प्राचीन शिक्षा के उद्देश्य | आधुनिक भारत में वैदिक शिक्षा के उद्देश्य | Objectives of Ancient Education in Hindi | Objectives of Vedic Education in Modern India in Hindi
प्राचीन शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श (Aims and Ideals of Ancient Education)
प्राचीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य तथा आदर्श निम्न प्रकार हैं-
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ईश्वर भक्ति व धार्मिकता–
वैदिक शिक्षा में धर्म का मुख्य स्थान था। इसलिए धार्मिकता की भावना को विकसित करने के लिए शिक्षा को माध्यम बनाया गया। इस युग में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति करना था। डां. आर. के. मुखर्जी के अनुसार, ‘भारत में विद्या तथा ज्ञान की खोज केवल ज्ञान प्राप्ति के लिए ही नहीं हुई, अपितु उनका विकास धर्म की एक आवश्यक अंग के रूप में हुआ। वे धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्ति या आत्मज्ञान का यह क्रमिक प्रयास माने गए। अतः इस प्रकार जीवन के परम उद्देशकी प्राप्ति का माध्यम शिक्षा को बना दिया गया। यह उद्देश्य था मोक्ष अथवा मुक्ति। धार्मिक भावना के विकास के लिए विभिन्न प्रकार के संस्कारों का आयोजन किया गया था। विद्यार्थी जीवन में यज्ञ, संध्या हवन, प्रार्थना, धार्मिक प्रवचन,व्रत कथा उपवास को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया था कौन के नाम गुरुकुल की सारी दिनचर्या धार्मिकता की भावना से ओतप्रोत थी।इस प्रकार वैदिक शिक्षा का सर्वोपरि उद्देश्य आत्मबोध प्राप्त करके मोक्ष अथवा मुक्ति प्राप्त करना था।
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चरित्र– निर्माण-
वैदिक शिक्षा का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य चरित्र निर्माण करना था। प्राचीन शिक्षा शास्त्री आचरण की शुद्धता व चरित्र बल पर विशेष जोर देते थे। मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा है- ‘केवल गायत्री मंत्र का ज्ञान रखने वाला सच्चरित ब्राह्मण, समस्त वेदों के ज्ञाता चरित्रहीन विद्वानों से कहीं श्रेष्ठ है। चरित्र निर्माण के लिए आत्म संयम, नियंत्रण, इंद्रिय निग्रह वह ब्रम्हचर्य व्रत के पालन पर बहुत जोर दिया जाता था। विद्यार्थी जीवन में सादगी पर जोर दिया जाता था। गुरु भी चरित्र विकास के निमित्त लगातार सदाचार के उपदेश देते थे।’
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व्यक्तित्व का विकास–
व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास में शिक्षा का एक मुख्य आदर्श था। सर्वांगीण विकास का अभिप्राय है- शरीर, मन तथा आत्मा का संतुलित तथा समरूप विकास करना। छात्रों में आत्मविश्वास, आत्म सम्मान की भावना, आत्म संयम, विवेक, आत्म निग्रह आदि गुणों का विकास किया जाता था जिससे उनके व्यक्तित्व का सम्यक विकास हो। छात्रों के शारीरिक विकास के लिए व्यायाम, प्राणायाम,सूर्य नमस्कार तथा योग आदि की व्यवस्था थी। बौद्धिक विकास के लिए उनकी जिज्ञासा की प्रवृत्ति को जागृत किया जाता था तथा आध्यात्मिक विकास के लिए धार्मिक साहित्य का अध्ययन जरूरी था।
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नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन–
वैदिक शिक्षा का चौथा प्रमुख उद्देश्य नागरिकों व सामाजिक कर्तव्यों का पालन था। छात्रों को भावी राष्ट्र का निर्माता समझा जाता था। अतः उसे परोपकारी था वह सामाजिकता की शिक्षा दी जाती थी। समावर्तन संस्कार के समय गुरु दीक्षांत भाषण में नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों की व्याख्या करता था। गुरुकुल में छात्रों को शुरू से ही परोपकार, अतिथि सत्कार,गरीबों की सेवा आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी जिससे कि वे आगे चलकर समाज के उपायुक्त व उपयोगी नागरिक बन सके।
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सामाजिक सुख व कौशल की उन्नति–
शिक्षा का उद्देश्य व्यवहारी क्षेत्र में कुशल नागरिकों का निर्माण करना था। वैदिक शिक्षा में केवल छात्रों के आध्यात्मिक विकास पर ही जोड़ नहीं दिया जाता था बल्कि भौतिक व व्यवसायिक सुख की प्राप्ति पर भी ध्यान दिया जाता था। शिक्षा द्वारा छात्रों में व्यवसायिक क्षमताओं काफी विकास किया जाता था जिससे वह स्वतंत्र रूप से जीविकोपार्जन कर सकें।
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राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व प्रसारण–
यह बाइक शिक्षा का अंतिम उद्देश्य था। शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी अपने पूर्वजों की संस्कृति को आत्मसात करता था। इसके बाद वह अपने पूर्वजों की संस्कृति परंपराओं का संरक्षण व प्रसारण भी करता था। शिक्षा के द्वारा वर्षों तक देश की चेतना का अस्तित्व बना रहा।वैदिक काल से लेकर लगातार आज तक शिक्षित वर्ग अपने ज्ञान के द्वारा भावी पीढ़ी को शिक्षित करता रहा। इस प्रकार सहस्त्रों वर्षों तक वेदों के अलिखित रहने पर भी उनका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहा।
