अर्थशास्त्र

ऊर्जा संकट | विश्व में ऊर्जा का उपयोग और सुरक्षित भंडार | भारत में ऊर्जा संकट की स्थिति | भारत में ऊर्जा प्राप्ति के स्रोत | ऊर्जा संरक्षण | भारत में ऊर्जा सुरक्षा का उद्देश्य

ऊर्जा संकट | विश्व में ऊर्जा का उपयोग और सुरक्षित भंडार | भारत में ऊर्जा संकट की स्थिति | भारत में ऊर्जा प्राप्ति के स्रोत | ऊर्जा संरक्षण | भारत में ऊर्जा सुरक्षा का उद्देश्य | energy crisis in Hindi | Energy use and reserves in the world in Hindi | Energy crisis situation in India in Hindi | Sources of Energy Procurement in India in Hindi | Energy Conservation in Hindi | Purpose of Energy Security in India in Hindi

ऊर्जा संकट

तीव्र औद्योगिक बढ़ती जनसंख्या, उच्च जीवन स्तर, अधिकाधिक यंत्रीकरण और अविवेकपूर्ण दोहन के कारण पारंपरिक ऊर्जा का भंडार तेजी से घटा है साथ ही उसकी कीमत में बेतहाशा वृद्धि हुई है। फलतः ऊर्जा संकट की दोहरी मार आधुनिक समाज को झेलनी पड़ रही है। हाल के वर्षों में विकासशील देश अपनी आर्थिक दशा को सुधारने के लिए हर संभव प्रयास में जुटे हैं जिसके फलस्वरूप इन देशों में ऊर्जा खपत कई गुना बढ़ गई है। साथ ही तेल उत्पादन देशों ने 1970 के बाद तेल की कीमत में कई गुना वृद्धि कर दी है जिससे विकसित और  विकासशील देश संकट का सामना करने के लिए बाध्य हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि पारंपरिक ऊर्जा की सुलभता के प्रकारण गैर पारंपरिक स्रोतों के विकास पर उचित ढंग से ध्यान नहीं दिया गया और अब खपत की सीमा बढ़ जाने के कारण कठिनाई का अनुभव किया जा रहा है।

विकसित देशों में खनिज तेश्ल, कोयला और प्राकृतिक गैस से 85 प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति होती है जबकि विकासशील देशों में यह 58 प्रतिशत है। इसी कारण लकड़ी और जैवीय सामग्री का उपयोग विकासशील देशों में सर्वाधिक होता है। इसका प्रभाव वन-विनाश पर पड़ रहा है।

विश्व में जीवाश्म वर्ग के ऊर्जा स्त्रोतों को उपयोग विगत दशकों में तीव्र गति से बढ़ा है जिसके कारण जहाँ इन स्रोतों के भण्डार में तेजी से कमी आयी हैं वहीं प्रदूषण का खतरा भी बढ़ रहा है। विकसित राष्ट्र अपने उद्योग, यातायात और सुख-सुविधा को बनाये रखने के लिए यदि इसी गति से इन स्रोतों का उपयोग करते रहे तो तीन प्रकार के संकटों का उत्पन्न होना अनिवार्य है-

(i) 2030 ई. के बाद पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों में केवल कोयला और गैस ही उपलब्ध होंगे। फलतः आर्थिक उत्पादन पर सबसे अधिक कुप्रभाव पड़ेगा।

(ii) प्रदूषण इतना बढ़ सकता है कि मानव स्वास्थ्य को बचाने के लिए राष्ट्रीय आय का एक महत्वपूर्ण अंश खर्च करना पड़ेगा।

(iii) विकासशील देशों का विकास अवरुद्ध होगा क्योंकि उनकी कम आय के कारण मँहगे ऊर्जा स्रोतों का क्रय कठिन हो जायेगा।

यह सर्वज्ञात है कि कोयला, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस और बिजली के व्यावसायिक उत्पादन और उपयोग के साथ मानव इतिहास का आधुनिक युग शुरू हुआ। इन ऊर्जा स्रोतों से उद्योग, यातायात, संचार, कृषि और व्यापार में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। साथ ही विकास को सतत बनाये रखने के लिए ऊर्जा की मांग बढ़ती गयी। जितनी ऊर्जा का उपयोग बिगत तीन या चार हजार वर्षों में मानव समुदाय नहीं कर पाया था उससे कई गुना अधिक आधुनिक समाज ने केवल एक सौ वर्षों में किया है। स्पष्ट है कि सीमित भंडार वाले स्रोतों पर दिनोदिन दबाव बढ़ता गया और स्थिति समाप्ति के निकट पहुंच गयी है। कोयला और तेल भंडार शायद ही अगली सदी के लिए पर्याप्त हैं।

