शिक्षाशास्त्र

बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था | बौद्धकालीन शिक्षण विधियाँ

बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था | बौद्धकालीन शिक्षण विधियाँ

बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था (Education System of Buddhist Period)

बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था – बौद्ध धर्म का विकास मठों में हुआ था। बौद्ध मठों में मात्र धर्म पर ही चर्चा नहीं होती थी वरन् शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षा प्रसार का उत्तरदायित्व भी इन मठों का ही था। बौद्धकाल में मठ शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। डॉ० मुकर्जी के शब्दों में-“बौद्ध मठों को बौद्ध शिक्षा एवं ज्ञान का केन्द्र माना जाता था। बौद्ध संसार अपने मठों से अलग शिक्षा अर्जित करने का कोई अवसर नहीं देता था। धार्मिक एवं लौकिक समस्त प्रकार की शिक्षा भिक्षुओं के हाथ में थी।”

बौद्ध युग में शिक्षा दो स्तरों में विभक्त थी- (I) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा, (II) उच्च शिक्षा ।

(1) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा (Public Primary Education)

सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा चाण्डालों के अतिरिक्त समस्त जातियों के बालकों को प्रदान की जाती थी। इस शिक्षा के केन्द्र मठ थे। डॉ० केई के अनुसार-“बौद्ध मठों ने पर्याप्त सार्वजनिक प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान की है।” जातक कथाओं में भी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का उल्लेख हुआ है। प्रारम्भ में धर्म पर आधारित प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। लेकिन कुछ समय उपरान्त सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत लौकिक शिक्षा को भी समाविष्ट कर लिया गया, अर्थात् धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा साथ-साथ दी जाने लगी। सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में लौकिक शिक्षा को समाविष्ट करने का प्रमुख उद्देश्य था-शिक्षा पर किसी एक ही वर्ण के एकाधिपत्य को समाप्त करना । बौद्ध युग में प्रदान की जाने वाली सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा की अपनी कुछ विशेषतायें थीं जिनका यहाँ पर उल्लेख किया गया है-

(1) प्रवेश की अवधि– बौद्ध युग में शिक्षा का प्रारम्भ 6 वर्ष की आयु से होता था। प्राथमिक शिक्षा की अवधि भी 6 वर्ष ही थी। प्राथमिक शिक्षा बौद्ध मठों में ही प्रदान की जाती थी।

(2) शिक्षा का माध्यम- प्राथमिक शिक्षा पाली भाषा में प्रदान की जाती थी,क्योंकि उस समय जनसामान्य की भाषा पाली ही थी । जनसाधारण की भाषा में प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का सर्वप्रमुख कारण था-प्राथमिक शिक्षा को सरल एवं सुलभ बनाना । इससे बौद्ध धर्म के प्रचार एवं प्रसार में बहुत सहायता प्राप्त हुई और शिक्षा का भी प्रचार एवं प्रसार हुआ।

(3) शिक्षा विधि- शिक्षा निम्न विधियों से प्रदान की जाती थी-

(i) प्रवचन विधि- गुरु अपनी इच्छानुसार विषय के ऊपर व्याख्यान अथवा प्रवचन देता था। गुरु शुद्धोच्चारण व कंठस्थीकरण पर बल देता था।

(ii) प्रश्नोत्तर-विधि- व्याख्या में प्रश्नोत्तर प्रणाली का प्रयोग किया जाता था। शंका का समाधान, विषयों को समझने-समझाने, जिज्ञासा जाग्रत करने तथा मार्ग प्रदर्शन के लिए इस विधि का प्रयोग होता था।

(iii) शास्त्रार्थ और वाद-विवाद की विधि- सत्यों को सिद्ध करने के लिए वाद-विवाद या शास्त्रार्थ विधि काम में लायी जाती थी। वाद-विवाद करते समय आठ प्रमाणों का प्रयोग करते थे-(a) सिद्धान्त, (b) हेतु, (c) उदाहरण, (d) साम्य, (e) विरोध, (1) प्रत्यक्ष, (g) अनुमान और (h) आगम।

