शिक्षाशास्त्र

सर सैयद अहमद का राजनैतिक दृष्टिकोण | Political outlook of Sir Syed Ahmed in Hindi

सर सैयद अहमद का राजनैतिक दृष्टिकोण | Political outlook of Sir Syed Ahmed in Hindi

सर सैयद अहमद का राजनैतिक दृष्टिकोण

यह लगभग सर्वमान्य-सा मत है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश अधिकारियों के प्रोत्साहन से हुई। परंतु शीघ्र ही कांग्रेस ने अधिकारी वर्ग की आशाओं के विपरीत ऐसी माँगे उनके सामने प्रस्तुत करनी प्रारंभ कर दीं कि दोनों के संबंध तनावपूर्ण हो गए। उनकी कुछ प्रमुख माँगों में विभिन्न विधान परिषदों में भारतीयों का अधिकतम प्रतिनिधित्व, आई० सी० एम० की परीक्षा-इंग्लैंड और भारत में एक साथ किया जाना और सैनिक व्यय में कटौती-जैसी माँग सम्मिलित थी। सैयद अहमद ने प्रारंभ में तो कांग्रेस की गतिविधियों पर ध्यान नहीं दिया, पर कुछ ही दिनों बाद इसके विरुद्ध उनका विष-वमन प्रारंभ हो गया।

यहाँ पर विचारणीय है कि सैयद अहमद अपने कांग्रेस-विरोधी उद्गारों में संकुचित सांप्रदायिकता से नहीं वरन् अपने सामंती दृष्टिकोण से प्रेरित थे। पश्चिमी सभ्यता से वे प्रभावित अवश्य थे- पर उनकी स्वयं की मानसिकता नहीं बदली थी। राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रतिनिधित्व प्रणाली की माँग को वह निम्नवर्गों के हाथ में सत्ता का हस्तांतरण समझते थे। आलीगढ़ इन्स्टीट्यूट गजट के स्तंभों का सर सैयद ने कांग्रेस के विरुद्ध प्रचार के लिए जमकर प्रयोग किया। इसी पत्रिका के एक लेख में, जिसका शीर्षक ‘कांग्रेस का दोष’ था, उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं के समकालिक करने की कांग्रेस की माँग को मुसलमानों के हितों के विरुद्ध बताया, क्योंकि वह समुदाय शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा हुआ था। ब्रिटिश राज के प्रति अटूट स्वामिभक्त और अपनी ‘क़ीम’ की पृथक् हित-साधना सैयद अहमद का राजनैतिक दृष्टिकोण बनता जा रहा था।

दुर्भावना के बावजूद राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में मुसलमान भाग लेते रहे। 1887 के तीसरे अधिवेशन के सभापति एक मुसलमान बदर-उद्दीन-तैयबजी थे। 13 जनवरी, 1888 को लिखे एक पत्र में तैयबजी ने सैयद अहमद से अपने दिमाग से इस विचार को निकाल देने को कहा कि कांग्रेस मुसलमानों का अहित चाहती थी। एक दूसरे पत्र में उन्होंने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि सैयद अहमद कांग्रेस को मात्र बंगालियों के प्रभुत्व वाली संस्था समझते हैं। परंतु इन तर्कों का सैयद अहमद पर कोई असर नहीं पड़ा। बल्कि उन्हीं की विचारधाराओं के अनुरूप उत्तर-पश्चिमी प्रांत के भूस्वामियों का एक वर्ग, जिसमें संडीला का ताल्लुकेदार, बनारस का महाराजा, भिनगा का राजा आदि सम्मिलित थे, कांग्रेस-विरोधी खेमे मेंमें शामिल हो गए।

