अर्थशास्त्र

सार्वजनिक ऋण से आशय | सार्वजनिक ऋण की परिभाषाएँ | सार्वजनिक ऋण लेने के उद्देश्य | लोक ऋण का महत्व

सार्वजनिक ऋण से आशय | सार्वजनिक ऋण की परिभाषाएँ | सार्वजनिक ऋण लेने के उद्देश्य | लोक ऋण का महत्व

सार्वजनिक ऋण से आशय-

जो ऋण राज्यों द्वारा प्राप्त किये जाते हैं उन्हें सार्वजनिक ऋण कहते हैं। जब से प्रजातन्त्रीय शासन-व्यवस्था आरम्भ हुई है और सरकारों का उद्देश्य कल्याणकारी राज्यों की स्थापना करना हुआ है भी से राज्यों के खर्चों में बहुत वृद्धि हो गई है, जिनकी वे करों द्वारा पूर्ति नहीं कर पाते। अतः राज्यों को आर्थिक विकास के अतिरिक्त कभी-कभी युद्ध-संचालन के लिये भी ऋणों का सहारा लेना पड़ता है।

सार्वजनिक ऋण की परिभाषाएँ (Definition of Public Debt)

(1) फिन्डले शिराज के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण वह ऋण होता है जिसके भुगतान के लिये कोई सरकार अपने देश के नागरिकों अथवा दूसरे देश के नागरिकों के प्रति उत्तरदायी होती है।”

(2) प्रो0 जे0के0 मेहता के अनुसार, “सार्वजनिक ऋण अपेक्षाकृत आधुनिक घटना है तथा विश्व में जनतान्त्रिक सरकारों के विकास के साथ व्यवहार में आया है।”

सार्वजनिक ऋण लेने के उद्देश्य

सामान्यतः सरकार निम्नलिखित उद्देश्यों के लिये ऋण की व्यवस्था करती है-

(1) प्राकृतिक आपदाओं से समाज की रक्षा करने हेतु-वर्तमान युग में अकाल, बाढ़, महामारी और प्राकृतिक आपदाओं से समाज की रक्षा करना सरकार का प्रमुख कर्त्तव्य समझा जाता है। ऐसे समय में यदि सरकार की आय अपर्याप्त हो तो उसे ऋण की शरण लेनी पड़ती है।

(2) विदेशी आक्रमणों से देश की रक्षा करने हेतु-जनतन्त्रीय शासन-व्यवस्था में (जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिये) सरकार का प्रमुख उद्देश्य समाज को अधिकतम लाभ प्रदान करना होता है और यह तभी सम्भव है जबकि सरकार नागरिकों की आन्तरिक उपद्रवों और बाह्य आक्रमणों में जान-माल की पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करे। वर्तमान जटिल राजनैतिक परिस्थितियों में सैनिक आवश्यकता के सम्बन्ध में स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी प्रत्येक राष्ट्र की सरकार को ऋण की व्यवस्था करनी पड़ती है।

(3) लोकमत को अनुकूल बनाने हेतु- जनतन्त्रीय शासन-व्यवस्था में सत्तारूढ़ दल जनमत को अपने पक्ष में करने के ध्येय से कभी-कभी जान-बूझकर करारोपण में वृद्धि नहीं करता और आवश्यक खर्चों को करने हेतु ऋण का सहारा लेता है।

(4) उत्पादन कार्यों का सम्पादन करने हेतु- देश के प्राकृतिक साधनों का विकास करने हेतु भी सरकार को ऋण की व्यवस्था करनी होती है। एक अर्द्ध-विकसित अथवा विकसित देश की सरकार के लिये ऋण की व्यवस्था करना और भी आवश्यक होता है क्योंकि ऐसे देश में सरकार करारोपण द्वारा अधिक आय प्राप्त नहीं कर सकती, जबकि अर्थव्यवस्था के विकास हेतु बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है।