औद्योगिक देशों की अस्सी प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति तेल और कोयले से होती है जबकि विकासशील देश अपनी ऊर्जा की आपूर्ति इनके अतिरिक्त लकड़ी, गोबर आदि से करते हैं। नेपाल की 86 प्रतिशत ऊर्जा लकड़ी से प्राप्त होती है। अफ्रीकी देश भी अपनी आधी से अधिक ऊर्जा लकड़ी से प्राप्त करते हैं। औसतन विश्व की 45 प्रतिशत ऊर्जा कोयले से तथा चालीस प्रतिशत खनिज तेल से प्राप्त होती है। इन दोनों स्रोतों के उत्पादन और उपयोग में निरंतर वृद्धि हो रही है। 1960 के बाद इनका उपयोग कई गुना बढ़ गया है। क्योंकि

तालिका : विश्व में ऊर्जा का उपयोग और सुरक्षित भंडार

(दस लाख टन तेल समतुल्य)

क्षेत्र

1967

1970

1975

1980

1985

1989

वार्षिक वृद्धि 1965-80

दर%

1980-89

खनिज तेल

विश्व

1537

2255

2709

3002

2797

3081

4.8

0.6

विकासशील देश

247

4500

554

719

751

872

7.7

2.2

विकसित देश

1095

1568

1750

1801

1589

1733

3.7

0.1

विश्व सुरक्षित भंडार

48016

83150

89581

88199

95219

135819

कोयला

विश्व

1367

1495

1553

1794

2094

2321

1.9

3.2

विकासशील देश

338

425

528

658

853

989

5.1

5.1

विकसित देश

680

693

617

711

870

858

2.0

विश्व सुरक्षित भंडार

328000

540000

517000

68000

935000

प्राकृतिक गैस

विश्व

572

848

10127

1253

1471

1681

5.0

3.8

विकासशील देश

49

80

119

173

251

323

8.9

8.1

विकसित देश

404

612

668

759

740

800

3.9

0.8

विश्व सुरक्षित भंडार

26556

40459

56938

67193

88877

107346

पनबिजली

विश्व

236

316

458

616

855

985

6.8

5.6

विकासशील देश

31

53

83

132

180

217

10.2

5.9

विकसित देश

181

227

331

413

567

641

5.2

लकड़ी एवं बायोगैस

विश्व

224

263

286

326

372

399

1.8

2.2

विकासशील देश

198

228

253

281

315

343

2.2

2.3

विकसित देश

22

15

13

29

36

36

0.1

2.2

विश्व के सभी देश आर्थिक दौड़ में शामिल हो गये हैं। इस दौड़ के कारण ऊर्जा स्रोतों, विशेषकर कोयला और तेल, पर जैसा डाका डाला जा रहा है। पश्चिमी एशिया को विकसित देश अपने-अपने ढंग से वश में रखना चाहते हैं। पेट्रोल और कोयला आधारित तकनीकों की  प्रधानता के कारण इनकों किसी कीमत पर प्राप्त करने की जैसे होड़ लग गयी है। इन छीना- झपटी के कारण पेट्रोल उत्पादन वाले देश उसकी कीमत तेजी से बढ़ाते जा रहे हैं।

