शिक्षाशास्त्र

व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक | समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व को किस प्रकार प्रभावित करता

व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक | समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व को किस प्रकार प्रभावित करता | factors affecting personality in Hindi | How does society affect the personality of an individual in Hindi

व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक

व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को जन्म से लेकर ही नहीं आता। उसका निर्माण धीरे-धीरे होता है। जैसे-जैसे किसी व्यक्ति की आयु में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे उस पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है और उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। मुख्य रूप से उसके व्यक्तित्व के विकास या निर्माण पर निम्न कारक या तत्त्व प्रभाव डालते हैं-

(1) वंशानुक्रम,

(2) वातावरण।

(1) वंशानुक्रम

जिस समय माता के गर्भ में अण्ड और शुक्र मिलते हैं और युक्ता का निर्माण होता है, उसी समय जीव के अनेक गुणों का निर्धारण हो जाता है। माता-पिता के बीज कोषों में स्थित वंशसूत्र और  उनके भीतर स्थित हिवेक ही गुणों के वाहक होते हैं और जिस समय जीव का सृजन गर्भाशय में होता है उसने आधे गुण माता-पिता से आते हैं। इस प्रकार वंशानुक्रम द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व के अनेक गुणों का निर्धारण होता है। व्यक्ति को वंशानुक्रम से प्राप्त होने वाली विशेषतायें निम्न हैं-

  1. ग्रन्थि रचना- मनुष्य के शरीर में अनेक ग्रन्थियाँ पायी जाती है। उनका स्वरूप और संगठन भी वंशानुक्रम के द्वारा ही व्यक्ति को प्राप्त होता है। ये ग्रन्थियाँ दो प्रकार की होती हैं-

(अ) नलिका युक्त ग्रन्थियाँ- जो अपना स्राव शरीर के विभिन्न भागों में एक नलिका द्वारा पहुँचाती हैं। इनमें जो अधिकांश ग्रन्थियाँ पाचन संस्थान से सम्बन्धित होती हैं।

(ब) नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ- जो अपना स्राव रक्त में सीधे उड़ेल देती हैं। इनमें कोई नलिका नहीं होती। व्यक्तित्व के विकास में इनका अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका विस्तृत वर्णन ‘स्नायु संस्थान’ के अन्तर्गत देखिए। इनमें से प्रमुख प्रन्थियाँ जो व्यक्तित्व के निर्माण पर प्रभाव डालती हैं, निम्न हैं-

(i) गल ग्रन्थि- इस ग्रन्थि की क्रियाशीलता में कमी आने से मस्तिष्क ओर पेशियों की क्रिया भन्द पड़ जाती है, स्मृति, दुर्बल होती जातो है, ध्यान और चिन्तन में कठिनाई होती है। इस ग्रंथि की शिथिलता से बौने, कुरूप तथा मूढ़ बुद्धि वाले बालक उत्पन्न होते हैं। इसकी अत्यधिक क्रियाशीलता में व्यक्ति तनावयुक्त, अशान्त, चिडचिड़ा, चिन्तायुक्त और अस्थिर हो जाता है तथा उसकी लम्बाई बहुत बढ़ जाती है। इस प्रकार इस ग्रंथि का काम या अधिक क्रियाशीलता का व्यक्तित्व के स्वरूप पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है।

(ii) अग्नाशय- इस नलिका द्वारा अग्न्याशयिक रस (Pancreatic Juice) निकलकर भोजन पचाने में मदद करता है किन्तु बिना नलिका के इंसुलिन (Insulin) रक्त में जाकर शर्करा के उपयोग में माँसपेशियों की सहायता करता है। इंसुलिन की मात्रा में परिवर्तन रक्त में शर्करा की मात्रा में परिवर्तन कर देता है जिससे व्यक्ति की भावावस्था, स्वभाव आदि पर प्रभाव पड़ता है।

(iii) अभिवृक्क ग्रन्थि – यह गुर्द के बहुत निकट होती है और अभिवृक्क नामक (Adrenin) रस निकलती है। इसकी अधिकता से पुरुषोचित गुणों का विकास होता है, आपत्ति के समय जीवन में शक्ति बढ़ जाती है, धड़कन तेज हो जाती है, रक्तचाप बढ़ जाता है, अमाशय की क्रिया और पाचन सम्बन्धी ग्रन्थियों को क्रिया रुक जाती है, आँख की पुतलियाँ फैल जाती हैं, पसीना आता है, माँस तेज चलने लगती हैं, आदि। इसके अभाव में शरीर में शिथिलता और निर्वलता बढ़ जाती है, पाचन की प्रक्रिया धीमी हो जाती है, रोगों को रोकने की शक्ति धीमी हो जाती है, चिड़चिड़ाहट, बमड़े का रंग काला हो जाता है, इत्यादि।

