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अलीगढ आंदोलन | अलीगढ़ आंदोलन के संदर्भ में सर सैयद अहमद खां के योगदान

अलीगढ आंदोलन | अलीगढ़ आंदोलन के संदर्भ में सर सैयद अहमद खां के योगदान | Aligarh Movement in Hindi | Contribution of Sir Syed Ahmed Khan in the context of Aligarh Movement in Hindi

अलीगढ आंदोलन

विभिन्न क्षेत्रों में आंदोलन अभी तक मुस्लिम समान के निचले स्तर पर ही काम कर रहे थे। अंग्रेजी शासन और पश्चिम के साथ संपर्क की चुनौती को स्वीकार करने के लिए अब तक कुछ भी नहीं हुआ था। इस बीच मुसलमानों की दशा बिगड़ती गई। मुगल शासन का अंत होने से मुसलमान अपने अतीत के गौरव और प्रभुत्व को पुनः स्थापित करने में अंतिम रूप से असफल हो गए। अंग्रेजी प्रभुत्व की स्थापना से मुग़लों एवं उनके नवाबों का राज्य उनके हाथ से निकल गया। उनके मुसलमान दरवारियों और कारिदों की रोजी-रोटी चली गई और मुसलमानों के एक बड़े वर्ग का विशेषाधिकार उनसे छिन गया। अंग्रेजों की मुसलमान-विरोधी नीति और मुसलमानों के आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा के प्रति पूर्वाग्रह ने मुसलमानों को धीरे-धीरे अंग्रेजी सरकार की नौकरियों से भी अलग कर दिया और उनकी भौतिक संवृद्धि के सभी सुअवसर छीन लिए। इसी बीच 1857 को विद्रोह का धमाका हुआ। इसमें मुसलमानों ने अंग्रेजों का सक्रिय विरोध किया। लेकिन अंत विरोध असफल रहा। मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को कैद कर उसके शासन को समान कर दिया गया। इसके बाद मुसलमानों का दमन शुरू हुआ। इस प्रकार सारी परिस्थितियों मुसलमानों के विरुद्ध होती गई और उनका समाज पतन की ओर बढ़ता गया। ऐसे ही समय में सैयद अहमद खाँ (1817-98) का आविर्भाव हुआ जिन्होंने मुस्लिम समाज को पुनर्जीवन प्रदान किया।

सैयद अहमद का जन्म दिल्ली के एक ऐसे कुलीन परिवार में हुआ था जिसका संबंध मुगल दरबार से रहा था। सैयद मुहमद ने 1839 में ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी में प्रवेश किया था, लेकिन इस बीच वे दिल्ली के नाममात्र के मुगल दरबार से भी संबद्ध रहे। विरासत में उन्हें मुगलकालीन दिल्ली की सर्वश्रेष्ठ परंपराएँ मिली थीं। अपने समय के योग्यतम विद्वानों से उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिला। प्रारंभ से हो उनका मन जिज्ञासु था और उनमें एक सुधारक की विशेषताएँ मौजूद थीं।

अपनी जन्मजात जिज्ञासा और पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में सैयद अहमद ने भारतीय मुसलमानों के पुनरुद्धार एवं भलाई के वास्ते पहले अपने धर्म और समाज का अध्ययन किया और फिर लेखन द्वारा अपने सुधारवादी विचारों का प्रचार शुरू किया। उन्होंने  कुरान पर एक टीका (कमेंटरी) लिखी तथा ‘तहज़ीब उल-अखलाक’ नामक पत्रिका निकाली। वे आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से पूर्णरूपेण प्रभावित थे, जिसका वे जिंदगी भर इस्लाम से समन्वय कराने में प्रयत्नशील रहे। इस दृष्टि से उन्होंने घोषित किया कि इस्लाम धर्म के लिए केवल कुरान ही मान्य ग्रंथ है, बाकी सभी लिखित सामग्री गौण है। लेकिन कुरान की व्याख्या उन्होंने आधुनिक विज्ञान और बुद्धि के प्रकाश में की। उनके अनुसार कुरान की कोई भी व्याख्या जो मानव- विवेक और विज्ञान के विरुद्ध हो, सही नहीं है। उन्होंने परंपराओं के अंधाधुंध अनुसरण, रूढ़िवादी रीतिरिवाजों, अज्ञान और विवेकहीनता का विरोध किया। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, मानसिक संकीर्णता और अलगाववाद का भी विरोध किया और मुसलमानों को सहनशील और उदार होंने को कहा।

