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सूरदास का वात्सल्य वर्णन | सूरदास वात्सल्य रस के सर्वश्रेष्ठ कवि

सूरदास का वात्सल्य वर्णन | सूरदास वात्सल्य रस के सर्वश्रेष्ठ कवि

सूरदास का वात्सल्य वर्णन

वात्सल्य की प्रेरणा-

“चारासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार महात्मा सूरदास को जब श्री वल्लभाचार्यजी ने दीक्षित किया था तो उन्होनें श्रीकृष्ण की बाल-लीला पर ही सूर का ध्यान अधिक आकृष्ट कराया था। श्रीमद्भागवत में भी, जिसकों सूर ने ‘सूरसागर’ की रचना में आधार बनाया है, श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण अधिक प्राप्त होता है। अतः श्री आचार्यजी से प्रेरणा तथा भागवत् का आधार लेकर सूर ने श्रीकृष्ण का बाल-चरित अत्यन्त विस्तृत एवं विशेष रूप में चित्रित किया है।

वात्सल्य रस के भेद-

वात्सल्य रस से सम्बन्धित कथा संयोग-वात्सल्य और वियोग वात्सल्य दो भागों में विभक्त की जा सकती है। संयोग-वात्सल्य से तात्पर्य उस कथा से है, जब कृष्ण यशोदा के साथ ब्रज में थे। वियोग-वात्सल्य से सम्बन्धित कथा उसे कहा जाता है, जब वे मथुरा चले गये थे। वियोग-वात्सल्य के पद अधिक मात्रा में नहीं है, किन्तु संयोग वात्सल्य के पदों की संख्या अधिक है।

वात्सल्य के अवयव-

रस की निष्पत्ति में स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव आवश्यक होते हैं। इन सभी के सहयोग से रस की निष्पत्ति होती है। वात्सल्य रस में सन्तान-विषयक रति को स्थायी-भाव माना जाता है। यहाँ आलम्बन श्रीकृष्ण हैं और आश्रय यशोदा हैं श्रीकृष्ण का शारीरिक सौन्दर्य, उनका बृद्धि-कोशल तथा बाल-सुलभ चेष्टाएँ उद्दीपन है। प्रसन्नता, हास्य, गोद लेना, चूमना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, पुलक, स्मृति आदि संचारी भाव हैं। सूर ने वात्सल्य रस के इन सभी अंगों का पूर्ण सहयोग प्राप्त करके वात्सल्य रस का अत्यन्त स्वाभाविक एवं मनमोहक परिपाक किया है।

बाल-मनोविज्ञान-

महाकवि सूरदास बाल-मनोविज्ञान के महान् पंडित थे। बाल- मनोविज्ञान के अद्भुत ज्ञान ने वात्सल्य रस के वर्णन में उनकी बहुत सहायता की है। वास्तव में वात्सल्य रस का इतना सजीव, सरस एवं स्वाभाविक वर्णन हिन्दी में अन्य कोई कवि नहीं कर सका है। हिन्दी में ही क्या, विश्व में भी इस दृष्टि से सूरदासजी अनुपमेय हैं। हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास ने ‘गीतावाली’ आदि में जो भगवान् राम का बाल-वर्णन किया है, उसमें उन्हें सूर के समान सफलता नहीं मिल सकी है। वास्तव में सूर ने इस रस के चित्रण में कमाल ही करके दिखा दिया है।