(iv) जनन ग्रन्थियाँ – इस नलिकाविहीन ग्रन्थि से निकलने वाला स्राव पुरुषों में पुरुषोचित लक्षणों की वृद्धि और विकास तथा स्त्रियों में स्त्रियोचित लक्षणों और विशेषताओं का विकास करता है। इसकी कमी या अधिकता से लँगोय विशेषतायें तथा यौन क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है।

(v) पोष ग्रन्थियाँ- यह मस्तिष्क में स्थित होती है। इसके पिछले भाग से निकलने वाला रस रक्तचाप और जल के चयापचय और अन्य शारीरिक क्रियाओं का नियंत्रण करता है तथा अगले भाग से निकलने वाले अन्य ग्रन्थियों को क्रियाओं का नियंत्रण करता है। व्यक्ति के विकास काल में इस ग्रन्थि की क्रिया मन्द मड़ जाने से व्यक्ति बौना हो जाता है, बुद्धि निम्न स्तर की और शारीरिक गठन कुरूप हो जाता है। इसकी क्रिया तीव्र हो जाने से शारीरिक आकारों की असामान्य वृद्धि होती है।

वंशानुक्रम से प्राप्त होने वाली ग्रन्थीय रचना उपर्युक्त प्रकार से व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव डालती है।

  1. 2. स्नायु- संस्थान वंशानुक्रम से व्यक्ति को स्नायु संस्थान की रचना प्राप्त होती है। मानसिक क्रियायें और अनुक्रियायें स्नायु संस्थान की रचना पर आधारित होती हैं। इस पर अनेक मानसिक क्रियायें आधारित होती हैं, जैसे प्रतिक्षेप, स्मृति, निरीक्षण, विचार इत्यादि। मनुष्य के बाह्य व्यवहार जो व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण अंग हैं, स्नायु संस्थान द्वारा नियन्त्रित और प्रभावित होते हैं। बुद्धि की मात्रा भी स्नायु संस्थान द्वारा ही निर्धारित होती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में इन सबका महत्वपूर्ण योगदान है।
  2. मूल प्रवृत्तियाँ, चालक और सामान्य आन्तरिक प्रवृत्तियाँ- आन्तरिक जन्मजात प्रवृत्तियाँ और चालक जो व्यक्ति के व्यवहार को बहुत अधिक मात्रा में प्रभावित करते हैं, व्यक्ति के वंशानुक्रम से ही मिलते हैं।
  3. उद्वेग (Emotions) और आन्तरिक स्वभाव- वंशानुक्रम से व्यक्ति को कुछ संवेग भी प्राप्त होते हैं, जैसे क्रोध, भय, प्रेम आदि। इनकी मात्रा और स्वरूप ग्रन्थियों पर आधारित होता है, व्यक्तित्व में इनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इनसे मनुष्य के आन्तरिक स्वभाव का निर्माण होता है। इसी के कारण कुछ लोग चिड़चिड़े, कुछ क्रोधी, कुछ दयालु, कुछ प्रेमी इत्यादि होते हैं। व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषताएँ संवेग और आन्तरिक स्वभाव से बनती हैं।
  4. शारीरिक रचना- मनुष्य के व्यक्तित्व पर वंशानुक्रम का योगदान या प्रभाव शारीरिक रचना के रूप में भी दिखाई पड़ता है। शरीर का कद, मुखाकृति, नाक का नक्शा, आँख व होंठों की बनावट, भुजाओं का आकार, टाँगों की लम्बाई, त्वचा का रंग आदि वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों द्वारा निर्धारित होते हैं।

इस प्रकार व्यक्तित्व के निर्धारण में वंशानुक्रम का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व के वंशानुक्रमीय तत्त्वों के विषय में Ogburn और Nimkoff ने कहा है कि-

“वंशानुक्रम शिशुओं को उस रंगमंच पर प्रस्तुत करता है- जो भौतिक वातावरण, समूह एवं संस्कृति द्वारा तैयार किया गया है। शिशुओं के रंगमंच पर आने के बाद नाटकीय कार्य आरम्भ होता है और नवागन्तुक शिशुओं का धीरे-धीरे समाजीकरण होता है।”

“Biological heredity, ushers infants on the stage, which physical environments, the group and culture have set. The dramatic actions, now begin and new-born baby is gradually transformed into a social person.”

