शिक्षाशास्त्र

व्यक्तित्व का अर्थ | व्यक्तित्व की परिभाषायें | व्यक्तित्व के तत्व या लक्षण | अच्छे व्यक्तित्व की विशेषताएँ

व्यक्तित्व का अर्थ | व्यक्तित्व की परिभाषायें | व्यक्तित्व के तत्व या लक्षण | अच्छे व्यक्तित्व की विशेषताएँ | Meaning of personality in Hindi | Definitions of personality in Hindi | Elements or Traits of Personality in Hindi | good personality traits in Hindi

व्यक्तित्व का अर्थ

व्यक्तित्व शब्द बड़ा व्यापक है। इसके अन्तर्गत मनुष्य के लगभग सभी गुण आ जाते हैं किन्तु इतना कह देने से हा इस शब्द की व्यारा पूरी नहीं हुई। वास्तव में व्यक्तित्व क्या है इसे शब्दों के माध्यम से ठीक ठाक व्यक्त नहीं किया जा सकता। वह केवल अनुभव करने की वस्तु है। फिर भी इस शब्द का अर्थ समझने के लिए हम सब पर विभिन्न दृष्टिकोण से विचार करेंगे।

  1. शाब्दिक अर्थ- हिन्दी का ‘व्यक्तित्व’ शब्द अंग्रेजी के Personality’ शब्द का रूपान्तर है जो वास्तव में लैटिन भाषा के Persuna शब्द से करता है। प्राचीन काल में ‘Persona’ शब्द का अर्थ नाटक में काम करने वाले अभिनेताओं द्वारा पहना हुआ नकाब समझा जाता था। उस नकाब को पहनकर अभिनेता अपने वास्तविक रूप को छिपाकर अपने नकली वेश में ही रंगमंच पर आते थे। इस प्रकार उस समय ‘Personality’ या व्यक्तित्व शब्द के अर्थ में मनुष्य का बाह्य रूप, दिखावटी वेश या बाहरी स्वरूप था।

कुछ समय बाद रोमन काल में Persona के अर्थ हो गये ‘स्वयं’ अभिनेता जो रंगमंच पर अपनी विशिष्टताओं और विलक्षणताओं के साथ परिलक्षित होता है। इस प्रकार व्यक्तित्व या ‘Personality’ के अर्थ में सर्वथा परिवर्तन हो गया- जब व्यक्तित्व मनुष्य के वास्तविक रूप या स्वरूप का समानार्थी समझा जाने लगा।

  1. साधारण मनुष्य का दृष्टिकोण- व्यक्ति शब्द के विषय में सामान्य व्यक्ति की धारणा से हम सभी परिचित हैं। सामान्य रूप से इस शब्द के अन्तर्गत मनुष्य के केवल बाह्य गुणों को रखा जाता है। मनुष्य के वे गुण जो उसके शरी की बनावट, आवाज, रंगरूप आदि से संबंधित हैं, व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इन गुणों को सामूहिक प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर क्या पड़ता है, इसी से व्यक्तित्व को प्रभावशीलता को आंका जाता है।
  2. दार्शनिक दृष्टिकोण- कुछ दार्शनिक व्यक्तित्व के अन्तर्गत मनुष्य के आत्म-तत्त्व को ही रखते हैं। मनुष्य का आत्म तत्त्व ही उसके बाह्य व्यवहारों को निर्धारित करता है। जिस व्यक्ति में आत्म तत्त्व जितना हो प्रबल होता है उतना ही उसका व्यक्तित्व चमकता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार आत्म तत्त्व में पूर्णता लाकर ही व्यक्तित्व का पूर्ण बनाया जा सकता है।
  3. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण- समाजशास्त्रियों के अनुसार व्यक्ति समाज में रहकर अपने सामाजिक गुणों को संगठित रूप से किस प्रकार व्यक्त करता है, और इस प्रकार उनके माध्यम से वह समाज में क्या स्थान प्राप्त करता है, इन्हीं बातों पर व्यक्तित्व के अन्तर्गत विचार किया जाता है। इस प्रकार व्यक्तित्व से तात्पर्य मनुष्य के सामाजिक गुणों के संगठित स्वरूप और उनकी प्रभावशीलता से है।
  4. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- उपर्युक्त सभी दृष्टिकोण एकपक्षीय है। उनमें व्यक्तित्व के केवल किसी एक पहलू पर ही बल दिया गया है किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण व्यक्तित्व शब्द की व्याख्या सभी पहलुओं से करता है। हम जानते हैं कि व्यक्ति का स्वरूप, उसको रचना, उसका विकास और उसका अन्तिम परिपक्व रूप व्यक्ति के वंशानुक्रम और वातावरण से प्रभावित और निर्धारित होता है। व्यक्ति जो कुछ है वह वंशानुक्रम और वातावरण के सम्मिलित प्रभाव की ही देन है।

