शिक्षाशास्त्र

गांधीजी का जीवन-वृत्त | गांधीजी के दार्शनिक विचार | गांधीजी की शैक्षिक विचारधारा | गांधीजी के शिक्षासम्बन्धी अन्य विचार | गांधीजी के शिक्षादर्शन की समीक्षा | शिक्षा के क्षेत्र में गांधीजी का योगदान

गांधीजी का जीवन-वृत्त | गांधीजी के दार्शनिक विचार | गांधीजी की शैक्षिक विचारधारा | गांधीजी के शिक्षासम्बन्धी अन्य विचार | गांधीजी के शिक्षादर्शन की समीक्षा | शिक्षा के क्षेत्र में गांधीजी का योगदान | Biography of Gandhiji in Hindi | Philosophical Thoughts of Gandhiji in Hindi | Gandhiji’s Educational Ideology in Hindi | Gandhiji’s other thoughts on education in Hindi | Review of Gandhiji’s Education Philosophy in Hindi | Gandhi’s contribution in the field of education in Hindi

गांधीजी का जीवन-वृत्त

महात्मा गांधी हमारे राष्ट्रपिता होने के साथ-साथ एक महान दार्शनिक तथा शिक्षाशास्त्री भी थे। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गांधी था। इनका जन्म 2 अक्टूबर सन् 1869 को पोरबन्दर में हुआ था। इनके पिता कर्मचन्द गांधी राजकोट के दीवान थे। इनकी माता अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। माता के धार्मिक विचारों का गांधीजी पर अमिट प्रभाव पड़ा। तेरह वर्ष की आयु में गांधीजी का विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ। प्रारम्भ में गांधीजी साधारण छात्र थे। सन् 1887 ई० में उन्होंने मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्होंने कालेज में प्रवेश लिया। परन्तु वहाँ मन न लगने के कारण उन्हें कानून का अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड भेजा गया। दे वैरिस्टर बनकर भारत वापस आये। वे काठियावाड़ तथा बम्बई में कुछ दिनों तक वकालत करते रहे, किन्तु इस व्यवसाय में उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली। सन् 1893 ई० में एक मुकदमे में पैरवी करने उन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। यद्यपि गांधीजी वहाँ केवल एक वर्ष के लिए ही गये थे, परन्तु वहाँ पर अपने देशवासियों की दुर्दशा और उनके साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहारों ने उन्हें इतना विचलित किया कि उनकी दशा को सुधारने तथा अंग्रेजों द्वारा उन पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए यहाँ उन्हें बीस वर्ष तक रहना पड़ा। इस अवधि में उन्हें गुलामी के कष्टों और वर्ण-भेद के जुल्मों का कटु अनुभव हुआ। उन्हें दक्षिण अफ्रीका में रह कर स्वतन्त्रता का मूल्य मालुम हुआ और वहीं पर भारत को स्वतन्त्र कराने का दृढ निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अहिंसारूपी आध्यात्मिक अस्त्र को अपनाया और जीवन भर इसी अस्त्र के सहारे बुराइयों और गत्याचारों के विरुद्ध लड़ते रहे।

सन् 1914 ई० में स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण वे भारत वापस आ गये। सन् 1915 ई० में वह भारत के राजनीतिक क्षेत्र में कूद पड़े और विदेशी शासन का विरोध किया। सन् 1917 ई० में उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना किया। इस आश्रम का उद्देश्य ‘हरिजन उद्धार’, ग्रामोद्योग तथा अन्य सामाजिक सुधार और रचनात्मक कार्य करना था। सन् 1921 ई० में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा योजना के सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत किये। सन् 1930 ई० में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पास किया और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए गांधीजी ने असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया। यह आन्दोलन काफी उग्र हो गया और ब्रिटिश सरकार को गांधीजी के साथ समझौता करना पड़ा। यह समझौता 6 मार्च सन् 1931 ई० को हुआ जो ‘गांधी-इरविन समझौता’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस समझौते के बावजूद भी अंग्रेज ने अपनी दमनात्मक नीति को नहीं छोड़ा, जिसके फलस्वरूप सन् 1942 ई० में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन की आग भड़क उठी। देश में क्रान्ति हुई। महात्मा गांधी सहित तमाम स्वतन्त्रता सेनानी जेल में बन्द कर दिये गये। धीरे-धीरे परिस्थितियों में कुछ सुधार आया और सन् 1944 ई० में सभी को जेल से मुक्त कर दिया गया। सन् 1945 ई० में समझौते की बातचीत पुनः प्रारम्भ हुई और अंग्रेज सरकार ने 15 अगस्त सन् 1947 ई० के दिन भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की। स्वतन्त्रता के साथ ही साथ देश का विभाजन हुआ। साम्प्रदायिक झगड़े उठ खड़े हुए। इन झगड़ों को शान्त करने के लिए गांधीजी ने अपनी जान की बाजी लगा दी। उनकी साम्प्रदायिक नीति से असन्तुष्ट होकर एक संकीर्ण मन वाले युवक नाथूराम गोडसे ने शुक्रवार के दिन 30 जनवरी सन् 1948 ई० को उन्हें अपनी गोली का शिकार बनाया। उसी क्षण विश्व की यह महान् विभूति तथा मानवता और स्वतन्त्रता का अमर पुजारी हमारे बीच से उठ कर चला गया।

गांधीजी के दार्शनिक विचार

महात्मा गांधी मितभाषी, सत्यभाषी, अभिमानरहित महापुरुष थे। सत्य धर्म और कर्म ही उनका जीवन था। उनका अपना कोई पृथक ‘दर्शन’ या ‘वा़द’ नहीं था। उन्होंने शाश्वत सत्य के आधार पर जो कुछ भी कहा, विश्वास किया और अपने जीवन में पालन किया उसी को उनका जीवन दर्शन कहा जा सकता है। उन्होंने 28 मार्च 1930 ई. के ‘हरिजन’ नामक पत्र में स्वयं ही स्पष्ट किया है-“मैने न कोई नया बाद दिया है और न कोई नथा सिद्धान्त। जो कुछ भी मैंने अपनाया है, बड़ है ‘शाश्वत सत्व’ जिसका सहारा मैंने अपनी कठिनाइयों और समस्याओं को हल करने के लिए लिया है। जो कुछ मैंने कहा है वही मेरा दर्शन है। इसे गांधीवाद की संज्ञा देना भूल होगी, क्योंकि इसमें कुछ नवीन सिद्धान्त नहीं है। मेरी कही हुई बातों के लिए न साहित्य की और न प्रचार की आवश्यकता है, क्योंकि वे ‘शाश्वत सत्य’ पर आधारित हैं जो अनन्त काल से चला आय है।” गांधीजी ने निम्नलिखित बातों पर अपने जीवन में अधिक बल दिया है और अपनाया है। अतएव हम इन्हीं बातों को उनके जीवन दर्शन का तत्व मानकर संक्षेप में विवेचना करेंगे-

