शिक्षाशास्त्र

बौद्धकालीन प्रमुख शिक्षा केन्द्र | Buddhist major education center in Hindi

बौद्धकालीन प्रमुख शिक्षा केन्द्र | Buddhist major education center in Hindi

बौद्धकालीन प्रमुख शिक्षा केन्द्र

बौद्धकालीन प्रमुख शिक्षा केन्द्रों का वर्णन निम्न प्रकार है-

(1) तक्षशिला (Takshshila)-

प्राचीन काल से ही तक्षशिला ब्राह्मणीय शिक्षा का केन्द्र रहा था। बौद्धकाल में भी उत्तरी भारत में यह प्रमुख शिक्षा का केन्द्र था। पांचवीं शताब्दी में जब फाह्यान ने तक्षशिला को देखा तो उस समय तक वहाँ विश्वविद्यालय के कोई चिह्न शेष नहीं थे और सातवीं शताब्दी में हेनसांग इस विद्या केन्द्र को देखकर बहुत निराश हुआ था। तक्षशिला प्राचीन काल में गंधार प्रान्त की राजधानी थी। राजा ‘भरत’ ने इसे अपने पुत्र ‘तक्ष’ के नाम पर बसाया था। तक्षशिला के भारत की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित होने के कारण इसका राजनैतिक स्वरूप बदलता रहा। जनमेजय का नागयज्ञ इसी स्थल पर हुआ था। वर्तमान पेशावर नगर के समीप तक्षशिला भारत का विख्यात नगर था। बौद्धकाल में तो इसने इतनी उन्नति कर ली थी कि यहाँ पर विदेशों के छात्र अध्ययन के लिए आते थे।

यहाँ पर कोई सुसंगठित शिक्षालय नहीं था। गुरु लोग पारिवारिक प्रणाली के आधार पर ही शिक्षा दिया करते थे। छात्रों के भोजनादि की व्यवस्था भी गुरुजनों को करनी पड़ती थी। एक-एक गुरु के पास चार-चार सौ छात्र हो जाते थे। यहाँ पर केवल उच्च विषयों की ही शिक्षा दी जाती थी।

अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वैभव के सुदीर्घ इतिहास में तक्षशिला को स्वाभाविक ही कई बार विदेशी आक्रमणकारियों के निर्मम प्रहार सहने पड़े और उसने अनेक उत्थान-पतन भी देखे। ईसवी पूर्व दूसरी शताब्दी में यूनानियों, ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी में शकों, ईसा की प्रथम शताब्दी में कुषाणों और पाँचवीं शताब्दी में हूणों ने तक्षशिला पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया था। तक्षशिला में छात्र-प्रवेश के लिए 16 की वर्ष आयु निर्धारित की गयी थी।

प्रत्येक छात्र को शिक्षा-शुल्क देना पड़ता था। उसके निम्न तीन रूप थे-

(क) प्रवेश के समय एक सहस्र स्वर्ण मुद्रायें देना।

(ख) अध्ययनोपरान्त स्वर्ण मुद्रायें देने का वचन देना। अथवा

(ग) गुरु की सेवा करना।

इससे धनी-निर्धन, सभी छात्रों को अध्ययन करने का सुअवसर मिल जाता था। तक्षशिला के सभी शिक्षक विश्वविख्यात थे। वे अपने शिष्यों को आयुर्वेद, धनुर्विद्या, ज्योतिष, तर्कशास्त्र, व्याकरण, वास्तुकला, चित्रकला, सैनिक शिक्षा, कृषि, व्यापार तथा शल्य-चिकित्सा आदि विषयों की शिक्षा प्रदान करते थे।

तक्षशिला में विषय का विशेषीकृत अध्ययन होता था। वहाँ की शिक्षा साहित्यिक और वैज्ञानिक व औद्योगिक नामक तीन भागों में विभाजित की गयी। साहित्यिक शिक्षा में सभी धार्मिक साहित्य सम्मिलित थे। वैज्ञानिक व औद्योगिक शिक्षा के अन्तर्गत अट्ठारह शिल्पों (यथा, आयुर्वेद, शल्य-चिकित्सा, धर्नुविद्या, युद्धकला, ज्योतिष, भविष्य कथन, मुनीमी, व्यापार, कृषि रथ-संचालन, इन्द्रजाल आगवशीकरण, गुप्त निधि अन्वेषण, संगीत, नृत्य व चित्रकला) की गणना होती थी। तक्षशिला में ऊँचे-नीचे का भेद-भाव न था। विषयों के चयन में वर्ग की बाधकता भी न थी। न केवल ग्रीक भाषा की शिक्षा दी जाती थी अपितु ग्रीक युद्ध प्रणाली भी सिखायी जाती थी।