(iv) निदिध्यासन विधि- धर्म व आध्यात्म के विषय के लिए यह विधि अपनायी जाती थी। इससे अन्तर्ज्ञान प्राप्त किया जाता था।

(v) मॉनीटोरियल विधि- कक्षा के मेधावी छात्र द्वारा अथवा उच्च कक्षा के छात्रों द्वारा निम्न कक्षा के छात्रों को पढ़ाने का प्रबन्ध किया जाता था।

(vi) पुस्तक अध्ययन विधि- सम्यक् ज्ञान पुस्तक में रहता था अतएव पुस्तक अध्ययन की विधि अपनायी गयी थी।

(vii) सम्मेलन अथवा परिषद् विधि- पूर्णिमा व प्रतिपदा के दिन संघ के सभी शिशु, अध्यापक, छात्र एक साथ मिलते थे व वहीं ज्ञान-धर्म की चर्चा होती थी।

(viii) देशाटन, भ्रमण, निरीक्षण विधि- ज्ञान प्राप्ति के लिए छात्र स्थान-स्थान पर जाते थे तथा वहाँ की चीजों का निरीक्षण करते थे।

(ix) व्यावहारिक व प्रायोगिक विधि व्यावसायिक व औद्योगिक विषयों की ज्ञान प्राप्ति के लिए कुशल कारीगरों की देख-रेख में छात्र रहता था तथा कुशलता व प्रवीणता अर्जित करता था। वह स्वयं काम करता था व अन्य लोगों को काम करते देखता भी था।

(4) प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में चीनी यात्री ह्वेनसांग न लिखा है कि-“प्रवेश लेने के बाद छात्रों को पहले छ: महीने में सिद्धिरस्तु’ नामक बाल पोथी को पढ़ना पड़ता था।” इस बाल पोथी में 12 अध्याय एवं वर्णमाला के 49 अक्षर थे। इनको अलग-अलग क्रम में रखकर 300 से अधिक श्लोक लिखे गये थे। इस बाल पोथी को 16 माह में समाप्त करना होता था। इसके उपरान्त बालकों को निम्न पाँच विद्याओं का अध्ययन करना होता था-

(i) शिल्प एवं उद्योग, (ii) हेतु विद्या, (iii) आध्यात्म विद्या, (iv) शब्द विद्या, (v) चिकित्सा विद्या। प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत धार्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार की शिक्षाओं को समाविष्ट किया गया था। बौद्ध भिक्षुओं के अलावा सामान्य गृहस्थियों के बालकों तथा बौद्ध धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। यही कारण है कि बौद्धयुगीन प्राथमिक शिक्षा को सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा कहा जाता है।

(II) उच्च शिक्षा (Higher Education)

बौद्धकाल में उच्च शिक्षा की अत्यन्त उत्तम व्यवस्था थी। इस सम्बन्ध में डॉ० अल्तेकर ने लिखा है कि-“मठों में उच्च शिक्षा का अध्ययन करने हेतु कोरिया, चीन, तिब्बत और जावा जैसे देशों के शिक्षार्थी आकर्षित होते थे, वहीं इन्होंने भारत की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति को ऊँचा उठा दिया था। बौद्ध मठों में ही उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी।

(1) उच्च शिक्षावधि- प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरान्त शिक्षार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकता था। सामान्यत: 12 वर्ष की आयु में उच्च शिक्षा आरम्भ होती थी। उच्च शिक्षा की अवधि भी बारह वर्ष की थी जिससे शिक्षार्थी 25 वर्ष की अवस्था में किसी कार्य को करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सके।

(2) उच्च शिक्षा का संचालन- उच्च शिक्षा केन्द्रों का संचालन लोकतान्त्रिक ढंग से किया जाता था। केन्द्रों का एक प्रधान होता था, जिसका अध्यापक होना अनिवार्य था। प्रधानाध्यापक की सहायतार्थ कुछ अन्य अध्यापक भी होते थे, जो उपाध्याय कहे जाते थे। इन शिक्षण केन्द्रों को राज्याश्रय प्राप्त था। इन शिक्षा केन्द्रों पर कोई बाहरी शक्ति किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करती थी। इसलिए इन शिक्षा केन्द्रों ने शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त उन्नति की। इन केन्द्रों में देश के ही नहीं अपितु विदेशों के छात्र भी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