(2) पर्यावरण

व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रभाव डालने वाले कारकों में दूसरा कारक वातावरण है। वंशानुक्रम के द्वारा प्राप्त कच्चे माल को वातावरण अपने प्रभाव के द्वारा ढालने और निर्मित करने का प्रयत करता है।

(अ) प्राकृतिक वातावरण- इसके अन्तर्गत स्थान-विशेष की भू-रचना, जलवायु, मिट्टी, वनस्पति आदि सम्मिलित हैं। इन कारकों का प्रभाव व्यक्ति की शारीरिक बनावट, त्वचा का रंग, स्वास्थ्य, आदतों, क्रियाशीलता आदि पर पड़ता है। पहाड़ी भागों में रहने वाले व्यक्तियों को स्वाभाविक रूप से कठोर शारीरिक श्रम करना पड़ता है। इसलिये उनके शरीर की रचना भी कठोर होती है, शरीर पुष्ट होता है। गर्म जलवायु के लोग परिश्रमी, अध्यवसायी और क्रियाशील होते हैं। इसी प्रकार गर्म और नम जलवायु के निवासियों का स्वास्थ्य भी सामान्य रूप से उतना अच्छा नहीं होता जितना ठण्डी जलवायु के निवासियों का। इस प्रकार प्राकृतिक वातावरण व्यक्तित्व की रचना पर प्रभाव डालता है।

(ब) सामाजिक वातावरण- जन्म के पश्चात् बालक का सम्पर्क समाज से शुरू होता है। उसका समाजीकरण आरम्भ हो जाता है और इस प्रकार व्यक्ति समाज के अनुरूप अपने को ढालने लगता है। सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत बहुत से ऐसे कारक हैं जो व्यक्तित्व के निर्माण में अपना प्रभाव दिखलाते हैं। वे इस प्रकार हैं-

(i) माता-पिता – सर्वप्रथम जन्म के बाद व्यक्ति अपनी माता के सम्पर्क में आता है। इसके बाद पिता का सम्पर्क उसे प्राप्त होता है। दोनों यत्न से बालक का लालन-पालन करते हैं। बालक जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, बहुत-सी बातें अपने माता से सीखता है। बालक की अनेक आदतें, स्वभाव, चरित्र माता-पिता के प्रभाव से बनते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व के निर्माण में माता-पिता का प्रभाव समाज के सदस्यों के रूप में सर्वप्रथम पड़ता है।

(ii) पारिवारिक सम्बन्ध- प्रारम्भ में बालक पर माता-पिता के बाद परिवार के अन्य लोगों का प्रभाव पड़ता है। सभी के बोलचाल का ढंग, आदतें, व्यवहार, चरित्र बालक को प्रभावित करते हैं। जिन परिवारों में विचार, व्यवहार चरित्र, संगठित होते हैं और उनमें एकरूपता होती है, उन परिवारों के बालकों में भी संगठित व्यक्तित्व के विकास की सम्भावना रहती है। परिवार के सदस्यों में एकरूपता और साम्य के अभाव से बालकों में असंगठित व्यक्तित्व विकसित होता है।

(iii) पड़ोसी – सामाजिक सम्पर्क का दायरा बड़ा होने पर बालक पड़ोसियों के सम्पर्क में आता है। उन घरों में जो अच्छे पड़ोस में स्थित हैं, जहाँ के पड़ोसी सभ्य, सुशिक्षित, चरित्रवान, धार्मिक हैं, बच्चे पड़ोसी के घरों में जाने पर भी अच्छी बातें हो सोखते हैं। उनके व्यक्तित्व में दोषों में प्रवेश करने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है। इसके विपरीत वे बालक जो निम्नकोटि के पड़ोस में रहते हैं और अपना अधिकांश समय वहीं काटते हैं, अनेक गन्दी आदतें सीख जाते हैं।

(iv) संगी-साथी का गिरोह- थोड़ा बड़े होने पर बालक अपने अनुकूल मनोवृत्तियों के बालकों को अपना साथी चुन लेते हैं और उन्हीं के साथ अपना अधिकांश समय व्यतीत करते हैं। उस गिरोह का प्रभाव बालक पर अधिक पड़ता है। चरित्रहीन, गन्दी आदतों वाले संगी-साथी उसी प्रकार के दोषों का बीज़ बालक में भी बो देते हैं। अस्तु, व्यक्तित्व के निर्माण में उनका प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है।

(v) विद्यालय – विद्यालय समाज के स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। वह समाज के लक्ष्यों की पूर्ति और प्राप्ति के लिए बनाया जाता है। उसमें तरह-तरह के अध्यापक और विद्यार्थी समाज के कोने-कोने से आते हैं। समाज के हर स्तर के बालक वहाँ एक साथ उठते-बैठते, खेलते- कूदते और पढ़ते-लिखते हैं। वे न केवल अपने-अपने घरों और पड़ोस में सीखी हुई बातों को सीखते हैं बल्कि अपने अध्यापक की आदतों, चरित्र, गुणों और दुर्गुणों द्वारा भी प्रभावित होते हैं। इस प्रकार शिक्षालय बालकों के व्यक्तित्व के निर्माण और विकास के लिए बहुत अधिक जिम्मेदार हैं।