(1) सत्य- गांधीजी के जीवनदर्शन का सर्वश्रेष्ठ तत्व ‘सत्य’ है। उनके सत्य में शिवम् और सुन्दरम् निहित है। उनके अनुसार सत्य और ईश्वर में कोई भेद नहीं है। सत्य क्या है ? इसके उत्तर ने गांधीजी का कथन है कि तुम्हारी आत्मा जो कहती है बड़ी सत्य है।…… परन्तु सबकी आत्मा एक ही बात नहीं कहती। संस्कार-भेद के कारण सज्जन और दुर्जन की अन्तरात्मा की वाणी में भेद पाया जाता है।.. अतः शुद्ध अन्तरात्मा की वाणी ही सत्य है।” सत्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उसका प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र में होना चाहिए। गांधीजी ने आजीवन सत्य का निर्वाह किया। उन्होंने अपनी आत्मकथा’ में लिखा है- “मेरे मन से सत्य सर्वापरि है और उसमें अगणित वस्तुओं का समावेश हो जाता है. यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य नहीं है, बल्कि स्वतन्त्र, चिरस्थायी सत्य है, अर्थात् परमेश्वर ही है।”

(2) अहिंसा- अहिंसा गांधीजी के जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है। अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है- किसी को न मारना या हत्या न करना। किन्तु गांधीजी के अनुसार अहिंसा का अर्थ हत्या न करने मात्र से कहीं अधिक व्यापक है। वास्तव में मन, वचन और कर्म से किसी को हानि न पहुँचाना अहिंसा है। गांधीजी की अहिंसा की धारणा की विवेचना करते हुए श्री एफ० एंड्रज ने लिखा है कि “अहिंसा कोई नकारात्मक गुण ही नहीं है। इसमें सकारात्मक रूप में भलाई करना उतना ही शामिल है जितना कि नकारात्मक रूप में किसी को हानि न पहुँचाना।” गांधीजी ने स्वयं लिखा है-“वास्तव में इसका (अहिंसा का अर्थ यह है कि आप किसी की भावना को चोट नहीं पहुँचायेंगे, किसी के प्रति यहाँ तक कि उसके प्रति भी जो कि अपने को आपका दुश्मन समझता है, किसी प्रकार का कटु या अनुदार विचार पोषण नहीं करेंगे।” इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति की हानि होने की भावना या विचार तक मन में लाना अहिंसा के मार्ग से हट जाना है। अहिंसा और सत्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है। अहिंसा के द्वारा सत्य की प्राप्ति होती है। सत्य और अहिंसा एक-दूसरे के पूरक हैं। किसी प्रकार की हिंसा (Violence) सत्य की प्राप्ति में भयंकर बाधक है। गांधीजी ने अहिंसा व्रत का पालन जीवन के अंतिम क्षणों तक किया। मरते समय भी अपने गोली मारने वाले के लिए लोगों से आग्रह किया कि मेरे हत्यारे को किसी भी प्रकार का दंड या क्लेश मत देना।

(3) सत्याग्रह- सत्याग्रह’ की धारण विश्व के लिए महात्मा गांधी की एक अनमोल देन है। ‘सत्य’ की प्राप्ति के लिए ही उन्होंने सत्याग्रह का रूप निर्धारित किया। उनके विचार में ‘हिंसा’ अनैतिकता, अत्याचार और क्रूरता का सामना करने के लिए इससे बढ़कर अमोघ अस्त्र कोई नहीं है। साधारण रूप में ‘सत्याग्रह’ शब्द अहिंसात्मक आंदोलन के लिए प्रयोग किया जाता है। किन्तु गांधीजी के शब्दों में ‘सत्वग्रह’ शब्द का अर्थ है-‘सत्य का दृढ अवलम्बन’ .. ‘सत्याग्रह’ का तात्पर्य विरोधी पर किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करने की अपेक्षा स्वयं कष्ट सहकर अपनी बात पर अटल रहकर और जनमत को प्रभावित करके उसे (विरोधी को) सही मार्ग पर लाने से है। सत्याग्रह गांधीजी के लिए एक प्रकार की युक्ति (उपाय) थी एवं जिसका प्रयोग वे सामाजिक एवं राजनीतिक बुराइयों को दूर करने के लिए करते थे।

महात्मा गांधी के अनुसार सत्याग्रह एक कठिन किन्तु प्रभावशाली साधन है। सत्याग्रही बनने के लिए व्यक्ति में कुछ गुणों का होना आवश्यक है। कायर, भीरु, अपवित्र विचारोवाला और अनैतिक कार्य करनेवाला व्यक्ति तत्याग्रही नहीं बन सकता। सत्याग्रही के लिए आत्मानुशासन, साहस, निःस्वार्थ भावना, कल्याण भावना, नैतिकता, सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य आदि सद्गुणों का होना आवश्यक है।

(4) धर्म और ईश्वर- धार्मिक क्षेत्र में गांधीजी अत्यन्त व्यापक और उदार दृष्टिकोण रखते हैं। गांधीजी ने किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष के धर्म को अपना धर्म नहीं माना। यद्यपि उनका जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था तथापि वे सभी धर्मों को समान मानते थे। गांधीजी के अनुसार धर्म वह आधार है जो कि हमें परम् सत्य से एकाकार कराता है और व्यक्ति को समस्त मानवीय गुणों से युक्त करता है। उनका विश्वास था कि “सभी धर्म एक ही प्रकार के नैतिक नियमों पर आधारित हैं। मेरे नैतिक धर्म की रचना उन सबके नियमों के द्वारा हुई है जो सम्पूर्ण जगत् के मनुष्यों पर लागू होते हैं।”

ईश्वर के सम्बन्ध में भी गांधीजी के विचार अत्यन्त व्यापक और उदार हैं। मूल रूप में वे सम्पूर्ण संसार और प्राणियों में व्याप्त सत्य को ईश्वर मानते हैं। उनके अनुसार ईश्वर के अनन्त रूप हैं। ईश्वर क्या है और उसके कितने रूप हैं, इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है-“मेरे लिए ईश्वर सत्य और पेम है, ईश्वर आचार और नैतिकता है, ईश्वर निर्भीकता है, ईश्वर प्रकाश एवं जीवन का स्रोत है। परन्तु इतना होते हुए भी यह इन सबसे ऊपर और इन सबसे परे है। ईश्वर अन्तरात्मा है, यहाँ तक कि ईश्वर नास्तिक भी है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि गांधीजी ईश्वर को एक अदृश्य, अनुपम एवं अनन्तरूपी शक्ति मानते हैं।

(5) नैतिकता- गांधीजी मानव-जीवन में नैतिकता को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान करते हैं। उनके अनुसार नैतिकता सुख और संतोष का वातावरण उत्पन्न करती है। वह जीवन और धर्म का मूलाधार है। ईश्वर को प्राप्त करने का यह एक उत्तम साधन है। नैतिकता के लिए स्नेह और प्रेम आवश्यक है। नैतिकता के लिए उन्होंने दूसरी आवश्यक वस्तु ‘ज्ञान’ बतलाया है। ज्ञान प्रेम को संकीर्ण बनने से रोकता है। गांधीजी का विचार है कि निःस्वार्थ भाव से, कर्त्तव्य- पालन की भावना से, दूसरों के हित के लिए तथा अपने स्वयं के सुधार के अभिप्राय से किये गये कार्यों को नैतिक कहा जा सकता है। अनैतिक कार्यों की पहचान के लिए आत्म-विश्लेषण और निरीक्षण को महत्वपूर्ण बतलाया है। गांधीजी अपने कार्यों के औचित्य को आत्म-विश्लेषण द्वारा जाँचते थे। वे आत्मविश्लेषण के लिए प्रायः एकान्त में चले जाते थे। यदि वे अपने कार्य को गलत पाते तो अपनी गलती स्वीकार कर लेने को ही नैतिकता कहने थे !