तक्षशिला ने अपनी ज्ञान-ज्योति न केवल स्वदेश अपितु विदेशों में प्रसारित की। सुप्रसिद्ध व्याकरण पितामह पाणिनि, चिकित्साशास्त्री जीवन तथा सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री कौटिल्य (चाणक्य) ने भी यहीं शिक्षा प्राप्त की थी। तक्षशिला 455 ई. तक भारत का सुप्रसिद्ध प्राचीन शिक्षा का केन्द्र रहा है।

(2) नालन्दा विश्वविद्यालय (Nalanda University)-

नालन्दा विहार के राजगृह से सात मील उत्तर और पटना से चालीस मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है। महात्मा बद्ध ने नालन्दा के पारिवारिक वन में रहकर कई बार-धर्मोपदेश दिये थे। उनके मुख्य शिष्य सारिपुत्र की जन्मभूमि भी नालन्दा ही थी। शिक्षण संस्था के रूप में नालन्दा का उद्भव तीसरी शताब्दी के बाद ही मानना चाहिए, क्योंकि सुदूर-दक्षिण से नागार्जुन व उनके शिष्य आर्यदेव क्रमश: 200 तथा 330 के लगभग यहाँ अध्ययन के उद्देश्य से आये थे। तारानाथ ने आर्य को नालन्दा का आचार्य माना है। पाँचवीं शताब्दी के उपरान्त की प्रसिद्धि बढ़ने लगी थी और चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय यह भारत का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था।

(i) नालन्दा विश्वविद्यालय की सामान्य विशेषताएँ (General Characteristics of Nalanda University)

(a) इसमें जैन धर्म के सर्वप्रथम प्रवर्तक वर्द्धमान महावीर ने चौदह वर्षा ऋतुयें भी व्यतीत की थीं।

(b) ब्राह्मणानुयायी होते हुए भी गुप्त सम्राटों ने नालन्दा की समृद्धि में अपना योगदान प्रदान किया था।

(c) एक यानो साधारण मठों के रूप में आरम्भ होकर नालन्दा शीघ्र ही विद्योपार्जन तथा संस्कृति का अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र बन गया था, जहाँ केवल भारत के कोने-कोने से ही नहीं बल्कि सुदूर मध्य एशिया, चीन कोरिया तथा जावा से भी विद्यार्थी विद्याध्ययन हेतु आने लगे थे।

(d) नालन्दा, बुद्ध के पुत्र ‘सारिपुत्र’ की जन्मभूमि थी, अशोक ने इस स्थान पर विहार का निर्माण करवाया। अशोक को नालन्दा-विहार का प्रथम संस्थापक कहते हैं ।

(e) नालन्दा में प्रसिद्ध विद्वान शिक्षक कार्य करते थे।

(ii) नालन्दा विश्वविद्यालय की शिक्षा का स्वरूप (Forms of Education of Nalanda University)-

विभिन्न स्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त प्रतिभाशाली विद्वान यहीं अपनी ज्ञान पिपासा शान्त करने आते थे तथा विश्वविद्यालय का क्षेत्र भारत तक सीमित न रहकर चीन, कोरिया, तिब्बत, मंगोलिया देशों के छात्रों को नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए सभी विद्यार्थी को एक प्रारम्भिक परीक्षा देनी पड़ती थी। यह परीक्षा प्रवेश द्वार पर बैठा हुआ द्वार-पंडित लेता था। उसमें 10 विद्यार्थियों में मात्र 2 या 3 विद्यार्थी ही उत्तीर्ण हो पाते थे।

नालन्दा की शिक्षा निःशुल्क थी। यह विश्वविख्यात शिक्षा का केन्द्र था। विद्यार्थियों के भोजन, वस्त्र से लेकर औषधि आदि का उत्तरदायित्व विश्वविद्यालय पर ही था : विद्यार्थियों का काम दत्तचित होकर विद्याध्ययन करना था।

(iii) नालन्दा विश्वविद्यालय के शिक्षक (Teachers of Nalanda University)-

विद्वान व शीलशद्र शिक्षक थे। शीलशद्र, विश्वविद्यालय के प्रधान थे। इसके अतिरिक्त जिमित्र, चन्द्रपाल, स्थिरगति, नागार्जुन, ज्ञानमति भी उल्लेखनीय हैं।