सैयद अहमद धार्मिक सहिष्णुता और सभी धर्मों की अंतर्निहित एकता में विश्वास रखते थे। वे सांप्रदायिक टकराव के विरोधी थी। उन्होंने 1883 में लिखा था : ‘तत्काल हम दोनों (हिंदू और मुसलमान) भारत की हवा पर जिंदा है। हम गंगा और यमुना का पवित्र जल पीते हैं। हम दोनों भारतीय भूमि की पैदावार खाकर जीवित हैं।” हम दोनों एक ही देश के हैं, हम  एक राष्ट्र के हैं, और देश की प्रगति तथा भलाई, हमारी एकता, पारस्परिक सहानुभूति और प्रेम पर निर्भर है, जबकि हमारी पारस्परिक असहमति, जिद और विरोध तथा दुर्भावना हमारा विनाश निश्चित रूप से कर देगी।’

फिर भी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे हिंदू प्रभुत्व की बात करने लगे थे और उन्होंने अपने समर्थकों को अंग्रेजों का साथ देने तथा उन्हें भारत के राष्ट्रीय आंदोलन से अलग रहने की सलाह दी थी। निश्चित ही वे हिंदू बहुलता से अनावश्यक रूप से भयभीत हो गए थे। पुनः उनका ख्याल था कि बिना अंग्रेजों के सहयोग के तात्कालिक परिस्थितियों में मुसलमानों की प्रगति नहीं हो सकती थी। लेकिन उनके पृथकतावादी दृष्टिकोण के लिए अंग्रेजों की कूटनीति और कुछ हिंदुओं की कटूट्टरपंथी नीति भी जिम्मेदार थी।

चूँकि सैयद अहमद का यह पक्का विश्वास था कि मुसलमानों का उत्थान पश्चिम में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और विचारों के सहारे ही हो सकता था, अतः वे आजीवन आधुनिक शिक्षा के प्रसार में लगे रहे। पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और विचारों के प्रसार हेतु एक अधिकारी के रूप में उन्होंने विभिन्न शहरों में स्कूलों की स्थापना कराई और कई पश्चिमी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद कराया। 1864 में उन्होंने एक ‘साइंटिफिक सोसायटी’ (विज्ञान समिति) की स्थापना की। इस सोसायटी ने अँग्रेजी पुस्तकों (विज्ञान और अन्य विषयों पर) का उर्दू अनुवाद प्रकाशित किया और सामाजिक सुधार के संबंध में उदारवादी विचारों के लिए एक अंग्रेजी उर्दू पत्रिका प्रकाशित की।

1875 में उन्होंने अलीगड़ में मोहमडन एंग्लो औरियंटल कॉलेज की स्थापना की। यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। आगे चलकर यही कॉलेज अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के रूप में विकसित हुआ। कालांतर में यह संस्था भारतीय मुसलमानों का सबसे महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थान बन गया। लंबे अर्से तक अपने विद्यार्थियों को आधुनिक दृष्टिकोण प्रदान किया और इस प्रकार भारतीय मुसलमानों के जागरण में उल्लेखनीय योगदान दिया।

चूँकि सैयद अहमद के कार्यक्रम का मुख्य केंद्र अलीगढ़ था, अतः इस आंदोलन को प्रायः ‘अलीगढ़ आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। चिराग अली, उर्दू कवि अल्ताफ़ हुसैन हाली, नजीर अहमद और मौलाना शिवली नोमानी अलीगढ़ स्कूल के प्रमुख नेताओं में से थे।