हम जानते हैं कि व्यक्ति को वंशानुक्रम से कुछ गुण प्राप्त होते हैं, जैसे शरीर का रूप, रंग, आकार, बुद्धि, अभियोग्यतायें, क्षमताएँ और अनेक मानसिक और शारीरिक शक्तियाँ। मनुष्य का जैसे-जैसे विकास होता जाता है वैसे ही वैसे उसके व्यवहार में जटिलता आती है। वातावरण के विभिन्न तत्त्व उस पर प्रभाव डालते हैं और वह उसके प्रति अनुक्रिया करता है। वातावरण से अनुकूलन स्थापित करने के लिए मनुष्य जो प्रयत्न करता है वही उसके व्यवहार का निर्माण करते  है। उस अनुकूलन या समायोजन स्थापित करने के पयत में या तो व्यक्ति स्वयं अपने में परिवर्तन लाता है या वातावरण को परिवर्तित करता है। ये सभी प्रयत्न उसके व्यवहार के स्वरूप का निर्माण करते हैं।

इस प्रकार मनुष्य के किसी भी अवस्था में उसका जो स्वरूप हमारे सामने आता है वह उसके वंशानुक्रम और वातावरण के सम्मिलित प्रभाव का परिणाम होता है। यही स्वरूप व्यक्ति का व्यक्तित्व है। विश्लेषण करने पर. इसमें हम दो प्रकार के तत्त्व पाते हैं-

(1) एक तो वे गुण या तत्त्व जिन्हें हम ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभव कर सकते हैं-जैसे शरीर का कद, रंग, रूप, आकार, स्वास्थ्य, आवाज, मुख की बनावट, नेत्रों का आकार, पहनावा इत्यादि। इन्हें हम बाह्य गुण भी कह सकते हैं।

(2) दूसरे वे गुण जो आन्तरिक कहे जा सकते हैं जैसे-बुद्धि, योग्यतायें, आदतें, रुचियाँ, दृष्टिकोण, चरित्र, अभियोग्यतायें, संवेगात्मक रचना आदि।

इन सभी बाह्य और आन्तरिक गुणों समन्वित और संगठित रूप ही व्यक्तित्व कहलाता है। व्यक्तित्व एक इकाई है जिसके अन्तर्गत ये सभी गुण शामिल रहते हैं। व्यक्तित्व कहने पर हमें इन गुणों का अलग-अलग बोध नहीं होता वरन् सबके सामूहिक रूप और प्रभाव का बोध होता है। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व एक संगठित इकाई है जिसमें व्यक्ति के वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभाव से उत्पन्न सभी गुण शामिल होते हैं।

व्यक्तित्व की परिभाषायें

(1) मार्टन प्रिन्स (Morton Prince ) – “व्यक्तित्व व्यक्ति के समस्त जन्मजात व्यवहारों, आवेगों, प्रवृत्तियों, झुकानों, आवश्यकताओं और मूल प्रवृत्तियों तथा अनुभवजन्य और अर्जित व्यवहारों और प्रवृत्तियों का योग है।” “Personality is the sum total of the biological innate dispositions, impulses, tendencies, appetites and instincts of the individual and the dispositions and tendencies acquired by experience.”

(2) मन (Munn) – “व्यक्तित्व वह विशिष्ट संगठन है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के गठन, व्यवहार के तरीकों, रुचियों, दृष्टिकोणों, क्षमताओं, योग्यताओं और प्रवणताओं को सम्मिलित किया जा सकता है।” “Personality may be defined as the most characteristic integration of an individuals structures, modes of behavior, interests, attitudes, capacities, abilities and aptitudes.”