शरीर का सौन्दर्य वर्णन

महात्मा सूरदास ने श्रीकृष्ण के बाल-वर्णन के अन्तर्गत उनका रूप-वर्णन किया है। कृष्ण के सौन्दर्य पर कवि मुग्ध है। सौन्दर्य के वर्णन में सूर ने जो नवीन उपमाएँ तथा उत्प्रेक्षाएं एकत्रित की हैं, उन्हें देखते ही बनता है। सूर ने बालकृष्ण के अंग- प्रत्यंग का इतना सुन्दर चित्रण किया है कि पाठक के नेत्रों के सम्मुख श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का चित्र साकार हो उठता हैं। अनेक उपमाओं से अलंकृत कृष्ण के श्यामल शरीर का वर्णन, अपार ज्योतिसम्पन्न कृष्ण के नखों का आकर्षक वर्णन, अवस्था और परिस्थिति के अनुसार वस्त्राभूषणों का विवरण किस पाठक को अपनी ओर आकर्षित न कर लेगा? श्रीकृष्ण ने सुन्दर वस्त्र-आभूषण धारण किये हुए हैं। उन्हें देखकर यशोदा के हृदय में सुख का सागर हिलोरे भरता है-

“आँगन स्याम नचावहि, जसुमति नंरदानी।

तारी दै-दै गावहिं मधुरी मृदु बानी।।

पाँयन पूपुर बजाई कटि किंकिनि कूजै।

बाल-लीलाओं का वर्णन-

शारीरिक-सौदर्य के अतिरिक्त बाल-लीला के भी अत्यन्त हृदयस्पर्शी चित्र ‘सूरसागर’ में उपलब्ध होते हैं। संयोग वात्सल्य के वर्णन में कृष्ण की तुतलाती भाषा, घुटुनों चलना, धीरे-धीरे खड़ा होना और फिर गिर पड़ना, नन्द को बाबा कहना, शरीर पर धूल लपेटना, मुख पर दही का लेप कर लेना आदि कितनी ही बाल-सुलभ चेष्टाओं का बाल-मनोविज्ञान के पंडित महाकवि सूर ने अत्यन्त मर्मस्पर्शी, स्वाभाविक एवं आकर्षक ढंग से वर्णन किया है। बालकों की रूचि कैसी होती है, इसका सूर को पूर्ण ज्ञान था। एक उदाहरण देखिये-

“जसोदा हरि पालने झुलावै।

हलरावै, दुलरावै, मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै।

मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुवावै।

तू काहे नहिं बेगहि आवै तोको कान्ह बुलावै।

कितना स्वाभाविक चित्र है? यशोदा लोरी गा-गाकर कृष्ण को सुला रही हैं। कृष्ण के आँखें बन्द कर लेने पर माँ समझती है कि बेटा अब सो गया है। वह लोरी गाना बन्द कर देती है और वहाँ से उठना ही चाहती है कि फिर कृष्ण अकुला उठते हैं और यशोदा फिर से लोरी गाने लगती हैं। उसे पुत्र के पास ही बैठा रहना पड़ता है।

बाल-कृष्ण दूध पीने से मन चुराते हैं। यशोदा चोटी बढ़ने का प्रलोभन देकन उन्हें फुसलाना चाहिती हैं-

“कबरी को पय पियहु लाल तेरी चोटी बढ़ै।

सब लरिकन में सुनु सुन्दर सूत तो श्री अधिक चढ़ै।”

“माखनचोरी” प्रसंग में तो कृष्ण का बुद्धि चातुर्य देखते ही बनता है। ब्रज के घरों में घुस- घुसकर सखाओं के साथ माखन चोरी करना और पकड़े जाने पर चातुर्य का प्रयोग करना, इसका वर्णन बड़ा ही विनोदपूर्ण है। एक दिन संध्या के समय कृष्ण माखन-चोरी के लिए एक घर में घुसे। दही में हाथ डाला ही था कि गृहस्वामिनी गोपी ने आकर पकड़ लिया। गोपी ने कहा-

“श्याम कहा चाहत से डोलता।

बूझे हू तें बदन दुरावत सूधे बोल न बोलत।।

सूने निपट अंधियारे मन्दिर दधि भाजन में हाथ।

अब कहि कहा बनैहौ ऊतरु कोऊ नाहिंन साथ।।

एक बार कृष्ण अपने ही घर में माखन-चोरी करते पकड़े गये। मुख पर माखन लगा हुआ था। स्पष्ट प्रमाण था कि कृष्ण ने चूरा कर माखन खाया है। माँ ने जब प्रश्न किया तो कृष्ण उत्तर देते हैं-

