सर सैयद का व्यक्तित्व और कार्य | मुसलमानों के प्रति वैज्ञानिक शिक्षा की सोच | Personality and work of Sir Syed in Hindi | Thinking of scientific education towards Muslims in Hindi
सर सैयद का व्यक्तित्व और कार्य
उच्च शिक्षा के प्रति और मानसिक प्रतिरोध को जिसका मुस्लिम समुदाय शिकार बन गया था। समाप्त करने में जिस मुस्लिम सामाजिक नेता का सबसे बड़ा योगदान है वह थे सर सैयद खां। उन्होंने मुस्लिम समुदाय को एक नई पहचान दी यह सिद्ध किया कि पश्चिम शिक्षा और विचारधारा इस्लाम विरोधी नहीं है। उसके विपरीत आधुनिक शिक्षा इस्लाम को सही समझने में मददगार सिद्ध होगी। सर सैयद की दृष्टि में 19वीं शताब्दी के बौद्धिक और वैज्ञानिक प्रगति इस्लाम के प्रति कोई चुनौती की स्थिति लाने में असमर्थ थी। अपने विचारों और कार्यक्रमों का केंद्र बिंदु उन्होंने अलीगढ़ को बनाया और उस स्थान से किए गए सभी प्रयासों का सामाजिक नाम ‘अलीगढ आंदोलन’ है। सर सैयद के प्रयासों के पूर्व भी मुसलमानों को शैक्षिकण राजनैतिक आधार पर संगठित किया गया था। ऐसे प्रयासों में कोलकाता में अब्दुल लतीफ द्वारा 1863 में मोहम्मदन लिटरेरी एंड साइंटिफिक सोसाइटी और सर अमीर अली द्वारा 1878 में स्थापित नेशनल मुम्मडन एसोसिएशन सम्मिलित हैं। इन संगठनों का उद्देश्य मुसलमानों में पश्चिमी शिक्षा के प्रति जागरूकता और ब्रिटिश राज के प्रति स्वामी भक्ति जागृत करना था। परंतु अलीगढ़ आंदोलन की तुलना में इनकी सफलताएं नगण्य है।
सैयद अहमद का जन्म दिल्ली के एक अभिजात-वर्गीय परिवार में 17 अक्टूबर 1817 को हुआ था। बचपन में उन्हें परंपरागत शिक्षा मिली। अपने पिता की मृत्यु के बाद 1838 में उन्होंने फौजदारी अदालत में सिरते हार के पद पर नौकरी कर ली। कई स्थानों पद परिवर्तन के उपरांत 1857 के विद्रोह के समय वे बिजनौर में सदर अमीन के पद पर नियुक्त थे। विद्रोह के दबाने में उन्होंने अधिकारियों की मदद की और कई अंग्रेज परिवारों को शरण देकर उन्होंने उनकी प्राण रक्षा की। रुहेलखंड क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय की जो जन और धन की हानि हुई उससे सैयद अहमद बहुत दुखी थे। उनकी चिंता का यह प्रमुख विषय बन गया कि किस प्रकार वे अपने समुदाय को इस अवनति की स्थिति से निकाले।
सैयद अहमद के पास अभूतपूर्व साहित्य प्रतिभा थी। सरकारी सेवा में कार्यरत रहते हुए भी उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की। एक पुस्तिका उन्होंने जाम-ऐ-जाम प्रकाशित की जिसमें मुगल वंश के बाबर से बहादुरशाह द्वितीय तक में 43 बादशाहो का वर्णन था। एक अन्य पुस्तक असर-अस-सनादीद में पुरातत्व की दृष्टि से दिल्ली के भग्नावशेषों का उल्लेख था। इस पुस्तक के इतिहास की दृष्टि से महत्व के कारण उनको रॉयल एशियाटिक सोसाइटी का फेलो बनाया गया। 1857 के विद्रोह में मुसलमान शासन अधिकारियों के प्रतिशोध के भाजन बने। शासकों की दृष्टि में अपने समुदाय की छवि सुधारने के लिए सैयद अहमद ने असबाव- ए-बगावत-ए-हिंद की रचना की। मनमाने तर्कों द्वारा उन्होंने विद्रोह के उत्तरदायित्व से मुसलमानों को मुक्त करने का प्रयास किया। बहादुरशाह द्वितीय को उन्होंने ‘मूर्ख’ कहा जो किसी प्रकार का नेतृत्व प्रदान करने में असमर्थ था। उस वर्ग को जिसने अंग्रेजों के विरुद्ध जेहाद का नारा दिया था उसे, उन्होंने ‘नीच कुल के ‘घूर्त मोलवी’ कहकर पुकारा। उन्होंने लॉयल ‘मुहम्मडस वह ऑफ इंडिया’ (हिन्दुस्तान के स्वामिभक्त मुसलमान) शीर्षक से कई पर्चे निकाले, जिनमें उन्होंने घोषित किया कि जिस राज्य में मुसलमानों को हर संरक्षण प्राप्त हो, उसके विरुद्ध जेहाद नहीं किया जा सकता।
