हिन्दी

बिहारी के काव्य में गागर में सागर | बिहारी रीतिकाल के श्रेष्ठ श्रृंगारिक कवि है

बिहारी के काव्य में गागर में सागर | बिहारी रीतिकाल के श्रेष्ठ श्रृंगारिक कवि है

बिहारी के काव्य में गागर में सागर

गागर में सागर भरने का तात्पर्य थोड़े में बहुत कहने से है। गागर बहुत छोटी होती है और सागर उसकी अपेक्षा लाखों-करोड़ों गुने से भी अधिक विशाल होता है। गागर में सागर कभी नहीं भरा जा सकता है। यह एक लाक्षणिक प्रयोग है। इसका तात्पर्य कम शब्दों के द्वारा अधिक अर्थ व्यक्त करने से है। इसके लिए बिहारी ने दोहे जैसा छोटा छन्द अपनाया है। बिहारी ने दोहे में जो बात कह दी है, उसे अन्य कवि कवित्त और सवैया जैसे छन्दों के माध्यम से भी नहीं कह पाये हैं।

यह सामान्य धारणा है कि दोहे में थोड़े से शब्दों मे अधिक अर्थ भरा रहता है। कवि रहीम ने इसे स्पष्ट किया है कि छोटे से अर्थात् थोड़े अक्षरों वाले दोहे में अधिक अथ्र कैसे समा जाता है? इसके लिए रहीम ने नट का उदाहरण दिया है, जो कुंडली मारकर और सिमटकर छोटे और थोड़े स्थान में से निकल आता है।

दीरघ दोहा अर्थ के आखर थोरे आहिं।

ज्यों रहीम नट कुण्डली मारि सिमिटि चलि जाहि।।

बिहारी के दोहे इसी प्रकार के हैं। छोटे से दोहे विशाल अर्थ कुंडली मारने वाले और सिमटने वाले विशालकाय नट के समान व्याप्त और समावेशित हैं।

एक ज्योतिषि थे, जो सबका भविष्य बताया करते थे। अनेक योगों और स्थितियों के ज्ञान में वे प्रवीण थे। जब बालक जन्म लेता है तो जन्मकाल के आधार पर बनी कुण्डली से अनेक योग ज्ञात होते हैं। ज्योतिषी के घर पुत्र ने जन्म लिया तो पता चला कि इसे पितृमारक योग है। बेचारे बहुत दुखी हुए, तभी उन्होंने देखा कि इसे जारज योग भी है, इसका पिता कोई अन्य है। तात्पर्य यह है कि ज्योतिषी को पत्नी का किसी अन्य से सम्बन्ध था। इसे जानकर ज्योतिषी प्रसन्न हुए।

चित पितुमारक जोग गनि, भयो भये सुत सोग।

हिय हुलस्यो पुनि जोयसी जाने जारज योग।।

बिहारी ने अपने काव्य में ‘गागर में सागर’ भर दिया है। इस कथन को स्पष्ट करने से पूर्व मुक्तक तथा प्रबन्ध के भेद को समझ लेना नितान्त आवश्यक है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मुक्तक तथा प्रबन्ध के भेद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मुक्तक में प्रबन्ध के समान रस की धारा नहीं बहती, जिसमें कथा-प्रसंग को परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं, जिनसे हृदय- कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है।

आचार्य राजशेखर के अनुसार मुक्तकों के भेद निम्नलिखित हैं।

(i) आख्यानकम्, (ii) शुद्ध मुक्तक, (iii) संविधानकम्, (iv) चित्र-मुक्तक, (v) कथोत्थ।

आख्यानकम्-

जिस मुक्तक में इतिवृत्त का प्रभाव होता है, वह आख्यानकम् की कोटि में गिना जाता है-

नाहु गरजि नाहर गरज, बोलु सुनायी टेरि।

फँसी फौज की बन्दि बिच, हँसी सबै तन हेरि।।

चित्र-मुक्तक-

इसमें मनोविकास विस्तृत रूप में पाया जाता है। जैसे-

आपुहिं-आपु भली करी, मेटन मान मरोर।

दूरि करौ यह देखि कै, छला छिंगुनिया छोर।।

संविधानकम्-इसमें धूर्त-नायक की छल-छद्म से पूर्ण रीतियों का वर्णन होता है। उदाहरण प्रस्तुत है-