तीव्र आर्थिक विकास और उच्च जीवन स्तर के लिए अधिक ऊर्जा का उपयोग आज की अनिवार्यता है। अतः ऊर्जा स्रोतों के उत्पादन और उपयोग में संतुलन आवश्यक है। बढ़ती मांग के कारण य दि एक देश घरेलू उत्पादन से इसे पूरा करने में असमर्थ है तो आयात करना अनिवार्य होता है। यदि निर्यातक देश देने से इंकार करे या अधिक मूल्य मांगे तो स्थिति संकटमय हो जाती है। अनुमान है कि अगले बीस या पच्चीस वर्षों में ऊर्जा की खपत आज से दुगुनी हो जायेगी जबकि तेल और कोयले के संचित भंडार समाप्ति के निकट हो जायेंगे। 1960 के बाद विश्वव्यापी स्तर पर जिस तीव्र गति से ऊर्जा का उपयोग बढ़ा उसी से संकट की अवस्था शुरू हो गयी। इसके पूर्व अधिक ऊर्जा का उपयोग विकसित देश कर रहे थे लेकिन विश्व के अन्य देशों में भी विकास की गति तेज होने से ऊर्जा की खपत बढ़ गयी है। फलतः विश्वव्यापी मांग में कई गुनी वृद्धि से मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़ने लगा। 1974 में पेट्रोल निर्यातक देशों (OPEC) ने पेट्रोल की कीमत में छः गुनी वृद्धि कर दी (दो डालर प्रति बैरल के स्थान पर बारह डालर प्रति बैरल) 1980 में यह पुनः बढ़कर तीस डालर और 1981 में चौतीस डालर हो गयी। इससे विश्व के सभी देश संकट की स्थिति महसूस करने लगे क्योंकि सभी स्रोतों की तुलना में पेट्रोल बहुत उपयोगी है और कुछ उपयोगों में इसकी कोई स्थानापत्र सामग्री नहीं है। दहनशीलता, ढोने की सुविधा, विविध उपयोग और भंण्डारण की सुविधा के कारण पेट्रोल पर निर्भरता बढ़ती जा रही है जबकि इसकी कीमत में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। इस आर्थिक संकट का सबसे अधिक कुप्रभाव विकासशील देशों पर हो रहा है क्योंकि ये अपनी कीमती  विदेशी मुद्रा को पेट्रोल के आयात पर खर्च कर रहे हैं।

ऊर्जा संकट के अनेक पहलू हैं जैसे सीमित ऊर्जा स्रोतों का अधिक दोहन, सतत् ऊर्जा स्रोतों की उपेक्षा, परमाणु ऊर्जा से विकिरण का खतरा, गैर पारम्परिक स्रोतों का कम विकास, लकड़ी के अधिक उपयोग से वन विनाश और कोयला तथा तेल के अधिक उपयोग से वन विनाश और कोयला तथा तेल के अधिक उपयोग से बढ़ता प्रदूषण। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि विश्व का तकनीकी विकास अधिकांशतः कोयला, तेल, गैस और विद्युत पर आधारित है। फलतः सीमित भंडार वाले स्रोतों पर दिनोंदिन बढ़ता दबाव संकट का मुख्य कारण है। इस संकट से निपटने के लिए अनेक देश इनके संरक्षण और परिरक्षण के मार्ग अपना रहे हैं। अनेक विकसित देश अपने भण्डार को सुरक्षित कर आयात पर निर्भर रहने लगे हैं। जापान इसमें अग्रणी देश है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देश भी इस नीति के तहत संतुलित संसाध्य उपभोग और संरक्षण की नीति अपना रहे हैं।

ऊर्जा संकट को बढ़ाने में सतत् स्रोतों तथा पनबिजली हवा, सौर, ऊज, ज्वार शक्ति बायोगैस, भूताप से बिजली पैदा करने की तकनीक संकट को कम कर सकती है। पन-बिजली का यदि समुचित विकास किया जाय तो ऊर्जा संकट को कम किया जा सकता है। बायोगैस उत्पादन की तकनीक को प्रचारित किया जा रहा है। भारत गोबर गैस और कूड़े से बायोगैस के उत्पादन में तेजी से अग्रसरित है। ग्रामीण क्षेत्रों में इससे राहत मिलने की संभावना है।

भारत में ऊर्जा संकट की स्थिति-

जैसा कि पहले बताया जा चुका है भारत अपने आर्थिक विकास को त्वरित करने के लिए अधिक पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों का दोहन कर रहा है। अभी कोयला, तेल, परमाणु खनिज और गैस के भंडारों का पुर्णतः ज्ञान नहीं है। स्रोतों के ज्ञात भंडारों के आधार पर कहा जा सकता है कि अगली सदी में किसी प्रकार काम चलाया जा सकता है। भारत में ऊर्जा स्रोत और उनकी खपत का स्वरूप तालिका के अवलोकन से स्पष्ट है।–

तालिका से यह स्पष्ट है कि भारत में अधिकांश व्यापारिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग उद्योग और यातायात में होता है। यह भी स्पष्ट है कि घरेलू खपत न्यूनतम है। कृषि में ऊर्जा की खपत बढ़ रही है लेकिन संपूर्ण जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में बहुत कम है। भारत एक कृषि प्रधान एवं ग्राम प्रधान देश है जहां गांवों के कृषि जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए ऊर्जा की उपलब्धता अनिवार्य है। अब भी 40 प्रतिशत गाँव विद्युत