आधुनिक भारत में वैदिक शिक्षा के उद्देश्य व आदर्श की उपयुक्तता (Reliability of Objective and Ideal of Vedic Education in Modern India)
वैदिक काल में शिक्षा के उद्देश्यों की रचना तत्कालीन परिस्थितियों वक्ताओं को ध्यान में रखकर की गई थी, लेकिन आधुनिक काल की परिवर्तित परिस्थितियों में वे उद्देश्य तथा आदर्श कहां तक सही है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। यहां हम प्राचीन शिक्षा के उद्देश्यों व आदर्शों की विवेचना करेंगे, जो वर्तमान परिस्थितियों में भी कुछ परिवर्तनों के साथ अपनाई जा सकते हैं-
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धार्मिकता की भावना का विकास–
प्राचीन भारत में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था। शिक्षा का आरंभ हुआ अंत धार्मिक संस्कारों द्वारा होता था। पाठ्यक्रम भी धार्मिक पुस्तकों से परिपूर्ण था। गुरुकुल ओं का वातावरण भी आध्यात्मिक था। गुरु व शिष्य दोनों मिलकर धार्मिक पुस्तकों का पठन-पाठन करते थे तथा दोनों के जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक शिक्षा धर्म पर आधारित थी,किंतु आधुनिक भारत में अब धर्म का वह स्थान नहीं रहा क्योंकि अब हमारी जरूरतों और परिस्थितियों में महान परिवर्तन हो गया है। आज का युग अर्थ प्रधान युग है। इसलिए शिक्षा द्वारा व्यक्ति की भौतिक उन्नति जरूरी है। अतएव शिक्षा का यह उद्देश्य आधुनिक भारत की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त नहीं है।
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चरित्र– निर्माण-
यह प्राचीन भारतीय शिक्षा का यह दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य था। छात्रों में नैतिक आदर्शों के प्रति रुचि पैदा करना, सदाचार का पालन, कर्तव्यनिष्ठा, आत्म- संयम, धैर्य एवं उत्साह आदि गुणों के द्वारा चारित्रिक विकास करना शिक्षा का एक महान आदर्श था। वैदिक जीवन के इस उद्देश्य को निश्चय ही आधुनिक दशाओं में अपनाया जा सकता है। आजकल के सभी शिक्षा शास्त्री चरित्र-निर्माण पर जोर दे रहे हैं। आजकल हमारे देश में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव दिखाई देता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बेईमानी, झूठ, भ्रष्टाचार व व्यभिचार का बोलबाला है।राष्ट्रीय चरित्र का भी निर्माण अंत में चलकर व्यक्तिगत चरित्र पर ही निर्भर करता है। अतएव शिक्षा को इस महान कार्य की ओर ध्यान देना जरूरी है।
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नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों का पालन–
प्राचीन शिक्षा का यह उद्देश्य भी आधुनिक दशाओं में अपने देश में अपनाया जा सकता है। आजकल हमारे देश में प्रजातंत्रात्मक शासन- प्रणाली की स्थापना हो गई है। प्रजातंत्रवाद की सफलता उत्तम नागरिकों के ऊपर निर्भर करती है। उत्तम नागरिक वही है जो सामाजिक दृष्टि से कार्य कुशल हो तथा जो सभी नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर सकें। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा का यह उद्देश्य भी हमारी प्रजातंत्रात्मक जरूरतों की पूर्ति करता है, अतएव इसे भी हमें अपना लेना चाहिए।
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व्यक्तित्व का विकास–
वैदिक शिक्षा-प्रणाली में व्यक्तित्व के विकास पर भी अत्यधिक बल दिया जाता था। शिक्षा का यह आदर्श भी आधुनिक युग में अपनाया जा सकता है। आधुनिक युग के सभी शिक्षा शास्त्री बालक के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर जोर दे रहे हैं। हमारे व्यक्तित्व के सभी प्रमुख तत्वों, यथा- शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम में संतुलित विकास होना चाहिए।
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सामाजिक कुशलता की विधि–
वैदिक काल में शिक्षा के इस उद्देश्य पर बल दिया जाता था पर मेरा शिक्षा में सांस्कृतिक विषयों के साथ- साथ व्यावसायिक विषयों को भी पढ़ाया जाता था। इसके लिए अनेक उद्योगों को तथा कौशलों की शिक्षा का प्रबंध किया जाता था, जिससे कि व्यक्ति अपने जीवन में आत्मनिर्भर वह स्वावलंबी बन सके। आधुनिक युग में भारत जैसे प्रजातंत्रात्मक देश के लिए इस उद्देश्य की अत्याधिक जरूरत है। आजकल शिक्षा द्वारा प्रत्येक बालक को सामाजिक दृष्टि से कार्य- कुशल बनाया जा रहा है।
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राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण व प्रसारण–
वैदिक शिक्षा का अंतिम उद्देश्य था। शिक्षा द्वारा पूर्वजों की संस्कृति का संरक्षण व प्रसारण किया जाता था। आधुनिक युग में शिक्षा के इस आदर्श को भी अपनाया जा सकता है। शिक्षा ही संस्कृति के संरक्षण व प्रसारण के लिए आवश्यक व शक्तिशाली साधन है। यदि हम भारतीय संस्कृति, परंपराओं व मूल्यों को जीवित रखना चाहते हैं तो आधुनिक युग में भी हम वैदिक शिक्षा के इस आदेश की अवहेलना नहीं कर सकते। भारतीय संस्कृति के कल्याणकारी तत्वों को हम शिक्षा द्वारा ही सुरक्षित व प्रसारित कर सकते हैं।
शिक्षाशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
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