सूरदास की भक्ति भावना | सूर की भक्ति सम्बन्धी स्वरूप का वर्णन
सूरदास की भक्ति भावना
सूर के काव्य में यदि कोई महत्वपूर्ण पक्ष है तो वह भक्ति पक्ष और काव्य पक्ष है। सूरदास की भक्ति के आलम्बन श्रीकृष्ण हैं, स्वयं सूरदास जी उस भक्ति के आश्रय हैं कृष्ण के गुण, रूप लीलाएँ आदि उद्दीपन हैं। सूर के कृष्णा अवगत हैं, मानव वृद्धि एवं वाणी से परे, वे परब्रह्म है उनके कृष्ण ने गोपियों से कहा है-
को माता को पिता हमारे।
कब जनमत हमको तुम देख्यौ, हाँसी लगत सुनि बात तिहारे॥
सूरदास भी ब्रह्म की अज्ञानता को मानकर कहते हैं-
“अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूंगहि मीटे फल को रस अन्तरगत ही भावै।
परम स्वादु सब ही जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।“
(1) भक्त व भगवान का प्रेम-सम्बन्ध-
सूर के अनुसार भक्त तथा भगवान का प्रेममय मधुर सम्बन्ध होता है जो कि दोनों पक्षों से ही निभाना पड़ा है। भक्त अपनी इन्द्रियों को एकाग्रचित कर भगवान की अराधना एकनिष्ठ होकर करता है। सूर की भक्ति भी अपने इष्टदेव के प्रति अनन्य भाव की है। यथा-
मेरे मन अनन्त कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै।
सूरदास को अपने इष्टदेव के प्रति कितना अगाध प्रेम था, इसका परिचय तो निम्न पद में मिल जायेगा-
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान।
छूटि गये कैसे जन जीवन ज्यों पानी बिन प्राण।
(2) आत्म-समर्पण भाव-
सूर की भक्ति-पद्धति में आत्म-समर्पण का भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है। देखिए-
जो हम भले बुरे तो तेरे।
तुम्हें हमारी लाज बढ़ाई विनती सुन प्रभु मेरे॥
सब तजि तुम सरनागत आयौ, दृढ़ कर चरन गहेरे।।
काके द्वारा जाइ सिर नाऊँ पर हाथ कहाँ बिकाऊँ।
ऐसो को है दाता समरथ, जाके दिये अघाऊँ।
अन्त काल तुम्हरे सुमरन गति, अनत कहँ नहिं पाऊँ।
(3) अनुग्रह-पुष्टि-
मार्ग की भक्ति के अनुसार भगवान अपने भक्त पर स्वयं कृपा की नजर रखते हैं। सूर भगवान की कृपा दष्टि तथा अनुग्रह की सराहना करते हुए कहते हैं-
जा पर दीनानाथ ढरें।
सोई कुलीन बड़े सुन्दर सोई जा पर कृपा करें।
सूर पतित तरि जाय छनक में जो प्रभु टेक धरें।
(4) सखा-भाव की भक्ति-
सूरदास की भक्ति सख्य-भाव की है। गोप एवं ग्वालों का कृष्ण से सखा-भाव का सम्बन्ध है। सूरदास ने अपने काव्य तथा विचारधारा का प्रचार जन- जन में करने के उद्देश्य से वात्सल्य भाव तथा सख्य-भाव की भक्ति पर अधिक बल दिया है।
(5) पदों में विनय कूट-कूट कर भरी है-
सूर के पदों में विनय का भी अभाव नहीं है। उन्होंने अपने को महापापी माना है तथा भगवान से अपने उद्धार हेतु सच्चे मन से आराधना की है तथा सूर को यह भी विश्वास है कि जिसके धनी-धोरी भगवान हैं उनके लिये विश्व का कौन- सा पदार्थ अलभ्य है। सूर को यदि भगवान की भक्ति करने पर उसका अनुग्रह प्राप्त हो जाता है तो उनके लिए किसी बात की कमी नहीं है।
कहा कमी जाके राम धनी।
मनसानाथ मनोरथ पूरन सुख निधान जाकी मौज धनी॥
(6) माया के परिहार की प्रार्थना-
सूर भगवान से अपनी माया तथा अविद्या के नाश हेतु प्रार्थना करते हैं, क्योंकि माया ही भक्त तथा भगवान के मध्य में अवरोध है। सूर भगवान से माया तथा तृष्णा के नाश हेतु अनुनय करते हैं। यथा-
अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल।
माया का कटि फेंटा वांध्यौ, लोभ तिलक दियौ भाल।
कोटिक कला काछ दिखराई, जल धन सुधि नहिं काल।
सुरदास की सबै अविद्या दूर करौ नंदलाल॥
(7) उद्धार हेतु भगवान से हठ –
भक्त सूर का भगवान से अनन्य सम्बन्ध है। वे अपने उद्धार हेतु भगवान से हठ करते हैं तथा उद्धार न करने पर वे भगवान से उनका पतित पावन को पट्टा छीनने से भी किंचित-मात्र हिचकिचाहट का अनुभव नहीं करते। वे उनकों चुनौती देते हैं। यथा-
आजु हौं एक-एक करि टरिहौ।
कै तुमही कै हमहीं माधौं अपने भरोसे लरिहौं।
कत अपनी परतीति नसावत मैं पायों हरि हीरा।
सूर पतित तब ही उठि चलि हैं जब इंस दीहौ बीरा॥
(8) सदाचार का महत्व-
पुष्टि मार्ग की भक्ति में सदाचार का महत्ववपूर्ण स्थान है। सदाचार के अभाव में भगवान की आराधना कोरा परिहास का विषय है। सूर ने सदाचार पर विशेष बल दिया है। पुष्टिा-मार्ग में स्वरूप शक्ति, लीलाशक्ति जो तीन अवस्थायें मानी हैं उनका वर्णन सूर के पदों में मिलता है। सूर में पुष्टि-मार्गीय भक्ति में प्रायः सभी तत्व प्राप्त हो जाते हैं। पुष्टि-मार्गीय तत्वों का सूर ने मनोवैज्ञानिक विश्लेष्ण बड़ी ही सरस शैली में किया है।
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