(6) मानव जीवन का लक्ष्य- गांधीजी ने मानव जीवन का लक्ष्य आत्म-ज्ञान को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। किन्तु इसके साथ वे वैराग्य लेकर एकान्तवास करके आत्म- ज्ञान की खोज का समर्थन नहीं करते। वे चाहते हैं कि मनुष्य सांसारिक समस्याओं से संघर्ष करते समय जीवन के लक्ष्य के लिए प्रयास करे। मनुष्य को आत्म-ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब उसके हृदय में समस्त जीवों के प्रति कल्याण की भावना उत्पन्न हो। गांधीजी ने इसे ही ‘सर्वोदय’ को संज्ञा दिया है।

(7) सीमित औद्योगीकरण- गांधीजी भारत जैसे महान् जनशक्ति वाले देश में अधिक औद्योगीकरण का समर्थन नहीं करते। उनके विचार में औद्योगीकरण बेरोजगारी को बढ़ावा देता है। अतः जिस देश में जनशक्ति का अभाव हो वहाँ तो औद्योगीकरण आवश्यक है किन्तु भारत जैसे देश में जहाँ जनशक्ति प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और यह दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही है वहाँ औद्योगीकरण सौमित होना चाहिए। औद्योगीकरण केवल उस सीमा तक हो जहाँ तक बेरोजगारी न बढ़े। गांधीजी सिद्धान्तः मशीनों के विरोधी नहीं थे पर मशीनों के कारण मानव के शोषण, बेरोजगारी, आध्यामिकता का विनाश आदि के वे विरोधी थे। औद्योगीकरण से कार्य एवं उससे होने वाला लाभ केवल कुछ थोड़े से लोगों के हाथ में चला जाता है और लाखों की संख्या में लोग बेकार हो जाते हैं और जो काम से लगे होते हैं उनका शोषण होता है; अतः गांधीजी के विचार ग्रामोद्योग और फटीर-धंधों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। जीयोगीकरण के कुपरिणानों के विषय में गांधीजी के विचार संक्षेप में इस प्रकार हैं-“प्रथम औद्योगीकरण बेरोजगारी को जन्म देता है, द्वितीय इसमें व्यक्ति द्वारा व्यक्तियों और राष्ट्र द्वारा राष्ट्रों का शोषण होता है, तृतीय औद्योगीकरण मनुष्य के नैतिक पक्ष को अत्यधिक क्षति पहुंचाता है तथा शरीर को बुरी आदतों के कारण पतन की ओर ले जाता है और अंतिम यह कि मनुष्य को पांत्रिक दास बनाकर असंख्य व्यक्तियों के श्रम और समय को नष्ट करता है।”

(8) विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त- गांधीजी आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त के समर्थक थे। उनका विचार था कि धन और शक्ति का केन्द्रीकरण अहिंसा के सिद्धान्त के विपरीत है। उन्होंने सीमित व्यक्तिगत पूँजी के आधार पर देश में एक नवीन प्रकार की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का विचार प्रस्तुत किया। उनका विश्वास था कि इससे ग्रामीण जनता का आचरण अच्छा होगा और उनमें एक नयी चेतना आयेगी। विगत दो विश्व युद्धों में महानगरों की विनाश लीला देखकर दे एक निष्कर्ष पर और पहुँचे थे कि केन्द्रीकरण देश की सुरक्षा की दृष्टि से भी उचित नहीं होगा। इस सम्बन्ध में गांधीजी के कहा है-“अहिंसा पर आधारित समाज में केन्द्रीकरण अनुपयुक्त है और यदि हमें देश की प्रगति अहिंसा के सिद्धान्त के अनुसार करनी है तो अनेक क्षेत्रों में विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त लागू करना होगा।”

(9) श्रम की महत्ता- गांधीजी ने मानव-जीवन में श्रम को बहुत अधिक महत्व प्रदान किया है। उनका विचार था कि श्रम के माध्यम से मनुष्यों में समता की भावना उत्पन्न होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को श्रम की भावना का यथेष्ट सम्मान करते हुए अपने समस्त कार्यों को स्वयं ही करना चाहिए। सबको अपने शरीर, निवास और वातावरण की सफाई स्वयं ही करना चाहिए। यहाँ तक कि गांधीजी का कथन था कि जिस काम को हम गंदा समझकर भंगियों पर छोड़ देते हैं उसे भी स्वयं ही करना चाहिए। उनका विश्वास था कि प्रत्येक व्यक्ति श्रम करे और श्रम की महत्ता को समझ। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी लोग हल और कुदाल चलायें और रोटी पैदा करें वरन चाहे वे कलम चलायें या हथौड़ा, बसूली और करघे पर काम करें। उनके कहने का यही भाव था कि सभी लोग अपने पसीने की कमाई खायें किन्तु किसी दूसरे पर आश्रित न रहे। गांधीजी गीता के उपदेशों से अत्यधिक प्रभावित थे; अतः उन्होंने मानव को कर्म-मार्ग अपनाने का संदेश दिया। कोई भी काम ऊँचा नीचा नहीं होता; सभी को सब प्रकार के कार्य करना चाहिए।

(10) समाज में पुरुष और स्त्री का स्थान- गांधीजी ने समाज में स्त्री और पुरुष दोनों को समान महत्व दिया है। उनके विचार में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने 24 फरवरी, 1940 ई० को ‘हरिजन’ में लिखा है-“मेरी अपनी राय तो यह है कि जैसे मूलतः स्त्री और पुरुष एक हैं, ठीक उसी प्रकार उनकी समस्या भी मूल में एक ही होनी चाहिए। दोनों में एक ही आत्मा विराजमान है। दोनों एक ही प्रकार का जीवन बिताते हैं। दोनों की एक ही भावनाएँ हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की सक्रिय सहायता के बिना दूसरा जी ही नहीं सकता।” दोनों की शारीरिक रचना और प्रकृति-प्रदत्त गुण अलग-अलग होने से उनका कार्य क्षेत्र भी बैठा है। किन्तु दोनों का कार्य क्षेत्र समान महत्व का है। पुरुषों का कार्य-क्षेत्र परिवार की रक्षा और उसका भरण-पोषण करना है और स्त्री का कार्य क्षेत्र बच्चों का पालन-पोषण और घर-गृहस्थी की देख-भाल करना है। गांधीजी के अनुसार- “स्त्री स्वभाव से ही घर की मालकिन है, पुरुष कमानेवाला है। स्त्री कमाई की रक्षा करती है और उसे बाँटती है। वह प्रत्येक अर्थ में परिवार की पालिका है। मानव जाति के दुधमुँहे बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करने की कला उसी का विशेष धर्म और एकमात्र अधिकार है। वह संरक्षण न करे तो मानव जाति का अस्तित्व ही संसार से मिट जाये।” महात्मा गांधी यह नहीं चाहते थे कि स्त्रियाँ पुरुषों के कार्य क्षेत्र में काम करें। उनका विचार था कि दोनों अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में कार्य करें और गौरव का अनुभव करें और एक-दूसरे के साथ एकता, सद्भाव और सहयोग की भावना से ओत-प्रोत हों।