(3) वैलेनटाइन (Valantine) – “जन्मजात एवं अर्जित प्रेरकों के योग को व्यक्तित्व कहते हैं।” “Personality is the sum total of innate and acquired dispositions.”-

(4) बोरिंग (Boring) – “व्यक्ति के अपने वातावरण के साथ अपूर्व और स्थायी समायोजन के योग को व्यक्तित्व कहते हैं।” “Personality is an individual permanent adjustment to his environment.”

इन सभी परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर हमें व्यक्तित्व के बारे में निम्न तथ्य उपलब्ध होते हैं-

(अ) मनुष्य एक मनो-शारीरिक प्राणी है- व्यक्ति में मन होता है और एक शरीर। उसमें मन और शरीर से सम्बन्धित अनेक गुण और विशेषतायें विद्यमान होती हैं।

(ब) वातावरण से समायोजन-हर प्राणी अपने वातावरण से समायोजन या अनुकूलन स्थापित करने की कोशिश करता है और इस प्रकार उसके व्यवहार का निर्माण होता है।

(स) संगठन- मनुष्य को शारीरिक और मानसिक विशेषतायें तथा व्यवहार एक संगठित रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। उनका समन्वित और सुसम्बद्ध रूप ही हमारे सामने व्यक्ति के व्यक्तित्व को उपस्थित करता है। वह संगठन ही व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है।

(द) विशिष्टता- हर व्यक्ति में लक्षणों और विशेषताओं का संगठन एक विशिष्ट ढंग से होता है। इस प्रकार हर व्यक्ति के व्यक्तित्व में एक विशिष्टता होती है।

