शिक्षाशास्त्र

 प्राचीन भारत में व्यावसायिक शिक्षा | Vocational Education in Ancient India in Hindi

 प्राचीन भारत में व्यावसायिक शिक्षा | Vocational Education in Ancient India in Hindi

प्राचीन भारत में व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education in Ancient India)

प्राचीन काल में शिक्षा के अन्तर्गत विभिन्न विषयों जैसे- वेद, पुराण, साहित्य, धर्म, दर्शन इत्यादि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करके शिक्षार्थी ज्ञानी, आध्यात्मिक एवं धार्मिक तो बन जाते थे, लेकिन व्यवहार में वे अल्प ज्ञानी ही रह जाते थे। अत: उस समय शिक्षापियों में स्वावलम्बन एवं जीविकोपार्जन का गुण विकसित करने हेतु व्यावसायिक शिक्षा का प्रबन्ध किया गया। प्राचीन काल में व्यावसायिक दृष्टि से शिक्षार्थियों को दक्ष बनाने हेतु निम्न प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था  की गई थी-

(1) चिकित्साशास्त्र की शिक्षा-

की दृष्टि से आयुर्वेद का विशेष महत्व था। प्राचीन काल में समस्त वर्गों के बालकों को चिकित्साशास्त्र की शिक्षा  प्रदान की जाती थी। चिकित्साशास्त्र की शिक्षा संस्कृत भाषा में प्रदान की जाती थी। शिक्षार्थी को सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। चिकित्साशास्त्र की शिक्षा वे ही शिक्षार्थी प्राप्त कर सकते थे, जिनमें अग्रलिखित योग्यताएँ हो-

(i) स्वस्थ एवं साहसी होना, (ii) कार्य करने एवं पढ़ने में रुचि होना, (ii) कष्ट सहिष्णु होना,(iv) नैतिक एवं धैर्यशाली होना।

अतः चिकित्साशास्त्र के अन्तर्गत निम्नलिखित शाखाओं की शिक्षा दी जाती थी-

(i) औषधि विज्ञान, (ii) रोग निदान, (iii) शल्य चिकित्सा, (iv) रक्त परीक्षा,(v) अस्थि ज्ञान, (vi) विषय ज्ञान इत्यादि।

चिकित्साशास्त्र की अध्ययन अवधि 8 वर्ष की होती थी। कोर्स समाप्त होने के पश्चात शिक्षार्थी को चिकित्सक के रूप में कार्य करने हेतु एक प्रमाणपत्र लेना होता था। यह प्रमाण पत्र राजकीय चिकित्सालय के प्रधान, विद्यालय के आचार्य या किसी विशेष चिकित्सक का होता था। समावर्तन संस्कार के समय शिक्षार्थियों को यह आदेश दिया जाता था कि वे अपने प्राणों की चिन्ता छोड़कर समाज में व्याप्त रोगों को समाप्त करने में अपना महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान करें।

प्राचीन समय में तक्षशिला एवं पाटलिपुत्र विश्वविद्यालयों में चिकित्सा शिक्षा के विशाल केन्द्र खोले गये थे। इन केन्द्रों में अनेक आयुर्वेदाचार्यों जैसे-चरक, सुश्रुत इत्यादि ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। आज हमारे देश में आयुर्वेद से सम्बन्धित चिकित्साशास्त्र की शिक्षा, शिक्षार्थियों को प्रदान की जाती है ।

(2) सैनिक शिक्षा-

वैदिक युग में समस्त वर्गों के शिक्षार्थियों को सैनिक शिक्षा प्रदान की जाती थी लेकिन कालान्तर में क्षत्रिय वर्ण को ही सैनिक शिक्षा हेतु उपयुक्त माना गया और देश की रक्षा का उत्तरदायित्व क्षत्रिय वर्ण को ही सौंपा गया । इसीलिए इस वर्ण के बालकों को वेद के साथ सैनिक शिक्षा में भी दक्ष बनाया जाता था। युद्धकला विशेषज्ञ सैनिक शिक्षा देते थे। सैनिक शिक्षा के अन्तर्गत भाला, बी, धनुष-बाण आदि चलाना महत्वपूर्ण केन्द्र था। राजकुमारों को सैनिक शिक्षा गुरुजन ही प्रदान करते थे। उदाहरणार्थ-रामायण एवं महाभारत युग में गुरु विश्वामित्र एवं द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों को सैनिक शिक्षा प्रदान की गई थी। विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा इसी उद्देश्य से दी जाती थी कि जिससे आवश्यकता पड़ने पर वे देश की सुरक्षा कर सकें।

(3) वाणिज्य शिक्षा-  

प्राचीन समय में कार्यों का विभाजन वर्ण के आधार पर किया गया था,जैसे ब्राह्मण का कार्य पठन-पाठन, वेदाध्ययन आदि था, क्षत्रिय का कार्य देश की रक्षा करना, वैश्य का कार्य कृषि, व्यापार एवं पशुपालन और शूद्र का कार्य उच्च वर्गों की सेवा करना था। प्राचीन समय में वैश्यों को प्रारम्भिक ज्ञानार्जन करने के उपरान्त वाणिज्य शिक्षा का प्रारम्भिक ज्ञान प्रदान किया जाता था। वाणिज्य का ज्ञान बालक को अधिकांशतः अपने घर, निजी दुकानों से भी प्राप्त हो जाता था।

वैश्य वर्ण के व्यक्तियों को वाणिज्य एवं व्यापार से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त करने हेतु वस्तुओं की जाँच माप-तौल इत्यादि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इसके अतिरिक्त कृषि एवं पशुपालन से सम्बन्धित पूर्ण जानकारी उन्हें दी जाती थी।

(4) कला-कौशल शिक्षा-

प्राचीन काल में शिक्षार्थियों को विभिन्न प्रकार के कला-कौशल की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। ललित कलाओं का ज्ञानार्जन करके व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता था और उनमें सौन्दर्यानुभूति के गुणों का विकास होता था। कला के अभ्यासार्थ साधना पर विशेष बल दिया जाता था और ललित कलाओं के प्रचुर साहित्य को संकलित किया जाता था। अभ्यास,मनन एवं चिन्तन का,कला-कौशल की शिक्षा को सीखने में विशेष महत्व था।

प्राचीन काल में ललित कलाओं के अलावा शिक्षार्थियों को उपयोगी हस्त कलाओं की भी शिक्षा प्रदान की जाती थी, जिससे व्यक्ति आत्मनिर्भर बन सके।

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Pankaja Singh

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