गांधीजी ने यद्यपि स्त्री-पुरुष के कार्य क्षेत्र को अलग-अलग स्वीकार किया है तथापि अपने उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए समान महत्व के गुणों की आवश्यकता है। इसलिए उन्होंने समाज अध्यात्म और शिक्षा के क्षेत्र में स्त्री को एक समान अधिकार देने का समर्थन किया है।

गांधीजी की शैक्षिक विचारधारा

महात्मा गांधी के जीवनदर्शन का गहन अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि वे आध्यामिकता पर आधारित एक आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें सत्य, अहिंसा, नैतिकता, प्रेम और न्यायरूपी स्तम्भ हो। इस आदर्श समाज की स्थापना के लिए वे व्यक्ति की शिक्षा को आवश्यक समझते थे। वह शिक्षा ऐसी हो जो व्यक्ति के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक आदि समस्त क्षेत्रों के विकास में सहायक हो। इसके लिए उन्होंने ‘बेसिक शिक्षा योजना’ को बर्यान्वित किया किन्तु यह शिक्षा केवल 14 वर्ष तक की आयु के बालकों के लिए ही थी। इसके अध्ययन मात्र से ही हमें गांधीजी के शिक्षा दर्शन का पूरा ज्ञान ही नहीं हो सकता; अतएव हम शि के विभिन्न पहलुओं पर उनके विचारों का वर्णन संक्षेप में नीचे कर रहे हैं:-

(1) शिक्षा का अर्थ- गांधीजी प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षित देखना चाहते थे। किन्तु शिक्षित से उनका तात्पर्य साक्षर अथवा विद्यालय से डिग्री प्राप्त व्यक्ति से न था। उनके विचार में पुस्तकीय ज्ञान तो शिक्षा का एक साधन मात्र है। इसी प्रकार साक्षरता न तो शिक्षा का आरम्भ है और न अंत। गांधीजी विश्वविद्यालय से डिग्रीप्राप्त किन्तु अनैतिक व्यक्ति से अच्छा बेपढें- लिखे उस मजदूर और किसान को समझते थे जो नैतिक और चरित्रवान हो। इससे स्पष्ट है कि गांधीजी ने जीवन में चरित्र और नैतिकता पर अधिक बल दिया है। उनका विचार है कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति का नैतिक विकास होना चाहिए।

(2) शिक्षा के उद्देश्य- गांधीजी की दार्शनिक विचारधारा का प्रभाव उनके शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उन्होंने जीवन के विभिन्न पहलुओं और जीवन के आदर्शों को दृष्टि में रखकर शिक्षा के अनेक उद्देश्य बतलाये हैं। ये उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(i) सर्वांगीण विकास का उद्देश्य- शिक्षा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है कि “अच्छी और पूर्ण शिक्षा वह है जो मानव-जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति का विकास करे जिससे उसके शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक आदि गुणों को बल मिले और वे पूर्णरूपेण विकसित हों।” इस प्रकार की शिक्षा से बालक के व्यक्तित्व में एकाकीपन का दोष नहीं आने पाता। अपने इन्हीं दिदारों का उन्होंने 31 जुलाई और 11 सितम्बर 1937 ई० के ‘हरिजन’ नामक पत्रिका में इस प्रकार व्यक्त किया है-“वास्तविक शिक्षा वह है जो बालकों की आध्यात्मिक, बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं को उनके अन्दर से बाहर प्रकट करे और उद्दीप्त करें।” इस प्रकार सष्ट है कि आत्मा, शरीर और मस्तिष्क के गुणों को विकसित करना ही गांधीजी ने शिक्षा का उद्देश्य माना है।

(II) जीविकोपार्जन का उद्देश्य-गांधीजी का विचार है कि बालक को उसके शिक्षा- काल में ही उसकी रुचि और आवश्यकता के अनुसार किसी व्यवसाय की शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे उन्होंने दो लाभ बतलाये हैं-प्रथम तो यह कि व्यावसायिक शिक्षा से बालक को भविष्य में रोजगार की चिंता नहीं रहेगी और दूसरे यह कि अध्ययन काल में उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बेचकर उसकी पढ़ाई का खर्च तथा विद्यालय का खर्च निकाला जा सकता है। इससे बालक में आत्मनिर्भरता की भावना उत्पन्न हो सकती है और श्रम का महत्व समझता है तथा शारीरिक श्रम को हीन दृष्टि से नहीं देखता।

(iii) सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य- गांधीजी के अनुसार सांस्कृतिक विकास का

 उद्देश्य भी शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्देश्य है। उनके विचार में संस्कृति का विकास आत्मा का गुण है। उन्होंने दिल्ली में कस्तूरबा बालिका-आश्रम को संबोधित करते हुए एक बार कहा था-“में शिक्षा के सांस्कृतिक पक्ष को उसके साहित्य पक्ष से अधिक महत्वपूर्ण समझता है। सांस्कृतिक शिक्षा का आधार तथा विशेष अंग है जिसे बालिकाओं को यहाँ से प्राप्त करना चाहिए।”

(iv) चरित्र निर्माण का उद्देश्य- गांधीजी ने शिक्षा के उद्देश्यों में चरित्र निर्माण के उद्देश्य को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है। वे रामस्त शिक्षा को चरित्र-निर्माण की कसौटी पर कसते हैं। उसके अनुसार शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य ‘चरित्र-निर्माण’ है। जो शिक्षा चरित्र का निर्माण नहीं करती व व्यर्थ है। गांधीजी ने साहस, शक्ति, परोपकार, दृढ़ता, प्रेम, अहिंसा, सहानुभूति आदि अनेक मानवीय गुणों के विकास को पुस्तकीय शिक्षा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-“मैंने चरित्र-निर्माण को शिक्षा का समुचित आधार माना है। इसी प्रकार एक बार छात्रों की एक सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा था-“सत्य और शुद्ध आचरण से जो शिक्षा दूर है, वह व्यर्थ और निरर्थक है। यदि शिक्षा से जीवन और चरित्र पवित्र न हुआ हो और मनुष्य के कर्म, उसके विचार और उसकी वाणी में पवित्रता का अभाव हो, तो ऐसा व्यक्ति चाहे कितने ही उच्च कोटि का विद्वान् बन जाय, पर उसे व्यर्थ और नष्ट हुआ ही समझना चाहिए।”

(v) आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का उद्देश्य- विद्या या विमुक्तये गांधीजी का आदर्श था। इस आदर्श के अनुसार उन्होंने माना है कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को मुक्ति दिलाना है। उनके मतानुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति को सांसारिक बन्धनों से मुक्ति दिलाकर उसकी आत्मा को उत्तम जीवन की ओर उठा सके और परम् सत्ता का साक्षात्कार करने में सहायक हो सके।

(vi) आत्मानुभूति का उद्देश्य- गांधीजी ने शिक्षा का अन्तिम और सर्वप्रमुख उद्देश्य ‘आत्मानुभूति’ माना है। शिक्षा के उपर्युक्त सभी उद्देश्य व्यक्ति के सर्वाङ्गिण विकास के लिए है और ‘आत्मानुभूति’ अर्थात् स्वयं की आहा का ज्ञान तभी संभव है जब व्यक्ति का सर्वाङ्गीण विकास हो जाय। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनके कथनानुसार व्यक्ति की आध्यात्मिक स्वतन्त्रता आवश्यक है। अतएव गांधीजी के विचार में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आत्मानुभूति अथवा ईश्वर से साक्षात्कार में सहायता करे।