व्यक्तित्व के तत्व या लक्षण

  1. शारीरिक तत्व या लक्षण (Physical traits)— पहले प्रकार के लक्षण जो व्यक्तित्व के अन्तर्गत शामिल हैं, वे हैं शारीरिक । शारीरिक लक्षणों में शरीर का कद या लम्बाई, चौड़ाई, वजन, गठन, भार, आवाज, सिर की लम्बाई, चौड़ाई, मुखाकृति, शरीर का रंग आदि शामिल होते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति या समाज के सम्पर्क में आता है तो उसके व्यक्तित्व में शारीरिक गुणों का प्रभाव हो उन व्यक्तियों पर सबसे पहले पड़ता है। सामान्य रूप से शारीरिक गुणों के उच्चकोटि के होने पर व्यक्तित्व भी प्रभावशाली होता है।
  2. मानसिक लक्षण (Mental traits)- व्यक्तित्व के मानसिक लक्षणों में बुद्धि, स्मृति, कल्पना, प्रत्यक्षोकरण, निर्णय शक्ति आदि प्रमुख हैं। तीव्र बुद्धि का व्यक्ति वातावरण से शीघ्र समायोजन कर लेता है। वह अपने कार्यों, विचार और सूझ से लोगों को शीघ्र प्रभावित कर लेता है। इस प्रकार अन्य मानसिक लक्षण भी व्यक्तित्व को प्रभावपूर्ण या प्रभावहीन बनाने में अपना-अपना योगदान करते हैं।
  3. संवेगात्मक लक्षण (Emotional traits)- मनुष्य में अनेक संवेग होते हैं—जैसे क्रोध, भय, हर्ष, विषाद, प्रेम और घृणा आदि। संवेगात्मक रचना या बनावट और उसकी तीव्रता के अनुसार लोगों में विभिन्नता होती है। संवेगों पर शरीर की आन्तरिक रचना का काफी प्रभाव पड़ता है और संवेगों के प्रकट होने पर शरीर को आन्तरिक रचना में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। संवेगों की रचना के अनुसार लोगों के व्यक्तित्व के स्वरूप में भी अन्तर देखने को मिलता है। कुछ व्यक्ति क्रोधी होते हैं, कुछ हँसमुख होते हैं, अन्य ईर्ष्यालु होते हैं और कुछ लोगों में विशिष्ट पदार्थों और व्यक्तियों के लिए घृणा का भाव पाया जाता है।
  4. सामाजिकता (Sociability) – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है किन्तु समाज में हिल-मिल जाने की शक्ति प्रत्येक प्राणी में अलग-अलग होती है। कुछ अति शीघ्र घुल-मिल जाते हैं, कुछ एकान्त प्रेमी होते हैं। दोनों प्रकार के व्यक्तियों के व्यक्तित्व विशिष्ट प्रकार के होते हैं और उनका विकास भिन्न प्रकार से होता है।
  5. संकल्प शक्ति – किसी बात के सामने आने पर व्यक्ति उस सम्बन्ध में अपनी धारणा बनाता है और उस सम्बन्ध में किसी-न-किसी निश्चय पर पहुँचता है। कुछ व्यक्ति यह कार्य शीघ्र कर लेते हैं कुछ अधिक समय लगाते हैं यही संकल्प है। यह जितना ही दृढ़ होगा कार्यों को करने में मनुष्य उतना ही निश्चयी होगा।
  6. चरित्र (Character)—मनुष्य के वे व्यवहार जो नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं, उसकी सच्चरित्रता के घोतक हैं। झूठ बोलना, धोखा देना, बेईमानी करना, चोरी करना आदि बातें एक सच्चरित्र व्यक्ति के लिए वर्जित हैं। अच्छे चरित्र के द्वारा अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण होता है, बुरे चरित्र के द्वारा बुरे व्यक्तित्व का
  7. लिंग (Sex)– लिंग भी व्यक्तित्व का एक प्रधान अंग है। पुरुष में कुछ अपने विशिष्ट गुण होते हैं, जैसे कठोरता, साहस, वीरता इत्यादि। इसी प्रकार स्त्रियों में कोमलता, दयालुता, सरसता, नम्रता आदि उनके सामने विशिष्ट गुण हैं। इस प्रकार लिंग द्वारा पुरुषोचित और स्त्रियों में स्त्रियोचित व्यक्तित्व का विकास होता है।
  8. सशक्तता या दृढ़ता (Forcefulness or Persistence) – उपर्युक्त सभी लक्षण व्यक्तित्व में शामिल होते हैं। ये सभी गुण संगठित रूप में पाये जाते हैं। व्यक्तित्व के अन्तर्गत इन गुणों के अतिरिक्त सशकता भी आती है जो हर गुण से सम्बन्धित है। कोई भी गुण जितना प्रबल रूप में व्यक्ति में होगा उतना ही प्रबल उसका प्रभाव पड़ेगा। इसी से सम्बन्धित ‘दृढ़ता’ भी है। कुछ व्यक्ति अधिक दृढ़प्रतिज्ञ होते हैं कुछ कम। गुरु की आवश्यकता का ‘दृढ़ता’ पर भी प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार विचारों और कार्यों को दृढ़ता भी व्यक्तित्व का एक प्रधान अंग है।

अच्छे व्यक्तित्व की विशेषताएँ

जब हम किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को देखते हैं तो उसकी तुलना मन-ही-मन ऐसे व्यक्तित्व से करते हैं जो ‘आदर्श’ रूप में हमारे मन में स्थित होता है। वह आदर्श व्यक्तित्व क्या है, उसमें क्या लक्षण होते हैं यह जानने योग्य एक महत्वपूर्ण विषय है। एक. अच्छे व्यक्तित्व की निम्न विशेषतायें हैं-