(3) काशी-

काशी का अर्वाचीन नाम वाराणसी है। वैदिक काल में काशी न तो तीर्थ और न शिक्षा केन्द्र के रूप में ही प्रसिद्ध थी पर उत्तर वैदिक काल में अवश्य उसे आर्य-सभ्यता व धर्म का केन्द्र माना जाने लगा तथा काशी का राजा अजातशत्रु औपनिषिदक ज्ञान के लिए सुविख्यात भी था।

ईसवी पूर्व सातवीं शताब्दी में तो काशी उत्तर भारत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र था। यहाँ भी वेदों के अलावा 18 शिष्यों को शिक्षा दी जाने लगी थी। सारनाथ बौद्ध शिक्षा का केन्द्र था लेकिन काशी ब्राह्मणीय शिक्षा का सर्वप्रमुख केन्द्र था। यहाँ के पंडितों ने व्यक्तिगत रूप से अध्यापन की प्राचीन परम्परा को प्रविच्छिन्न रखा। सुप्रसिद्ध विद्वान व दार्शनिक शंकराचार्य को भी काशी आकर यहाँ के पंडितों से अपने सिद्धान्तों की पुष्टि करवाना जरूरी हो गया था। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में काशी व कश्मीर ही शिक्षा के दो प्रमुख केन्द्र थे।

(4) वलभी-

इत्सिंग के अनुसार उत्तर भारत में नालन्दा के समान ही वलभी भी कीर्ति प्राप्त कर रहा था। काठियावाड़ में वलभी विश्वविद्यालय भी पूर्ण ख्याति प्राप्त कर चुका था। इस स्थान पर बड़े-बड़े धनसम्पन्न व्यापारी निवास करते थे क्योंकि यह स्थान समुद्री व्यापार के लिए महत्वपूर्ण था। यह नालन्दा प्रतिद्वन्द्वी के रूप में बौद्ध धर्म की दूसरी शाखा हीनयान का मुख्य केन्द्र था। यह महत्वपूर्ण राज्य की राजधानी के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह भी था।

धुव प्रथम की राजकुमारी ‘दुद्दा’ ने वलभी का प्रथम विहार बनवाया था। 500 ई० में धारसेन प्रथम ने एक और विहार बनवाने का आदेश दिया था। 620 ई. में 100 विहार थे, जिनमें 6,000 भिक्षु अध्ययन करते  थे। सातवीं शताब्दी के मध्य में स्थिरमति व गुणमति नामक प्रसिद्ध विद्वान् इसी विश्वविद्यालय में थे। वलभी के स्नातकों को तत्कालीन शासन में उच्च पदों पर नियुक्त किया गया था।

वलभी एक समृद्ध पुरी थी। इसमें 100 करोड़पति नागरिक थे। इस श्रेष्ठियों से वलभी विश्वविद्यालय को पर्याप्त आर्थिक दान मिलता था। 12वीं शताब्दी तक वलभी पश्चिमी भारत का एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र रहा है। पंजाब जैसे सुदूर प्रदेशों से ज्ञान-पिपासु यहाँ आते रहे हैं । यहाँ पर वैदिक साहित्य, जैन धर्म, अर्थशास्त्र, तर्कशास्त्र, दर्शन, वास्तुकला व अन्य कला कौशलों की उच्च शिक्षा दी जाती थी। नृशंस मानव ने 12वीं शताब्दी में इसे नष्ट कर दिया।

(5) विक्रमशिला-

विक्रमशिला विहार की स्थापना सम्राट धर्मपाल ने 8वीं शताब्दी में की। यह पहाड़ी चट्टान के ऊपर गंगा नदी के तट पर मगध में बसा हुआ था। काव्य की दृष्टि से यह अपने समय का सर्वश्रेष्ठ विहार था। विहार के बीचों-बीच एक विशाल महाबोधि की मूर्ति थी तथा 108 मन्दिर थे। विक्रमशिला में सुप्रसिद्ध विद्वानों द्वारा शिक्षा दी जाती थी। आचार्य दीपाशंकर तथा उभयंकर यहाँ के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान् थे। 4 शताब्दियों तक यह विश्वविद्यालय तिब्बत व भारत की संस्कृति का संगम बना रहा।

नालन्दा के समान इसका भी पुस्तकालय बहुत सम्पन्न था । यहाँ पर व्याकरण, तर्कशास्त्र, दर्शन, न्याय, कला, आयुर्वेद व साहित्य की अलभ्य पुस्तकों का संग्रह था ।