लरिका-लैबे के मिसहि, लांगर मो ढिंग आय।

गया अचानक आँगुरी, छाती छैल छुवाय॥

शुद्ध मुक्तक-

इसमें कोई वृत्त नहीं होता है। उदाहरण देखिए-

अंग-अंग छवि की लपट, उपटति जाति अछेह।

खरी पातरीऊ तऊ, लगै भरी-सी देह॥

बिहारी सर्वश्रेष्ठ श्रृंगारी कवि हैं यह बात तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है तथा स्पष्ट है। नायिका के नख-शिख वर्णन को प्रस्तुत करने में बिहारी अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं रखते हैं। भावों के उत्कर्ष का एक सुन्दर उदाहरण देखिए-

कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।

भरे भौंन में करत है नैननु ही सौं बात॥

उपर्युक्त छोटे से छन्द में बिहारी ने कितने सजीव भावों को भर दिया है? केवल 22 अक्षरों के दोहे में सात भावों को भरना बिहारी-जैसे प्रतिभाशाली कवि का ही कार्य था। बिहारी इस कार्य में तो अत्यधिक कुशल हैं। एक अन्य उदाहरण देखा जा सकता है-

नासा मोरि नवाइ दृग, करो कका की सौंह।

काँटे सी कसकति हियैं, वहै कटीली भौंह।

बिहारी ने रस का सागर प्रवाहित करने के अतिरिक्त नायिका की नजाकत, शोभा तथा सुकुमारता का भी सरस चित्र केवल मात्र दो पंक्तियों में प्रस्तुत करने का सफल प्रयत्न किया है-

भूषन भार सम्हारिहै, क्यों ये तन सुकुमार।

सूधे पाँय न धरि परत, सोभा ही के भार॥

बिहारी बहुज्ञ थे। हिन्दी-साहित्य में बिहारी के अतिरिक्त अन्य कोई कवि ऐसा नहीं है, जिसने इतनी अल्प मात्रा में लिखकर इतना यश प्राप्त किया हो। केवल सात-सौ दोहों का निर्माण करके ही बिहारी हिन्दी-साहित्य में अमर हो गये हैं। बिहारी हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ तो थे ही, इसके अतिरिक्त लोक का अनुभव भी बिहारी का विस्तृत था। सोरठा की दो पंक्तियों में दर्शन जैसे गहन विषय को बिहारी ने बड़े ही सुन्दर रूप से गुम्फित-सा कर दिया है-

मैं समझ्यौ निरधार, यह जगु काँचो काँच सौं।

एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ।।

बिहारी ने ब्रह्मा के निर्गुण सिद्धान्त का अत्यन्त ही बौद्धिक तथा उच्चकोटि का प्रतिपादन किया है-

दूरि भजत प्रभु पीठि दै, गुन-विस्तारन-काल।

प्रगटत निर्गुन निकट ही, चंग-रंग गोपाल।।

गणित की शुष्क बातों को भी बिहारी ने केवल दो पंक्तियों में सरल रूप में ही प्रस्तुत कर दिया है-

कहत सबै बैंदी दियै, आँकु दस गुनो होतु।

तिय लिलार बैंदी दियैं, अगनित बढ़त उदोतु।।

बिहारी समय के अनुसार कदम बढ़ाने वाले थे अर्थात् जिस समय में वे साँस ले रहे थे, उसके अंग-प्रत्यंग का बिहारी को पूर्ण बोध था। बिहारी की भाषा की समाहार शक्ति तथा अलंकारों की रमणीयता इस दोहे से स्पष्ट हो जाती है-

दृग अरुझत टूटत कुटुम, जुरति चतुर चित प्रीति।

परित गाँठि दुर्जन हियैं, दई, नई यह रीति॥

बिहारी ने सबसे बड़ा कमाल अपने दोहों में यह किया है कि सरसता का संचार करते हुए भी भावों का उत्कर्ष चरम सीमा पर पहुंचा दिया है। उदाहरण दृष्टव्य है-

कनक-कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाय।

या खाए बौराय जगु, वा पाये बौराय॥

निष्कर्ष-

निष्कर्ष रूप में कह सकते है कि जिस प्रकार नट एक छोटी-सी कुण्डली में सिकुड़कर अपने सम्पूर्ण शरीर को निकाल देता है, उसी भाँति महाकवि बिहारी ने थोड़े शब्दों में बहुत कहने का प्रयत्न किया है। इसी हेतु कुछ आलोचकों का यह मत रहा है कि बिहारी की कविता एक जौहरी की दुकान है, जिसका प्रत्येक रत्न बहुमूल्य हे बिहारी की ‘गागर में सागर’ भरने की कला पर मुग्ध होकर किसी विद्वान् कवि को कहना पड़ा-

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन मे छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!