कांग्रेस-विरोधी अभियाम में एम० ए० कॉलेज के प्रिंसिपल थियोडर बेक के रूप में सैयद अहमद को एक दुर्लभ सहयोगी मिला। 1883 में प्रिंसिपल के पद पर नियुक्ति बेक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का एक मेधावी छात्र था और 1899 तक इस पद पर बना रहा। अलीगढ़ के छात्रों को कांग्रेस से यथासंभव दूर रखने के लिए वेक ने अपने छात्रावासों में जाकर और स्वयं उन्हें अपने निवास स्थान पर बुलाकर उनको मानसिक रूप से इसके लिए तैयार किया। 23 अगस्त, 1886 को अपने एक भाषण में बेक ने यह घोषणा की कि “इस कॉलेज के कुछ विशेष उद्देश्य हैं- जो मात्र शैक्षणिक नहीं वरन् सामाजिक और राजनैतिक भी हैं। इसके राजनैतिक उद्देश्यों में मुसलमानों और अंग्रेजों के वीच समझदारी को बढ़ावा देना है।’ कांग्रेस-विरोधी राजनैतिक विचारधारा को इंग्लैंड के प्रचारित करने के लिए बेक की सहायता से अगस्त 1888 में यूनाइटेड इंडियन पैट्रियाटिक एसोसियेशन की स्थापना की गई। इसी संगठन के तत्त्वावधान में 1889 में चार्ल्स ब्रेडला के उस विधेयक के विरुद्ध, जिसका उद्देश्य भारत में प्रतिनिधि प्रणाली का विस्तार करना था, बीस हजार मुसलमानों के हस्ताक्षरों से युक्त एक अपील हाउस ऑफ कॉमस को भेजी गई। हस्ताक्षरकर्ताओं में बहुतों को अपील के मंतव्य का पता नहीं था।

कांग्रेस की नीतियों के विरोध का एकमात्र लक्ष्य यह था कि ब्रिटिश सरकार कांग्रेस की मांगों को स्वीकार न करे। फिर भी 1892 में इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट पारित हो गया। मुस्लिम हितों की पुनः रक्षा करने की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए 1893 में मुहमडन एंग्लो ओरियंटल डिफेंस एसोसिएशन की स्थापना की गई। पेट्रियाटिक एसोसिऐशन की तुलना में इस संगठन की बैठकें न तो सार्वजनिक होनी थीं और न ही इसकी कोई शाखा स्थापित की जानी थी। डिफेंस एसोसिऐशन के उद्घाटन भाषण में वेक ने यह घोषणा की कि संप्रति देश में दो आंदोलन चल रहे हैं- पहला राष्ट्रीय कांग्रेस का और दूसरा गो हत्या-विरोधी। उसने जोर देकर यह कहा कि पहला आंदोलन ब्रिटिश-विरोधी है और दूसरा मुसलिम-विरोधी। एक अन्य लेख में बैंक ने गृह सरकार की इस बात के लिए भर्त्सना की कि वह देशद्रोही आंदोलनकर्ताओं के दबाव में आकर उनकी माँगें स्वीकार करती जा रही है। वस्तुतः उसका प्रभाव कॉलेज के जीवन पर बहुत बढ़ गया था। यह प्रभाव मैयद अलगद के अंतिम वर्षों में स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था। यहाँ तक कहा जाता है कि 1884 के बाद यह वास्तव में बेक की राजनीति थी जो सैयद अहमद के नाम से विकसित हो रही थी। अपने गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण उन्होंने अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट के संपादन का काम बेक को ही सौंप दिया था, जिसका लाभ उसने खूब उठाया। परंतु इन तथ्यों से सैयद अहमद के व्यक्तित्व को कम प्रभावहीन नहीं समझना चाहिए। सैयद अहमद की ब्रिटिश राज के प्रति स्वामिभक्ति प्रतिनिधित्व प्रणाली के विरोध और प्रतियोगी परीक्षाओं का भारत और इंग्लैंड में एक साथ किए जाने के विरुद्ध धारणाएँ ब्रेक के आने से पूर्व ही बन चुकी थीं। उनकी दृष्टि में कांग्रेस आंदोलन में भाग लेना मुसलमानों के हितों को आघात पहुचाने के समान था।

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Pankaja Singh

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