(vi) पुस्तकें एवं तस्वीरें- समाज में रहकर बालकों को तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने को मिलती हैं। उनको पढकर उन्हें भाँति-भाँति ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार तस्वीरें भी उनके मन को प्रभावित करती हैं। मन के विचारों, धारणाओं, रुचियों और मनोवृत्तियों के निर्धारण में पुस्तकें एवं तस्वीरें अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं।

(vii) क्लब – मनोरंजन के लिए समाज के कुछ लोग एक निश्चित समय पर एक निश्चित स्थान पर मिलते हैं और खेलकूद, नाच-गाना, वार्तालाप द्वारा अपना मनोरंजन करते हैं। बालक भी छोटे स्तर पर क्लबों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार के क्लब भी व्यक्तित्व के निर्माण में योगदान करते हैं।

(viii) चलचित्र – आजकल चलचित्र समाज का एक आवश्यक अंग हो गया है। चलचित्रों में देखी हुई बातों का बालक अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार अच्छी और खराब दोनों प्रकार की बातें चलचित्रों द्वारा सोखकर बालक अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।

(ix) मेला- समाज के लोगों के विशिष्ट स्थान पर एक विशिष्ट प्रकार से एकत्र होने को मेला कहते हैं। मेले में भी देखी और निरीक्षण की हुई बातों का बालक के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।

(x) मन्दिर, मस्जिद एवं चर्च- ये सभी धार्मिक स्थान हैं जहाँ विभिन्न धर्म वाले अपने-अपने मान्य-देवों की पूजा आराधना एवं ध्यान करते हैं। नियमित रूप से ऐसे धार्मिक स्थानों पर जाने वाले बालकों की प्रवृत्ति धार्मिक हो जाती है। इसका चरित्र के निर्माण पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

(xi) आर्थिक स्थिति- सामाजिक प्रभावों में आर्थिक स्थिति का अपना विशिष्ट स्थान है। गरीब घरों के बालक कष्टों के बीच गलते हैं। उनके व्यक्तित्व में कष्ट, सहिष्णुता, कठोरता, परिश्रमशीलता, अध्यवसाय का समावेश स्वाभाविक रूप से हो जाता है। अमीर घरों के बालकों का आराम पसन्द, भ्रमणशील आदि होना स्वाभाविक है। इस प्रकार आर्थिक स्थिति के कारण विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व निर्मित होते हैं।

इस प्रकार हमने देखा कि व्यक्तित्व निर्माण में सामाजिक वातावरण का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इस सम्बन्ध में जार्ज मीड (George Mead) का कहना है।

The self, as that which can be object to itself, it essentially a social structure and it arises in social experience.”

(स) संस्कृति वातावरण– ‘संस्कृति’ शब्द ‘संस्कार’ से बना है। किसी देश की संस्कृति’ उन देशवासियों के कृत्यों, कर्मों, रूढ़ियों, व्यवहार के ढंगों, रीतियों, भाषा, विचारों, धारणाओं की सामूहिक अभिव्यक्ति है। इन्हों के द्वारा किसी समाज या देश के सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण होता है। किसी समाज की संस्कृति में एक ऐसी शक्ति निहित होती है जो उस समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व को प्रभावित करती है।

प्राचीन भारत की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आजकल की संस्कृति से भिन्न थी। अस्तु, उस समय धार्मिक और चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य था। आज भारतीय संस्कृति पर मुसलमानों और अंग्रेजों के प्रभाव के कारण सामाजिक मूल परिवर्तित हो गये हैं। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से समाज के व्यक्तियों में असयम, चरित्र भ्रष्टता, लोलुपता आदि लक्षणों की प्रधानता हो गई है।

किसी भी जाति की संस्कृति तस जाति के लोगों के व्यक्तित्व को स्पष्ट करने में सहायक होती है। किसी समाज के लोगों में सहयोग, सहकारिता, प्रेम-भाव की भावनायें तभी पैदा होती है, जब समाज में आर्थिक सम्पन्नता हो और समाज की संस्कृति में वे बातें पायी जायँ। जिन जनसमूहों में संघर्ष होता है, वहाँ लोगों में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, विश्वास, झूठ बोलना आदि लक्षण विकसित होते हैं।

मैलोनोस्की और मारग्रेट की खोजों से यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया है कि व्यक्तित्व के निर्माण में सांस्कृतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार थामस, बगैस और फेरिस का भी विचार है कि व्यक्तित्व का निर्माण उनके सांस्कृतिक वातावरण के अनुरूप हो होता है। मीड ने समीबा के निवासियों का अध्ययन करके भी यही निष्कर्ष निकाला है।

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Pankaja Singh

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