शिक्षाशास्त्र

बौद्धकालीन शिक्षा के महत्वपूर्ण तथ्य | Important facts of Buddhist education in Hindi

बौद्धकालीन शिक्षा के महत्वपूर्ण तथ्य | Important facts of Buddhist education in Hindi

बौद्ध युगीन शिक्षा से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्य (बौद्धकालीन शिक्षा के महत्वपूर्ण तथ्य)

(Important Concept relating to Education of Buddhist Period)

बौद्ध कालीन शिक्षा प्रणाली की शिक्षण विधियों के विषय में निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय हैं-

(1) अनुशासन-

बौद्ध काल में गुरु और शिष्य दोनों को बौद्ध संघों के नियमों का कठोरता के साथ पालन करना होता था। सामान्य छात्रों को पवज्जा संस्कार के समय बताए गए 10 नियमों (अहिंसा का पालन, शुद्ध आचरण, सत्य बोलना, सत् आहार लेना, मादक वस्तुओं का प्रयोग न करना, पर-निन्दा न करना, श्रृंगार की वस्तुओं का प्रयोग न करना, नृत्य एवं संगीत से दूर रहना, पराई वस्तु न लेना और सोना, चाँदी, हीरा, जवाहरात आदि कीमती दान न लेना) का पालन करना होता था और भिक्षु की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को इनके अतिरिक्त 8 और नियमों (वृक्ष के नीचे निवास करना, सादे वस्त्र धारण करना, भिक्षा माँगकर भोजन करना, औषधि के रूप में गोमूत्र का सेवन करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, चोरी न करना, हिंसा से दूर रहना और अलौकिक शक्तियों का दावा न करना) का पालन करना होता था। उस काल में इन नियमों के पालन को ही अनुशासन कहा जाता था । बौद्ध काल में माह में सामान्यत: दो बार छात्र और शिक्षक एक स्थान पर एकत्रित होते थे, आत्मनिरीक्षण करते थे और अपने दोष स्वीकार करते थे। इससे उनमें आत्मानुशासन का विकास होता था ! उस काल में गुरु और शिष्य दोनों एक-दूसरे के आचरण पर दृष्टि रखते थे, दोनों एक-दूसरे को सचेत रखते थे और किसी के द्वारा भी नियम भंग होने पर उन्हें दण्ड दिया जाता था। छात्रों को यह दण्ड भिक्षु देते थे और भिक्षुओं को यह दण्ड बौद्ध संघों द्वारा दिया जाता था। पर शारीरिक दण्ड का इस युग में निषेध था। संघ की मर्यादा भंग करने, भिक्षुक का अपमान करने और विवाह करने जैसे अपराध करने वाले छात्रों को मठों एवं विहारों से निकाल दिया जाता था।

(2) शिक्षक (उपाझयाय अथवा उपाध्याय)-

बौद्ध काल में प्राथमिक एवं उच्च, दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था बौद्ध मठों एवं विहारों में होती थी। उस काल में बौद्ध भिक्षु ही शिक्षण कार्य करते थे और जो बौद्ध भिक्षु शिक्षण कार्य करते थे उन्हें उपाझयाय (उपाध्याय) कहा जाता था। उपाध्याय बनने के लिए पहली अनिवार्यता थी-उच्च शिक्षा के बाद 8 वर्ष तक बौद्ध धर्म की उच्च शिक्षा प्राप्त करना, दूसरी अनिवार्यता थी-बौद्ध धर्मावलम्बी होना, तीसरी अनिवार्यता थी-आजीवन अविवाहित रहना और चौथी अनिवार्यता थी-बौद्ध संघों के नियमों का कठोरता से पालन करना । उस समय अति विद्वान, आत्मसंयमी और चरित्रवान भिक्षु ही उपाध्याय हो सकते थे। बौद्ध उपाध्याय अपने शिष्यों (श्रमणों) के आवास एवं भोजन की व्यवस्था करते थे, उनका ज्ञानवर्धन करते थे और उन्हें सांसारिक दुःखों से छुटकारा प्राप्त करने का मार्ग बताते थे

(3) शिक्षार्थी (श्रमण, सामनेर)–

बौद्ध काल में शिक्षार्थियों को श्रमण अथवा सामनेर कहा जाता था। इन्हें बौद्ध मठों एवं विहारों में रहना अनिवार्य था। ये बौद्ध मठों एवं विहारों के नियमों का कठोरता से पालन करते थे। इन्हें मूल रूप से दस आदेशों का पालन करना होता था। इसे दस सिक्खा पदानि अर्थात् दस शशिक्ष पद कहते थे। ये दस आदेश थे-(1) अहिंसा का पालन करना, (ii) अशुद्ध आचरण न करना, (iii) असत्य न बोलना, (iv) सत् आहार लेना. (५) मादक वस्तुओं का प्रयोग न करना, (vi) पर-निन्दा न करना, (vii) श्रृंगार की वस्तुओं का प्रयोग न करना, (viii) नृत्य एवं संगीत आदि से दूर रहना, (ix) पराई वस्तु ग्रहण न करना और (x) सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात आदि कीमती दान न लेना।