  1. शिक्षा का पाठ्यक्रम गांधीजी ने जीवन के विभिन्न पहलुओं और जीवनादर्शों को ध्यान में रखकर शिक्षा के अनेक उद्देश्य निर्धारित किये। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने शिक्षा के पाठ्यक्रम का स्वरूप भी निर्धारित किया और बतलाया कि कौन-कौन से विषयों का समावेश पाठ्यक्रम में होना चाहिए। पाठ्यक्रम के निर्धारण में गांधीजी ने निम्नलिखित सिद्धांतों को ध्यान में रखा है-

(i) उपयोगिता का सिद्धांत- गांधीजी में वर्तमान शिक्षा प्रणाली से सन्तुष्ट न थे। क्योंकि इस शिक्षा को दे बालक के जीवन में उपयोगिता की दृष्टि से निरर्थक ही नहीं वरन्  हानिकारक भी समझते थे। गाँधी जी ने ऐसी शिक्षा पर बल दिया है जो बालक के जीवन में उपयोगी हो। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने व्यवसाय और शारीरिक श्रम से सम्बन्धित शिक्षा का समर्थन किया है। इसके लिए उन्होंने बतलाया कि संपूर्ण पाठ्यक्रम को बालक के जीवन में  उपयोगी किसी स्थानीय हस्तकला पर आधारित होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि गांधीजी ने क्रिया-प्रधान अथवा हस्तकला केन्द्रित पाठ्यक्रम पर बल दिया है।

(ii) सह-संबंध का सिद्धांत- गांधीजी का विचार या कि समस्त पाठ्य-विषयों की शिक्षा सानुबंधित ढंग से दी जाय अर्थात् एक विषय का ज्ञान प्रदान करते समय अन्य प्रासंगिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए।

(iii) लचीलेपन का सिद्धांत- गांधीजी ने पाठ्यक्रम के निर्धारण में लचीलेपन के सिद्धान्त का भी ध्यान रखा है। उनकी बेसिक शिक्षा योजना में बालक को अपनी रुचि के अनुसार किसी भी हस्तकला को चुनने की स्वतन्त्रता है। पाठ्यक्रम में अनेक हस्तकलाएँ और विषय सम्मिलित हैं। ये विषय निम्नलिखित हैं-

हस्तकलाएँ- कताई-बुनाई, कृषि, बागवानी, दफ्ती, कागज, लकड़ी, चमड़ा, मिट्टी आदि का काम।

भाषा- राष्ट्रभाषा, मातृभाषा (स्थानीय भाषा), हिन्दुस्तानी भाषा (हिन्दी और उर्दू का मिश्रित रूप)।

गणित- अंकगणित, रेखागणित, नाप-जोख

सामाजिक विज्ञान- इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र और अर्थशास्त्र का सम्मिलित पाठ्यक्रम ।

सामान्य विज्ञान- प्रकृति अध्ययन, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, शरीर तथा स्वास्थ्य विज्ञान, गृह विज्ञान (कवल बालिकाओं के लिए)।

ललित कलाएँ- संगीत, चित्रकला।

शरीर शिक्षा- व्यायाम, ड्रिल, खेल-कूद।

नैतिक और धार्मिक शिक्षा- प्रतिदिन प्रार्थना, उपदेश तथा समाज सेवा कार्य।

  1. शिक्षण विधि- महात्मा गांधीजी ने प्रचलित पद्धति को दोषपूर्ण बतलाया और उसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने का सुझाव दिया। उनका विचार या कि शिक्षण विधि ऐसी हो जिसमें बालक निष्क्रिय श्रोता मात्र न रहकर सक्रिय कार्यकर्त्ता, निरीक्षणकर्त्ता और प्रयोगकर्ता के रूप में शिक्षा प्राप्त करे। गांधीजी द्वारा प्रतिपादित और समर्थन प्राप्त शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं –

(i) क्रिया-विधि- गांधीजी का विश्वास था कि बालक के मानसिक विकास के लिए शरीर की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का विकास और प्रशिक्षण आवश्यक है। इसलिए उन्होंने कार्य करके सीखने के सिद्धान्त पर अधिक बल दिया है। अतः हम उनकी शिक्षण- पद्धति को क्रिया-पद्धति कह सकते हैं। इसके लिए गांधीजी ने बेसिक शिक्षा को हस्तकला केन्द्रित बनाया है।

(ii) सानुबन्धित विधि- गांधीजी ने शिक्षा की सानुबन्धित अथवा समन्वय की विधि को बहुत महत्वपूर्ण बतलाया है। उनका विचार है कि बालक को विभिन्न विषयों की शिक्षा एक दूसरे से सम्बन्धित रूप में दी जाय। उदाहरण के लिए किसी हस्तकला की शिक्षा देते समय प्रासंगिक रूप से इतिहास, भूगोल, विज्ञान, व्यापार पद्धति आदि का समुचित ज्ञान कराया जा सकता है।

(iii) स्वानुभव द्वारा सीखने की विधि- गांधीजी ने स्वानुभव द्वारा सीखने की विधि पर भी जोर दिया है। उनका विचार है कि बालक विद्यालय के वातावरण में रह कर और विभिन्न प्रकार के कार्यों को करके जो अनुभव प्राप्त करता है वह अस्थायी स्वरूप का होता है। और यही उसके व्यावहारिक जीवन में बहुत अधिक काम आता है।-

(iv) सहयोगी विधि- गांधीजी ने हस्तकला की शिक्षा में सहयोगी विधि को बहुत ही आवश्यक और महत्वपूर्ण माना है। इस विधि में छात्र अपने शिक्षक तथा सहपाठियों के पारस्परिक सहयोग से कार्य करता है और ज्ञान प्राप्त करता है।

(v) अन्य विधियाँ- उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त गांधीजी ने अनुकरण विधि, मौखिक विधि, संगीत विधि तथा श्रवण, मनन और निदिध्यासन आदि विधियों के प्रयोग का भी समर्थन किया है।

