घनानन्द के काव्य की विशेषताएँ | घनानन्द के काव्य में भावपक्ष | घनानन्द के काव्य में कलापक्ष
घनानन्द के काव्य की विशेषताएँ-
घनानन्द के काव्य में प्राचीन कवियों सूर और तुलसी के काव्य की भाँति सरसता एवं स्वाभाविकता है। उन्होंने अपने काव्य में केशव की भाँति पांडित्य-प्रदर्शन का प्रयत्न नहीं किया, इसलिए उनके काव्य में कहीं भी कृत्रिमता के दर्शन नहीं होते हैं। उनके काव्य में नैसर्गिक सौन्दर्य की छटा विद्यमान है तथा कलापक्ष की अपेक्षा भावपक्ष अधिक महत्वपूर्ण है। घनानन्द के काव्य में सरसता, गम्भीरता, गहनता, गूढ़ता और उक्तियों का विधान मनमोहक है। विरह तो घनानन्द के काव्य की अमूल्य निधि है। सूर की गोपियों के विरह को छोड़कर अन्य सभी विरह-वर्णन उसके समकक्ष नहीं हो सकते।
(अ) घनानन्द के काव्य में भावपक्ष –
घनानन्द के जीवन-परिचय से ही विदित होता है कि उनका प्रेम दरबार में नाचने वाली ‘सुजान’ नामक वेश्या से था। घनानन्द ने कृष्ण और राधा के प्रति भक्ति-भाव भी प्रकट किया था। यह भी कहा जाता है कि उसके द्वारा ठुकराये जाने पर इनके प्रेम-विह्नव हृदय को अपार ठेस पहुंची।
(i) संयोग तथा वियोग का सुन्दर वर्णन- घनानन्द के काव्य में रसराज श्रृंगाररस के संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों का वर्णन है। वियोग वर्णन के समान इनके संयोग वर्णन में अधिक मार्मिकता नहीं है, क्योंकि इनका हृदय तो प्रेम की पीड़ा से भरा हुआ था। घनानन्द के काव्य की यथार्थता को प्रत्येक व्यक्ति नहीं समझ सकता है।
“प्रेम सदा अति ऊँची लहै सु, कहे इहि भाँति की बात छकी।
सुनिकै सबकै मन लालच दौरे, पै बौरे लखें सब बुद्धि चकीं।
जग की कविताई कै धोखे रहे, ह्याँ प्रवीनन की मति जाति चकी।
समुझै कविता घन आनन्द की, हिय-आँखिन नेह की पीर तकी॥”
(ii) वियोग के जीवन का वर्णन- घनानन्द ने वियोगी के जीवन का वर्णन किया है कि वह किस प्रकार रहता है? किस प्रकार उसे बिना प्राणों के जीवित रहना पड़ता है और बिना मृत्यु के मरना पड़ता है? प्रेम में आकुलता की अग्नि से हृदय जलता है तथा आँखों मेंअश्रुधारा ‘प्रवाहित होती रहती है। प्रेम न रोया जाता है।
“जीवन मरन, जीव मीच बिना बन्यौ आय,
हाय कौन विधि रची नेही की रहनि है।”
(iii) घनानन्द के प्रेम में कृत्रिमता का आभाव है- घनानन्द के प्रेम में सरसता है। उसमें कृत्रिमता के कहीं भी दर्शन नहीं होते, इसीलिए प्रेम के मार्ग में तनिक भी सयानेपर और कुटिलता को उन्होंने श्रेयस्कर नहीं माना है। प्रेम के ऐसे मार्ग पर अहंभाव को त्यागकर सच्चे लोग ही चल सकते हैं। जो शंकाशील या कपटी हैं, वे नहीं चल पाते। इस भाव को उन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया है-
“अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयापन बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपुनपौ, झिझकैं कपटी जे निसांक नहीं।“
(iv) नायक के बहेलिये का रूप-घनानन्द की नायिका विरह से अधिक व्याकुल होने के कारण नायक की समता एक बहेलिए से करती है। बहेलिया पक्षियों के पंख-विहीन करके असाहय बना देता है-
“अधिक बधिक तें सुजान रीति रावरी है,
कपट-चुगो दै फिरी कपट करौ बुरी।
गुनन पकरि लैं, निपांक करि छोरि देहु,”