विक्रमशिला में प्रवेश के लिए विद्यार्थी को प्रवेश द्वार पर परीक्षा देनी पड़ती थी। उत्तीर्ण होने वाले प्रवेश के अधिकारी होते थे। विश्वविद्यालय भवन में 6 प्रमुख प्रवेश द्वार थे । सम्राट कनक के राज्यकाल में विक्रमशिला में 6 पंडित प्रवेश द्वारों पर रहते थे।

(6) पूर्वद्वार-

आचार्य रत्नाकर शान्ति, पश्चिम द्वार-वाराणसी का वागीश्वर कीर्ति, उत्तर द्वार-नारोप, दक्षिण द्वार-आचार्य प्रज्ञकर्मति प्रथम, मध्य द्वार कश्मीर का रत्नबव्रज, द्वितीय मध्य द्वार गौड़ का ज्ञान श्रीमित्र । विद्यालय का प्रबन्ध एक बोर्ड द्वारा होता था। नालन्दा व विक्रमशिला दोनों का प्रबन्ध एक ही बोर्ड के हाथों में था। अल्तेकर महोदय ने कहा है शिक्षक बड़ा सरल जीवन व्यतीत करते थे।

‘विक्रमशिला में मुख्यतः सांसारिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। व्याकरण,तर्कशास्त्र,तंत्रवाद,दर्शनशास्त्र तथा साहित्य मुख्य विषय थे। स्नातकों को अध्ययनोपरान्त प्रमाण-पत्र प्रदान किये जाते थे। ज्ञानपद, विरोचन, जेतारी, प्रज्ञ कर्मति, वीर्यसिंह, तथागत रक्षित आदि विद्वान् थे जो तिब्बत में वहाँ की भाषा लिखते थे।’

12वीं शताब्दी में उत्थान के शिखर पर विक्रमशिला पहुँच चुका था। वहाँ पर 3,000 विद्यार्थी छात्रावास में रहते थे। विक्रमशिला विश्वविद्यालय को भी मुस्लिम आक्रांताओं का कोपभाजन बनना पड़ा और 1203 ई० को बख्तियार खिलजी ने उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

(7) ओदन्तपुरी-

पालवंशीय शासकों ने ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय का विस्तार करने में अपना योग दिया है। उन्होंने यहाँ एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें ब्राह्मणीय व बौद्ध साहित्य की बहुमूल्य पुस्तकों का बड़ा सुन्दर संग्रह था। ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय मगध राज्य में स्थित था। इसमें धार्मिक शिक्षा के अलावा अन्य सांसारिक विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी।

यहाँ पर 1,000 भिक्षु रहते थे, इनके रहने के लिए छात्रावासों का प्रबन्ध था। यहाँ पर शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने में भी इसका पर्याप्त योग रहा है।

(8) मिथिला-

मिथिला का प्राचीन नाम विदेह था। यह ब्राह्मणीय शिक्षा का प्रमुख केन्द्र माना जाता था। राजर्षि जनक यहाँ धार्मिक शास्त्रार्थ करते थे। देश के विभिन्न भागों से यहाँ विद्वान ऋषि शास्त्रार्थ में भाग लेने के लिए आते थे । न केवल बंगाल, बिहार अपितु सारे हिन्दी प्रदेश को अपनी सरल वाणी से मंत्रमुग्ध करने वाले कृष्ण काव्य के प्रणेता विद्यापति इसी प्रदेश में उत्पन्न हुए थे।

12वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक मिथिला विद्या का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा । यहाँ साहित्य तथा ललित कलाओं के अतिरिक्त वैज्ञानिक विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी। यहाँ न्याय का प्रसिद्ध विद्यालय था। न्याय शास्त्र के पंडितों ने यहाँ अवतीर्ण होकर न्यायशास्त्र को एक नया रूप प्रदान किया जो ‘नव्य न्याय’ कहलाता था। ‘नव्य-शास्त्र’ के प्रवर्तक पंडित गनेश उपाध्याय थे जिन्होंने ‘तत्वचिंतामणि’ नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। 15वीं शताब्दी तक मिथिला नगरी भारत की प्रसिद्ध शिक्षास्थली रही। यहाँ पर विद्यार्थियों की परीक्षा ली जाती थी। उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र दिये जाते थे। विद्यार्थियों का अध्ययन खत्म होने पर जो अन्तिम परीक्षा ली जाती थी उसे ‘शलाका परीक्षा’ कहते थे।