  1. अनुशासनसम्बन्धी विचार- गांधीजी अनुशासनप्रिय थे और स्वयं अनुशासित जीवन व्यतीत किया करते थे। वे जीवन में अनुशासन को एक महत्वपूर्ण स्थान देते थे। विद्यालय में अनुशासन के सम्बन्ध में वे प्राचीन शिक्षा की मान्यताओं में विश्वास करते थे। वे प्रत्येक विद्यार्थी एवं शिक्षक को ब्रह्मचारी देखना चाहते थे। गांधीजी ने दमनात्मक अनुशासन का कभी भी समर्थन नहीं किया। उनका विचार था कि बालक की शिक्षा में उसे हर प्रकार की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए और किसी भी प्रकार का बाहरी कठोर नियंत्रण नहीं लादा जाना चाहिए। इससे यह प्रतीत होता है कि गांधीजी मुक्त्यात्मक और प्रभावालक अनुशासन के प्रबल समर्थक थे।
  2. शिक्षकसम्बन्धी विचार- गांधीजी ने शिक्षा में अध्यापक को बहुत ही महत्वपूर्ण और उत्तरदायित्व से युक्त माना है। उनकी शिक्षा योजना में प्रत्येक अध्यापक आदर्श शिक्षक के दायित्व को नहीं निभा सकता। उसके लिए विशेष रूप से प्रशिक्षण प्राप्त और कुशल अध्यापकों की आवश्यकता है। अध्यापकों के दागित्व के सम्बन्ध में गांधीजी ने लिखा है कि- “अध्यापक का यह उत्तरदायित्व है कि वह बालक में वह प्रतिभा और क्षमता उत्पन्न करे जिससे वह विभिन्न वस्तुओं के गुणदोष भेद को पहचान सके।” गांधीजी का विचार है कि एक उत्तम अध्यापक वही है जो स्वयं पहले उस योग्यता को प्राप्त करे जिसे वह अपने शिष्यों कोमें देखना चाहते हैं। जब तक शिक्षक में योग्यता और गुण न होंगे तब तक उसके छात्र उसके व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं हो सकते। महादेव देसाई के शब्दों में “गांधीजी का यह व्यक्तिगत अनुभव है कि छात्र भाषणों और पुस्तकों की अपेक्षा शिक्षक के चरित्र, आचरण और व्यक्तित्व से अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे अपने आचरण को शुद्ध रखें और जिस बात की शिक्षा दें, उसको स्वयं अपने जीवन में अपनायें।” गांधीजी का विचार है कि शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों की जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ाये, उनकी भावनाओं, रुचियों और प्रवृत्तियों का उनकी आवश्यकतानुसार मार्ग-दर्शन करें और उनकी चिन्ताओं और समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करें। वे चाहते थे कि शिक्षक छात्रों का विश्वास प्राप्त करके उनके साथ आत्मीयता का सम्बन्ध स्थापित करें।

गांधीजी का विश्वास था कि शिक्षक के व्यक्तित्व जीवन और आचरण का छात्र पर बड़ा  प्रभाव पड़ता है और कक्षा के बाहर तो शिक्षक का आचरण बालक को और भी अधिक प्रभावित करता है। इस सम्बन्ध में गांधीजी का विचार है कि, “शिक्षक का कार्य क्षेत्र केवल  क्लास रूम में ही नहीं अपितु उसके बाहर भी है। उन्हें दुःख है कि शिक्षक आजकल  वेतनभोगी कर्मचारी के समान केवल कक्षा में पढ़ाने तक ही में अपने कर्तव्य की इतिश्री  समझते हैं। कक्षा के बाहर ये छात्र के प्रति अपना कोई दायित्व नहीं समझते हैं।”

गांधीजी का कथन है कि शिक्षक और छात्र में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए, शिक्षक का कर्तव्य है कि वह छात्र के मस्तिष्क की अपेक्षा उसके हृदय को प्रशिक्षित करने के अधिक महत्व दें और बालकों की तार्किक शक्ति का समुचित विकास करे। उसे चाहिए कि छात्रों को प्रत्येक वस्तु के औचित्य और अनौचित्य पर सोचने-विचारने को प्रोत्साहित करें। अन्त में गांधीजी चाहते हैं कि शिक्षक का स्थानीय परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान हो जिससे कि वे  स्थानीय व्यवसायों, हस्त कार्यों एवं उद्योग-धन्धों का शिक्षा के लिए सफलतापूर्वक उपयोग कर  सके।

  1. विद्यार्थीसम्बन्धी विचार- गांधीजी की शिक्षा योजना में बालक को द्वितीय स्थान प्राप्त है। इन्होंने अपनी शिक्षा योजना को हस्तकला केन्द्रित बनाया है जिसमें बालक स्वयं कार्य  करके सहयोग तथा अनुकरण के द्वारा शिक्षा प्राप्त करता है। गांधीजी के अनुसार छात्र को उत्तम चरित्र वाला तथा श्रम का सम्मान करने वाला होना चाहिए। उसमें सत्य, अहिंसा  आत्म-नियन्त्रण, अस्तेय तथा अपरिग्रह आदि के गुण होना चाहिए। उनका विचार है कि छात्र  को ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करना चाहिए। गांधीजी बालक को निष्क्रिय श्रोता मात्र नही देखना चाहते बल्कि उनका विचार है कि छात्र को सक्रिय निरीक्षणकर्ता, और प्रयोगकर्ता के रूप में शिक्षा प्राप्त करना चाहिए।
  2. विद्यालयसम्बन्धी विचार- गांधीजी के अनुसार विद्यालय का वातावरण प्रभावात्मक तथा प्रेरणादायक होना चाहिए। इस वातावरण का निर्माण सच्चरित्र अध्यापकों तथा विद्यार्थिय के द्वारा होता है। उनका विचार है कि विद्यालय निर्जन स्थानों में स्थित न हो कर बस्तियों में होना चाहिए विद्यालयों में हर प्रकार के साधन भी उपलब्ध हों जिनसे हस्तकलाओं से सम्बन्धित उत्पादन कार्य ठीक ढंग से हो सके और छात्रों और विद्यालयों को आत्मनिर्भर बनाने में सहायता मिले। गांधीजी विद्यालय को पाठशाता के रूप में नहीं वरन् कर्मशाला के रूप में देखना चाहते हैं। इसके साथ ही साथ गांधीजी ने विद्यालय को समुदाय केन्द्रित बनाना चाहते हैं, जहाँ पर विद्यार्थियों की वैयक्तिकता बनी रहे और उन्हें सामाजिक सम्पर्कों और सेवा के अवसरों की प्राप्ति हो।

गांधीजी के शिक्षासम्बन्धी अन्य विचार

  1. धार्मिक शिक्षा- महात्मा गांधी ने जीवन में धर्म को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनके विचार से धर्म जीवन का मार्गदर्शक है। धर्मरहित जीवन को वे निरर्थक और अपूर्ण समझते हैं। वे धर्म को सांसारिक क्रिया-कलापों से ऊँचा और समस्त प्रकार के सुख का साधन मानते हैं। इन्हीं विचारों से उन्होंने शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया है।

धर्म के विषय में गांधीजी बड़े उदार विचार रखते थे। वे संकीर्णता, रूढ़िवादिता अथवा  साम्प्रदायिकता पर आधारित धर्म को धर्म नहीं मानते थे। गांधीजी के विचार में तो सभी जीवों से प्रेम, सत्य और अहिंसा ही धर्म है। उनका विश्वास था कि सारे धर्मों के मूल सिद्धान्त परस्पर प्रेम, सत्य और अहिंसा पर आधारित हैं। अतः धार्मिक शिक्षा में इन्हीं गुणों की शिक्षा  दी जानी चाहिये। गांधीजी द्वारा धार्मिक शिक्षा की संस्तुति का कारण अपना एक विशेष कारण है। वे एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें शोषण तथा वर्ग, जाति, धर्म और क्षेत्र आदि का भेद-भाव न हो और जो सत्य, अहिंसा, प्रेम, सहयोग, शान्ति और अनुशासन पर आधारित हो। उनके विचार में ऐसे समाज की स्थापना धार्मिक शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।

