
मध्यकालीन शिक्षा के उद्देश्य | मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य
मध्यकालीन शिक्षा के उद्देश्य (मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य) (General Aims of Muslim Education)
सामान्यतः मुस्लिम शासकों के समय में शिक्षा के उद्देश्यों में काफी विभिन्नता पाई जाती थी। विभिन्न मुस्लिम शासकों द्वारा निर्धारित शिक्षा के उद्देश्यों में एकरूपता नहीं थी। इसका मुख्य कारण भारत के विभिन्न मुस्लिम शासकों की एक-दूसरे से भिन्न महत्वाकांक्षायें, परिस्थितियाँ एवं समस्याएं थीं और उन्हीं के अनुरूप वे अपने शासनकाल में शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित करते थे। इसके अतिरिक्त कुछ मुस्लिम शासक उदार प्रकृति के थे तो कुछ अनुदार प्रकृति के थे। उद्देश्यों की विभिन्नता के बावजूद भी मुस्लिमकालीन शिक्षा के सामान्य उद्देश्य इस प्रकार थे-
(1) मुस्लिम संस्कृति का प्रसार-
मुस्लिम शिक्षा का प्रथम उद्देश्य मुस्लिम संस्कृति अर्थात मुस्लिम सिद्धांतों, सामाजिक प्रथाओं और कानूनों का प्रसार करना था, ताकि अधिकांश भारतीय इस्लाम से प्रभावित ओपन मुस्लिम संस्कृति ग्रहण कर ले।
(2) इस्लाम धर्म का प्रचार करना-
मुस्लिम शिक्षा का दूसरा मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार करना था। मुसलमानों का विश्वास था कि ‘खुदाबन्द करीम’ उन लोगों से खुश होते हैं, जो ईमानदारी के साथ इस्लाम मजहब का प्रचार करते हैं। अत: इस्लाम का प्रचार करना एक धार्मिक कर्त्तव्य और सबाब (पुण्य) का कार्य है। मुस्लिम-शासकों ने इस पुण्य कार्य को सम्पादित करने के लिये शिक्षा का सहारा लिया। अध्ययनकाल के प्रारम्भ से ही मकतबों में कुरान की शिक्षा प्रदान की जाती थी। इसी प्रकार प्रारम्भ से ही छात्रों को इस्लाम धर्म के आधारभूत सिद्धान्तों से परिचित कराया जाता था। मदरसे (कॉलेज) पहुँचने पर उन्हें इस्लाम धर्म, दर्शन, साहित्य एवं इतिहास की शिक्षा दी जाती थी। मुस्लिम शासकों ने इस्लाम धर्म के प्रचार के लिये हिन्दू मन्दिरों एवं विद्यालयों को तोड़-फोड़ कर उनके स्थान पर मस्जिदें एवं मदरसे बनवाये । इससे इस्लाम-धर्म के प्रचार में अधिक सहायता मिली।
(3) मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना-
मुस्लिम शिक्षा का तीसरा उद्देश्य भारत के समस्त हिन्दुओं को मुस्लिम संस्कृति एवं आदर्शों में इस प्रकार रंग लेना था कि वे अपने आपको भूलकर मुस्लिम श्रेष्ठता को स्वीकार कर लें। मुस्लिम शासकों ने इस तथ्य को अच्छी तरह समझा कि वे इतने बड़े देश में सुदृढ़ शासन तभी स्थापित किये रख सकते हैं, जबकि शिक्षा द्वारा विशाल हिन्दू जनता अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन कर मुस्लिम सभ्यता एवं संस्कृति की उपासक बन जाये । महान सम्राट अकबर के शैक्षणिक प्रयास इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये किये गये थे
(4) सांसारिक या भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति-
मुस्लिम शिक्षा का चौथा उद्देश्य-व्यक्तियों को सांसारिक या भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति में सहायता प्रदान करना है। इस्लाम के अनुसार मानव जीवन की दो प्रवृत्तियाँ हैं- (i) अर्थ तथा (ii) यौन सुख । यह दोनों प्रवृत्तियाँ मनुष्य को लौकिक वैभव प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं। इस लौकिक वैभव की प्राप्ति अर्थात् अर्थ एवं यौन-सन्तुष्टि प्राप्त करने में सहायता प्रदान करना मुस्लिम शिक्षा का मुख्य लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अर्थात् विलासप्रिय जीवन व्यतीत करने के लिये ही मुस्लिम शासकों ने शिक्षित व्यक्तियों को उच्च पद तथा इनाम देना आदि प्रारम्भ कर दिया। प्रलोभनों के वशीभूत होकर हिन्दुओं ने भी मुस्लिम शिक्षा प्राप्त करने में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया।
(5) ज्ञान के प्रकाश का विस्तार–
मुस्लिम शिक्षा का पांचवा उद्देश्य इस्लाम के शब्दों में ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करना था। ‘हजरत मुहम्मद साहब’ ने ज्ञान को ऐसा अमृत बताया जिसको प्राप्त कर कोई मुसलमान ‘मुक्ति’ (निजात) प्राप्त कर सकता है। ज्ञान के इस महत्व को सामने रखते हुए मुस्लिम शासकों ने शिक्षा के द्वारा मुसलमानों में ज्ञान का प्रसार किया।
(6) विशिष्ट नैतिकता का समावेश-
मुस्लिम शिक्षा का छठा उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुसार लोगों के व्यक्तित्व में एक विशिष्ट नैतिकता का समावेश करना था। मुसलमानों के नैतिक व चारित्रिक प्रतिमान हिन्दू प्रतिमानों से भिन्न होते थे। अतः मुस्लिम शासक हिन्दुओं से चारित्रिक प्रतिमानों की उपेक्षा कर शिक्षा द्वारा भारतीय मुसलमानों में चारित्रिक प्रतिमानों के विकास करने का प्रयत्न करते थे।
(7) धार्मिकता का समावेश-
मुस्लिम शिक्षा का सातवा उद्देश्य मुसलमानों में धार्मिकता का समावेश करना था अर्थात् उन्हें कट्टर धर्म-परायण बनाना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति करने की दृष्टि से मकतब एवं मदरसे मस्जिदों के एक भाग में होते थे। मुसलमान छात्र अन्य वयस्क व्यक्तियों के साथ सामूहिक रूप से नमाज पढ़ते थे, जिससे उनमें धर्म-परायणता की भावना का समावेश सरलतापूर्वक किया जा सके।
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