(5) सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रमों की स्थापना करने हेतु- सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योग-धन्धों की स्थापना करने अथवा सार्वजनिक निर्माण कार्यों का सम्पादन करने हेतु ऋण का सहारा लेना पड़ता है।

(6) समाजवादी नमूने के समाज की स्थापना करने हेतु- बीसवी शताब्दी के आरम्भ से समाजवादी भावना के विकास के फलस्वरूप आजकल अधिकांश देशों की सरकारें उद्योग व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर रही हैं तथा उनके स्वामित्व और संचालन को अपने हाथ में लेती जा रही है, जिसके लिये बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होने के कारण सरकारी ऋण का परिणाम भी बढ़ता जा रहा है।

(7) प्रशासनिक कार्यों के व्यय को पूरा करने हेतु-सरकार को करारोपण द्वारा वर्ष के अन्त में ही आय प्राप्त होती है, जबकि प्रशासनिक कार्यों पर उसे वर्ष के आरम्भ से ही खर्च करना पड़ता है। अतएव आय प्राप्त होने तक प्रशासनिक कार्यों के व्यय को पूरा करने हेतु सरकार को अल्पकालीन ऋण की व्यवस्था करनी पड़ता है। हमारे देश में संघ व राज्य सरकारें इस ध्येय की पूर्ति हेतु रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया से अल्पकाली अग्रिम प्राप्त करती हैं।

(8) कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने हेतु- प्रत्येक देश की सरकार ने अपना अन्तिम लक्ष्य “कल्याणकारी राज्य” को स्थापना करना स्वीकार कर लिया है, जिसकी पूर्ति हेतु आजकल प्रत्येक देश की सरकार, शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, आवास आदि समाज सेवाओं पर अधिक से अधिक व्यय करती है तथा आवश्यकता पड़ने पर इन सेवाओं के सम्पादन हेतु ऋण की व्यवस्था करती है।

(9) आर्थिक एवं व्यापारकि दशाओं में स्थिरता कायम करने हेतु- प्रो० लर्नर के मतानुसार, सार्वजनिक ऋण का मुख्य उद्देश्य आय प्राप्त करना न होकर आर्थिक जीवन को सन्तुलित बनाना होना चाहिये। सार्वजनिक ऋण की व्यवस्था मन्दी और अभिवृद्धि दोनों कालों में लाभप्रद साबित हो सकती है। अभिवृद्धि कालों में सरकार ऋण की व्यवस्था द्वारा नागरिकों से अतिरिक्त क्रय-शक्ति को हस्तगत करके मूल्य स्तर के ऊपर उठने की प्रवृत्ति को रोक सकती है, जबकि मन्दी काल में सरकार बैंकों से ऋण प्राप्त करके तथा इस धन से नई-नई योजनायें चलाकर (अथवा पुराने ऋणों का भुगतान करके) नागरिकों की क्रय-शक्ति में वृद्धि कर सकती है तथा इस प्रकार मूल्य- स्तर में गिरावट की प्रवृत्ति पर रोक लगा सकती है।

(10) राजनैतिक क्षेत्र में मित्रता स्थापित करने हेतु-सार्वजनिक ऋण का अन्तिम उद्देश्य राजनैतिक क्षेत्र में मित्रता उत्पन्न करना भी होता है, क्योंकि सार्वजनिक ऋण की व्यवस्था नागरिकों में पारस्परिक सहयोग, निर्भरता और भाई-चारे की भावना उत्पन्न करती है।

लोक ऋण का महत्व

लोक ऋण से आर्थिक प्रेरणाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावनाएँ कम हो जाती है। एडम स्मिथ लोक ऋणों को फिजूलखर्ची बढ़ाने वाला व युद्ध को बढ़ाने वाला मानते हैं, वहीं शिराज लोक ऋण के लिए कहते हैं कि “सरकार को यह याद रखना चाहिए कि ऋण लेना खुशहाली का मार्ग नहीं है, और जब तक उत्पादक व्यय न हो, लोक ऋण नहीं लेना चाहिए।” ह्यूम का मत है कि “सरकारी ऋण एक ऐसी क्रिया है जो बिना किसी विवाद के थातक कही जा सकती है, जबकि जर्मन अर्थशास्त्रियों ने लोक ऋण का समर्थन किया है।” लोक ऋणों के महत्व को निम्न प्रकार से रखा जा सकता है-