गांधीजी धार्मिक शिक्षा के समर्थक होते हुए भी अपनी बेसिक शिक्षा योजना के पाठ्यक्रम में इसकी कोई अलग से व्यवस्था नहीं किया; यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसके कारण को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है-“आजकल दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा गलत दिशा की ओर जा रही है। एकता के स्थान पर यह शिक्षा धर्मान्धता और वैमनस्य फैलाती है जिससे साम्प्रदायिक कटुता का वातावरण उत्पन्न होता है। वे चाहते हैं कि इन सत्यों की शिक्षा जो सब धर्मों में पाये जाते हैं, पुस्तकों अथवा उपदेशों द्वारा नहीं वरन् शिक्षक स्वयं अपने आचरण द्वारा छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करें। इस प्रकार शिक्षकों को अपने दैनिक जीवन में उन सिद्धान्तों का पालन करते देख कर छात्र उनका अनुकरण करके स्वयं धार्मिक बनेंगे।” किन्तु इस प्रकार की शिक्षा के लिए वे किसी निश्चित पाठ्यक्रम का निर्धारण नहीं चाहते थे। उनके विचार में यह शिक्षा अप्रत्यक्ष रूप से छात्रों के दैनिक कार्यों तथा अध्यापकों के आचरण द्वारा दी जा सकती है।

  1. जन शिक्षा- जन-शिक्षा का तात्पर्य है कि समाज के हर एक व्यक्ति को शिक्षा की सुविधाएँ प्राप्त हों अथवा सभी लोगों को शिक्षित होने का अवसर मिले। हमारे देश की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है। यहाँ पर अधिक संख्या में बालक और प्रौद अशिक्षित रहते हैं। अतएव गांधीजी ने दोनों की शिक्षा पर ध्यान दिया। 14 वर्ष तक की आयु के बालकों के लिये उन्होंने अनिवार्य शिक्षा की योजना बनाई और जन-शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए जोर दिया।
  2. प्रौढ़ शिक्षा- हमारे देश की लगभग तीन-चौथाई जनता अशिक्षित है। इसे देखकर गांधीजी बड़े दुखी हुए और प्रौढ़ शिक्षा योजना पर अत्यधिक बल दिया। प्रौढ़ शिक्षा के सम्बन्ध में गांधीजी ने स्वयं ही लिखा है कि, “मैं प्रौढ़ शिक्षा को उस साधारण अर्थ में जैसा हम लोग समझ सकते हैं नहीं लूँगा, बल्कि वह तो अभिभावकों की शिक्षा होगी जिससे वे अभिभावक अपने बच्चों के निर्माण में अपने उत्तरदायित्व को निभा सकें। गांधीजी ने प्रौढ़ शिक्षा के पाठ्यक्रम में साक्षरता, उद्योग-धन्धे, सफाई और स्वास्थ्य शिक्षा, सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक विकास, श्रम और कार्य के प्रति उचित दृष्टिकोण, भावात्मक एकता, परिवार तथा संस्कृति से सम्बन्धित क्रियाओं को रखा है।
  3. स्त्री शिक्षा- गांधीजी ने अपने समय में भारत में स्त्री-शिक्षा की अपेक्षा के कारण अत्यन्त चिंतित थे। उन्होंने संपूर्ण स्त्री जाति को सम्मान की दृष्टि से देखा है। वे स्त्री और पुरुष को एक समान, एक-दूसरे का पूरक तथा प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना माना है। अतः वे अन्य क्षेत्रों की तरह शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के ही समान अवसर देने का समर्थन करते थे। किन्तु उनके विचार में दोनों का कार्य क्षेत्र भिन्न होने के कारण उनके पाठ्यक्रम में कुछ परिवर्तन किया जाना चाहिए। यही कारण है कि उन्होंने अपनी बेसिक शिक्षा योजना में चौथी कक्षा में बालिकाओं के लिए गृह-विज्ञान का विकल्प रखा और छठीं तथा सातवीं कक्षा में वे व्यवसाय के स्थान पर उच्च गृह-विज्ञान विषय ले सकती हैं।
  4. सहशिक्षा- गांधीजी सह-शिक्षा के पक्ष में थे। उनके विचार में सह-शिक्षा का प्रारम्भ परिवार से ही होना चाहिए जहाँ बालक-बालिकाओं को एक साथ मिलजुलकर कार्य करने और विकास करने अवसर प्राप्त हो । सह-शिक्षा के सम्बन्ध में गांधीजी का कथन था कि 8 वर्ष की अवस्था तक लड़के-लड़कियों को एक साथ पाया जा सकता है। इसके बाद की सह- शिक्षा अच्छे और स्वस्थ वातावरण, स्वयं बालिका और उसके माता-पिता अथवा अभिभावक की इच्छा पर निर्भर करता है। इसीलिए बेसिक शिक्षा योजना में सह-शिक्षा को अनिवार्य नहीं बनाया गया है। यदि माता-पिता या अभिभावक चाहें तो उन्हें यह सुविधा है कि अपनी कन्या को 12 वर्ष की अवस्था में स्कूल से हटा लें। सह-शिक्षा के विषय में गांधीजी बड़े ही उदार विचारों वाले थे। उनका मत था कि अशिक्षा के कारण जो अधिकांश व्यक्ति अभी सह-शिक्षा का विरोध करते हैं वे लोग समय आने पर और शिक्षित होने पर स्वयं इस समस्या का हल ढूँढ निकालेंगे।
  5. विश्वविद्यालय शिक्षा- विश्वविद्यालय अथवा उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में गांधीजी के बड़े ही स्पष्ट विचार थे। उनका कहना था कि वर्तमान विश्वविद्यालय उच्च गुणों से युक्त, आत्म-गौरव और आत्मविश्वास प्रधान युवकों का निर्माण नहीं करते। रचनात्मक कार्यों की अपेक्षा उनमें विध्वंसात्मक प्रवृत्ति अधिक होती है। अतः वे विश्वविद्यालय की ऐसी शिक्षा का समर्थन करते हैं जो युवकों में राष्ट्र-प्रेम, त्याग और सेवा की भावना उत्पन्न करे और वे एक आदर्श एवं कर्त्तव्यपरायण वैज्ञानिक, डॉक्टर, इन्जीनियर, तकनीशियन, शिक्षक, वकील, विशेषज्ञ आदि के रूप में अपने मौलिक योगदान से देश की प्रगति में सहायक हों।

विश्वविद्यालयों की स्थिति और साज-सज्जा के विषय में गांधीजी का मत है कि इनकी स्थापना राज्य और जनता दोनों ही करें। जनता द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों की राज्य सहायता करे। वे चाहते थे कि विश्वविद्यालय समृद्ध पुस्तकालय और प्रयोगशालाओं से सुसज्जित हों। गांधीजी विश्वविद्यालय की शिक्षा में भी अपने ‘आत्मनिर्भरता’ (Self- sufficency) के सिद्धान्त को साकार रूप में देखना चाहते थे। इसीलिए वे विश्वविद्यालय की शिक्षा में समूल परिवर्तन करने और उसे भी व्यवसायोन्मुखी बनाने के पक्ष में थे। उन्होंने 25 अगस्त सन् 1946 ई० के ‘हरिजन’ में स्वयं कहा है-“विश्वविद्यालय की शिक्षा उन सिद्धान्तों पर आधारित हो जो देश के वातावरण के अनुकूल हों और इसके लिए सिद्धान्त हम बेसिक शिक्षा से प्राप्त करें। हमें बेसिक शिक्षा को विशाल पैमाने पर विश्वविद्यालयों में कार्यान्वित करना चाहिए।”