तालिका : भारत में व्यापारिक ऊर्जा का उपयोग (प्रतिशत में)

 

1960-61

 

1979-80

1984-85

 

1984-85

तेल

विद्युत

कोयला

घरेलू

20.6

15.7

18.2

29

11

3

कृषि

3.6

9.4

9.8

10

16

0

उद्योग

39.2

38.2

36.4

5

62

78

यातायात

33.8

32.8

31.4

56

2

13

अन्य

2.8

3.9

4.2

9

6

ऊर्जा से वंचित हैं। जिन साठ प्रतिशीत ग्रामों में विद्युत ऊर्जा का प्रसार किया गया है वहाँ आपूर्ति अनिश्चित है। इस अनिश्चितता का कुप्रभाव कृषि कार्यों पर पड़ता है। ग्रामों में घरेलू खपत के लिए लकड़ी, गोबर, फसलों के अवशिष्ट आदि प्रमुख ऊर्जा स्रोत है जिनका उपयोग अब रोका जाना चाहिए। विविध कार्यों के लिए लकड़ी के उपयोग से वन विनाश होता जा रहा है और ईंधन के रूप में गोबर के उपयोग से खाद की समस्या बढ़ती जा रही है। भारत के 5 लाख 76 हजार गांवों में बसी 75 प्रतिशत जनसंख्या प्रकाश के लिए अब भी किरोसिन तेल और अन्य प्रकार के वनस्पति तेलों पर निर्भर है क्योंकि अब भी आधे गांव विद्युत प्रकाश से वंचित है। जहाँ विद्युत प्रकाश का प्रबंध किया गया है वहाँ भी बिजली की आपूर्ति अनियमित है। अधिक अन्न उत्पादन के लिए सिंचाई आवश्यक है लेकिन न तो पर्याप्त बिजली उपलब्ध है और न डीजल। फलतः उन्नत बीज, खाद और उपयुक्त कृषि विधि का लाभ न मिलनपे के कारण कृषि उत्पादन कम हो रहा है जिससे लागत खर्च बढ़ता जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार यदि गंगा के उर्वर मैदान में सिंचाई का समुचित

तालिका: भारत में ऊर्जा प्राप्ति के स्रोत (प्रतिशत)

ऊर्जा स्रोत

ग्रामीण

नगरीय

बिजली

1.6

5.9

पेट्रोलियम

16.9

30.2

कोयला

2.3

13.7

लकड़ी

68.5

45.5

गोबर

8.3

3.2

अन्य

2.4

1.5

योग

100

100

प्रबंध हो जाय तो सारे भारत के लिए अन्न पैदा किया जा सकता है लेकिन ऊर्जा के अभाव में भूमिगत और नदी जल का दोहन कठिन कार्य बन गया है। भारत के जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा हो सकी है वे हरित क्रांति के प्रतीक हैं, जैसे-पंजाब, हरियाणा गुजरात आदि।

कृषि के अतिरिक्त उद्योग और परिहवन ऊर्जा के अभाव में गति नहीं पकड़ रहे हैं। ऊर्जा की बढ़ती मांग को भी सही रूप में आंका नहीं जा सका है। फलतः नये स्रोतों जैसे जल विद्युत, अणु शक्ति, खनिज तेल के विकास के बावजूद स्थिति दयनीय बनी हुई है। उद्योगों में ऊर्जा कटौती का कुप्रभाव औद्योगिक उत्पादन पर पड़ रहा है। 1985 तक सभी स्रोतों से केवल 98156 मा. वा. विद्युत उत्पादित करने की क्षमता विकसित हो सकी थी। जिसमें 35 प्रतिशत जल विद्युत 61 प्रतिशत ताप विद्युत और केवल 8 प्रतिशत अणु विद्युत का योगदान था। भारत में 35 प्रतिशत जल विद्युत उत्पादन यह इंगित करता है कि हमारे कर्णधारों ने इस स्रोत की सबसे अधिक उपेक्षा की है जो भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण सतत् साधन है। वास्तविक यह है कि कुछ बड़ी जल विद्युत योजनाओं को ही महत्व दिया गया जबकि छोटी योजनाओं पर अधिक बल देने की आवश्यकता थी। कोयले पर आधारित विद्युत गृह रचना के दृष्टिकोण से सरल और कम समय में पूरे होते हैं, फलतः ताप विद्युत का विकास अधिक हुआ है।