अलीगड़ आंदोलन और उसके संस्थापक सैयद अहमद खाँ, दोनों की कुछ (मुख्यतः हिंदू) इतिहासकारों ने भर्त्सना की है। इन इतिहासकारों के अनुसार इस आंदोलन के परिणामस्वरूप ही देश में सांप्रदायिक की शुरुआत हुई और अंततः देश का विभाजन हो गया। इस तथ्य में आंशिक सत्यता है। मगर इस आंदोलन का एक दूसरा पक्ष भी है। यदि हम इस आंदोलन का मुसलमानों की दृष्टि से मूल्यांकन करें तो यह उतना हिंदू विरोधी नहीं लगता जितना मुसलमानों का समर्थक। भारत में मुसलमानों के लिए इस आंदोलन का वही स्थान था जो हिंदुओं के लिए 19वीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण का। इसमें संदेह नहीं कि इस आंदोलन ने मुसलमान समुदाय को 1857 के विद्रोह के बाद की निराशा और दयनीय स्थिति से बाहर निकाला, और उसे उसके मध्यकालीन माहौल से बाहर निकालकर आधुनिक युग के मार्ग पर अग्रसर किया। राममोहन की तरह ही सैयद अहमद का भी विश्वास धा कि अंग्रेजी शिक्षा तथा पश्चिमी ज्ञान के माध्यम से ही मुसलमानों के समाज को आधुनिक एवं उन्नत बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, इस उद्देश्य की प्राप्ति के मार्ग में उन्होंने उन बाधक तत्वों को भी उखाड़ फेंकने की कोशिश की जो उस समय खुद मुसलमानों के धर्म और समाज में व्याप्त थे। इसका कट्टरपंथी मुसलमानों ने काफ़ी विरोध किया, परंतु सैयद अहमद उनसे भी जूझते रहे। सच तो यह है कि मुस्लिम समाज को आधुनिक बनाने के लिए वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे। इस उत्साह से उन्होंने तात्कालिक ऐतिहासिक शक्तियों एवं कई सामाजिक परिस्थितियों को नजर अंदाज किया, इसके घातक परिणाम सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ उनकी धारणा थी कि मुसलमानों की उन्नति पश्चिमी शिक्षा और अंग्रेजों के सहयोग के बिना नहीं हो सकती थो, अतः उन्होंने राष्ट्रवादी भारतीयों का साथ न देकर अंग्रेजों के साथ सहयोग किया तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विरोध किया। देश की तात्कालिक राजनीति से दूर रहकर अंग्रेजों के साथ सैयद अहमद के सहयोग करने के कुछ अन्य कारण भी थे। सैयद अहमद की धारणा थी कि मुसलमानों के उत्थान के लिए उनका सांस्कृतिक (विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में) और सामाजिक उत्थान अति आवश्यक है। इसी वजह से उन्होंने मुसलमानों को सामान्यतः राजनीति से अलग रखकर उन्हें शैक्षिक और बौद्धिक उन्नति के कार्य में लगाए रखा। दूसरे, अंग्रेजों के विरुद्ध वे इसलिए भी आवाज़ नहीं उठाना चाहते थे क्योंकि तब तक मुसलमान राजनीतिक दृष्टि से अनुभवहीन एवं अधकचरे तथा संगठन और सामरिक दृष्टि से बहुत कमजोर थे। इस बात का भरपूर प्रमाण उन्हें बहाबी आंदोलन तथा 1857 के विद्रोह के अंग्रेजों द्वारा दमन में मिल चुका था। व्यावहारिक दृष्टि से यह धारणा एवं उनसे संबंधित कार्यवाहियाँ गैरवाजिब नहीं थी, लेकिन इसके परिणाम स्वरूप हिंदू और मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ती गई। ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति में विश्वास करने वाले अंग्रेजों ने इस स्थिति का नाजायज फायदा उठाया तथा राष्ट्रीय जन-जीवन में सांप्रदायिकता की भावना उत्तरोत्तर जड़ जमाती गई। वैसे इसके कई अन्य कारण भी थे, फिर भी सैयद अहमद को इस जिम्मेदारी से बरी नहीं किया जा सकता है। हाँ एक बात जरूर है कि यह आपसी अलगाव सैयद अहमद के हिंदू-विरोधी होने से नहीं बल्कि उनके मुसलमानों के अंघ-समर्थक होने की वजह से हुआ।

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Pankaja Singh

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