  1. शारीरिक स्वास्थ्य – एक अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का शारीरिक गठन अच्छा होता है। वह स्वस्थ होता है, निरोग होता है और उसके शरीर के विभिन्न संस्थान भली-भाँति कार्य करते हैं।
  2. मानसिक स्वास्थ्य – अच्छे व्यक्तित्व का दूसरा लक्षण है स्वस्थ मन । स्वस्थ मन से तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति में कम से कम औसत बुद्धि अवश्य हो तथा अन्य मानसिक प्रक्रियायें भी कम-से-कम सामान्य रूप से कार्य कर रही हों।
  3. संवेगात्मक संतुलन-व्यक्तित्व का यह एक आवश्यक अंग है। इससे तात्पर्य यह है कि व्यक्ति में किसी विशेष संवेग की प्रबलता न हो। सभी संवेगों की सामान्य रूप से ही हो।
  4. सामाजिकता – सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य को समाज के अन्य सदस्यों से सम्पर्क स्थापित करना पड़ता है। मनुष्य अनेक सामाजिक प्रक्रियायें करता है। वह समाज के मनुष्य से अपने को अनुकूलित करता है। जिस व्यक्ति में सामाजिक सम्पर्क स्थापित करने की क्षमता जितनी ही अधिक होती है। उस व्यक्ति में उतनी ही अधिक सामाजिकता की भावना होती है। जब व्यक्ति में यह भावना स्वस्थ रूप में होती है तो उसके व्यक्तित्व में संयम, त्याग, सहयोग, उदारता आदि का समावेश होता है। जब यह भावना संकुचित होती है तो व्यक्ति समाज से दूर रहने वाला और स्वार्थी होता है। अच्छे व्यक्तित्व में स्वस्थ सामाजिकता की भावना ही अपेक्षित है।
  5. आत्म-चेतन- अच्छे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति अपने आपको कुछ समझने लगता है। उसमें स्वाभिमान होता है, आत्म-चेतना होती है। वह कार्य करते समय अपनी स्थिति का ध्यान रखता है। और ऐसे विचार मन में नहीं लाता या ऐसे कार्यों को करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता जिनसे उसकी आत्म-चेतना को ठेस पहुँचती हो या जिनसे वह स्वयं अपनी निगाहों में गिरने वाला हो।
  6. सामंजस्यता- मनुष्य परिवर्तनशील प्राणी है। उसका वातावरण भी परिवर्तनशील होता है। एक अच्छे व्यक्तित्व में वातावरण में सामंजस्य स्थापित करने की शक्ति होती है। यह सामंजस्य या तो व्यक्ति स्वयं अपना परिवर्तन करके स्थापित करता है या वातावरण में अपने अनुकूल परिवर्तन कर लेता है।
  7. संगठितता- अच्छे व्यक्तित्व का यह अति आवश्यक अंग है। जितने भी गुण व्यक्ति में हों, वे संगठित रूप से होने चाहिये। सभी गुण व्यक्ति को एक इकाई बनाये। सभी गुणों या लक्षणों में आपस में साम्य, समन्वय और संगठन होना चाहिये। बहुधा ऐसा देखा जाता है कि व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं को संगठित नहीं कर पाते। उनमें किसी एक पक्ष की प्रधानता हो जाती है। इसमें व्यक्तित्व असंगठित हो जाता है। असंगठित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति जीवन में सन्तुष्ट और सुखी नहीं रहते। इसलिए व्यक्तित्व का संगठित होना आवश्यक है।
  8. लक्ष्य संचालित – हर व्यक्ति के जीवन का कोई-न-कोई उद्देश्य होता है। यह उद्देश्य उच्च और स्वस्थ होना चाहिये। व्यक्ति की हर क्रिया प्रयोजनात्मक हो और उसी उद्देश्य की ओर चालित हो। बिना उद्देश्य के कार्य करने वाले व्यक्ति जीवन में सफल नहीं हो पाते।
  9. संकल्प शक्ति की प्रबलता- एक अच्छे व्यक्तित्व में प्रबल संकल्प शक्ति होती है। जब कभी मनुष्य कोई कार्य करना शुरू करता है तो कार्य पूरा होने के पहले उसके मार्ग में अनेक बाधायें होती हैं और कार्य पूरा करने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ता है। जिस व्यक्ति में इच्छा शक्ति जितनी हो दृढ़ होती है, संकल्प शक्ति जितनी ही प्रबल होती है वह अपने कार्य में उतनी ही लगन से या तन्मयता से लगा रहता है और बाधाओं को दूर करके ही दम लेता है।
  10. संतोषपूर्ण महत्वाकांक्षा-व्यक्ति का प्रगति करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके अन्दर उच्च आकांक्षायें हों। किन्तु उन आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सदैव चिन्तित रहने पर व्यक्ति में असंतोष और दुःख उत्पन्न होते हैं। अस्तु, वर्तमान स्थिति से असन्तुष्ट रहते हुए व्यक्ति को अपनी उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति का यत्न करते रहना चाहिये। अर्थात् व्यक्ति को अपने मन की स्थिति इस प्रकार बना लेनी चाहिये कि अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर अधिक असन्तोष नहीं उत्पन्न होना चाहिए। यही सन्तोषपूर्ण महत्वाकांक्षा है।
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Pankaja Singh

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