(3) उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम – उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम दो भागों में विभक्त था-

(अ) धार्मिक शिक्षा- धार्मिक शिक्षा भिक्षु एवं भिक्षुणियों को प्रदान की जाती थी, जिससे वे देश एवं विदेश में बौद्ध धर्म का प्रसार कर सकें । धार्मिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था-मोक्ष प्राप्त करना और बौद्ध धर्म का प्रसार करना । धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी—ज्योतिष, दर्शनशास्त्र, औषधिशास्त्र, बौद्ध धर्म, बौद्ध साहित्य, व्याकरण आदि।

(ब) लौकिक शिक्षा- बौद्धकालीन शिक्षा में लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत जीवन में उपयोगी विषयों को समाविष्ट किया गया था, जैसे—धर्म, दर्शन, साहित्य, न्यायशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, तर्कशास्त्र, शब्द विद्या, तन्त्र विद्या, योग आदि।

बौद्ध काल में शिक्षार्थियों को औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा भी प्रदान की जाती थी और उन्हें सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार का ज्ञान प्रदान किया जाता था। इस स्तर पर शिक्षार्थियों को सामान्य विषयों के अतिरिक्त किसी एक विशेष विषय में योग्यता अर्जित करनी पड़ती थी।

उच्च शिक्षा के केंद्र (Higher Education Centre)-

बौद्धकाल में नालन्दा, विक्रमशिला, तक्षशिला वल्लभी, अमरावती, ओदन्तपुरी, नदियाँ आदि उच्च शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। इन समस्त उच्च शिक्षा केन्द्रों में से नालन्दा विश्वविद्यालय सर्वोच्च स्थान पर था।

नालन्दा, बौद्धकाल में उच्च शिक्षा का एक महत्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र था। यहाँ प्रवेश से पूर्व शिक्षार्थी को कठिन परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती थी । ह्वेनसांग (जिसने इस विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया) ने लिखा है कि विद्यालय के प्रधान द्वारों पर नियुक्त विविध विषयों के विशेषज्ञ पण्डित प्रवेशार्थियों से उनकी योग्यता तथा प्रतिभा की परीक्षा हेतु दार्शनिक विषयों एवं अन्य ऐसी ही समस्याओं पर जटिल प्रश्न पूछते थे। परिणामतः मुश्किल से 20% शिक्षार्थी ही प्रवेश प्राप्त कर पाते थे। चीन, कोरिया, तिब्बत आदि देशों के शिक्षार्थी इस विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु आते थे।

बौद्धयुगीन शिक्षण विधियाँ (Education Method of Buddhist Period)

बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार सीखने के तीन साधन हैं—शरीर, मन तथा चेतना और चूँकि शरीर, मन और चेतना की दृष्टि से सभी बच्चे समान नहीं होते इसलिए भिन्न-भिन्न स्तर के बच्चों के लिए भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिए। बौद्ध काल में बोलचाल की भाषा पाली थी,बौद्धों ने इसी को शिक्षा का माध्यम बनाया। इस काल में मुद्रण कला का तो विकास नहीं हुआ था परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने मुख्य ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार कर दी थीं। उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों के पाली भाषा में अनुवाद भी कर दिए थे और इन सबको पुस्तकालयों में सुरक्षित रखा था। इन परिस्थितियों में शिक्षण प्रायः मौखिक रूप से ही होता था। उच्च कक्षा के छात्रों को स्वाध्याय के अवसर भी दिए जाते थे। यहाँ इन सब विधियों के बौद्धकालीन स्वरूप का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-

(1) व्याख्या विधि-

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने भारत यात्रा वर्णन में लिखा है कि शिक्षक छात्रों को पाठ्यवस्तु का अर्थ बताते थे और पाठ्यवस्तु की सविस्तार व्याख्या करते थे। इस विधि का प्रयोग उच्च स्तर पर विशेष रूप से होता था।