(V) प्रेम की अनुपस्थिति में प्रेयसी का अधीर होना- प्रेमिका प्रेमी के न आने पर अत्यन्त विचलित होकर सोच रही है कि पहले मुझे अपनाकर विश्वास प्रदान किया, किन्तु बाद में मेरे साथ विश्वासघात करके चले गये। इसलिए वह अत्यन्त विचलित होकर कह रही है-
“पहले अपनाय सुजान सनेह सो, क्यों फिरि नेह कै तोरिये जू।
निरधार अधार दै धार मँझार दई, गहि बाँह न बोरियै जू।“
(vi) प्रेम-पाश जटिल- प्रेम के फन्दे में पड़ जाने पर निकलना सहज नहीं होता। प्रेम का व्यापार ऐसा जिसमें प्रेमी कोबहुत मूल्य चुकाना पड़ता है। इसका वर्णन कवि ने सहयतापूर्वक किया है-
“सूझै नहीं सुरझि उरझि नेह मुरझनि,
मुरझि-मुरझि निस दिन डाँवा डोल हैं
आह की न थाह दैया कठिन भयौ निबाह,
चाह के प्रवाह घेर्यौ दारुन कलोल है।“
(vii) प्रेमिका का अपने भाग्य को दोष देना-दिन रात अत्यधिक विरह-पीड़ा का अनुभव करते हुए भी प्रेमिका प्रिय को नहीं, अपने भाग्य को दोष देती है। प्रिय की निष्ठुरता एवं निर्दयता का गम्भीर अनुभव करते हुए भी प्रेमिका प्रिय पर दोषारोपण नहीं करती, प्रियतम से प्रेम की अप्राप्ति को अपने भाग्य का दोष ही समझती है। भारतीय प्रेम-पद्धति की ये विशेषता सदैव से चली आ रही है। इसी भाव को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है-
“जासौं प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह,
कैसे करि जिय की जरनि सो जताइयै।
महा निरदई, दई कैसे कै जिवाऊँ जीव,
वेदन करी बढ़वारि कहाँ लौ दुराइयै।“
(आ) घनानन्द के काव्य में कलापक्ष-
जिस प्रकार सुन्दर नारी को आभूषण पहना दिये जायें तो वे सोने में सुगन्ध का कार्य करते है, उसी प्रकार सरस एवं भाव-प्रधान काव्य में अलंकार तथा भाषा-शैली का उत्कृष्ट प्रयोग उसके सौन्दर्य में चार-चाँद लगा देता है।
(i) अलंकारों की सरस छटा- कवि घनानन्द ने एक ही पद में कई-कई अलंकारों का प्रयोग किया है, फिर भी कविता में दुरूहता नहीं आने पायी हे और न भाव व्यक्त करने में वे बाधक ही हुए हैं। वियोग दशा में विषमता का वर्णन करने में घनानन्द ने हृदय-अनुभूत मार्मिक वेदना को प्रकट करते हुए कवित्त में क्रमालंकार, विरोधाभास, विषम, उपमा, पुनरुक्तिप्रकाश, विभावना तथा अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग किया है। जैसे-
“अन्तर उदेग दाह, आँखिन प्रवाह-आँसू,
देख अटमटी चाह भीजनि दहनि है।
सोइबो न जागिबो हूँ, हाँसिबो न रोयबो हूँ,
खोय खोय आप ही में चेटक-लहनि है।“
(ii) मुहावरों का प्रयोग- घनानन्द ने मुहावरों का प्रयोग भी अधिकता से किया है। मुहावरों के प्रयोग से उनकी कविता-कामिनी में अत्यधिक सरसता दिखाई देती है, जैसे-
“आस ही अकास मधि अबधि गुनै बढ़ाय,
चोपनि चढ़ाय दीनौ, कीनौ खेल सौ यहै।
निपट कठोर ये हौं ऐंचत न आप ओर,”
(iii) छन्द- घनानन्द में अपनी कविता में सवैया, कवित्त, दोहा आदि छन्दों का प्रयोग प्रमुखता से किया है। उनका व्याकरण तथा छन्द का प्रयोग सुन्दर है।
निष्कर्ष-
घनानन्द को अपनी भाषा पर पूर्ण अधिकार है। भावों को व्यक्त करने वाले वे अनोखे व्यक्ति हैं, जो कहीं भी भाव-भंगिमा में कमी नहीं आने देते।
इस प्रकार जहाँ तक काव्य-सौन्दर्य का प्रश्न है, घनानन्द का काव्य इससे सर्वथा ओत- प्रोत है। उसके किसी भी क्षेत्र में कमी नहीं आनेपाई है। भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से उनका काव्य उत्तम कोटि का है।
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