उस काल में शिष्य गुरु के उठने से पहले शैय्या त्यागते थे, गुरुओं के लिए दातुन एवं जल आदि की व्यवस्था करते थे और गुरुओं के साथ भिक्षा माँगने जाते थे। उच्च शिक्षा के जो छात्र शिक्षा शुल्क नहीं दे पाते थे वे सेवा कार्य करते थे।

(4) शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध-

बौद्धकाल में गुरु-शिष्यों के सम्बन्ध बहुत पवित्र एवं मधुर थे। गुरु शिष्यों को पुत्रवत् मानते थे और शिष्य गुरुओं को पिता तुल्य मानते थे। उस समय गुरु प्राय: मठों एवं विहारों के प्रशासन एवं शैक्षणिक कार्य की व्यवस्था देखते थे और शिष्य उनके आदेशानुसार विभिन्न कार्यों का सम्पादन करते थे। यहाँ बौद्धकालीन गुरुओं के शिष्यों के प्रति और शिष्यों के गुरुओं के प्रति उत्तरदायित्व एवं कार्यों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-

गुरुओं के शिष्यों के प्रति उत्तरदायित्व- बौद्ध काल में गुरु शिष्यों के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते थे—

(i) शिष्यों के स्वास्थ्य की देखभाल करना, उनके अस्वस्थ होने पर उपचार की व्यवस्था करना।

(ii) शिष्यों को उनकी योग्यता एवं क्षमतानुसार विशिष्ट ज्ञान कराना।

(ii) शिष्यों के आचरण पर दृष्टि रखना, उनका चरित्र निर्माण करना ।

(iv) शिष्यों के आवास एवं भोजन की व्यवस्था करना।

(v) शिष्यों को पाली भाषा एवं बौद्ध धर्म का ज्ञान कराना।

(vi) शिष्यों को निर्वाण प्राप्ति का मार्ग दिखाना।

(vii) शिष्यों को करणीय कर्मों की शिक्षा देना, उन्हें अकरणीय कर्मों से रोकना।

शिष्यों के गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य- बौद्ध काल में शिष्य गुरुओं के प्रति निम्नलिखित कर्तव्यों का पालन करते थे-

(i) मठों एवं विहारों की व्यवस्था में गुरुओं का सहयोग करना, उनके आदेशानुसार कार्यों का सम्पादन करना।

(ii) गुरुओं के जागने से पहले शैय्या त्यागना, गुरुओं के लिए दातुन व स्नानादि की व्यवस्था करना।

(iii) मठ एवं विहार निवासियों के लिए गुरु के साथ भिक्षा माँगने जाना।

(iv) गुरुओं के आचरण पर दृष्टि रखना, उनके भूल करने पर संघ को सूचित करना।

(v) गुरुओं की अन्य सभी प्रकार से सेवा करना।

(5) बौद्ध युगीन शिक्षण संस्थाएँ (बौद्ध मठ एवं विहार)–

बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक एवं उच्च, दोनों स्तरों की शिक्षा की व्यवस्था बौद्ध मठों एवं विहारों में होती थी। वैसे तो ये मठ एवं विहार मूल रूप से धार्मिक केन्द्र थे और इनका संचालन बौद्ध संघों द्वारा होता था, परन्तु साथ ही इनमें शिक्षा की व्यवस्था भी की जाने लगी थी और उस समय ये ही शिक्षा की मुख्य संस्थाएँ थीं।

बौद्ध मठ अथवा विहार बड़े-बड़े नगरों के निकट खुले स्थान पर बनाए गए थे। अधिकतर मठों एवं विहारों के भवन बहुत विशाल और भव्य थे। इनमें आवासीय शिक्षा की व्यवस्था थी, गुरुओं के लिए गुरु निवास और शिष्यों के लिए छात्रावास थे। शिक्षण के लिए बड़े-बड़े कक्ष, सभा भवन और पुस्तकालय थे। बौद्ध काल में अनेक प्रकार की शिक्षण संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। कुछ बौद्ध मठों एवं विहारों में केवल धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था थी, कुछ में केवल धार्मिक एवं प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था थी और कुछ में धार्मिक, प्राथमिक एवं उच्च, सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था थी। कुछ विहार ऐसे भी थे जिनमें केवल उच्च शिक्षा की व्यवस्था ही थी। ये उस समय के विश्वविद्यालय थे।

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Pankaja Singh

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