मुसलमानों के प्रति वैज्ञानिक शिक्षा की सोच
19 वीं शताब्दी के सातवें दशक में, जब ब्रिटिश शासक वर्ग में मुसलमानों के प्रति संदेह की भावना अपनी पराकाष्ठा पर थी, उनकी स्वामिभक्ति का विश्वास उन्हें कैसे दिलाया जाए, यह सैयद अहमद की सबसे बड़ी समस्या थी। इस दिशा में उन्होंने साइंटिफिक सोसायटी की स्थापना की- 1864 में इसे अलीगढ़ लाया गया। इस सोसायटी का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश राज्य के स्थायित्व के लाभों को बताना था, साथ ही परिचारी ज्ञान-विज्ञान को प्रमुख पुस्तकों की उर्दू में अनुवाद करके उसे लोकप्रिय बनाना था। लगभग सत्ताईस पुस्तकों का अनुवाद उर्दू भाषा में किया गया। 1867 में अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट पत्रिका अलीगढ़ से प्रारंभ की गई। अलीगढ़ आंदोलन की मुख्य विचारधारा को समझने का मुख्य स्रोत इस पत्रिका में समय-समय पर लिखे गए लेख ही हैं। वस्तुतः अलीगढ़ क्रमशः मुस्लिम अवचेतना का केन्द्र बनता जा रहा था। 1869-70 में सैयद अहमद इंग्लैण्ड गए और पश्चिमी सभ्यता और सम्पन्नता देखकर स्तब्ध रह गये। वहीं पर उन्होंने यह निश्चय किया कि अलीगढ़ में एक ऐसी आवासीय शिक्षण- संस्था का निर्माण करेंगे जो पश्चिमी शिक्षा का केंद्र बने। इस प्रकार की शिक्षण संस्था के लिए अलीगढ़ का चयन कई दृष्टियों में उपयुक्त था। प्रथम, अलीगढ़ मुसलिम बहुल क्षेत्र में स्थित था जहाँ अभी भी बड़ी संख्या में सम्पन्न वर्ग विद्यमान था। दूसरे, अलीगढ़ उर्दू भाषाभाषी क्षेत्र के केंद्र में था। तीसरे, रेलमार्ग द्वारा अलीगढ़ का संपर्क मुसलिम बहुल क्षेत्रों, जैसे अवध, रुहेलखंड, पंजाब और दिल्ली से स्थापित हो गया था। चौथे, यदि कोई शिक्षण संस्था पहले से ही शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी स्थानों, जैसे इलाहाबाद या दिल्ली में प्रारंभ की जाती तो संभवतः उसे अधिक प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता। शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े अलीगढ़ में सैयद अहमद का प्रयास अधिक प्रभावशाली होता।
मुसलमानों में शिक्षा के अधिक प्रसार के प्रश्न पर सुझाव देने के लिए सैयद अहमद ने 1870 में बनारस में एक समिति बनाई, जिसके सचिव वे स्वयं थे। इस समिति का उद्देश्य यह भी पता लगाना था कि आम मुसलमान स्वभावतः पश्चिमी शिक्षा से क्यों कतराता है ? लगभग सौ पृष्ठों के लेख, केवल मुसलमान लेखकों द्वारा लिखित, आमंत्रित किए गए। योग्यता के आधार पर उन पर पाँच सौ, तीन सौ और डेढ़ सौ रूपयों के तीन पुरस्कार भी रखे गए। बत्तीस लेख इस संदर्भ में प्राप्त हुए। इन लेखकों का सर्वसम्मति यह विचार था कि राजकीय संस्थानों में धार्मिक शिक्षा का अभाव मुसलमानों में वहाँ की शिक्षा के प्रति विरक्ति का सबसे बड़ा कारण था। फलस्वरूप यह एक अवधारणा-सी बन गई थी कि किन संस्थाओं की शिक्षा नैतिकता के ह्रास में सहायक है। इन निष्कर्षों के आधार पर एक नई