  1. राष्ट्रीय शिक्षा- गांधीजी ने सन् 1921 में राष्ट्रीय शिक्षा योजना का विचार प्रस्तुत किया और तभी से उसको कार्यान्वित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। उन्होंने ब्रिटिशकालीन शिक्षा को देश के हित में नहीं समझा और राष्ट्रीय शिक्षा का प्रारूप तैयार किया। इसमें गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के माध्यम से शिक्षा देने पर बल दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में उन्होंने कृषि तथा उद्योग-धंधों को रखा और इसका उद्देश्य शांतिपूर्ण ढंग से अहिंसात्मक क्रांति करना निर्धारित किया।

गांधीजी के शिक्षादर्शन की समीक्षा

गांधीजी के शिक्षादर्शन का मूल्यांकन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के संदर्भ में निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है-

  1. आदर्शवाद- शिक्षा के विभिन्न पहलुओं के सम्बन्ध में गांधी जी ने जो भी विचार प्रस्तुत किये हैं उन सभी पर आदर्शवाद की स्पष्ट छाप दिखलाई पड़ती है। शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में आध्यात्मिक विकास और आत्मा की स्वतन्त्रता पर बल, अनुशासन के क्षेत्र में आत्म-नियंत्रण और आत्मानुशासन का समर्थन, छात्र द्वारा ब्रह्मचर्य पालन तथा नैतिकता के विकास आदि पर अधिक बल देने से यह स्पष्ट है कि गांधीजी का शिक्षा दर्शन आदर्शवादी था।
  2. यथार्थवाद- गांधीजी के अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य विधियाँ और पाठ्यक्रम- सम्बन्धी विचारों का अध्ययन करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि गांधीजी के ये विचार यथार्थवाद के भी समीप हैं। क्योंकि यथार्थवादियों की ही भाँति गांधीजी ने भी शिक्षा को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से सम्बन्धित करने पर बल दिया है। यथार्थवादी बालक के नैतिक, चारित्रिक, धार्मिक और सामाजिक विकास के साथ-साथ व्यावसायिक उन्नति को शिक्षा का उद्देश्य मानते हैं। गांधीजी ने भी इन्हीं उद्देश्यों पर बल दिया है।
  3. प्रकृतिवाद- गांधीजी ने व्यक्ति के सर्वागीण विकास को महत्व दिया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके विचार कुछ सीमा तक प्रकृतिवाद से प्रभावित हैं। किन्तु प्रकृतिवाद के आधुनिक सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि में गांधीजी के शिक्षा दर्शन को पूर्णतः प्रकृतिवादी नहीं माना जा सकता। उनके शैक्षिक विचारों में केवल कहीं-कहीं पर उन्हें हम प्रकृतिवाद के समीप पाते हैं। उदाहरण के लिये उन्होंने वर्तमान सभ्यता से बालकों को दूर रखकर ग्रामीण वातावरण में ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के आदर्शों पर चलकर शिक्षा प्रदान करने का समर्थन किया है। पाठ्य पुस्तकों पर पूर्णतः निर्भर रहने का विरोध किया है और वर्तमान शिक्षा पद्धति की आलोचना करते हुए प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता की पृष्ठभूमि में शिक्षा देने पर बल दिया है। इन विचारों को हम उन्हें प्रकृतिवाद से प्रभावित देखते हैं।
  4. प्रयोजनवाद- गांधीजी के शिक्षा-दर्शन में प्रयोगात्मक प्रयोजनवाद का प्रतिबिम्च दिखलाई पड़ता है। उदाहरण के लिए उनका हस्तकला को शिक्षा का केन्द्रबिन्दु बनाना, सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को उत्पन्न करना, शिक्षा को दैनिक जीवन की आवश्यकताओं और अनुभवों पर आधारित करना, स्वतन्त्रता और आत्म-निर्भरता आदि के सिद्धान्त प्रयोजनवादी विचारधारा के पोषक हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि गांधीजी आदर्शवादी होने के साथ ही साथ यथार्थवाद, प्रकृतिवाद और प्रयोजनबाद से भी प्रभावित हैं। उनका दर्शन सभी वादों को समान रूप से उचित महत्व देता है और किसी भी वाद की उपेक्षा नहीं करता। लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि उनके जीवन एवं शिक्षा के उद्देश्य उन्हें एक महान आदर्शवादी दार्शनिक होने की पुष्टि करते हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में गांधीजी का योगदान

गांधीजी ने अपनी विचारधाराओं तथा सेवाओं के माध्यम से भारतवासियों को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति को जो कुछ भी दिया है उनको आँकना सम्भव नहीं। गांधीजी ने मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया है। सामान्य जीवन में उन्होंने लोगों को सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, सहयोग, परोपकार, श्रम और कार्य के प्रति सम्मान आदि के भावों को जागृत करके व्यक्ति के जीवन-दर्शन को ही बदलकर रख दिया है। यहाँ पर हमारा मुख्य उद्देश्य शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान की चर्चा करना है। शिक्षा के क्षेत्र में गांधीजी का सबसे बड़ा योगदान बेसिक शिक्षा योजना आता है। इसका वर्णन नीचे संक्षेप में पृथक रूप से किया जा रहा है-

बेसिक शिक्षा योजना

गांधीजी प्रचलित शिक्षा पद्धति से सन्तुष्ट न थे। क्योंकि उनके अनुसार इस पद्धति के उद्देश्य तथा आधार दोनों ही अनुपयोगी हैं। गांधीजी शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण  विकास करना मानते थे। किन्तु उनके विचार में वर्तमान शिक्षा इस उद्देश्य को पूरा करने में पूर्णतः असफल है। उनकी प्रचलित शिक्षा में निम्नलिखित दोष दिखलायी पड़े-

(1) प्रचलित शिक्षा भारतवर्ष की सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रतिकूल है।

(2) यह शिक्षा शाब्दिक तथा पुस्तकीय है।

(3) वर्तमान शिक्षा बालकों को मात्र सूचनाएँ प्रदान करती हैं, वह भी जिनका सम्बन्ध उनके जीवन से बिल्कुल नहीं है।

(4) इसकी शिक्षण पद्धतियाँ अस्वाभाविक हैं।

(5) यह व्यावहारिक कुशलताओं की ओर ध्यान नहीं देती जिससे बालकों में सामाजिक गुणों का विकास होने की बात तो दूर रही उनमें असामाजिक तत्वों की वृद्धि या विकास हो जाता है।

(6) यह जन शिक्षा की उपेक्षा करती है।

(7) इस शिक्षा के द्वारा बालकों में अवांछित प्रतिस्पर्द्धा की भावना को प्रोत्साहन मिलता

(8) प्रचलित शिक्षा के कारण गुरु और शिष्य के बीच का स्नेहयुक्त और भारतीय आदर्शों के अनुकूल सम्बन्ध में दूरी आ गयी है।

(9) प्रचलित शिक्षा अत्यन्त व्ययशील है।

(10) वर्तमान शिक्षा में अपव्यय’ और ‘अवरोधन’ की समस्या अधिक दिखलाई पड़ती है।

प्रचलित शिक्षा के इन दोषों को देखते हुए गांधीजी ने शिक्षा में आमूल परिवर्तन करने पर बल दिया। बेसिक शिक्षा योजना इसी का परिणाम है।

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Pankaja Singh

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