“मैया मैं नहीं माखन खायौ।

ख्याल परे ये सखा सबै मिलि बरबस मुख लपटायौ॥

देखि तुही छीकें पर भाजन ऊँचे धरि लटकायौ।

बालकों की नटखट प्रवृत्ति का कितना स्वाभाविक एवं हृदयस्पर्शी वर्ण है? सभी जानते हैं कि चिढ़ाले बालकों को कितना आनन्द आता हैं? कृष्ण की बाल-सुलभ चेष्टाओं का इन पदों में मिना सुन्दर चित्रण है साथ ही मातृ-हृदय की अभिव्यंजना देखते ही बनती है। पुत्र की चंचलता और खीझना देखकर माता प्रसन्न होती है। अन्त में पुत्र को प्रसन्न करने के लिए वह कह ही बैठती है कि मैं शपथ खाकर कहती हूँ कि मैं ही तेरी माँ हूँ और तू मेरा पुत्र है। मातृ-हृदय की इतनी सुन्दर व्यंजना भला और कहाँ मिल सकती हैं?

कहनि लगीं अब, बढ़ि-बढ़ि बात।

ढोटा मेरौ तुमहिं बँधायों, तनकई माखन खात।।

मेरे लाल को परम खिलौना, ऐसे को ले जैहै री।

नेक सनन जो पैहों ताको, सौ कैसे ब्रज रहिहै री॥”

यशोदा व्याकुल हो उठीं। वे सारे गोधन को कृष्ण के बदले में समर्पित करने को प्रस्तुत हुई। कृष्ण उनकी आँखों के आगे से चले जायें, यह उन्हें सह्य नहीं था, किन्तु कृष्ण मथुरा चले गये यशोदा विलाप करती रहीं। नंद तो मथुरा से लौट आये, किन्तु कृष्ण को साथ नहीं लाये। वे नन्द को धिक्कारती हैं और कहती हैं कि एक वे दशरथ थे जो पुत्र-वियोग में तड़प-तड़पकर जीवन दे बैठे और एक तुम हो जो पुत्र को छोउक़र मुझे यहाँ संदेश देने आये हो। वे अपने पुत्र को याद करती हैं। पुत्र की याद में वे अपने शरीर को घुला देती हैं। कृष्ण की प्रिय वस्तुएँ अब उन्हें शूल के समान चुभती हैं। दूध, नवनीत आदि कृष्ण की प्रिय वस्तुएँ यशोदा के वात्सल्य- वियोग को अब बहुत उद्दीप्त करती है। वे इन वस्तुओं को याद करके कहती हैं।

“मेरे कुँवर कान्ह बिनु सब वैसे ही धर्यौ रहै।

को उठि प्रात होत लै माखन, को कर नेत गहै।।

सूने भवन जसोदा सुत के, गुनि-गुनि सूल सहै।”

देखिये, मथुरा लौटते हुए उद्धव से यशोदा क्या कह रही है-

“संदेसों देवकी सौं कहियौ।

हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करति ही रहियौ।।

जद्यपि टेब जानति हि ह्वैहौ तऊ मोहि कहि आवै।

प्रात उठत तुम्हरे कान्हहि कों माखन रोटी भावै॥

तेल उबटनों अरु तातौ जल ताहि देखि भजि जाते।

जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती क्रम-क्रम करिकै हाते॥”

इस प्रकार सूर ने मातृ-हृदय का अत्यन्त स्वाभाविक एवं मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। बालक की सुलभ चेष्टाओं के स्वाभाविक एवं हृदयस्पर्शी वर्णन का तो कहना ही क्या? निःसन्देह सूर वात्सल्य का कोना-कोना झांक आये हैं वात्सल्य के क्षेत्र में जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, उतना अन्य किसी कवि ने खुली आँखों से भी नहीं किया। वास्तव में इस क्षेत्र में वे हिन्दी में ही नहीं, विश्व के साहित्य में अनुपमेय थे।

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Pankaja Singh

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