संस्था की स्थापना का निश्चय किया गया। संस्था के लिए आर्थिक साधन जुटाने के लिए एक और समिति बनाई गई। अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट में अनेकानेक लेखों के माध्यम से नई संस्था के उद्देश्यों को प्रचारित किया गया। यह निश्चय किया गया कि प्रारंभ से ही कॉलेज में दो विभाग खोले जाएँ- (1) अंग्रेजी विभाग, (2) प्राज्य शिक्षा विभाग अंग्रेजी विभाग में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा ही रहना था। प्राच्य शिक्षा विभाग में फ़ारसी या अरबी भाषाओं में एक अनिवार्य थी, तथा माध्यम उर्दू भाषा थी। अंग्रेजी भाषा यहाँ पर वैकल्पिक विषय था। अंग्रेजी और प्राच्य भाषाओं का पाठ्यक्रम में समान महत्त्व होने के कारण ही इस संस्था का नाम मुहमडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज रखा गया। एक विशिष्टता जो उसको अन्य शिक्षण संस्थानों से अलग करती थी, यह यह थी कि यहाँ विद्यार्थियों को इंग्लैंड के पब्लिक स्कूलों की ही भाँति छात्रावासों में रहना आवश्यक था। इससे यह आशा की गई थी कि वे अपने परिवार की रूढ़िवादी विचारधारा और पूर्वाग्रहों से दूर रह सकेंगे।
सैयद अहमद के प्रयासों का धार्मिक नेताओं द्वारा प्रबल विरोध किया गया। उनकी हत्या कर देने की धमकी भरे पत्र उन्हें लिखे गए। उनके एक विरोधी ने तो यहाँ तक कहा दिया कि लॉर्ड मेयो के हत्यारे ने यदि सैयद अहमद कि हत्या कर दी होती तो उसने अधिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य किया होता। पर सैयद अहमद अपने निश्चय पर अडिग रहे और अपने विद्यालय के लिए उचित स्थान ढूंढने पर उन्होंने अपना ध्यान केंद्रित किया। पुराने शहर से दूर चौहत्तर एकड़ भूमि का, जिसका कभी सैनिक छावनी के रूप में प्रयोग किया गया था, प्राप्त करने के लिए पश्चिमोत्तर प्रांत के लेफ्टीनेंट गवर्नर को प्रार्थनापत्र दिया गया। 6 जनवरी, 1875 को सर जॉन स्ट्रेची ने उक्त स्थान का निरीक्षण किया और उसने अपनी स्वीकृत दे दी। महारानी विक्टोरिया के जन्म दिवस 24 मई, 1875 को मदरसा की स्थापना हुई और एक जून 1875 को ग्यारह विद्यार्थियों के साथ पहली कक्षाएँ प्रारंभ हुई। मदरसा से कॉलेज के रूप में परिवर्तन 8 जनवरी, 1877 को हुआ जब लॉर्ड लिटन ने कॉलेज की आधारशिला रखी। कॉलेज के उद्देश्यों के संबंध में लॉर्ड लिटन को दिए गए स्मृतिपत्र में जो उद्गार प्रगट किए गए उसके अनुसार कॉलेज के माध्यम से ब्रिटिश ताज के प्रति स्वामिभक्त मुसलमान तैयार करना ही इस संस्था का उद्देश्य था।
अलीगढ़ कॉलेज की स्थापना मात्र एक स्थानीय घटना नहीं थी। इतिहासकार ए० एम० पत्रिकर के शब्दों में कॉलेज ने मुसलमानों में नवचेतना लाने और संगठित करने के लिए बौद्धिक हाईकमान की भूमिका अपनाई। अलीगड़ आंदोलन को और भी प्रचारित करने लिए सर सैयद ने 1886 में आल इंडिया मुहमडन एजूकेशनल कांग्रेस की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारत के विभिन्न भागों में अधिवेशन आयोजित करके अधिकतम क्षेत्रों में आंदोलन की मुख्य धारा को लोकप्रिय बनाना था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इसे संगठन का अंतर स्पष्ट करने के लिए 1890 में इसका नाम आल-इंडिया मुहमडन एजूकेशन कॉन्फ्रेंस कर दिया गया।
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