(1) आर्थिक कारण- देश में अनेक ऐसे आर्थिक कारण उदय हो जाते हैं जिससे सरकार को कर के स्थान पर ऋण का सहारा लेना पड़ता है, जैसे, युद्धकाल में। इसी प्रकार देश के सुस्त प्राकृतिक साधनों के विकास हेतु लोक ऋण का सहारा लिया जाता है।

(2) धन की अधिक आवश्यकता होने पर- जब सरकार को अपार मात्रा में धन की आवश्यकता हो तो एक साथ तुरन्त राशि प्राप्त होना सम्भव न होने से उसे ऋण पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

(3) राज्य के कार्यों में वृद्धि- वर्तमान समय में राज्य के कार्यों में तीव्र गति से वृद्धि हुई है जिससे उन कार्यों को पूर्ण करने हेतु उसे अधिक मात्रा में धन की आवश्यकता होती है और इसे ऋण लेकर ही पूर्ण किया जा सकता है।

(4) बचत का अभाव- लोक क्षेत्र में बचत करना सम्भव नहीं है जिससे राज्य को आवश्यकता पड़ने पर ऋणों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यदि लोक क्षेत्र में सरकार बचत करती है तो उससे देश के नागरिकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेंगे।

(5) अणु शक्ति का प्रयोग- वर्तमान युग में उत्पादन कार्यों में अणु शक्ति के प्रयोग के कारण सरकारी व्यय में काफी वृद्धि हो गयी है जिसको पूर्ण करने के लिए सरकार को ऋणों पर निर्भर रहना पड़ता है।

(6) मूल्य-स्तर नीचे लाना- जनता पर अधिक धन होने पर वह वस्तुओं को प्राप्त करने हेतु अधिक धन देने को तत्पर हो जाती है जिससे मूल्य बढ़ जाते हैं। अतः सरकार द्वारा ऋण की सहायता से अतिरिक्त धनराशि जनता से प्राप्त करके मूल्य-स्तर को नीचे लाया जा सकता है।

(7) समाजवादी दृष्टिकोण- आधुनिक समय में सरकार का समाजवादी दृष्टिकोण होने से व्यय में वृद्धि होती जा रही है जिसके कारण लोक ऋणों के महत्व में भी वृद्धि हो गयी है। मुद्रा स्फीति तथा मुद्रा संकुचन दोनों ही स्थितियों में राजकीय ऋण लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं।

(8) आर्थिक विकास– देश के आर्थिक विकास के लिए करारोपण पर ही केवल निर्भर नहीं रहा जा सकता क्योंकि (अ) करारोपण की एक अधिकतम सीमा होती है और उससे अधिक कर लगाने पर यह असहनीय हो जाता है। (ब) निर्धन राष्ट्रों का जीवन-स्तर पहले से ही निम्न होता है जिससे उनसे कर प्राप्त करना सम्भव नहीं हो पाता। (स) अधिक करारोपण से जनता के कार्य करने की इच्छा पर बुरे प्रभाव पड़ सकते हैं और देश में बचन एवं विनियोग की मात्रा हतोत्साहित हो जाती है जिससे भावी आर्थिक विकास पर बुरे प्रभाव पड़ सकते हैं।

निष्कर्ष :-

यदि सरकार उपर्युक्त उद्देश्यों हेतु ऋण लेती है तो उसका ऋण लेना न्याय संगत है। करारोपण जाँच आयोग (1954) ने स्पष्ट कहा था, “हम यह स्वीकार करते हैं कि विकास वित्त में ऋणों का स्थान महत्वपूर्ण है।”

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Pankaja Singh

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