों का अभाव है, उसमें नागरिकता का अभाव है। आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में वह ऊबड़-खाबड़ और सधुक्कड़ी है।
(4) कबीर की भाषा मे संगीतात्मकता का सफल समावेश है। इनकी संगीतात्मक भाषा में अभिव्यंजना की लगभग समस्त पद्धतियां पायी जाती हैं।
कबीर की शैली- भाषा की भाँति शैली भी अनिश्चित एवं विविध रूपात्मक है। उनका समस्त काव्य मुक्तक है और गेय शैली में हैं। भाव के अनुसार उनकी शैली भी बदलती जाती है।
(1) खण्डनात्मक शैली- कबीर ने धर्म के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों एवं परम्पराओं का डटकर विरोध किया है। ऐसे स्थलों पर उनके कथन में बुद्धिवाद एवं अक्खड़पन का प्राधान्य रहता है। ये कथन मर्म पर सीधी और करारी चोट करते हैं तीखा व्यंग्य इनके शैली की प्रमुख गुण है। ऐसे अवसरों पर प्रयुक्त शैली को खण्डनात्मक शैली कहा जाता है।
(2) अनुभूतिव्यंजक शैली- यह शैली कबीर के साहित्यिक स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है। पदों में गीतिकाव्य के समस्त लक्षण-मार्मिकता, अनुभूति की गहराई, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता आदि दिखाई देते हैं। पदों की भाषा अपेक्षकृत प्रकट और सुघट है।
अलंकार-विधान- कबीर ने रूपक, अन्योक्ति, समासोक्ति,रूपकातिशयोक्ति उपमा, विभावना आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। ये अलंकार उनकी कविता में अत्यन्त स्वभाविक रूप से प्रस्फुटित हुए हैं तथा बिम्ब-विधायक हैं। रूपक का यह विधान देखते ही बनता है –
सुरति ढीकली लेज ल्यौं, मन नित ढोलनहार।
कँवल कुँवा में प्रेम रस, पीवै बारम्बार।।
इनके रूपकों की स्थिति यह है कि कबीर ने हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाट के कुछ सांकेतिक शब्दों (चंद, सूर, नाद, बिन्दु, अमृत, औंधा कुआँ आदि) को लेकर अद्भुत रूपक बांधे हैं जो सामान्य जनता की बुद्धि पर पूरा आतंक जमाने में सफल हैं।
कबीर ने ‘नलिनी’ और ‘सुवटा’ को लक्ष्य करके अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत की व्यंजना द्वारा सुन्दर अन्योक्ति लिखी हैं। उन्होंने जायसी की भाँति अनेक स्थानों पर समासोक्ति के द्वारा गूढ़ आध्यात्मिक व्यंजना की है –
जा कारण मैं ढूँढ़ता, सनमुख मिलिया आय।
धनि काली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाय॥
छन्द- योजना- कबीरदास ने अपने समय में प्रचलित अनेक छंदों का प्रयोग प्रायः सभी पदों में किया है। कबीर की छंद-योजना के सम्बन्ध में डॉ. गोविन्द निगुणायत का यह कथन दृष्टव्य है – “कबीर ने अधिकतर सधुक्कड़ी छंदों का प्रयोग किया है। दनमें सबसे प्रमुख साखी, सबद और रमैनी है। इन छन्दों के अतिरिक्त चौंतीस, कहरा, हिंडोला आदि और भी अनेक छन्दों का प्रयोग हुआ हैं। इन छन्दों में से कुछ ग्रामीण बोलियों से और कुछ साधु-परम्परा से प्राप्त हुए थे। इनमें कोई छन्द पिंगल के नियमों से नहीं बँधा है। इनके अपने नियम हैं और इनमें प्रायः गति और लय पर ही विशेष ध्यान गया है।”
प्रायः कबीरदास के ‘बीजक’ में निमन काव्य-रूपों का प्रयोग पाया जाता है – (1) आदिमंगल, (2) रमैनी, (3) सबद अर्थात् गेयपद, (4) विप्रमतोसी, (5) बसन्त, (6) कहरा, (7) चाचर, (8) ग्यान चौंतीसा अर्थात् वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर से प्रारम्भ करके पद लिखना, (9) बेलि (10) विरहुली (साँप का विष उतारने वाला गान), (11) हिंडोला और (12) साखी (दोहे) अस्तु।
गुण की स्थिति- कबीर की रचना में ओजगुण तथा प्रसाद गुण की प्रधानता है। माधुर्य गुण भी यत्र-तत्र समाविष्ट है। वक्रोक्तियों में कबीर का उक्ति-वैचित्र्य देखते ही बनता है।
निष्कर्ष –
कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। उनकी वाणी आध्यात्मिक ज्ञान की सफल वाहिका है।
हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक
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