(9) नदिया (नवद्वीय) –

नदिया सन् 1073 ई. के लगभग बंगाल प्रान्त के सेन राजाओं द्वारा बसाया गया था। यह स्थान भागीरथी व जालंगी के संगम पर बसा हुआ था। नालन्दा व विक्रमशिला के नष्ट-भ्रष्ट होने के पश्चात् नदिया भारतवर्ष का सर्वोच्च शिक्षा केन्द्र माना जाता था। इसके प्राचीन भग्नावशेष अब तक नदिया की प्राचीन गौरव-गाथा के प्रहरी के रूप में विद्यमान हैं। अनेक प्रसिद्ध विद्वानों की यही जन्म-स्थली थी। लक्ष्मणसेन यहाँ का प्रसिद्ध विद्वान प्रधान मन्त्री था। ‘स्मृति सर्वस्व’ ‘मीमांसा सर्वस्व’ व ‘ब्राह्मण सर्वस्व आदि ग्रन्थों का रचयिता यही था।

मिथिला के एक विद्यार्थी वासुदेव सार्वभौम ने ‘तत्व चिंतामणि’ को कंठस्थ कर लिया था। उसने ही नदिया में तर्कशास्त्र का सूत्रपात किया। इसी के शिष्य रघुनाथ शिरोमणि ने नदिया में न्याय की नवीन विचारधारा प्रतिपादित की व न्याय शास्त्र के अध्ययन के लिए नया विभाग स्थापित किया। न्याय विभाग के विद्वान आचार्य गदाधर भट्टाचार्य, रामभद्र, मथुरानाथ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।

न्याय के साथ ही स्मृति की शिक्षा भी दी जाती थी। विश्वविद्यालय में शिक्षक की नियुक्ति उसकी विद्वता के साथ-साथ वाद-विवाद में दक्षता पर आधारित थी। किसी-किसी छात्र का अध्ययन कालवर्ष तक का होता था। यहाँ पर ‘टोल पद्धति’ से शिक्षा प्रदान की जाती थी। प्रत्येक टोल में 25 विद्यार्थी रहते थे।

(10) जगद्दला-

बंगाल के पाल वंश के सम्राट राजपाल ने 11वीं शताब्दी में रामवती नामक एक नई नगरी गंगा के किनारे पर बसाई व एक विहार की स्थापना की जिसको उसने जगद्दला नाम दिया। जगद्दला विश्वविद्यालय का जीवनकाल 100 वर्षों का रहा। सन् 1200 में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दिया। इसने उच्च शिक्षा व आदर्शों के कारण बड़ी ख्याति प्राप्त की। यहाँ पर बड़े-बड़े विद्वान, ज्योतिष, उपाध्याय, आचार्य और महापण्डित रहते थे। आचार्य विभूति चन्द्र, शुभंकर और मोक्षकर यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान थे। 19वीं शताब्दी में जगदला तर्कशास्त्र के लिए सम्पूर्ण भारत में विख्यात स्थल था।

यहाँ पर तर्कशास्त्र तन्त्रवाद की शिक्षा विशिष्ट रूप से दी जाती थी। तिब्बत के विद्यार्थी यहाँ आकर संस्कृत के मूल ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद करते थे।

(11) काँची-

प्राचीन काल में काँची नगरी भारत की विख्यात शिक्षा-स्थली थी। यह ब्राह्मणीय शिक्ष व बौद्ध शिक्षा देने के लिए प्रसिद्ध था । दक्षिणी भारत के लोग इसे दक्षिणीय काशी कहते हैं। यह काफी समय तक पालव सम्राटों की राजधानी रही। इन सम्राटों ने बहुत से शिक्षा मन्दिरों का निर्माण कराया था ‘अर्थशास्त्र के प्रणेता कौटिल्य (चाणक्य) ने इसी पावन स्थली में जन्म लिया था।

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग 642 ई० में यहाँ आया था, उसने अपने लेखों में काँची के लोगों के विद्यानुराग की प्रशंसा की है। उसने कहा है-काँची में वैष्णव, शैव, दिगम्बर जैन तथा महायान बौद्ध रहते थे। बौद्धों के‌ लगभग 100 विहार बने थे जिनमें 10,000 भिक्षु रहते थे।

काँची में सब धर्मों के अलग-अलग शिक्षालय थे। अन्य धर्मों के सिद्धान्तों और उद्देश्यों का सामान्य ज्ञान भी विद्यार्थियों को कराया जाता था। तर्कशास्त्र, व्याकरण व साहित्य की शिक्षा सभी शिक्षालयों में दी जाती थी।

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Pankaja Singh

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