(2) सम्मेलन एवं शास्त्रार्थ-

बौद्ध काल में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सम्मेलनों का आयोजन भी होता था। इन सम्मेलनों में विषय विशेषज्ञ आमन्त्रित किए जाते थे। इसे विद्वत् सभा भी कहते थे। इन सम्मेलनों में व्याख्यान और शास्त्रार्थ होता था। उच्च शिक्षा के छात्र इन्हें सुनते थे और अपनी शंकाओं का समाधान भी करते थे।

(3) अनुकरण विधि-

अनुकरण विधि सीखने-सिखाने की स्वाभाविक विधि है। बौद्ध काल में इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर पर किया जाता था, भाषा की शिक्षा की शुरूआत तो इसी विधि से की जाती थी। शिक्षक अक्षरों का उच्चारण करते थे, छात्र उनका अनुकरण करते थे, शिक्षक अक्षरों को लिखकर दिखाते थे, छात्र उनका अनुकरण कर अक्षर लिखना सीखते थे। क्रियाप्रधान विषयों के शिक्षण में भी इसी विधि का प्रयोग किया जाता था।

(4) स्वाध्याय विधि-

बौद्ध काल में लेखन कला का विकास हो चुका था और मुख्य ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ भी तैयार हो चुकी थीं। उस समय के उच्च शिक्षा केन्द्रों में हस्तलिखित ग्रन्थों के बड़े-बड़े पुस्तकालय थे। परिणामतः अध्ययन की स्वाध्याय विधि का विकास हुआ। पर इस विधि का प्रयोग केवल उच्च स्तर के छात्र ही करते थे।

(5) प्रश्नोत्तर विधि-

प्रश्नोत्तर भी सीखने-सिखाने की स्वाभाविक विधि है। बच्चे प्रारम्भ से ही यह क्या है, यह ऐसा क्यों है, यह ऐसा कैसे हो रहा है आदि प्रश्न पूछते हैं और बड़े उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर देते हैं। बौद्ध काल में इस विधि का प्रयोग इसी रूप में होता था, शिष्य प्रश्न करते थे और भिक्षु उत्तर देते थे।

(6) प्रदर्शन एवं अभ्यास विधि-

यह अनुकरण विधि का ही उच्च रूप है। उस काल में इस विधि का प्रयोग विभिन्न कलाओं, शिल्पों, व्यावसायिक विषयों और चिकित्सा विज्ञान आदि के शिक्षण के लिए किया जाता था। उपाध्याय यथा क्रिया को करके दिखाते थे, छात्रं उनका अनुकरण करते थे, फिर यथा क्रिया को बार-बार करके अभ्यास करते थे और उसमें दक्षता प्राप्त करते थे।

(7) वाद-विवाद एवं तर्क विधियाँ-

उस काल में विवादास्पद विषयों का शिक्षण वाद-विवाद और तर्क विधियों से होता था। अपने-अपने मत की पुष्टि में 8 प्रकार के प्रमाण (सिद्धान्त, हेतु, उदाहरण, साधर्म्य,वैधर्म्य, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम) प्रस्तुत किए जाते थे।

(8) देशाटन-

इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से भिक्षु शिक्षा में किया जाता था। भिक्षु शिक्षा के भिक्षुओ को देशाटन के अवसर प्रदान किए जाते थे, उन्हें वास्तविक जगत को जानने के अवसर दिए जाते थे, मानव समाज की वास्तविक स्थिति को जानने के अवसर दिए जाते थे और धर्म प्रचार का प्रशिक्षण दिया जाता था।

(9) व्याख्यान विधि-

बौद्ध काल में उच्च शिक्षा केन्द्रों में विषय के अधिकारी विद्वान् बुलाए जाते थे, उनके व्याख्यान कराए जाते थे, शंका समाधान होता था और इस प्रकार उच्च शिक्षा के छात्र विषयों का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे।

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Pankaja Singh

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