ऊर्जा संरक्षण

ऊर्जा संकट ने ऊर्जा संरक्षण के लिए उत्प्रेरित किया है अन्यथा इस ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में ऊर्जा संरक्षण के दो उपाय अपनाये जा रहे हैं। (क) पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों का अनुकूलतम प्रयोग तथा (ख) वैकल्पिक स्रोतों का अधिकाधिक विकास और उपयोग। पहले बताया जा चुका है कि कोयला और तेल का भंडार अगली सदी के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें केवल प्राकृतिक गैस किसी प्रकार शताब्दी को पार लगा सकती है लेकिन यदि उस पर दबाव बढ़ गया, जैसा कि उसके बढ़ते प्रयोग से लगता है, तो वह भी पूरी शताब्दी के लिए पर्याप्त नहीं होगी। यही कारण है कि विकसित राष्ट्र अपने पारंपरिक स्रोतों का संरक्षण कर रहे हैं और विकासशील देशों से आयात कर अपना काम चला रहे हैं। स्पष्ट है कि विकसित राष्ट्रों में ऐसे स्रोतों का अनुकूलतम उपयोग शुरू हो गया है। साथ ही ऐसी प्राविधिक का विकास किया जा रहा है जिससे कम से कम ऊर्जा की खपत हो सके। इसी के साथ ही इनके द्वारा उत्पन्न प्रदूषण को भी नियंत्रित करने का प्रयास शुरू हो गया है। ऊर्जा संरक्षण का दूसरा पहलू अर्थात् वैकल्पिक स्रोतों का विकास, भी गति पकड़ रहा है। हाल के वर्षों में सौर ऊर्जा, पन बिजली, बायो गैस और वायु ऊर्जा के उपयोग की तकनीकों का विकास तेजी से करने का प्रयास चल रहा है। यदि सौर बैटरी का व्यावसायिक उत्पादन शुरू हुआ तो क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है। विश्व अब स्वच्छ ऊर्जा स्रोत (Clean Energy) ढूढने में व्यस्त है क्योंकि पारंपरिक ऊर्जा के उपयोग से प्रदूषण की भयावह स्थिति उत्पन्न हुई है। अतः प्रदूषण रहित ऊर्जा आज की सामयिक आवश्यकता है। इस संदर्भ में स्टोफर फ्लाविन (Bulding a bridge to sustainable Energy, State of the World) के विचार विशेष उल्लेखनीय हैं। इनका मानना है कि ऊर्जा झटका (Fuel Shocks) अविवेकपूर्ण ऊर्जा उपयोग का प्रतिफल है। सभी देश अब तक एक ही दिशा में बिना सोचे समझे दौड़ते रहे हैं जबकि उनके यहां ऊर्जा विकल्प का विकास संभव था। अब ऊर्जा संकट की बाध्यता के कारण स्वच्छ ऊर्जा क्रांति (Clean Energy Revolution) की शुरूआत एक शुभ संदेश है। यह शुरूआत विकसित राष्ट्रों ने की है जो सबसे अधिक इसकी चपेट में है। आशा की जाती है कि अगले दशक के अंत तक पारंपरिक ऊर्जा पर दबाव घट कर आधा हो जायेगा। साथ ही प्राकृतिक गैस के बढ़ते भंडार और उपयोग की प्राविधिकी के विकास के फलस्वरूप पारंपरिक स्रोतों से (तेल और कोयला) राहत मिल सकती है। उम्मीद है कि अगले दस साल में मोटर गाड़ियों के लिए इसका उपयोग सामान्य हो जायेगा। कल-कारखाने भी गैस का उपयोग प्रचुर मात्रा में करने लगेंगे। इससे पेट्रोल की तुलना में प्रदूषण भी कम होता है।

पनबिजली का विकास कई गुना बढ़ाया जा सकता है लेकिन धनाभाव और तकनीकी  असुविधा के कारण विश्व के एक वृहद् भाग में सम्भाव्य क्षमता का बहुत कम भाग उपयोग में आ गया है। अब इधर ध्यान दिया जा रहा है लेकिन इसके साथ ही अनेकानेक समस्याएं जुड़ी हुई हैं। भारत में अनेक बहुउद्देशीय योजनाएं विवादों से घिर गयीं हैं।

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Pankaja Singh

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